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NCERT Class 12 Sociology Chapter 12 बाज़ार एक सामाजिक संस्था के रूप में
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बाज़ार एक सामाजिक संस्था के रूप में
Chapter: 12
भारतीय समाज |
प्रश्नावली |
1. ‘अदृश्य हाथ’ का क्या तात्पर्य है?
उत्तर: ‘अदृश्य हाथ’ (Invisible Hand) का तात्पर्य एक ऐसी अवधारणा से है जिसे प्रसिद्ध अर्थशास्त्री एडम स्मिथ ने प्रतिपादित किया था। इस विचार के अनुसार:
जब व्यक्ति अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए कार्य करता है, तो वह अनजाने में समाज के हित में भी योगदान देता है, जैसे कोई अदृश्य हाथ उसे ऐसा करने के लिए प्रेरित कर रहा हो।
व्याख्या:
एडम स्मिथ ने बताया कि जब व्यापारी अधिक लाभ कमाने की कोशिश करता है, तो वह बेहतर गुणवत्ता वाले वस्त्र, सेवाएँ या उत्पाद उपलब्ध कराता है, जिससे समाज के अन्य लोगों को भी लाभ होता है। यह प्रक्रिया स्वतः होती है — बिना किसी सरकार या संस्था के हस्तक्षेप के — इसलिए इसे ‘अदृश्य हाथ’ कहा गया है।
निष्कर्ष:
‘अदृश्य हाथ’ एक रूपक है, जो बताता है कि व्यक्तिगत स्वार्थ कैसे समाज के व्यापक हितों को अनजाने में बढ़ावा दे सकता है, खासकर मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था में।
2. बाज़ार पर समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण, आर्थिक दृष्टिकोण से किस तरह अलग है?
उत्तर: बाज़ार पर समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण: समाजशास्त्र बाज़ार को एक सामाजिक संस्था मानता है जो संस्कृति, परंपराओं और सामाजिक समूहों से जुड़ी होती है। यह मानता है कि अर्थव्यवस्था समाज में ‘रची-बसी’ होती है। उदाहरण के लिए, आदिवासी हाट और पारंपरिक व्यापारिक समुदाय बाज़ार को सामाजिक रिश्तों और संरचनाओं से जोड़ते हैं।
बाज़ार पर आर्थिक दृष्टिकोण: अर्थशास्त्र बाज़ार को एक स्वतन्त्र आर्थिक तंत्र मानता है, जो अपने नियमों से चलता है। यह मूल्य निर्धारण, निवेश के प्रभाव और उपभोक्ता व्यवहार को समझने पर केंद्रित होता है। एडम स्मिथ के अनुसार, व्यक्ति अपने स्वार्थ में काम करता है लेकिन इससे समाज का भी भला होता है — यही ‘अदृश्य हाथ’ का सिद्धांत है।
मुख्य अंतर:
अर्थशास्त्र बाज़ार को समाज से अलग देखता है, जबकि समाजशास्त्र बाज़ार को समाज का हिस्सा मानता है और इसे सामाजिक संबंधों से जोड़कर समझता है।
3. किस तरह से एक बाज़ार जैसे कि एक साप्ताहिक ग्रामीण बाज़ार, एक सामाजिक संस्था है?
उत्तर: साप्ताहिक बाज़ार एक सामाजिक संस्था के रूप में, जनजातीय स्थानीय अर्थव्यवस्था और बाहरी वातावरण के बीच की कड़ियों और आदिवासियों एवं अन्य लोगों के बीच के आर्थिक शोषण का संबंध, इन सबका चित्रण बस्तर जिले के एक साप्ताहिक बाज़ार के अध्ययन में किया गया है। इस जिले में गोंड आदिवासी रहते हैं। साप्ताहिक बाज़ार में आप स्थानीय लोग, जिसमें जनजातीय और गैर-जनजातीय (मुख्यतः हिंदू) के साथ-साथ बाहरी लोग जिसमें मुख्यतः विभिन्न जातियों के हिंदू व्यापारी होते हैं को पाएँगे। वन अधिकारी भी बाज़ार में इन आदिवासियों के साथ व्यापार करने आते हैं जो वन-विभाग के लिए काम करते हैं। इस प्रकार, इस बाज़ार में तमाम तरह के विशेष विक्रेता अपने उत्पाद और सेवाएँ बेचने आते हैं। मुख्य चीजें जिनका बाज़ार में विनिमय होता है वे बनी-बनाई वस्तुएँ (जैसे, गहने और पायलें, बर्तन और चाकू), गैर-स्थानीय खाद्य पदार्थ (जैसे, नमक और हल्दी), स्थानीय खाद्य सामग्री, खेतिहर उत्पाद और बनी बनाई वस्तुएँ (जैसे, बाँस की टोकरी), और जंगल के उत्पाद (जैसे, इमली एवं तिलहन) हैं। जंगल के उत्पाद जो आदिवासी लेकर आते हैं, वह व्यापारी खरीदकर कस्बों में ले जाते हैं। इन हाटों में खरीददार मुख्यतः आदिवासी ही होते हैं, पर विक्रेता मुख्यतः जाति-प्रधान हिंदू होते हैं। आदिवासी, जंगली और खेती संबंधी उत्पादों और अपने श्रम-बल को बेचकर जो पैसा कमाते हैं वो मुख्यतः इन हाटों में मिलने वाली सस्ती पायलों एवं गहनों और उपभोग की वस्तुएँ जैसे, बने-बनाए कपड़ों की खरीददारी के लिए खर्च करते हैं।
4. व्यापार की सफलता में जाति एवं नातेदारी संपर्क कैसे योगदान कर सकते हैं?
उत्तर: व्यापार की सफलता में जाति (जाति समुदाय) और नातेदारी (रिश्तेदारी नेटवर्क) का महत्वपूर्ण योगदान होता है। भारत में पारंपरिक व्यापारिक समुदायों जैसे मारवाड़ी, नाकरट्टार, बनिया, बोहरा, सिंधी आदि ने व्यापार को संगठित करने और विस्तृत नेटवर्क बनाने के लिए अपनी जातीय और पारिवारिक संरचनाओं का उपयोग किया।
इन समुदायों के सदस्य आपसी विश्वास, प्रतिष्ठा और सामाजिक रिश्तों पर आधारित एक मज़बूत सामाजिक तंत्र में बंधे होते हैं, जिससे व्यापार में पारदर्शिता, विश्वसनीयता और ऋण व्यवस्था (उधारी/कर्ज) आसानी से स्थापित होती है। इस तरह के सामाजिक संबंधों के कारण वे एक-दूसरे को कर्ज दे सकते हैं, माल भेज सकते हैं और बगैर लिखित अनुबंध के भी लेन-देन कर सकते हैं।
नातेदारी नेटवर्क के माध्यम से व्यापारी अपने व्यापार को नए क्षेत्रों में फैला पाते हैं क्योंकि वे अपने रिश्तेदारों के माध्यम से नई जगहों पर भरोसेमंद साझेदार बना सकते हैं। उदाहरण के लिए, मारवाड़ी समुदाय ने उपनिवेशकालीन भारत में अपने गहन सामाजिक और नातेदारी नेटवर्क के ज़रिए व्यापारिक सफलता प्राप्त की।
इस प्रकार, जातीय पहचान और नातेदारी संपर्क व्यापार को केवल आर्थिक ही नहीं बल्कि सामाजिक पूंजी के रूप में भी समर्थन प्रदान करते हैं, जिससे व्यापार में स्थायित्व, विस्तार और सफलता संभव होती है।
5. उपनिवेशवाद के आने के पश्चात् भारतीय अर्थव्यवस्था किन अर्थों में बदली?
उत्तर: उपनिवेशवाद के आते ही भारतीय अर्थव्यवस्था में गहरे बदलाव आए जिससे उत्पादन, व्यापार और कृषि में एक अभूतपूर्व विघटन हुआ। एक जाना माना उदाहरण है, हथकरघा के काम का खात्मा हो जाना। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि उस वक्त के बाज़ारों में इंग्लैंड से सस्ते बने-बनाए कपड़ों की भरमार लगा दी गई थी। हालाँकि भारत में उपनिवेश के दौर से पहले ही एक जटिल मौद्रीकृत अर्थव्यवस्था विद्यमान थी, ज्यादातर इतिहासकार उपनिवेश काल को एक संधिकाल के रूप में देखते हैं। उपनिवेश काल के दौरान, भारत विश्व की पूँजीवादी अर्थव्यवस्था से और अधिक जुड़ गया। अंग्रेज़ी राज से पहले भारत बने-बनाए सामानों के निर्यात का एक मुख्य केंद्र था। उपनिवेशवाद के बाद भारत कच्चे माल और कृषक उत्पादों का स्रोत और उत्पादित सामानों का उपभोक्ता बना दिया गया, यह दोनों कार्य इंग्लैंड के उद्योगों को लाभ पहुँचाने के लिए किए गए। लगभग उसी समय नए समूह (मुख्यतः यूरोपियन) व्यापार और व्यवसाय में आने लगे, वो या तो पहले से जमे हुए व्यापारिक समुदायों से मेल-जोल कर अपना व्यापार शुरू करते थे या कभी उन समुदायों को उनका व्यापार छोड़ने को मजबूर करके। परंतु पहले से विद्यमान आर्थिक संस्थाओं को पूरी तरह से नष्ट करने के बजाय भारत में बाज़ार अर्थव्यवस्था के विस्तार में कुछ व्यापारिक समुदायों को नए अवसर प्रदान किए, जिन्होंने बदलती हुई आर्थिक परिस्थितियों के अनुसार अपने आप को पुनर्गठित किया और अपनी स्थिति को सुधारा। कुछ मामलों में, उपनिवेशवाद द्वारा प्रदान किए गए आर्थिक सुअवसरों का लाभ उठाने के लिए नए समुदायों का जन्म हुआ जिन्होंने स्वतंत्रता के बाद भी अपनी आर्थिक शक्ति को निरंतरता से बनाए रखा।
6. उदाहरणों की सहायता से ‘पण्यीकरण’ के अर्थ की विवेचना कीजिए?
उत्तर: पण्यीकरण (Commoditization) एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें कोई वस्तु, सेवा या तत्व जो पहले बाज़ार में खरीदे-बेचे नहीं जाते थे, अब व्यापार की वस्तु बन जाते हैं। पूँजीवादी समाजों के विस्तार के साथ यह प्रक्रिया जीवन के लगभग हर क्षेत्र में देखने को मिलती है। जब किसी चीज़ को एक मूल्य देकर बाज़ार में बेचा या खरीदा जाने लगे, तो वह पण्य बन जाती है।
उदाहरण के तौर पर, श्रम और कौशल को पहले मानवीय गुण के रूप में देखा जाता था, लेकिन अब इन्हें भी पैसों के बदले खरीदा-बेचा जाता है। आजकल लोग अपनी सेवाएँ, जैसे पढ़ाना, सलाह देना, डिज़ाइन बनाना आदि, बाज़ार में बेचते हैं। इसी प्रकार, एक अत्यंत विवादास्पद उदाहरण है — मानव अंगों का पण्यीकरण। आज के समय में, कुछ गरीब लोग अपनी किडनी अमीरों को बेचते हैं जिन्हें किडनी ट्रांसप्लांट की ज़रूरत होती है। यह स्थिति यह दर्शाती है कि कैसे मानवीय शरीर का एक हिस्सा भी अब बाज़ार की वस्तु बन गया है, जिसे कई लोग नैतिक दृष्टि से गलत मानते हैं।
मार्क्स के अनुसार, यह सब केवल पूँजीवादी समाजों में ही संभव होता है, जहाँ चीज़ों के साथ-साथ लोगों के रिश्ते भी वस्तुओं में बदल जाते हैं। पहले के समय में गुलामी का उदाहरण भी पण्यीकरण का चरम रूप था, जहाँ इंसानों को वस्तु की तरह खरीदा-बेचा जाता था।
इस प्रकार, पण्यीकरण सिर्फ़ आर्थिक नहीं, बल्कि एक गहरी सामाजिक प्रक्रिया है जो समाज की नैतिकता, संबंधों और मूल्यों को भी प्रभावित करती है।
7. ‘प्रतिष्ठा का प्रतीक’ क्या है?
उत्तर: समाजशास्त्र के संस्थापकों में से एक मैक्स वेबर ने पहली बार इस बात को लोगों के सामने रखा कि लोग जो सामान खरीदते हैं एवं उपयोग करते हैं वह समाज में उनकी प्रस्थिति से गहनता से जुड़ा होता है। उन्होंने इसको प्रतिष्ठा का प्रतीक माना।
उदाहरण के तौर पर, भारत में आज मध्यम वर्गीय परिवारों में उनके पास जो कार का मॉडल होता है या जिस कंपनी के सेलफोन इस्तेमाल करते हैं वो उनकी सामाजिक आर्थिक प्रस्थिति का अनुमान लगाने के प्रमुख साधन हैं। वेबर ने इस बारे में भी लिखा कि किस तरह से लोगों की जीवनशैली के आधार पर उनके वर्गों और प्रस्थिति समूहों में भिन्नता की जाती है।
8. ‘भूमंडलीकरण’ के तहत कौन-कौन सी प्रक्रियाएँ सम्मिलित हैं?
उत्तर: भूमंडलीकरण की एक केंद्रीय विशेषता दुनिया के चारों कोनों में बाज़ारों का विस्तार और एकीकरण का बढ़ना है। इस एकीकरण का अर्थ है कि दुनिया के किसी एक कोने में किसी बाज़ार में परिवर्तन होता है तो दूसरे कोनों में उसका अनुकूल-प्रतिकूल असर हो सकता है। भूमंडलीकरण के अंतर्गत सिर्फ़ पूँजी और वस्तुओं का ही नहीं बल्कि लोगों, सांस्कृतिक उत्पादों और छवियों का भी दुनिया भर में परिचालन होता है। यह विनिमय के नए दायरों से प्रवेश करती है और नए बाज़ारों का निर्माण करती है। उत्पाद, सेवाएँ और सांस्कृतिक तत्व जो पहले बाज़ार व्यवस्था से बाहर थे अब उसके हिस्से हैं। एक उदाहरण है भारतीय अध्यात्म और ज्ञान व्यवस्थाओं (जैसे, योग और आयुर्वेद) का पश्चिम में बाज़ारीकरण। अंतर्राष्ट्रीय पर्यटन का बढ़ता बाज़ार भी यह दर्शाता है कि खुद संस्कृति कैसे बाज़ार का एक हिस्सा बन जाती है। इसका एक उदाहरण है पुष्कर, राजस्थान में लगने वाला प्रसिद्ध वार्षिक मेला जिसमें दूर-दराज से, व्यापारी और पशुचारी ऊँटों और अन्य पशुओं को बेचने एवं खरीदने आते हैं। जहाँ स्थानीय लोगों के लिए पुष्कर मेला एक भव्य सामाजिक और आर्थिक उपलक्ष्य होता है वहीं अब ये अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी एक बड़े पर्यटन स्थल के नाम से जाना जाता है। यह मेला पर्यटकों के लिए और भी अधिक आकर्षण का कारण है क्योंकि यह कार्तिक पूर्णिमा के ठीक पहले आता है, जब हिंदू तीर्थयात्री पवित्र पुष्कर तालाब में नहाने आते हैं। इस तरह, हिंदू तीर्थयात्रियों, ऊँटों, व्यापारियों और विदेशी पर्यटकों का सम्मेलन हो जाता है जिसमें सिर्फ़ पशुओं और पैसे का विनिमय ही नहीं बल्कि धार्मिक पुण्यों और सांस्कृतिक प्रतीकों की भी अदला-बदली होती है।
9. ‘उदारीकरण’ से क्या तात्पर्य है?
उत्तर: उदारीकरण का तात्पर्य ऐसी आर्थिक नीति से है जिसमें सरकार बाज़ार और व्यापार पर से अपने नियंत्रण को कम कर देती है और निजी क्षेत्र को अधिक स्वतंत्रता देती है। भारत में यह प्रक्रिया 1980 के दशक में शुरू हुई थी।
इस नीति के अंतर्गत सरकार ने सरकारी कंपनियों का निजीकरण, आयात शुल्क में कटौती, विदेशी निवेश को प्रोत्साहन और व्यापार में सरकारी दखल को कम करना जैसे कदम उठाए। इसका उद्देश्य था आर्थिक विकास को बढ़ाना और भारत को वैश्विक बाज़ार से जोड़ना।
उदारीकरण के बाद विदेशी वस्तुएँ भारत में आसानी से मिलने लगीं और कुछ क्षेत्रों जैसे सूचना प्रौद्योगिकी को फायदा भी हुआ। लेकिन इससे किसानों और छोटे उत्पादकों को नुकसान पहुँचा, क्योंकि उन्हें वैश्विक प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ा और सब्सिडी व समर्थन मूल्य में कटौती की गई।
साथ ही, सरकारी नौकरियाँ घटीं और असंगठित, अस्थायी रोज़गार बढ़े। कुल मिलाकर, उदारीकरण ने भारत में आर्थिक बदलाव तो लाए लेकिन इसके सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह के प्रभाव पड़े।
10. आपकी राय में, क्या उदारीकरण के दूरगामी लाभ उसकी लागत की तुलना से अधिक हो जाएँगे? कारण सहित उत्तर दीजिए।
उत्तर: उदारवाद के कार्यक्रमों के तहत जो परिवर्तन हुए उन्होंने आर्थिक संवृद्धि को बढ़ाया और इसके साथ ही भारतीय बाज़ारों को विदेशी कंपनियों के लिए खोला। उदाहरण के लिए, अब बहुत सारी विदेशी वस्तुएँ यहाँ बिकती हैं, जो पहले यहाँ नहीं मिलती थीं। माना जाता है कि विदेशी पूँजी के निवेश से आर्थिक विकास होता है और रोज़गार बढ़ते हैं। सरकारी कंपनियों के निजीकरण से कुशलता बढ़ती है और सरकार पर दबाव कम होता है। हालांकि, उदारीकरण का असर मिश्रित रहा है। कई लोगों का यह भी मत है कि उदारीकरण का भारतीय परिवेश पर प्रतिकूल असर ही हुआ है और आगे के दिनों में भी ऐसा ही होगा, हम अपनी ज़्यादा चीजें खोकर कम चीज़ों को पाएँगे। भारतीय उद्योग के कुछ क्षेत्रों (जैसे, सॉफ्टवेयर या सूचना तकनीकी या खेती (में जैसे मछली या फल उत्पादन) को शायद वैश्विक बाज़ार से फ़ायदा हो सकता है पर अन्य क्षेत्रों (जैसे, ऑटोमोबाइल्स, इलेक्ट्रॉनिक्स और तेलीय अनाजों के उद्योग) पर गहरा असर पड़ेगा क्योंकि यह उद्योग विदेशी उत्पादकों से प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाएँगे।

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