NCERT Class 12 Sociology Chapter 5 औद्योगिक समाज में परिवर्तन और विकास

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NCERT Class 12 Sociology Chapter 5 औद्योगिक समाज में परिवर्तन और विकास

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Chapter: 5

भारत में सामाजिक परिवर्तन एवं विकास
प्रश्नावली

1. अपने आस-पास वाले किसी भी व्यवसाय को चुनिए और इसका वर्णन निम्नलिखित पंक्तियों में कीजिए- 

(क) कार्य शक्ति का सामाजिक संघटन- जाति, जेंडर, आयु, क्षेत्र;

(ख) मज़दूर प्रक्रिया-काम किस तरह किया जाता है;

(ग) वेतन एवं अन्य सुविधाएँ; 

(घ) कार्यावस्था- सुरक्षा, आराम का समय, कार्य के घंटे इत्यादि।

उत्तर: यहाँ एक स्थानीय चाय की दुकान (टी स्टॉल) को उदाहरण के रूप में लेकर उत्तर प्रस्तुत किया गया है:

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(क) कार्य शक्ति का सामाजिक संघटन: इस चाय की दुकान में कुल तीन लोग काम करते हैं। दुकान का मालिक एक मध्य आयु वर्ग का पुरुष है। उसके साथ एक युवक (लगभग 20 वर्ष का) और एक किशोर (लगभग 15 वर्ष का) भी काम करता है। सभी कर्मचारी पुरुष हैं और स्थानीय क्षेत्र (गाँव/कस्बे) से ही आते हैं। जातिगत रूप से ये लोग निम्नवर्गीय समुदाय से संबंधित हैं।

(ख) मज़दूर प्रक्रिया: काम को आपस में बाँटा गया है। मालिक मुख्य रूप से ग्राहकों से पैसे लेने और चाय बनाने का कार्य करता है। युवक ग्राहकों को चाय परोसता है और बर्तन साफ करता है, जबकि किशोर पानी भरने, मेज साफ करने और छोटे-मोटे काम करता है। सभी काम मैन्युअली किए जाते हैं, मशीनों का प्रयोग नहीं होता।

(ग) वेतन एवं अन्य सुविधाएँ: युवक को प्रतिदिन ₹200 मिलते हैं, जबकि किशोर को ₹100-150। मालिक उन्हें कभी-कभी मुफ्त में भोजन भी दे देता है। कोई लिखित अनुबंध या मासिक वेतन की व्यवस्था नहीं है। किसी प्रकार की स्वास्थ्य या बीमा सुविधा उपलब्ध नहीं है।

(घ) कार्यावस्था: दुकान सुबह 6 बजे से रात 9 बजे तक खुली रहती है। कर्मचारियों को दोपहर में एक घंटे का आराम दिया जाता है, लेकिन काम के समय अक्सर यह छुट्टी नियमित नहीं होती। कार्य स्थल पर सुरक्षा के साधन नहीं हैं। गर्म चाय या उबलते पानी से जलने का खतरा हमेशा बना रहता है।

अथवा

2. ईंट बनाने के, बीड़ी रोल करने के, सॉफ़्टवेयर इंजीनियर या खदान के काम जो बॉक्स में वर्णित किए गए हैं, के कामगारों के सामाजिक संघटन का वर्णन कीजिए। कार्यावस्थाएँ कैसी हैं और उपलब्ध सुविधाएँ कैसी हैं? मधु जैसी लड़कियाँ अपने काम के बारे में क्या सोचती हैं?

उत्तर: ईंट बनाने का कार्य: ईंट भट्ठों में काम करने वाले मजदूर मुख्यतः गाँव‑कस्बों के निम्न और सीमांत किसान परिवारों से आते हैं; सामाजिक रूप से इनमें अनुसूचित जाति/जनजाति के लोग, कभी‑कभी ओबीसी वर्ग के व्यक्ति भी शामिल होते हैं। अधिकांश कामगार पुरुष होते हैं, पर किशोर लड़के और लड़कियाँ भी परिवार की आर्थिक मदद के लिए हाथ बंटाती हैं। काम पूरी तरह मैन्युअल होता है मिट्टी गूँथना, ईंटें आकार देना और भट्ठी में ईंट बिछाकर आग जलाए रखना जिससे धूल, अत्यधिक गर्मी और शारीरिक थकान होती है। सुरक्षा उपकरण न के बराबर मिलते हैं; आराम के लिए औपचारिक रूप से तो डेढ़ से दो घंटे का समय होता है, लेकिन उत्पाद‑धान्यता के दबाव में अक्सर वह भी कम हो जाता है। कोई स्वास्थ्य बीमा, चिकित्सालय या भोजनालय जैसी सुविधाएँ नहीं होती। मधु जैसी लड़कियाँ जो इस काम में लगी होती हैं, कहती हैं कि यह बहुत कष्टकारी है स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है पर घर का खर्च चलाने के लिए उनके पास दूसरा विकल्प नहीं रहता।

बीड़ी रोल करने का कार्य: बीड़ी रोलिंग मुख्यतः घरेलू उद्योग के रूप में संचालित होती है। इनमें काम करने वाले अधिकतर ग्रामीण महिलाएँ विशेषकर अनुसूचित जाति/जनजाति और पिछड़े समुदाय की किशोरियाँ और युवा महिलाएँ वहाँ काम करती हैं जहाँ परिवार में पुरुष की आय कम हो। हाथों से तंबाकू की पत्तियों को रोल करना, गाँठें लगाना और क्लिपिंग करना एकदम बारीक़ तथा दोहरावपूर्ण प्रक्रिया है। इससे उंगलियों और कलाई में दर्द रहता है, तंबाकू की धूल सांसों में जाती है, और आँखों में जलन होती है। मजदूरी उत्पादकता पर आधारित होती है प्रति सैकड़ा बीड़ी के हिसाब से जिससे वेतन बहुत कम (₹50–₹150 प्रतिदिन) होता है। सुविधाएँ लगभग नहीं ना कोई श्रमिक सुरक्षा, न औपचारिक छुट्टी, न स्वास्थ्य जांच। मधु जैसी लड़कियाँ बताती हैं कि घर के काम के साथ बीड़ी रोल करना लचीला होता है, लेकिन तमाम बीमारियाँ होने का डर और सामाजिक तिरस्कार दोनों होते हैं।

सॉफ़्टवेयर इंजीनियरिंग का कार्य: सॉफ्टवेयर हाउस और आईटी कंपनियों में कार्यरत लोग आम तौर पर शहरी, उच्च माध्यमिक से स्नातक तक शिक्षित, मध्यम से उच्च‑मध्यम वर्गीय पृष्ठभूमि के होते हैं। लिंग अनुपात में अभी भी पुरुषों की संख्या अधिक है, पर माहौल बदल रहा है और लड़कियाँ भी बढ़कर शामिल हो रही हैं। काम क्लाइंट की ज़रूरतों के मुताबिक कोड लिखना, टेस्टिंग और मीटिंग्स में शामिल होना होता है; कार्यालय वातानुकूलित, आरामदायक कुर्सी‑मेज, तेज़ इंटरनेट, कैन्टीन और स्वास्थ्य बीमा जैसी सुविधाएँ मिलती हैं, साथ ही फ्लेक्सी‑टाइम और वर्क‑फ्रॉम‑होम के विकल्प भी। काम के घंटे प्रोजेक्ट डेडलाइन के हिसाब से लम्बे हो सकते हैं, और ओवरटाइम अक्सर चाहिए होता है। मधु जैसी लड़कियाँ इस क्षेत्र में आत्मविश्वास से भरी रहती हैं, कैरियर ग्रोथ देखकर प्रेरित होती हैं, लेकिन कभी‑कभार लैंगिक पूर्वाग्रह या कार्य‑जीवन संतुलन की चुनौतियों पर भी विचार करती हैं।

खदानों में कार्य: खनन उद्योग में अधिकांश कामगार आदिवासी, अनुसूचित जाति/जनजाति के पुरुष होते हैं, कभी‑कभार किशोर लड़के भी, जो भूमिगत या ओपन‑कास्ट खदानों में शारीरिक रूप से कठोर खनिज हटाने, ब्लास्टिंग और भारी मशीनरी ऑपरेट करने का काम करते हैं। इनमें सुरक्षा हेलमेट, रेस्पिरेटर और रोशनी के साधन कम और प्रायः पुराने होते हैं; धूल, धमाचौकड़ी और चट्टानों के गिरने का ख़तरा बना रहता है। आराम केवल शिफ्ट के बीच आधे घंटे-एक घंटा मिलता है, कैन्टीन‑जैसी सुविधा अस्थायी कैंपों में है, पर स्वास्थ्य‑चिकित्सा सेवाएँ सीमित होती हैं। माहौल ख़तरनाक व अस्थिर रहता है। बहुत कम संख्या में महिलाएँ जिनमें मधु जैसी लड़कियाँ भी शामिल यहाँ काम करती हैं; वे कहती हैं कि आर्थिक आवश्यकता ने यहाँ लाया है, काम में बहुत जोखिम है पर परिवार की भलाई के लिए इसे अपना पथ मान लिया है।

3. उदारीकरण ने रोजगार के प्रतिमानों को किस प्रकार प्रभावित किया है?

उत्तर: (i) सुरक्षित अर्थात् सरकारी क्षेत्र में नौकरियों व रोजगार में कमी: सुरक्षित अर्थात् सरकारी क्षेत्र में नौकरियों व रोजगार में कमी आना तथा असुरक्षित रोजगार का बढ़ना  सन् 1990 के दशक से सरकार ने उदारीकरण की नीति को अपनाया है। निजी कंपनियाँ, विदेशी फर्मों को उन क्षेत्रों में निवेश करने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है जिन्हें पहले ये सरकार के लिए, जैसे दूरसंचार, नागरिक उड्डयन एवं ऊर्जा आदि के लिए आरक्षित थे। उद्योगों को खोलने के लिए अनुज्ञप्ति (लाइसेंस) वांछित नहीं है। अब भारतीय दुकानों पर विदेशी वस्तुएँ आसानी से उपलब्ध हो जाती हैं। उदारीकरण के परिणामस्वरूप बहुत सी भारतीय कंपनियों-छोटी एवं बड़ी को बहुदेशीय कंपनियों ने खरीद लिया है। साथ ही साथ कुछ भारतीय कंपनियाँ बहुदेशीय कंपनियाँ- छोटी एवं बड़ी बन गई हैं।

(ii) विदेशी वस्तुओं के आयात से घरेलू रोजगार में कमी: उदारीकरण के बाद विदेशी उत्पाद इलेक्ट्रॉनिक्स, कपड़े, खाद्य एवं पेय पदार्थ भारतीय बाजारों में सस्ते दामों पर आसानी से उपलब्ध होने लगे। इससे घरेलू निर्माता कंपनियाँ प्रतिस्पर्धा बर्दाश्त न कर पाने के कारण उत्पादन घटाने पर मजबूर हुईं या बंद हो गईं, जिससे इन उद्योगों में रोजगार का अवसर कम हो गया और कई श्रमिकों को अपनी नौकरी छोड़नी पड़ी।

(iii) भारतीय कंपनियों का बहुराष्ट्रीय फर्मों द्वारा अधिग्रहण: उदारीकरण के अंतर्गत दर्जनों भारतीय कंपनियों को बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने खरीद लिया। उदाहरणतः पारंपरिक भारतीय पेय निर्माता पार्ले पेय को कोका-कोला ने अधिग्रहित किया, जिससे कई स्थानीय ब्रांड और उनके उत्पादन केंद्र बंद हो गए। परिणामस्वरूप उन कंपनियों में काम करने वाले लाखों श्रमिकों की संख्या घट गई।

(iv) स्वरोजगार अवसरों का सृजन: उदारीकरण ने लाइसेंस-राज समाप्त कर दिया, जिससे नए उद्योग-उद्यम स्थापित करना सरल हुआ। इसका सकारात्मक पक्ष यह रहा कि छोटे उद्यमियों, स्टार्ट‑अप्स और स्वरोजगार से जुड़े लोगों को तेजी से व्यवसाय शुरू करने का अवसर मिला  जैसे थोक-वितरण, सेवाक्षेत्र (आईटी, पर्यटन) और कुटीर उद्योगों में।

(v) छोटे दुकानदारों व व्यापारियों का प्रतिकूल प्रभाव: बड़ी राष्ट्रीय व बहुराष्ट्रीय रिटेल चेनों के मॉल और सुपरमार्केट खुले तो उपभोक्ताओं को सुविधा मिली, पर छोटे मोहल्ले‐किराने की दुकानों, हस्तशिल्प विक्रेताओं व हॉकर्स का कारोबार प्रभावित हुआ। स्थानीय व्यापारियों की बिक्री घटने से इन परस्पर जुड़ी कई पारिवारिक इकाइयाँ बंद होने का संकट झेल रही हैं।

(vi) आउटसोर्सिंग एवं कर्मचारियों की कटौती: बड़ी कंपनियाँ और सरकारी उपक्रम भी अब स्थायी कर्मचारियों की संख्या घटाकर कार्य बाह्य स्रोतों (आउटसोर्सिंग) को सौंप रहे हैं। इससे कम्पनीयों का व्यय तो घटता है, पर कामगारों के पास स्थायित्व, बीमा, पेंशन जैसे सामाजिक सुरक्षा लाभ नहीं बचते। परिणामतः देश में “असुरक्षित रोजगार” तेजी से बढ़ रहा है।

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