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NCERT Class 12 Political Science Chapter 11 भारत के विदेश संबंध
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भारत के विदेश संबंध
Chapter: 11
स्वतंत्र भारत में राजनीति |
1. इन बयानों के आगे सही या गलत का निशान लगाएँ:
(क) गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाने के कारण भारत, सोवियत संघ और संयुक्त राज्य अमरीका, दोनों की सहायता हासिल कर सका।
उत्तर: सही।
(ख) अपने पड़ोसी देशों के साथ भारत के संबंध शुरुआत से ही तनावपूर्ण रहे।
उत्तर: गलत।
(ग) शीतयुद्ध का असर भारत-पाक संबंधों पर भी पड़ा।
उत्तर: सही।
(घ) 1971 की शांति और मैत्री की संधि संयुक्त राज्य अमरीका से भारत की निकटता का परिणाम थी।
उत्तर: गलत।
2. निम्नलिखित का सही जोड़ा मिलाएँ:
(क) 1950-64 के दौरान भारत की विदेश नीति का लक्ष्य | (i) तिब्बत के धार्मिक नेता जो सीमा पार करके भारत चले आए। |
(ख) पंचशील | (ii) क्षेत्रीय अखंडता और संप्रुभता की रक्षा तथा आर्थिक विकास। |
(ग) बांडुंग सम्मेलन | (iii) शांतिपूर्ण सह–अस्तित्व के पांच सिद्धांत। |
(घ) दलाई लामा | (iv) इसकी परिणत गुटनिरपेक्ष आंदोलन में हुई। |
उत्तर:
(क) 1950-64 के दौरान भारत की विदेश नीति का लक्ष्य | (ii) क्षेत्रीय अखंडता और संप्रुभता की रक्षा तथा आर्थिक विकास। |
(ख) पंचशील | (iii) शांतिपूर्ण सह–अस्तित्व के पांच सिद्धांत। |
(ग) बांडुंग सम्मेलन | (iv) इसकी परिणत गुटनिरपेक्ष आंदोलन में हुई। |
(घ) दलाई लामा | (i) तिब्बत के धार्मिक नेता जो सीमा पार करके भारत चले आए। |
3. नेहरू विदेश नीति के संचालन को स्वतंत्रता का एक अनिवार्य संकेतक क्यों मानते थे? अपने उत्तर में दो कारण बताएँ और उनके पक्ष में उदाहरण भी दें।
उत्तर: नेहरू विदेश नीति के संचालन को स्वतंत्रता का एक अनिवार्य संकेतक इसलिए मानते थे क्योंकि यह देश की संप्रभुता और राष्ट्रीय हितों की रक्षा करता है और अंतरराष्ट्रीय मंच पर अपनी पहचान बनाता है।
दो मुख्य कारण है—
(i) भारत को किसी भी सैन्य गुट से दूर रखकर उसने यह दिखाया कि भारत स्वतंत्र निर्णय लेने में सक्षम है।
उदाहरण: गुटनिरपेक्ष आंदोलन में सक्रिय भागीदारी।
(ii) भारत की विदेश नीति का उद्देश्य वैश्विक शांति और सहयोग को बढ़ावा देना था, न कि किसी शक्ति की राजनीति में उलझना।
उदाहरण: बांडुंग सम्मेलन में भारत की भागीदारी।
4. “विदेश नीति का निर्धारण घरेलू जरूरत और अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों के दोहरे दबाव में होता है।” 1960 के दशक में भारत द्वारा अपनाई गई विदेश नीति से एक उदाहरण देते हुए अपने उत्तर की पुष्टि करें।
उत्तर: जिस प्रकार किसी व्यक्ति या परिवार के व्यवहार को आंतरिक और बाहरी परिस्थितियाँ प्रभावित करती हैं, उसी प्रकार किसी देश की विदेश नीति भी घरेलू जरूरतों और अंतर्राष्ट्रीय वातावरण से निर्देशित होती है। विकासशील देशों के पास अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपने हितों की पूर्ति के लिए आवश्यक संसाधन सीमित होते हैं, जिसके कारण उन्हें वैश्विक व्यवस्था में अपने स्थान और प्रभाव को कायम रखने के लिए अतिरिक्त प्रयास करने पड़ते हैं। इसके चलते वे बढे-चढे देशों की अपेक्षा बड़े सीधे-सादे लक्ष्यों को लेकर अपनी विदेश नीति तय करते हैं। ऐसे देशों का जोर इस बात पर होता है कि उनके पड़ोस में शांति और विकास होता रहे।
1962 में चीन के साथ युद्ध के बाद भारत ने अपने रक्षा बजट को कई गुना बढ़ा दिया और सैन्य आधुनिकीकरण की दिशा में कदम बढ़ाया। यह फैसला अंतर्राष्ट्रीय दबाव (युद्ध) और घरेलू ज़रूरत (राष्ट्रीय सुरक्षा) के मिश्रण से लिया गया था।
उदाहरणार्थ-तत्कालीन समय में भारत की आर्थिक स्थिति अत्यधिक दयनीय थी, इसलिए उसने शीतयुद्ध के काल में किसी भी गुट का समर्थन नहीं किया और दोनों ही गुटों से आर्थिक सहायता प्राप्त करता रहा।
5. अगर आपको भारत की विदेश नीति के बारे में फैसला लेने को कहा जाए तो आप इसकी किन दो बातों को बदलना चाहेंगे। ठीक इसी तरह यह भी बताएँ कि भारत की विदेश नीति के किन दो पहलुओं को आप बरकरार रखना चाहेंगे। अपने उत्तर के समर्थन में तर्क दीजिए।
उत्तर: यदि मुझे भारत की विदेश नीति के बारे में फैसला लेने को कहा जाए तो में इसकी इन दो बातों को बदलना चाहूंगा—
(i) वर्तमान वैश्वीकरण और उदारीकरण के युग को देखते हुए, मैं भारत की गुटनिरपेक्षता की नीति में पुनरावलोकन की आवश्यकता महसूस करता हूँ, क्योंकि आज की अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में पूर्णतः किसी गुट से अलग रहना हमेशा देशहित में नहीं होता। बदलते वैश्विक परिदृश्य में, रणनीतिक साझेदारियों की भूमिका अधिक महत्वपूर्ण हो गई है।
(ii) भारत की विदेश नीति में चीन एवं पाकिस्तान के साथ जिस प्रकार की नीति अपनाई जा रही है उसमें बदलाव लाना चाहूँगा, क्योंकि इसके वांछित परिणाम नहीं मिल पा रहे हैं।
यदि मुझे भारत की विदेश नीति के इन दो पहलुओं को में बरकरार रखना चाहूँगा—
(i) गुटनिरपेक्षता की रणनीतिक स्वायत्तता भारत को किसी भी शक्ति गुट में शामिल हुए बिना स्वतंत्र निर्णय लेने की क्षमता बनाए रखनी चाहिए।
(ii) बहुपक्षवाद और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग वैश्विक चुनौतियों का सामना करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों और सहयोग पर जोर जारी रखना चाहिए।
6. निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए:
(क) भारत की परमाणु नीति।
उत्तर: भारत शांतिपूर्ण उद्देश्यों में इस्तेमाल के लिए अणु ऊर्जा बनाना चाहता था। नेहरू परमाणु हथियारों के खिलाफ़ थे। उन्होंने महाशक्तियों पर व्यापक परमाणु निशस्त्रीकरण के लिए जोर दिया। बहरहाल, परमाणु आयुधों में बढ़ोत्तरी होती रही। साम्यवादी शासन वाले चीन ने 1964 के अक्तूबर में परमाणु परीक्षण किया। अणुशक्ति-संपन्न बिरादरी यानी संयुक्त राज्य अमरीका, सोवियत संघ, ब्रिटेन, फ्रांस और चीन ने, जो संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्य भी थे, दुनिया के अन्य देशों पर 1968 की परमाणु अप्रसार संधि को थोपना चाहा। भारत हमेशा से इस संधि को भेदभावपूर्ण मानता आया था। भारत ने इस पर दस्तखत करने से इनकार कर दिया था। भारत ने जब अपना पहला परमाणु परीक्षण किया तो इसे उसने शातिपूर्ण परीक्षण करार दिया। जिस वक्त परमाणु परीक्षण किया गया था वह दौर घरेलू राजनीति के लिहाज से बड़ा कठिन था। 1973 में अरब-इजरायल युद्ध हुआ था। भारत में मुद्रास्फीति बहुत ज्यादा बढ़ गई। जैसा कि आप छठे अध्याय में पढ़ेंगे, इस वक्त देश में कई आंदोलन चल रहे थे और उसी समय देशव्यापी रेल-हड़ताल भी हुई थी।
(ख) विदेश नीति के मामलों पर सर्व सहमति।
उत्तर: भारत की विदेश नीति के महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं जैसे गुटनिरपेक्षता, साम्राज्यवाद एवं उपनिवेशवाद का विरोध, दूसरे देशों में मित्रतापूर्ण सम्बन्ध बनाना तथा अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा को बढ़ावा देना इत्यादि पर सदैव सर्व-सहमति रही है। इस कारण, हम देखते है की 1962-1972 के बीच जब भारत के तीन युद्धों का सामना किया और इसके बाद समय जब समय – समय पर कई पार्टियों ने सरकार बनाई, विदेश निति की भूमिका पार्टी राजनीती में बड़ी सिमित रही।
7. भारत की विदेश नीति का निर्माण शांति और सहयोग के सिद्धांतों को आधार मानकर हुआ। लेकिन, 1962-1971 की अवधि यानी महज दस सालों में भारत को तीन युद्धों का सामना करना पड़ा। क्या आपको लगता है कि यह भारत की विदेश नीति की असफलता है अथवा, आप इसे अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों का परिणाम मानेंगे? अपने मंतव्य के पक्ष में तर्क दीजिए।
उत्तर: चीन के साथ भारत के इस दोस्ताना रिश्ते में दो कारणों से खटास आई। चीन ने 1950 में तिब्बत पर कब्जा कर लिया। इससे भारत और चीन के बीच ऐतिहासिक रूप से जो एक मध्यवर्ती राज्य बना चला आ रहा था, वह खत्म हो गया। शुरू-शुरू में भारत सरकार ने चीन के इस कदम का खुले तौर पर विरोध नहीं किया। बहरहाल, तिब्बत को संस्कृति को कुचलने की खबरें जैसे-जैसे सामने आने लगी, वैसे-वैसे भारत की बेचैनी भी बढ़ी। तिब्बत के धार्मिक नेता दलाई लामा ने भारत से राजनीतिक शरण माँगी और 1959 में भारत ने उन्हें शरण दे दी। चीन ने आरोप लगाया कि भारत सरकार अंदरूनी तौर पर चीन विरोधी गतिविधियों को हवा दे रही है।
1971 में बांग्लादेश के मामले पर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने एक सफल कूटनीतिज्ञ के रूप में बांग्लादेश का समर्थन किया और एक शत्रु देश की कमर स्थायी रूप से तोड़कर यह सिद्ध किया की युद्ध में सब जायज है। हम भाई हैं पाकिस्तान के, ऐसे आदर्शवादी नारों का व्यवहारिकता में कोई स्थान नहीं है।
8. क्या भारत की विदेश नीति से यह झलकता है कि भारत क्षेत्रीय स्तर की महाशक्ति बनना चाहता है? 1971 के बांग्लादेश युद्ध के संदर्भ में इस प्रश्न पर विचार करें।
उत्तर: हाँ, भारत की विदेश नीति से यह झलकता है कि वह क्षेत्रीय स्तर की महाशक्ति बनना चाहता है। पाकिस्तानी सेना ने 1971 में शेख मुजीब को गिरफ्तार कर लिया और पूर्वी पाकिस्तान के लोगों पर जुल्म ढाने शुरू किए। जवाब में पूर्वी पाकिस्तान की जनता ने अपने इलाके यानी मौजूदा बांग्लादेश को पाकिस्तान से मुक्त कराने के लिए संघर्ष छेड़ दिया। 1971 में पूरे साल भारत को 80 लाख शरणार्थियों का बोझ वहन करना पड़ा। ये शरणार्थी पूर्वी पाकिस्तान से भागकर भारत के नजदीकी इलाकों में शरण लिए हुए थे। भारत ने बांग्लादेश के ‘मुक्ति संग्राम’ को नैतिक समर्थन और भौतिक सहायता दी।
9. किसी राष्ट्र का राजनीतिक नेतृत्व किस तरह उस राष्ट्र की विदेश नीति पर असर डालता है? भारत की विदेश नीति के उदाहरण देते हुए इस प्रश्न पर विचार कीजिए।
उत्तर: किसी राष्ट्र की विदेश नीति उसके राजनीतिक नेतृत्व की सोच, दृष्टिकोण और प्राथमिकताओं से गहराई से प्रभावित होती है। नेता ही यह तय करते हैं कि देश किन मूल्यों, हितों और रणनीतियों के आधार पर अंतर्राष्ट्रीय मंच पर अपनी भूमिका निभाएगा। उनके निर्णय ही यह निर्धारित करते हैं कि किस देश से कैसे संबंध रखने हैं और किन वैश्विक मुद्दों पर क्या रुख अपनाना है।
भारत की विदेश नीति पर इसके महान् नेताओं के व्यक्तित्व का व्यापक प्रभाव पड़ा।
पण्डित नेहरू के विचारों से भारत की विदेश नीति पर्याप्त प्रभावित हुई। पण्डित नेहरू साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद व फासिस्टवाद के घोर विरोधी थे और वे समस्याओं का समाधान करने के लिए शान्तिपूर्ण मार्ग के समर्थक थे। बांडुंग सम्मेलन और गुटनिरपेक्ष आंदोलन में उनकी भूमिका इस नीति का प्रमाण है। पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने अपने विचारों द्वारा भारत की विदेश नीति के ढाँचे को ढाला।
इसी प्रकार श्रीमती इंद्रा गांधी ने 1971 के बांग्लादेश युद्ध के समय सशक्त और निर्णायक विदेश नीति अपनाई। उन्होंने सोवियत संघ के साथ शांति और मैत्री संधि पर हस्ताक्षर किए और मानवीय संकट के सम निर्णय लिया। राजीव गांधी और अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व व व्यक्तित्व की भी भारत की विदेश नीति पर स्पष्ट छाप दिखाई देती है। श्रीमती इंद्रा गांधी के नेतृत्व में भारत ने सामाजिक और आर्थिक क्षेत्रों में बड़े निर्णय लिए, जैसे—बैंकों का राष्ट्रीयकरण और ‘गरीबी हटाओ’ का नारा। विदेश नीति के क्षेत्र में उन्होंने रूस के साथ दीर्घकालिक अनाक्रमण संधि कर भारत की वैश्विक स्थिति को सुदृढ़ किया। राजीव गांधी के कार्यकाल में भारत ने चीन और पाकिस्तान सहित कई देशों के साथ संबंध सुधारने के प्रयास किए। साथ ही, श्रीलंका में विद्रोह को दबाने में वहाँ की सरकार की सहायता कर यह संदेश दिया कि भारत अपने पड़ोसी छोटे देशों की क्षेत्रीय अखंडता और संप्रभुता का सम्मान करता है।
10. निम्नलिखित अवतरण को पढ़ें और इसके आधार पर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए:
गुटनिरपेक्षता का व्यापक अर्थ है अपने को किसी भी सैन्य गुट में शामिल नहीं करना… इसका अर्थ होता है चीजों को यथासंभव सैन्य दृष्टिकोण से न देखना और इसकी कभी जरूरत आन पड़े तब भी किसी सैन्य गुट के नजरिए को अपनाने की जगह स्वतंत्र रूप से स्थिति पर विचार करना तथा सभी देशों के साथ दोस्ताना रिश्ते कायम करना….
जवाहरलाल नेहरू
(क) नेहरू सैन्य गुटों से दूरी क्यों बनाना चाहते थे?
उत्तर: नेहरू सैन्य गुटों से दूरी इसलिए बनाना चाहते थे क्योंकि वे किसी भी सैन्य गुट में शामिल न होकर एक स्वतन्त्र विदेश नीति का संचालन करना चाहते थे।
(ख) क्या आप मानते हैं कि भारत सोवियत मैत्री की संधि से गुटनिरपेक्षता के सिद्धांतों का उल्लंघन हुआ? अपने उत्तर के समर्थन में तर्क दीजिए।
उत्तर: नहीं में मानती हूँ कि भारत सोवियत मैत्री की संधि से गुटनिरपेक्षता के सिद्धांतों का उल्लंघन नहीं हुआ क्योंकि इस सन्धि के पश्चात् भी भारत गुटनिरपेक्षता के मौलिक सिद्धान्तों पर कायम रहा तथा जब सोवियत संघ की सेनाएँ अफगानिस्तान में पहुँची तो भारत ने इसकी आलोचना की।
(ग) अगर सैन्य-गुट न होते तो क्या गुटनिरपेक्षता की नीति बेमानी होती?
उत्तर: यदि विश्व में सैन्य गुट नहीं होते तो भी गुटनिरपेक्षता की प्रासंगिकता बनी रहती क्योंकि गुटनिरपेक्ष आंदोलन की स्थापना शांति और विकास जैसे मूलभूत उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए की गई थी, और शांति व विकास के लिए चलाया गया कोई भी आंदोलन समय या परिस्थिति के अनुसार कभी अप्रासंगिक नहीं हो सकता।

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