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NCERT Class 12 Biology Chapter 6 विकास
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विकास
Chapter: 6
अभ्यास
1. डार्विन के चयन सिद्धांत के परिप्रेक्ष्य में जीवाणुओं में देखी गई प्रतिजैविक प्रतिरोध का स्पष्टीकरण करें।
उत्तर: प्रतिजैविक रोगजनक जीवाणुओं के विरुद्ध अत्यंत प्रभावी सिद्ध होते हैं, किंतु किसी नवीन प्रतिजैविक के विकास के कुछ ही वर्षों (प्रायः 2-3 वर्ष) पश्चात् जीवाणुओं की ऐसी प्रतिरोधी जातियाँ उभरने लगती हैं, जो उस प्रतिजैविक पर प्रभाव नहीं डालने देतीं। कभी-कभी जीवाणु समुदाय में कुछ जीवाणु उत्परिवर्तन के कारण ऐसे जीन प्राप्त कर लेते हैं, जो उन्हें प्रतिजैविकों के प्रति प्रतिरोधी बना देते हैं। ऐसे प्रतिरोधी जीवाणु तीव्र गति से वृद्धि एवं गुणन करने में सक्षम होते हैं और शीघ्र ही उनकी प्रतिरोधक विशेषताएँ अन्य जीवाणुओं में भी स्थानांतरित हो जाती हैं। परिणामस्वरूप, सम्पूर्ण जीवाणु समष्टि प्रतिजैविक के प्रति प्रतिरोधी बन जाती है। विशेष रूप से अस्पतालों जैसे स्थानों में, जहाँ प्रतिजैविकों का अत्यधिक एवं बार-बार उपयोग होता है, वहाँ प्रतिरोधी जीवाणुओं के पनपने की संभावना अधिक होती है।
2. समाचार पत्रों और लोकप्रिय वैज्ञानिक लेखों से विकास संबंधी नए जीवाश्मों और मतभेदों की जानकारी प्राप्त करें।
उत्तर: जीवाश्म वे अवशेष या चिन्ह होते हैं जो प्राचीन जीवधारियों के शरीर या उनकी गतिविधियों के रूप में चट्टानों में संरक्षित पाए जाते हैं। इनका अध्ययन जीवाश्म विज्ञान कहलाता है। इस विज्ञान के अंतर्गत लाखों-करोड़ों वर्ष पूर्व पृथ्वी पर विद्यमान जीवधारियों के अवशेषों का विश्लेषण किया जाता है। जीवाश्म वैज्ञानिकों के शोध से यह जानकारी प्राप्त होती है कि पृथ्वी के विभिन्न कालों में कौन-से प्रकार के जीवधारी उपस्थित थे।
चट्टानों और पृथ्वी की परतों में दबे जीवाश्मों को वैज्ञानिक विधियों से खोदकर निकाला जाता है। इन अवशेषों और चिन्हों के आधार पर उन जीवधारियों की संरचना, जीवन शैली और विकास का अनुमान लगाया जाता है। चट्टानों की आयु का निर्धारण कर के जीवाश्मों की अनुमानित आयु भी ज्ञात की जाती है। इसलिए वैज्ञानिकों के अनुसार, जीवाश्म जैव विकास के सशक्त प्रमाण हैं।
जीवाश्मों के कुछ प्रमुख उदाहरणों में आर्किओप्टेरिक्स और डायनोसोर शामिल हैं। डायनोसोर विशालकाय सरीसृप थे, जिनका मीसोजोइक युग में पृथ्वी पर प्रभुत्व था। इस युग को सरीसृपों का ‘स्वर्ण युग’ कहा जाता है। विभिन्न काल की चट्टानों से विभिन्न प्रकार के जीवाश्म प्राप्त हुए हैं, जो यह संकेत देते हैं कि वे जीव उस समय की चट्टानों के निर्माण के दौरान उनमें दब गए थे और अब विलुप्त हो चुके हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि पृथ्वी पर जीवन निरंतर परिवर्तित होता रहा है।
मानव विकास के संदर्भ में, इथियोपिया और तंज़ानिया जैसे क्षेत्रों से मानव-सदृश अस्थियों के जीवाश्म प्राप्त हुए हैं। इनसे मानव पूर्वजों के बारे में महत्वपूर्ण जानकारियाँ मिली हैं, जो मानव विकास के इतिहास को समझने में सहायक रही हैं।
3. ‘प्रजाति’ की स्पष्ट परिभाषा देने का प्रयास करें।
उत्तर: एक प्रजाति (एकल और अनेक दोनों) व्यष्टियों या व्यष्टियों के समूहों की एक प्राकृतिक जीवसंख्या है जो सभी प्रमुख आकृति विज्ञान और जनन संबंधी विशेषताओं में समान हैं, जिससे उन्हें स्वतंत्र रूप से जनन करने और जनन क्षम संतति पैदा करने की अनुमति मिलती है।
4. मानव-विकास के विभिन्न घटकों का पता करें (संकेत मस्तिष्क साइज और कार्य, कंकाल संरचना, भोजन में पसंदगी आदि)।
उत्तर: लगभग 16 मिलियन वर्ष पूर्व ड्रायोपिथिकस और रामापिथिकस जैसे नरवानर पाए जाते थे। ड्रायोपिथिकस एप (वनमानुष) जैसा था, जबकि रामापिथिकस में मानव जैसी विशेषताएँ थीं। इनके शरीर पर बाल थे और ये गोरिल्ला व चिम्पैंज़ी जैसे चलते थे।
इथियोपिया और तंज़ानिया से मिले जीवाश्म बताते हैं कि लगभग 3-4 मिलियन वर्ष पूर्व मानव जैसे प्राणी पूर्वी अफ्रीका में रहते थे। ये लगभग 4 फुट लंबे और सीधे खड़े होकर चलने वाले थे।
करीब 2 मिलियन वर्ष पूर्व ऑस्ट्रालोपिथेसिन नामक आदि मानव अफ्रीका के घास के मैदानों में पाया गया। इसके बाद होमो हैबिलिस का विकास हुआ, जिसे प्रथम मानव जैसा प्राणी माना जाता है। फिर होमो इरेक्टस आया, जिसके जीवाश्म 1.5 मिलियन वर्ष पुराने हैं; इसमें जावा मानव और पेकिंग मानव शामिल हैं।
प्लीस्टोसीन युग के अंत में होमो सेपियन्स (वर्तमान मानव) विकसित हुआ, जिसमें नियंडरथल और क्रोमैगनॉन मानव जैसे उपप्रकार शामिल हैं।
(i) द्विपाद चलनः मानव पिछली टाँगों की सहायता से चलता है। अग्रपाद (भुजाएँ) अन्य कार्यों के उपयोग में आती हैं। पश्चपाद लम्बे और मजबूत होते हैं।
(ii) सीधी मुद्राः इसके लिए निम्नलिखित परिवर्तन हुए हैं:
(a) टाँगें लम्बी होती हैं। धड़ छोटा और वक्ष चौड़ा होता है।
(b) कशेरुक दण्ड (Vertebral column) में लम्बर कशेरुकाओं की संख्या 4-5 होती है। त्रिक कशेरुकाएँ (sacral vertebrae) समेकित होती हैं।
(c) शेरुक दण्ड में कटि आधान (lumbar curvature) होता है।
(d) श्रोणि मेखला चिलमचीनुमा होती है।
(e) खोपड़ी कशेरुक दण्ड पर सीधी-सथी होती है महारन्ध्र नीचे की ओर होता है।
(iii) चेहरा: मानव का चेहरा उभर कर सीधा रहता है। इसे ऑथेग्निधस कहते हैं। मानव में भौंह के उभार हल्के होते हैं।
(iv) दाँतः सर्वाहारी होने के कारण अविशिष्टीकृत होते हैं। इनकी संख्या 32 होती है। मानव पहले शाकाहारी था, बाद में सर्वाहारी हो गया।
(v) वस्तुओं को पकड़ने की क्षमताः मानव के हाथ वस्तुओं को पकड़ने के लिए रूपांतरित हो गए हैं। अँगूठाः सम्मुख हो जाने के कारण वस्तुओं को पकड़ने व उठाने की क्षमता का विकास हुआ।
(vi) मस्तिष्क व कपाल क्षमता: प्रमस्तिष्क तथा अनुमस्तिष्क सुविकसित होता है। कपाल क्षमता लगभग 1450 cc होती है। शरीर के भार वे मस्तिष्क के भार का अनुपात सबसे अधिक होता है। मस्तिष्क के विकास होने के कारण मानव का बौद्धिक विकास चरम सीमा पर पहुँच गया है। इसमें अक्षरबद्ध वाणी, भावनाओं की अभिव्यक्ति, चिन्तन, नियोजन एवं तर्क संगतता की पूर्ण क्षमता होती है।
(vii) द्विनेत्री दृष्टि: द्विपादगमन के फलस्वरूप इसमें द्विनेत्री तथा त्रिविमदर्शी दृष्टि पायी जाती है।
(viii) जनन क्षमता में कमी, शरीर पर बालों की कमी, घ्राण शक्ति में कमी, श्रवण शक्ति में कमी आदि अन्य विकासीय लक्षण हैं।
5. इंटरनेट (अंतरजाल तंत्र) या लोकप्रिय विज्ञान लेखों से पता करें कि क्या मानवेत्तर किसी प्राणी में आत्म संचेतना थी।
उत्तर: प्रकृति उन प्राणियों का चयन करती है जो पर्यावरण के अनुसार सर्वाधिक उपयुक्त होते हैं। यह उपयुक्तता प्राणी की वंशानुगत विशेषताओं पर आधारित होती है। इसलिए चयन और विकास के लिए आनुवंशिक आधार का होना आवश्यक है। वे प्राणी जो प्रतिकूल परिस्थितियों में भी जीवित रह पाते हैं, वे अधिक अनुकूलित माने जाते हैं। यह अनुकूलन क्षमता भी वंशानुगत होती है। अनुकूलन में आत्म-संचेतना (self-consciousness) की भूमिका महत्त्वपूर्ण मानी जाती है, जो कई प्राणियों में पाई जाती है। अनुकूलनशीलता और प्राकृतिक चयन मिलकर उपयुक्तता को निर्धारित करते हैं। जीववैज्ञानिकों के अनुसार, अनेक प्रजातियों में मानवेत्तर आत्म-संचेतना देखी गई है, जो उनके अनुकूलन में सहायक हो सकती है।
6. इंटरनेट (अंतरजाल तंत्र) संसाधनों के उपयोग करते हुए आज के 10 जानवरों और उनके विलुप्त जोड़ीदारों की सूची बनाएँ (दोनों के नाम दें)।
उत्तर:
आधुनिक प्राणी | जोड़ीदार विलुप्त प्राणी |
(i) घोड़ा | इओहिप्पस |
(ii) कुत्ता | लेप्टोसियन |
(iii) ऊँट | प्रोटिलोपस |
(iv) होमो सैपिएस | क्रोमैगनोन मानव |
(v) कंगारू | प्रोटोथीरिया स्तनी |
(vi) मछली | अरंडास्पिस |
(vii) टेट्रापोड्स | इचथियोस्टेगा |
(viii) जिराफ़ | पैलियोट्रैगस |
(ix) चमगादड़ | आर्कियोनीक्टेरिस |
(x) व्हेल | प्रोटोसेटस |
7. विविध जंतुओं और पौधों के चित्र बनाएँ।
उत्तर:
8. अनुकूलनी विकिरण को एक उदाहरण का वर्णन करें।
उत्तर: अनुकूलनी विकिरण (Adaptive Radiation) एक ऐसा जैव विकासात्मक प्रक्रम है, जिसमें किसी विशेष भू-भौगोलिक क्षेत्र में किसी एक पूर्वज प्रजाति से अनेक नई प्रजातियाँ विकसित होती हैं, जो विभिन्न आवासों और जीवनशैलियों के अनुरूप ढल जाती हैं। यह प्रक्रिया एक निश्चित बिंदु से आरंभ होकर विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में फैल जाती है। डार्विन के फिंच पक्षी इसका उत्कृष्ट उदाहरण हैं, जिन्होंने गैलापैगोस द्वीप समूह में विभिन्न प्रकार की चोंच विकसित कर अलग-अलग आहार स्रोतों के अनुसार अनुकूलन किया। इसी प्रकार, ऑस्ट्रेलियाई महाद्वीप में पाए जाने वाले मार्सुपियल (शिशुधानी प्राणी) भी एक ही पूर्वज प्रजाति से विविध रूपों में विकसित हुए, और विभिन्न आवासों में अपने-अपने ढंग से ढल गए। जब अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्रों में, विभिन्न आवासों में रहने वाले जीव समान पर्यावरणीय दबावों के कारण एक जैसे अनुकूलन विकसित करते हैं, तो इस प्रक्रिया को अभिसारी विकास (Convergent Evolution) कहा जाता है।
9. क्या हम मानव विकास को अनुकूलनी विकिरण कह सकते हैं?
उत्तर: नहीं, मानव विकास को अनुकूलनी विकिरण नहीं कह सकते क्योंकि होमो सेपियन्स की जनक जातियाँ प्रगामी विकास द्वारा एच हेबिलस, एच इरेक्टस (वंशज) से विकसित हुई।
10. विभिन्न संसाधनों जैसे कि विद्यालय का पुस्तकालय या इंटरनेट (अंतरजाल तंत्र) तथा अध्यापक से चर्चा के बाद किसी जानवर जैसे कि घोड़े के विकासीय चरणों को खोजें।
उत्तर: घोड़े का उद्भव लगभग 60 करोड़ वर्ष पूर्व, इओसीन युग में पूर्वी उत्तरी अमेरिका में हुआ था। इसके विकास की विभिन्न अवस्थाएँ निम्नलिखित हैं:
(i) इओहिप्पस: इसका प्रादुर्भाव इओसीन युग में हुआ। यह घोड़ा आकार में लोमड़ी जैसा था तथा इसकी ऊँचाई लगभग 30 सेमी थी। इसका सिर और गर्दन छोटे थे। यह पत्तियाँ एवं घास आदि खाता था। इसके अग्रपादों में चार क्रियाशील अंगुलियाँ थीं जबकि पिछली टांगों में तीन अंगुलियाँ थीं।
(ii) मीसोहिप्पस: यह ओलिगोसीन युग का घोड़ा था। इसका आकार भेड़ के समान था और इसके आगे व पीछे दोनों पांवों में तीन-तीन अंगुलियाँ थीं। इन अंगुलियों में मध्य की अंगुली अधिक विकसित थी, जो शरीर का अधिक भार उठाती थी।
(iii) मेरीचिप्पस: यह मायोसिन युग का प्रतिनिधि था। यह आधुनिक टट्टू जितना ऊँचा था और इसकी टांगों में तीन अंगुलियाँ थीं, जिनमें केवल मध्य की अंगुली ही जमीन को छूती थी। यह तेज दौड़ने में सक्षम था।
(iv) प्लायोहिप्पस: यह प्लायोसिन युग का घोड़ा था, जिसकी टांगों में केवल एक ही अंगुली होती थी।
(v) इक्कस: यह प्लेस्टोसिन युग का घोड़ा है, जिसकी ऊँचाई लगभग 1.5 मीटर थी। यही वर्तमान घरेलू घोड़े का पूर्वज माना जाता है।

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