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NIOS Class 12 Political Science Chapter 25 मानवाधिकार
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मानवाधिकार
Chapter: 25
| मॉड्यूल – 5 प्रमुख समकालीन मुद्दे |
पाठगत प्रश्न 25.1
1. सही उत्तर के सामने (√) का निशान लगाइए-
(क) मानवाधिकार मानव अस्तित्व में अवस्थित है। (सत्य/असत्य)
उत्तर: सत्य।
(ख) शास्त्रीय अधिकारों के अंतर्गत नागरिक और राजनीतिक अधिकार आते हैं। (सत्य/असत्य)
उत्तर: सत्य।
(ग) मानवाधिकारों का संरक्षण और संरक्षाण देश को सीमा के अंदर ही होना चाहिए। (सत्य/असत्य)
उत्तर: असत्य।
2. रिक्त स्थान भरिए-
(क) मानवाधिकार ________________ है। (सार्वभौमिक/स्थानीय)
उत्तर: मानवाधिकार सार्वभौमिक है।
(ख) मानवाधिकार आवश्यक रूप से _________________ हैं। (स्थिर, गतिशील, सीमित)
उत्तर: मानवाधिकार आवश्यक रूप से गतिशील हैं।
(ग) मानवाधिकारों के अंतर्गत मानवता के _________________ सिद्धांत शामिल है। (प्राचीन, मध्यकालीन, मौलिक)
उत्तर: मानवाधिकारों के अंतर्गत मानवता के मौलिक सिद्धांत शामिल है।
पाठगत प्रश्न 25.2
1. सही उत्तर पर (√) का निशान लगाएँ-
(क) मानवाधिकार के सार्वभौम घोषणापत्र को वर्ष 1946 में अपनाया गया। (सत्य/असत्य)
उत्तर: असत्य।
(ख) द्वितीय विश्वयुद्ध की नृशंसता ने आधुनिक मानवाधिकारों के युग को प्रारम्भ किया। (सत्य/असत्य)
उत्तर: सत्य।
(ग) मानवाधिकार भी मौलिक अधिकारों की तरह लागू करने योग्य है। (सत्य/असत्य)
उत्तर: असत्य।
2. रिक्त स्थान भरिए-
(क) मानवाधिकार अब _________________ हो गए हैं। (स्थानीय, सार्वभौम, राष्ट्रीय)
उत्तर: मानवाधिकार अब सार्वभौम हो गए हैं।
(ख) विश्व के नेता _________________ में मानवाधिकार विश्व सम्मेलन के लिए इकट्ठे हुए। (विएना, जेनेवा, न्यूयॉर्क)
उत्तर: विश्व के नेता विएना में मानवाधिकार विश्व सम्मेलन के लिए इकट्ठे हुए।
(ग) 18वीं-19वीं सदी के अधिकार _________________ के रूप में जाने जाते थे। (वैयक्तिक, सामाजिक, पारंपरिक)
उत्तर: 18वीं-19वीं सदी के अधिकार वैयक्तिक के रूप में जाने जाते थे।
पाठात प्रश्न
1. मानवाधिकारों का वर्गीकरण किस प्रकार किया जा सकता है?
उत्तर: मानवाधिकारों का वर्गीकरण निम्न प्रकार से किया जा सकता है—
(i) संस्थापित (शास्त्रीय) अधिकार: इनमें नागरिक और राजनीतिक अधिकार सम्मिलित होते हैं, जिनका उद्देश्य राज्य की शक्तियों को सीमित कर व्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करना है।
(ii) मौलिक और मूल अधिकार: ये वे अधिकार हैं जिन्हें राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सर्वोच्च प्राथमिकता दी जानी चाहिए। इनमें व्यक्तिगत गरिमा और भौतिक आवश्यकताओं से जुड़े अधिकार शामिल हैं।
(iii) सामूहिक और व्यक्तिगत अधिकार: अधिकांश मानवाधिकार व्यक्ति से जुड़े होते हैं, परंतु कुछ अधिकार ऐसे हैं जिनका उपयोग केवल समूह द्वारा किया जा सकता है, जब उस अधिकार के प्रयोग के लिए समूह का सदस्य होना आवश्यक हो।
(iv) प्रथम, द्वितीय और तृतीय पीढ़ी के अधिकार: यह वर्गीकरण मानवाधिकारों के ऐतिहासिक विकास पर आधारित है—
(क) प्रथम पीढ़ी: नागरिक एवं राजनीतिक अधिकार।
(ख) द्वितीय पीढ़ी: सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक अधिकार।
(ग) तृतीय पीढ़ी: एकात्मता से जुड़े अधिकार— शांति, विकास, खाद्य सुरक्षा और स्वच्छ पर्यावरण का अधिकार।
2. मानवाधिकारों की छह मूल विशेषताएं कौन-सी हैं?
उत्तर: मानवाधिकारों की छह मूल विशेषताएँ है—
(i) मानव होने के नाते अधिकार प्राप्त होना: प्रत्येक व्यक्ति को सिर्फ मानव होने के कारण गरिमापूर्ण जीवन का अधिकार मिलता है। जाति, रंग, धर्म, लिंग आदि के आधार पर किसी को इन अधिकारों से वंचित नहीं किया जा सकता।
(ii) मानवाधिकार सार्वभौमिक होना: ये अधिकार सभी देशों, सभी जातियों, सभी धर्मों और सभी लोगों पर समान रूप से लागू होते हैं। विश्व के विकसित और विकासशील दोनों प्रकार के देशों को इन अधिकारों को सुनिश्चित करना चाहिए।
(iii) सभी मनुष्यों के लिए समानता का सिद्धांत: मानवाधिकार यह मानते हैं कि सभी लोग गरिमा और अधिकारों में समान और स्वतंत्र पैदा हुए हैं। इसलिए सभी को समान अवसर, समान व्यवहार और अपनी संस्कृति, परंपरा व विचारों का सम्मान करने का अधिकार है।
(iv) मानवाधिकार मूलतः वैयक्तिक होते हैं: ये अधिकार व्यक्ति और राज्य के संबंधों से जुड़े होते हैं। सरकार का दायित्व है कि हर व्यक्ति को इन अधिकारों का स्वतंत्र रूप से उपयोग करने की परिस्थितियाँ प्रदान करे।
(v) मानवता के मौलिक सिद्धांतों का समावेश: मानवाधिकार मनुष्य की गरिमा और व्यक्तित्व के विकास के लिए मूलभूत हैं। जैसे–जीवन का अधिकार, दासता से मुक्ति, उत्पीड़न से स्वतंत्रता आदि।
(vi) मानवाधिकारों का संरक्षण केवल राष्ट्रीय स्तर तक सीमित नहीं: ये अधिकार वैश्विक आदर्शों को स्थापित करते हैं। सभी देशों का कर्तव्य है कि वे ऐसी परिस्थितियाँ बनाएँ जिनसे मानवाधिकारों के संरक्षण, प्रोत्साहन और सम्मान का वातावरण पूरे विश्व में सुनिश्चित हो सके।
3. भारतीय संविधान में मानवाधिकारों के महत्व पर चर्चा करें।
उत्तर: भारतीय संविधान मानवाधिकारों को अत्यंत महत्वपूर्ण मानता है और उनका व्यापक संरक्षण करता है। संविधान के भाग III में मौलिक अधिकारों की गारंटी दी गई है, जिनमें समानता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, शोषण के विरुद्ध संरक्षण, धार्मिक स्वतंत्रता, सांस्कृतिक एवं शैक्षिक अधिकार तथा सांवैधानिक उपचारों का अधिकार शामिल हैं। विशेष रूप से अनुच्छेद 32 नागरिकों को यह शक्ति देता है कि वे अपने मौलिक अधिकारों के हनन पर सीधे सर्वोच्च न्यायालय में जा सकें, जिससे इसे “संविधान का हृदय” कहा गया है। उच्च न्यायालयों को भी अनुच्छेद 226 के तहत यह अधिकार प्राप्त है।
संविधान के भाग IV में राज्य के नीति-निदेशक तत्वों के माध्यम से मानवाधिकारों के सामाजिक तथा आर्थिक आयामों को सुनिश्चित करने की व्यवस्था की गई है। इनमें सामाजिक न्याय, काम का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, सामाजिक सुरक्षा, न्यायोचित काम की परिस्थितियाँ, कमजोर वर्गों के उत्थान, पोषण स्तर में वृद्धि, जन-स्वास्थ्य और पर्यावरण संरक्षण जैसे मानवीय लक्ष्यों को शामिल किया गया है। इसके साथ ही अनुच्छेद 51A में नागरिकों के मौलिक कर्तव्यों को भी जोड़ा गया है, जो मानवाधिकारों के संरक्षण और समाज में नैतिक मूल्यों को मजबूत बनाने में सहायक हैं।
उच्चतम न्यायालय ने विशेष रूप से अनुच्छेद 21 की व्यापक व्याख्या करते हुए मानवाधिकार संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। मानवीय गरिमा, स्वच्छ पर्यावरण, सामाजिक सुरक्षा और बाल संरक्षण जैसे अधिकारों को न्यायालय ने जीवन के अधिकार का हिस्सा माना है, और उल्लंघन होने पर मुआवज़ा देने के निर्देश भी दिए हैं।
1948 के मानवाधिकारों के सार्वभौमिक घोषणा-पत्र का प्रभाव भी भारतीय संविधान के भाग III और IV में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। इस प्रकार, भारतीय संविधान न केवल मानवाधिकारों को मान्यता देता है, बल्कि उनके संरक्षण, संवर्धन और प्रभावी क्रियान्वयन के लिए मजबूत संवैधानिक व न्यायिक ढांचा भी प्रदान करता है।
4. टिप्पणी लिखिए:
(क) मानवाधिकारों का सार्वभौमीकरण।
उत्तर: मानवाधिकारों का सार्वभौमीकरण एक दीर्घ ऐतिहासिक प्रक्रिया का परिणाम है, जिसकी शुरुआत प्राचीन यूरोपीय चार्टरों, जैसे 1215 का मैग्नाकार्टा, 1689 का ब्रिटिश अधिकार बिल, तथा 1776 के अमरीकी स्वतंत्रता घोषणा पत्र जैसे दस्तावेज़ों से होती है। इन दस्तावेज़ों ने व्यक्ति की स्वतंत्रता और समानता को मान्यता दी और मानवाधिकारों की सार्वभौमिक अवधारणा के बीज बोए।
द्वितीय विश्व युद्ध के अत्याचारों ने पूरी दुनिया को झकझोर दिया और यह विचार समाप्त हो गया कि राज्य अपने नागरिकों से जैसा चाहे वैसा व्यवहार कर सकता है। युद्ध के बाद यह समझ विकसित हुई कि मानवाधिकारों की सुरक्षा अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की सामूहिक चिंता है। इसके परिणामस्वरूप संयुक्त राष्ट्र की स्थापना के साथ ही मानवाधिकारों के संरक्षण का वैश्विक ढांचा तैयार हुआ। संयुक्त राष्ट्र चार्टर में बिना किसी जाति, धर्म, भाषा या लिंग के भेदभाव के मानवाधिकारों को बढ़ावा देना सदस्य देशों का उद्देश्य घोषित किया गया।
1946 में मानवाधिकार आयोग गठित हुआ और दो वर्षों में उसने सार्वभौमिक मानवाधिकार घोषणा पत्र (1948) तैयार किया, जो मानवाधिकारों के सार्वभौमीकरण का ऐतिहासिक आधार बन गया।
इसके बाद 1966 की दो अंतर्राष्ट्रीय प्रसंविदाएँ—
(i) नागरिक एवं राजनीतिक अधिकारों की अंतर्राष्ट्रीय संधि (ICCPR)।
(ii) आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों की अंतर्राष्ट्रीय संधि (ICESCR)।
तथा इनके वैकल्पिक प्रोटोकॉल मिलकर अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार विधेयक (International Bill of Human Rights) का निर्माण हुआ। इन अंतर्राष्ट्रीय दस्तावेज़ों ने मानवाधिकारों को राष्ट्रीय सीमाओं से ऊपर उठाकर वैश्विक मानकों का रूप दिया। अब मानवाधिकारों की रक्षा केवल किसी एक देश का नहीं बल्कि पूरे अंतर्राष्ट्रीय समुदाय का साझा दायित्व बन गई है। इसके साथ आधुनिक युग में “सभी मानवाधिकार सबके लिए” और “पूरा विश्व एक परिवार है” जैसी अवधारणाएँ व्यापक स्वीकृति पा रही हैं। यह सार्वभौमीकरण मानव गरिमा, समानता और न्याय के प्रति वैश्विक नैतिक प्रगति को दर्शाता है।
(ख) भारत में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की भूमिका।
उत्तर: भारत में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) की स्थापना 1993 के मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम के तहत मानवाधिकारों की रक्षा और उनके संवर्धन के लिए की गई। अधिनियम की धारा 2(1)(d) के अनुसार जीवन, स्वतंत्रता और मानव गरिमा से जुड़े वे सभी अधिकार, जिन्हें संविधान या अंतर्राष्ट्रीय प्रसविदाएँ संरक्षण देती हैं, मानवाधिकार कहलाते हैं। आयोग की भूमिका बहुआयामी है और यह शासन तथा न्यायपालिका के बीच एक महत्वपूर्ण सेतु की तरह कार्य करता है।
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग सर्वोच्च न्यायालय की पूरक संस्था के रूप में कार्य करते हुए विभिन्न परिस्थितियों तथा सरकारी संस्थाओं के कार्यकलापों पर निगरानी रखता है। आयोग का मुख्य उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि राज्य अपने सभी नागरिकों के जीवन, स्वतंत्रता और गरिमा के अधिकार की रक्षा करे। आयोग न केवल मानवाधिकार उल्लंघन की शिकायतों की जांच करता है बल्कि मानवाधिकार संस्कृति को बढ़ावा देना, जागरूकता फैलाना तथा सुशासन की दिशा में सरकार को प्रेरित करना भी इसकी प्रमुख भूमिकाएँ हैं। आयोग किसी भी मानवाधिकार उल्लंघन की जाँच कर सकता है और यदि किसी लोक सेवक के विरुद्ध दोष सिद्ध होता है, तो राज्य सरकार को उसके विरुद्ध कार्रवाई या अभियोजन की अनुशंसा कर सकता है। यह पीड़ितों को अंतरिम राहत की सिफारिश भी कर सकता है तथा आवश्यकता पड़ने पर उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय से दिशा-निर्देश भी प्राप्त कर सकता है।
सशस्त्र बलों से जुड़े मामलों में आयोग केंद्र सरकार से रिपोर्ट प्राप्त कर अपने सुझाव देता है। आयोग ने अनंतनाग (2000), डाल्टनगंज (1996) और जहानाबाद (1999) जैसी कई घटनाओं का संज्ञान लेकर निष्पक्ष जांच और राहत सुनिश्चित करने की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। हालाँकि आयोग की सिफारिशें न्यायालय की तरह बाध्यकारी नहीं होतीं, फिर भी उनका सामाजिक और राजनीतिक प्रभाव अत्यंत महत्वपूर्ण होता है।
(ग) मानवाधिकारों के संरक्षण और संबचेत में गैर-सरकारी संस्थाओं की भूमिका।
उत्तर: मानवाधिकारों के ग्लोबल स्वरूप ने विश्व समुदाय को एक “वैश्विक गांव” में बदल दिया है, जहाँ किसी भी देश के नागरिकों के मानवाधिकार अब केवल उसका आंतरिक मामला नहीं रह गए। इस वैश्विक मान्यता को मजबूत बनाने में गैर-सरकारी संस्थाओं (NGOs) की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही है। ये संस्थाएँ मानवाधिकारों के संरक्षण, उल्लंघन की रोकथाम और पीड़ितों को न्याय दिलाने में उल्लेखनीय योगदान देती हैं।
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कार्यरत एमनेस्टी इंटरनेशनल, ह्यूमन राइट्स वॉच, तथा भारत की पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (PUCL) जैसी NGOs ने युगोस्लाविया, रंवांडा, पूर्वी तिमोर, सूडान, सिएरा लियोन और भारत के गुजरात जैसे क्षेत्रों में मानवाधिकार उल्लंघनों को उजागर किया और पीड़ितों के पक्ष में महत्वपूर्ण हस्तक्षेप किए। इनके कार्यों के कारण मानवाधिकार मुद्दे अंतर्राष्ट्रीय सरोकार बन गए।
संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा 1946 में स्थापित मानवाधिकार आयोग इन NGOs के कार्यों का समन्वय करता है। इन संगठनों के दबाव और रिपोर्टों के कारण अब विभिन्न देशों को मानवाधिकार समिति, बाल समिति, महिला समिति और भेदभाव-निवारण समिति जैसी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के सामने अपनी रिपोर्टें प्रस्तुत करनी पड़ती हैं। यह परिवर्तन मानवाधिकार अवधारणा की वैश्विक शक्ति का प्रतीक है।
गैर-सरकारी संस्थाओं की सक्रियता ने भारत सहित विश्व में मानवाधिकार आंदोलन को मज़बूत बनाया है। वे जागरूकता फैलाने, मानवाधिकार उल्लंघनों की जांच करने, पीड़ितों को सहायता देने और सरकारों को उत्तरदायी बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

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