NCERT Class 12 Sociology Chapter 11 सामाजिक संस्थाएँ: निरंतरता एवं परिवर्तन Solutions Hindi Medium to each chapter is provided in the list so that you can easily browse through different chapters NCERT Class 12 Sociology Chapter 11 सामाजिक संस्थाएँ: निरंतरता एवं परिवर्तन and select need one. NCERT Class 12 Sociology Chapter 11 सामाजिक संस्थाएँ: निरंतरता एवं परिवर्तन Question Answers Download PDF. NCERT Class 12 Sociology Bhartiya Samaj Texbook Solutions in Hindi.
NCERT Class 12 Sociology Chapter 11 सामाजिक संस्थाएँ: निरंतरता एवं परिवर्तन
Also, you can read the NCERT book online in these sections Solutions by Expert Teachers as per Central Board of Secondary Education (CBSE) Book guidelines. CBSE Class 12 Sociology Bhartiya Samaj Textual Solutions in Hindi Medium are part of All Subject Solutions. Here we have given NCERT Class 12 Sociology Chapter 11 सामाजिक संस्थाएँ: निरंतरता एवं परिवर्तन Notes, CBSE Class 12 Sociology Bhartiya Samaj in Hindi Medium Textbook Solutions for All Chapters, You can practice these here.
सामाजिक संस्थाएँ: निरंतरता एवं परिवर्तन
Chapter: 11
भारतीय समाज |
प्रश्नावली |
1. जाति व्यवस्था में पृथक्करण (separation) और अधिक्रम (hierarchy) की क्या भूमिका है?
उत्तर: जाति व्यवस्था के सिद्धांतों को दो समुच्चयों के संयोग के रूप में समझा जा सकता है। पहला भिन्नता और अलगाव पर आधारित है और दूसरा संपूर्णता और अधिक्रम पर। प्रत्येक जाति एक-दूसरे से भिन्न है तथा इस पृथकता का कठोरता से पालन किया जाता है। इस तरह के प्रतिबंधों में विवाह, खान-पान तथा सामाजिक अंतर्सबंध (आपसी संबंध) से लेकर व्यवसाय तक शामिल हैं। भिन्न-भिन्न तथा पृथक जातियों का कोई व्यक्तिगत अस्तित्व नहीं है। संपूर्णता में ही उनका अस्तित्व है।
यह सामाजिक संपूर्णता समतावादी होने के बजाय अधिक्रमित है। प्रत्येक जाति का समाज में एक विशिष्ट स्थान होने के साथ-साथ एक क्रम सीढ़ी भी होती है। ऊपर से नीचे जाती एक सीढ़ीनुमा व्यवस्था में प्रत्येक जाति का एक विशिष्ट स्थान होता है।
जाति की यह अधिक्रमित व्यवस्था ‘शुद्धता’ तथा ‘अशुद्धता’ के अंतर पर आधारित होती है। वे जातियाँ जिन्हें कर्मकांड की दृष्टि से शुद्ध माना जाता है, उनका स्थान उच्च होता है और जिनको अशुद्ध माना जाता है, उन्हें निम्न स्थान दिया जाता है। इतिहासकारों का मानना है कि युद्ध में पराजित झेने वाले लोगों को निचली जाति में स्थान मिला।
जातियाँ एक-दूसरे से सिर्फ कर्मकांड की दृष्टि से ही असमान नहीं हैं। बल्कि ये एक-दूसरे के पूरक तथा गैरप्रतिस्पर्धी समूह हैं। इसका अर्थ यह है कि प्रत्येक जाति का इस व्यवस्था में अपना एक स्थान है तथा यह स्थान कोई दूसरी जाति नहीं ले सकती। जाति का संबंध व्यवसाय से भी होता है। व्यवस्था श्रम के विभाजन के अनुरूप कार्य करती है। इसमें परिवर्तनशीलता की अनुमति नहीं होती। पृथक्करण तथा अधिक्रम का विचार भारतीय समाज में भेदभाव, असमानता तथा अन्नायमूलक व्यवस्था की तरफ इंगित करता है।
2. वे कौन से नियम हैं जिनका पालन करने के लिए जाति व्यवस्था बाध्य करती है? कुछ के बारे में बताइए?
उत्तर: जाति व्यवस्था के द्वारा समाज पर आरोपित सर्वाधिक सामान्य नियम अग्रलिखित हैं-
(i) जाति, जन्म से निर्धारित होती है। एक बच्चा अपने माता-पिता की जाति में ही ‘जन्म लेता’ है। जाति कभी चुनाव का विषय नहीं होती। हम अपनी जाति को कभी भी बदल नहीं सकते, छोड़ नहीं सकते या हम इस बात का चुनाव नहीं कर सकते कि हमें जाति में शामिल होना है या नहीं। हालाँकि, ऐसे उदाहरण हैं जहाँ एक व्यक्ति को उसकी जाति से निकाला भी जा सकता है।
(ii) जाति की सदस्यता के साथ विवाह संबंधी कठोर नियम शामिल होते हैं। जाति समूह ‘सजातीय’ होते हैं अर्थात् विवाह समूह के सदस्यों में ही हो सकते हैं।
(iii) जाति सदस्यता में खाने और खाना बाँटने के बारे में नियम भी शामिल होते हैं। किस प्रकार का खाना खा सकते हैं और किस प्रकार का नहीं, यह निर्धारित है और किसके साथ खाना बाँटकर खाया जा सकता है यह भी निर्धारित होता है।
(iv) जाति में श्रेणी एवं प्रस्थिति के एक अधिक्रम में संयोजित अनेक जातियों की एक व्यवस्था शामिल होती है। सैद्धांतिक तौर पर, हर व्यक्ति की एक जाति होती है और हर जाति का सभी जातियों के अधिक्रम में एक निर्धारित स्थान होता है। जहाँ अनेक जातियों की अधिक्रमित स्थिति, विशेषकर मध्यक्रम की श्रेणियों में, एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में बदल सकती है पर अधिक्रम हमेशा पाया जाता है।
(v) जातियों में आपसी उप-विभाजन भी होता है अर्थात् जातियों में हमेशा उप-जातियाँ होती हैं और कभी-कभी उप-जातियों में भी उप-उप-जातियाँ होती हैं। इसे खंडात्मक संगठन (segmental organisation) कहते हैं।
3. उपनिवेशववाद के कारण जाति व्यवस्था में क्या-क्या परिवर्तन आए?
उत्तर: औपनिवेशिक काल के दौर में सभी प्रमुख सामाजिक संस्थाओं में और विशेष रूप से जाति व्यवस्था में प्रमुख परिवर्तन आए। वस्तुतः कुछ विद्वान तो कहते हैं कि आज जिसे हम जाति के रूप में जानते हैं वह प्राचीन भारतीय परंपरा की अपेक्षा उपनिवेशवाद की ही अधिक देन है। यह सभी परिवर्तन जान-बूझकर या सोच-समझकर नहीं लाए गए। प्रारंभ में, ब्रिटिश प्रशासकों ने देश पर कुशलतापूर्वक शासन करना सीखने के उद्देश्य से जाति व्यवस्थाओं की जटिलताओं को समझने के प्रयत्न शुरू किए। इन प्रयत्नों के अंतर्गत देश भर में विभिन्न जनजातियों तथा जातियों की ‘प्रथाओं और तौर-तरीकों’ के बारे में अत्यंत सुव्यवस्थित रीति से गहन सर्वेक्षण किए गए और उनके विषय में रिपोर्ट तैयार की गईं। अनेक ब्रिटिश प्रशासक प्रशासनिक अधिकारी होने के साथ-साथ शौकिया तौर पर नृजातिविज्ञानी भी थे और उन्होंने सर्वेक्षण तथा अध्ययन कार्यों में बहुत रुचि ली।
लेकिन जाति के विषय में सूचना एकत्र करने का अब तक का सबसे महत्त्वपूर्ण सरकारी प्रयत्न जनगणना के माध्यम से किया गया। जनगणना के कार्य को सर्वप्रथम 1860 के दशक में प्रारंभ किया गया था। इसके बाद 1881 से तो जनगणना ब्रिटिश भारतीय सरकार द्वारा नियमित रूप से हर दस वर्ष बाद कराई जाने लगी। 1901 में हरबर्ट रिजले के निर्देशन में कराई गई जनगणना विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण थी क्योंकि इस जनगणना के अंतर्गत जाति के सामाजिक अधिक्रम के बारे में जानकारी इकट्ठी करने का प्रयत्न किया गया अर्थात् किस क्षेत्र में किस जाति को अन्य जातियों की तुलना में सामाजिक दृष्टि से कितना ऊँचा या नीचा स्थान प्राप्त है और तदनुसार श्रेणी क्रम में प्रत्येक जाति की स्थिति निर्धारित कर दी गई।
4. किन अर्थों में नगरीय उच्च जातियों के लिए जाति अपेक्षाकृत ‘अदृश्य’ हो गई है?
उत्तर: जाति व्यवस्था में हुए अत्यंत महत्त्वपूर्ण फिर भी विरोधाभासी परिवर्तनों में से एक परिवर्तन यह है कि अब जाति व्यवस्था उच्च जातियों, नगरीय मध्यम और उच्च वर्गों के लिए ‘अदृश्य’ होती जा रही है। इन समूहों के लिए, जो स्वातंत्र्योत्तरकाल की विकासात्मक नीतियों से सर्वाधिक लाभान्वित हुए हैं, जातीयता का महत्त्व सचमुच कम हो गया प्रतीत होता है क्योंकि अब इसका कार्य भलीभाँति संपन्न हो चुका है। इन समूहों की जातीय प्रस्थिति यह सुनिश्चित करने के लिए निर्णायक रही है कि इन समूहों को तीव्र विकास द्वारा प्रदत्त अवसरों का पूरा-पूरा लाभ उठाने के लिए आवश्यक आर्थिक तथा शैक्षिक संसाधन उपलब्ध हों। खासतौर पर, ऊँची जातियों के संभ्रांत लोग आर्थिक सहायता प्राप्त सार्वजनिक शिक्षा, विशेष रूप से विज्ञान, प्रौद्योगिकी, आयुर्विज्ञान तथा प्रबंधन में व्यावसायिक शिक्षा से लाभान्वित होने में सफल हुए। इसके साथ-साथ, वे स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद के प्रारंभिक दशकों में सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों में हुए विस्तार का भी लाभ उठा सकें। इस प्रारंभिक अवधि में, शेष समाज की तुलना में उनकी अग्रणी स्थिति (शिक्षा की दृष्टि से) ने यह सुनिश्चित कर दिया कि उन्हें किसी गंभीर प्रतिस्पर्धा का सामना नहीं करना पड़ा। उनकी दूसरी तथा तीसरी पीढ़ियों में जब उनकी विशेषाधिकार प्राप्त प्रस्थिति और सुदृढ़ हो गई तब इन समूहों को यह विश्वास होने लगा कि उनकी प्रगति का जाति से कोई ज़्यादा लेना-देना नहीं था। निश्चित रूप से, इन समूहों की तीसरी पीढ़ियों के लिए उनकी आर्थिक तथा शैक्षिक पूँजी अकेले ही यह सुनिश्चित करने के लिए पूर्णतः पर्याप्त है कि उन्हें जीवन में सर्वोत्तम अवसर प्राप्त होते रहेंगे। इस समूह के लिए, सार्वजनिक जीवन में जाति की कोई भूमिका नहीं रही है, वह धार्मिक रीति-रिवाज, विवाह अथवा नातेदारी के व्यक्तिगत क्षेत्र तक ही सीमित है। किंतु, यह एक विशेषीकृत या विभेदित समूह है और इस तथ्य ने आगे एक और जटिलता उत्पन्न कर दी है। यद्यपि विशेषाधिकार या सुविधा प्राप्त इस समूह में ऊँची जाति के लोगों का ही बाहुल्य है, लेकिन ऊँची जातियों के सभी लोगों को यह सुविधा प्राप्त नहीं है, उनमें से कुछ लोग गरीब भी हैं।
5. भारत में जनजातियों का वर्गीकरण किस प्रकार किया गया है?
उत्तर: जनजातीय समाजों का वर्गीकरण-
जहाँ तक सकारात्मक विशिष्टताओं का संबंध है, जनजातियों को उनके ‘स्थायी’ तथा ‘अर्जित’ लक्षणों के अनुसार विभाजित किया गया है। स्थायी लक्षणों में क्षेत्र, भाषा, शारीरिक विशिष्टताएँ और पारिस्थितिक आवास शामिल हैं।
स्थायी लक्षण: भारत की जनजातीय जनसंख्या का अधिकांश भाग कुछ विशिष्ट क्षेत्रों में केंद्रित है। लगभग 85% जनजातीय आबादी ‘मध्य भारत’ में निवास करती है, जिसमें गुजरात, राजस्थान, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, मध्य प्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश के कुछ हिस्से शामिल हैं। शेष 15% में से 11% से अधिक पूर्वोत्तर राज्यों में बसते हैं, जबकि बाकी अन्य क्षेत्रों में फैले हुए हैं। पूर्वोत्तर राज्यों में, असम को छोड़कर, अधिकांश राज्यों में जनजातीय आबादी का घनत्व 30% से अधिक है; अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, मिज़ोरम और नागालैंड में यह 60% से 95% तक है। भाषाई रूप से, जनजातियाँ भारतीय-आर्य, द्रविड़, ऑस्ट्रिक और तिब्बती-बर्मी परिवारों से संबंधित हैं। जनसंख्या के आकार में भी विविधता है; सबसे बड़ी जनजाति की जनसंख्या लगभग 70 लाख है, जबकि कुछ छोटी जनजातियों की जनसंख्या 100 से भी कम है। 2011 की जनगणना के अनुसार, जनजातीय जनसंख्या भारत की कुल जनसंख्या का 8.6% है, जो लगभग 10.4 करोड़ व्यक्तियों के बराबर है।
अर्जित लक्षण: अर्जित लक्षणों पर आधारित वर्गीकरण दो मुख्य कसौटियों आजीविका के साधन और हिंदू समाज में उनके समावेश की सीमा अथवा दोनों के सम्मिश्रण पर आधारित है।
आजीविका के आधार पर, जनजातियों को मछुआ, खाद्य संग्राहक और आखेटक (शिकारी), झूम खेती करने वाले, कृषक और बागान तथा औद्योगिक कामगारों की श्रेणियों में बाँटा जा सकता है। लेकिन अकादमिक समाजशास्त्र और राजनीति तथा सार्वजनिक मामलों में अपनाए जाने वाले सबसे प्रभावी वर्गीकरण इस बात पर आधारित हैं कि हिंदू समाज में अमुक जनजाति को कहाँ तक आत्मसात् किया गया है। इस आत्मसात्करण को जनजातियों के दृष्टिकोण से अथवा (जैसाकि अक्सर होता है) प्रबल हिंदू मुख्यधारा के दृष्टिकोण से देखा जा सकता है। जनजातियों के दृष्टिकोण से, आत्मसात्करण की सीमा के अलावा, हिंदू समाज के प्रति अभिवृत्ति (रुख) भी एक बड़ी कसौटी है क्योंकि जनजातियों की अभिवृत्तियों के बीच काफ़ी अंतर होता है- कुछ जनजातियों का हिंदुत्व की ओर सकारात्मक झुकाव होता है जबकि कुछ जनजातियाँ उसका प्रतिरोध या विरोध करती हैं। मुख्यधारा के दृष्टिकोण से, जनजातियों को हिंदू समाज में मिली प्रस्थिति की दृष्टि से भी देखा जा सकता है जिसमें कुछ को तो ऊँचा स्थान दिया जाता है पर अधिकांश को आमतौर पर नीचा स्थान ही मिलता है।
6. ‘जनजातियाँ आदिम समुदाय हैं जो सभ्यता से अछूते रहकर अपना अलग-थलग जीवन व्यतीत करते हैं’, इस दृष्टिकोण के विपक्ष में आप क्या साक्ष्य प्रस्तुत करना चाहेंगे?
उत्तर: जनजातीय समुदायों को ‘आदिम’ और ‘सभ्यता से अछूते’ मानना उचित नहीं है। इसके विरोध में निम्नलिखित साक्ष्य प्रस्तुत किए जा सकते हैं:
(i) मुख्यधारा से अंतः क्रियाः जनजातीय समुदायों का मुख्यधारा की प्रक्रियाओं के साथ निरंतर संपर्क रहा है, जिससे उनकी संस्कृति, समाज और अर्थव्यवस्था पर प्रभाव पड़ा है।
(ii) शिक्षित मध्य वर्ग का उदयः इन समुदायों में शिक्षित मध्य वर्ग का विकास हुआ है, विशेषकर पूर्वोत्तर राज्यों में, जो नगरीकृत व्यावसायिक वर्ग का निर्माण कर रहा है।
(iii) आंदोलन और पहचानः जनजातीय समुदायों ने भूमि, वनों और सांस्कृतिक पहचान से जुड़े मुद्दों पर आंदोलनों के माध्यम से अपनी सक्रिय भागीदारी दिखाई है।
इन तथ्यों से स्पष्ट होता है कि जनजातीय समुदाय गतिशील और विकसित समाज हैं, जो आधुनिक प्रक्रियाओं में सक्रिय रूप से संलग्न हैं।
7. आज जनजातीय पहचानों के लिए जो दावा किया जा रहा है उसके पीछे क्या कारण हैं?
उत्तर: जनजातीय पहचान को सुरक्षित रखने का आग्रह दिनोदिन बढ़ता जा रहा है। इसका कारण यह हो सकता है कि जनजातीय समाज के भीतर भी एक मध्य वर्ग का प्रादुर्भाव हो चला है। विशेष रूप से इस वर्ग के प्रादुर्भाव के साथ ही, संस्कृति, परंपरा, आजीविका यहाँ तक कि भूमि तथा संसाधनों पर नियंत्रण और आधुनिकता की परियोजनाओं के लाभों में हिस्से की माँगें भी जनजातियों में अपनी पहचान को सुरक्षित रखने के आग्रह का अभिन्न अंग बन गई हैं। इसलिए अब जनजातियों में उनके मध्य वर्गों से एक नई जागरूकता की लहर आ रही है। ये मध्य वर्ग स्वयं भी आधुनिक शिक्षा और आधुनिक व्यवसायों का परिणाम है, जिन्हें सरकार की आरक्षण नीतियों से बल मिला है।
जनजातीय पहचानों के दावे के पीछे मुख्यतः निम्नलिखित कारण हैं:
(i) मुख्यधारा में बलात् समावेश का प्रभावः जनजातीय समुदायों को मुख्यधारा में जबरन शामिल करने से उनकी संस्कृति, समाज और अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है।
(ii) गैर-जनजातीय शक्तियों का प्रतिरोधः मुख्यधारा के साथ अंतःक्रिया जनजातीय समुदायों के लिए अनुकूल नहीं रही है, जिससे वे गैर-जनजातीय शक्तियों के प्रतिरोध में अपनी पहचान केंद्रित कर रहे हैं।
(iii) नए राज्यों का गठन और नागरिक स्वतंत्रताः झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों का गठन हुआ, लेकिन पूर्वोत्तर राज्यों में विशेष कानूनों के कारण नागरिक स्वतंत्रताएँ सीमित हो गई हैं।
(iv) शिक्षित मध्य वर्ग का उदयः जनजातीय समुदायों में शिक्षित मध्य वर्ग का विकास हुआ है, विशेषकर पूर्वोत्तर राज्यों में, जिससे नगरीकृत व्यावसायिक वर्ग का निर्माण हुआ है।
(v) भूमि और सांस्कृतिक पहचान के मुद्देः जनजातीय आंदोलनों में भूमि और वनों पर नियंत्रण तथा नृजातीय-सांस्कृतिक पहचान के मुद्दे प्रमुख भूमिका निभा रहे हैं।
(vi) आंतरिक विभाजन और पहचान के नए आधारः जनजातीय समाजों में वर्गों और विभाजनों के विकास से पहचान के नए आधार उभर रहे हैं, जिससे विभिन्न समूह अपनी-अपनी पहचान के लिए दावा कर रहे हैं।
इन कारणों से जनजातीय समुदाय अपनी विशिष्ट पहचान बनाए रखने और अधिकारों की रक्षा के लिए सक्रिय हो रहे हैं।
8. परिवार के विभिन्न रूप क्या हो सकते हैं?
उत्तर: समाजों में विविध प्रकार के परिवार पाए जाते हैं आवास के नियम के अनुसार कुछ समाज विवाह और पारिवारिक प्रथाओं के मामले में पत्नी-स्थानिक और कुछ पति-स्थानिक होते हैं। पहली स्थिति में नवविवाहित जोड़ा वधू के माता-पिता के साथ रहता है और दूसरी स्थिति में, वर के माता-पिता के साथ। उत्तराधिकार के नियम के अनुसार, मातृवंशीय समाज में जायदाद माँ से बेटी को मिलती है और पितृवंशीय समाज में पिता से पुत्र को। पितृतंत्रात्मक परिवार संरचना में पुरुषों की सत्ता व प्रभुत्व होता है और मातृतंत्रात्मक परिवार संरचना में स्त्रियाँ समान प्रभुत्वकारी भूमिका निभाती हैं। हालाँकि पितृतंत्र के विपरीत मातृतंत्र एक अनुभाविक संकल्पना की बजाय एक सैद्धांतिक कल्पना है। मातृतंत्र का कोई ऐतिहासिक या मानवशास्त्रीय प्रमाण नहीं है अर्थात् ऐसा समाज नहीं है जहाँ स्त्रियाँ प्रभुत्वशाली हों। हालाँकि मातृवंशीय समाज अवश्य पाए जाते हैं अर्थात् ऐसे समाज जहाँ स्त्रियाँ अपनी माताओं से उत्तराधिकार के रूप में जायदाद पाती हैं परंतु उस पर उनका अधिकार नहीं होता और न ही सार्वजनिक क्षेत्र में उन्हें निर्णय लेने का कोई अधिकार होता है।
9. सामाजिक संरचना में होने वाले परिवर्तन पारिवारिक संरचना में किस प्रकार परिवर्तन ला सकते हैं?
उत्तर: परिवार की संरचना का अध्ययन इसके एक सामाजिक संस्था के रूप में और समाज की अन्य सामाजिक संस्थाओं के साथ उसके संबंधों के बारे में, दोनों ही रूप में किया जा सकता है। स्वयं परिवार को मूल परिवार अथवा विस्तृत परिवार के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। इसका मुखिया (कर्ता) एक पुरुष या स्त्री भी हो सकती है। वंशानुक्रम की दृष्टि से परिवार मातृवंशीय अथवा पितृवंशीय हो सकता है। परिवार की यह आंतरिक संरचना आमतौर पर, समाज की अन्य संरचनाओं जैसे राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक आदि संरचनाओं से जुड़ी होती है। इस प्रकार, हिमालयी क्षेत्र के गाँवों से पुरुषों के प्रवसन से उस गाँव में ऐसे परिवारों का अनुपात असामान्य रूप से बढ़ सकता है जिनकी मुखिया स्त्रियाँ हैं या भारत के सॉफ्टवेयर उद्योग में कार्य कर रहे युवा माता-पिता का कार्य-समय ऐसा हो कि वे अपने बच्चों की देखभाल ठीक से न कर सकें तो वहाँ दादा-दादियों तथा नाना-नानियों की संख्या बढ़ जाएगी क्योंकि उन्हें ही वहाँ आकर बच्चों की देखभाल करनी होगी। इस प्रकार, परिवार की संरचना अथवा उसके गठन में परिवर्तन हो जाता है और इन परिवर्तनों को समाज में होने वाले अन्य परिवर्तनों के संदर्भ में समझा जा सकता है। परिवार (निजी क्षेत्र) आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक (सार्वजनिक) क्षेत्रों से जुड़ा होता है।
10. मातृवंश (matriliny) और मातृतंत्र (matriarchy) में क्या अंतर है? व्याख्या कीजिए।
उत्तर: मातृवंश (Matriliny) और मातृतंत्र (Matriarchy) में अंतर इस प्रकार है कि मातृवंशीय व्यवस्था में संपत्ति का उत्तराधिकार माँ से बेटी को मिलता है, जबकि मातृतंत्रात्मक व्यवस्था में स्त्रियाँ सामाजिक और पारिवारिक निर्णयों में प्रमुख भूमिका निभाती हैं। मातृवंशीय समाजों में वंश परंपरा स्त्री की ओर से चलती है और संपत्ति स्त्रियों को उनके मातृ पक्ष से मिलती है, परंतु इसके बावजूद उन्हें संपत्ति पर पूर्ण अधिकार नहीं होता और न ही वे सार्वजनिक जीवन में निर्णायक भूमिका निभाती हैं। दूसरी ओर, मातृतंत्र का विचार एक सैद्धांतिक कल्पना है, जिसका कोई ऐतिहासिक या मानवशास्त्रीय प्रमाण नहीं है। ऐसा कोई समाज अब तक ज्ञात नहीं है जहाँ स्त्रियाँ पूर्ण रूप से प्रभुत्वशाली रही हों, जैसे कि पितृतंत्रात्मक समाजों में पुरुष होते हैं। इसलिए, जहाँ मातृवंश एक व्यवहारिक सामाजिक संरचना है, वहीं मातृतंत्र केवल एक वैचारिक अवधारणा है।

Hi! my Name is Parimal Roy. I have completed my Bachelor’s degree in Philosophy (B.A.) from Silapathar General College. Currently, I am working as an HR Manager at Dev Library. It is a website that provides study materials for students from Class 3 to 12, including SCERT and NCERT notes. It also offers resources for BA, B.Com, B.Sc, and Computer Science, along with postgraduate notes. Besides study materials, the website has novels, eBooks, health and finance articles, biographies, quotes, and more.