NCERT Class 12 Sociology Chapter 13 सामाजिक विषमता एवं बहिष्कार के स्वरूप

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NCERT Class 12 Sociology Chapter 13 सामाजिक विषमता एवं बहिष्कार के स्वरूप

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Chapter: 13

भारतीय समाज
प्रश्नावली

1. सामाजिक विषमता व्यक्तियों की विषमताओं से कैसे भिन्न है?

उत्तर: सामाजिक संसाधनों तक असमान पहुँच की पद्धति ही साधारणतया सामाजिक विषमता कहलाती है। कुछ सामाजिक विषमताएँ व्यक्तियों के बीच स्वाभाविक भिन्नता को प्रतिबिंबित करती हैं, उदाहरणस्वरूप उनकी योग्यता एवं प्रयास में भिन्नता। कोई व्यक्ति असाधारण बुद्धिमान या प्रतिभावान हो सकता है या यह भी हो सकता है कि उसने समृद्धि और अच्छी स्थिति पाने के लिए कठोर परिश्रम किया हो तथापि सामाजिक विषमता व्यक्तियों के बीच सहज या ‘प्राकृतिक’ भिन्नता की वजह से नहीं है, बल्कि यह उस समाज द्वारा उत्पन्न की जाती है जिसमें वे रहते हैं। वह व्यवस्था जो एक समाज में लोगों का वर्गीकरण करते हुए एक अधिक्रमित संरचना में उन्हें श्रेणीबद्ध करती है उसे समाजशास्त्री सामाजिक स्तरीकरण कहते हैं। यह अधिक्रम लोगों की पहचान एवं अनुभव, उनके दूसरों से संबंध तथा साथ ही संसाधनों एवं अवसरों तक उनकी पहुँच को आकार देता है।

कुछ विषमताएँ निम्नलिखित रूपों में भी प्रकट होती हैं-

(i) सामाजिक स्तरीकरण।

(ii) पूर्वाग्रह।

(ii) रूढ़िवादिता।

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(iv) भेदभाव।

2. सामाजिक स्तरीकरण की कुछ विशेषताएँ बताइए।

उत्तर: सामाजिक स्तरीकरण की कुछ प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

(i) सामाजिक स्तरीकरण व्यक्तियों के बीच की विभिन्नता का प्रकार्य ही नहीं बल्कि समाज की एक विशिष्टता है। सामाजिक स्तरीकरण समाज में व्यापक रूप से पाई जाने वाली व्यवस्था है जो सामाजिक संसाधनों को, लोगों की विभिन्न श्रेणियों में, असमान रूप से बाँटती है। तकनीकी रूप से सबसे अधिक आदिम समाजों में जैसे, शिकारी एवं संग्रहकर्ता समाज में बहुत थोड़ा उत्पादन होता था अतः केवल प्रारंभिक सामाजिक स्तरीकरण ही मौजूद था। तकनीकी रूप से अधिक उन्नत समाज में जहाँ लोग अपनी मूलभूत ज़रूरतों से अधिक उत्पादन करते हैं, सामाजिक संसाधन विभिन्न सामाजिक श्रेणियों में असमान रूप से बँटा होता है, जिसका लोगों की व्यक्तिगत क्षमता से कुछ भी लेना-देना नहीं होता है।

(ii) सामाजिक स्तरीकरण पीढ़ी-दर-पीढ़ी बना रहता है। यह परिवार और सामाजिक संसाधनों के एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी में उत्तराधिकार के रूप में घनिष्ठता से जुड़ा है। एक व्यक्ति की सामाजिक स्थिति प्रदत्त अर्थात् अपने आप मिली हुई होती है। अर्थात् बच्चे अपने माता-पिता की सामाजिक स्थिति को पाते है। जाति व्यवस्था के अंदर, जन्म ही व्यावसायिक अवसरों को निर्धारित करता है। सामाजिक असमानता का प्रदत्त पक्ष अंतर्विवाह प्रथा से और सुदृढ़ होता है। चूँकि विवाह अपनी जाति के सदस्यों में ही सीमित है, अतः अन्तरजातीय विवाह द्वारा जातीय विभाजनों को क्षीण करने की संभावना खत्म हो जाती है।

(iii) सामाजिक स्तरीकरण को विश्वास या विचारधारा द्वारा समर्थन मिलता है। सामाजिक स्तरीकरण की कोई भी व्यवस्था पीढ़ी-दर-पीढ़ी नहीं चल सकती जब तक कि व्यापक तौर पर यह माना न जाता हो कि वह या तो न्यायसंगत या अपरिहार्य है। उदाहरण के लिए, जाति व्यवस्था को धार्मिक या कर्मकांडीय दृष्टिकोण से शुद्धता एवं अशुद्धता के आधार पर न्यायोचित ठहराया जाता है जिसमें जन्म और व्यवसाय की बदौलत ब्राह्मणों को सबसे उच्च स्थिति और दलितों को सबसे निम्न स्थिति दी गई है। यद्यपि ऐसा नहीं है कि हर व्यक्ति असमानता की इस व्यवस्था को ठीक मानता है। ज्यादातर वे लोग, जिन्हें अधिक सामाजिक विशेषाधिकार प्राप्त हैं वही सामाजिक स्तरीकरण की व्यवस्था जैसे जाति तथा प्रजाति का ज़ोरदार समर्थन करते हैं। जो इस अधिक्रम में सबसे नीचे हैं और इस वजह से शोषित तथा अपमानित हुए हैं वही इसे सबसे ज्यादा चुनौती दे सकते हैं।

3. आप पूर्वाग्रह और अन्य किस्म की राय अथवा विश्वास के बीच भेद कैसे करेंगे?

उत्तर: पूर्वाग्रह एक समूह के सदस्यों द्वारा दूसरे समूह के बारे में पूर्वकल्पित विचार या व्यवहार होता है। इस शब्द का अक्षरशः अर्थ ‘पूर्वनिर्णय’ है अर्थात् वह धारणा जो बिना विषय को जाने और बिना उसके तथ्यों को परखे शुरुआत में ही बना ली जाती है। एक पूर्वाग्रहित व्यक्ति के पूर्वकल्पित विचार सबूत-साक्ष्यों के विपरीत सुनी-सुनाई बातों पर आधारित होते हैं। यह नई जानकारी प्राप्त होने के बावजूद बदलने से इंकार करते हैं। पूर्वाग्रह सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों हो सकता है। वैसे ज्यादातर यह शब्द नकारात्मक रूप से लिए गए पूर्वनिर्णयों के लिए इस्तेमाल होता है पर यह स्वीकारात्मक पूर्वनिर्णयों पर भी लागू होता है। उदाहरणतया, एक व्यक्ति अपनी जाति और समूह के सदस्यों के पक्ष में पूर्वाग्रहित हो सकता है और उन्हें बिना किसी सबूत के दूसरी जाति या समूह के सदस्यों से श्रेष्ठ मान सकता है।

4. सामाजिक अपवर्जन या बहिष्कार क्या है?

उत्तर: सामाजिक बहिष्कार वह तौर-तरीके हैं जिनके ज़रिए किसी व्यक्ति या समूह को समाज में पूरी तरह घुलने-मिलने से रोका जाता है व अलग या पृथक रखा जाता है। यह उन सभी कारकों पर ध्यान दिलाता है जो व्यक्ति या समूह को उन अवसरों से वंचित करते हैं जो अधिकांश जनसंख्या के लिए खुले होते हैं। भरपूर तथा क्रियाशील जीवन जीने के लिए, व्यक्ति को जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं (जैसे, रोटी, कपड़ा तथा मकान) के अलावा अन्य आवश्यक वस्तुओं और सेवाओं (जैसे, शिक्षा, स्वास्थ्य, यातायात के साधन, बीमा, सामाजिक सुरक्षा, बैंक तथा यहाँ तक कि पुलिस एवं न्यायपालिका) की भी ज़रूरत होती है। सामाजिक भेदभाव आकस्मिक या अनायास रूप से नहीं बल्कि व्यवस्थित तरीके से होता है। यह समाज की संरचनात्मक विशेषताओं का परिणाम है।

5. आज जाति और आर्थिक असमानता के बीच क्या संबंध है?

उत्तर: आज के भारत में भी जाति और आर्थिक असमानता के बीच गहरा संबंध बना हुआ है। ऐतिहासिक रूप से जाति व्यवस्था ने लोगों को उनके जन्म के आधार पर व्यवसाय और सामाजिक स्थान निर्धारित कर दिए थे, जिससे निचली जातियों को सदियों तक आर्थिक संसाधनों से वंचित रखा गया। उच्च जातियाँ अधिकतर धन, शिक्षा और सत्ता तक पहुँच रखने वाली रही हैं, जबकि निम्न जातियाँ परंपरागत रूप से शोषण, अपमान और बहिष्कार का सामना करती रही हैं।

हालाँकि आधुनिक काल में जाति और व्यवसाय के बीच संबंध ढीले हुए हैं और अब हर जाति में अमीर और गरीब लोग पाए जाते हैं, फिर भी जाति आधारित असमानता पूरी तरह समाप्त नहीं हुई है। आज भी समाज के संपन्न और प्रभावशाली वर्गों में ज़्यादातर कथित ‘उच्च’ जातियों का वर्चस्व है, जबकि वंचित वर्गों में ‘निम्न’ जातियाँ अधिक पाई जाती हैं।

इसका अर्थ यह है कि आर्थिक अवसरों तक पहुँच और संसाधनों की उपलब्धता अब भी जाति से जुड़ी हुई है। भले ही संविधानिक प्रयासों और सामाजिक आंदोलनों ने जातिगत भेदभाव को कम करने की कोशिश की है, लेकिन जाति आज भी भारतीय समाज में लोगों के जीवन अवसरों को प्रभावित करने वाला प्रमुख कारक बनी हुई है।

6. अस्पृश्यता क्या है?

उत्तर: ‘अस्पृश्यता’ जिसे आम बोलचाल में ‘छुआछूत’ कहा जाता है, जाति-व्यवस्था का एक अत्यंत घृणित एवं दूषित पहलू है, जो धार्मिक एवं कर्मकांडीय दृष्टि से शुद्धता एवं अशुद्धता के पैमाने पर सबसे नीची मानी जाने वाली जातियों के सदस्यों के विरुद्ध अत्यंत कठोर सामाजिक अनुशास्त्रियों (दंडों) का विधान करता है। ‘अस्पृश्य’ यानी अछूत मानी जाने वाली जातियों का जाति सोपान या अधिक्रम में कोई स्थान ही नहीं है, वे तो इस व्यवस्था से बाहर हैं। उन्हें तो इतना अधिक ‘अशुद्ध’ एवं अपवित्र माना जाता है कि उनके ज़रा छू जाने भर से ही अन्य सभी जातियों के सदस्य अत्यंत अशुद्ध हो जाते हैं, जिसके कारण अछूत कहे जाने वाले व्यक्ति को तो अत्यधिक कठोर दंड भुगतना पड़ता ही है, साथ ही उच्च जाति का जो व्यक्ति छुआ गया है उसे भी फिर से शुद्ध होने के लिए कई शुद्धीकरण क्रियाएँ करनी होती हैं। सच तो यह है कि भारत के कई क्षेत्रों (विशेष रूप से दक्षिण भारत) में ‘दूर से अशुद्धता’ की धारणा विद्यमान थी जिसके अनुसार ‘अछूत’ समझे जाने वाले व्यक्ति की उपस्थिति अथवा छाया ही अशुद्ध समझी जाती थी। इस शब्द का आक्षरिक अर्थ सीमित होने के बावजूद, ‘अस्पृश्यता’ की संस्था शारीरिक संपर्क से बचने या अछूत से दूर रहने का आदेश तो देती ही है, साथ ही तथाकथित अछूत के लिए कई सामाजिक अनुशास्त्रियों की व्यवस्था भी करती है।

7. जातीय विषमता को दूर करने के लिए अपनाई गई कुछ नीतियों का वर्णन करें।

उत्तर: जातीय विषमता को दूर करने के लिए भारत सरकार ने समय-समय पर कई कानूनी और संवैधानिक उपाय अपनाए हैं। इन नीतियों का उद्देश्य दलितों और पिछड़े वर्गों को समान अवसर देना और उनके विरुद्ध होने वाले भेदभाव एवं अत्याचार को समाप्त करना रहा है। आरक्षण के अलावा, अनेक कानून बनाए गए हैं जो जातीय अन्याय के खिलाफ़ सुरक्षा प्रदान करते हैं।

मुख्य नीतियाँ व कानून:

(i) 1850 का जातीय निर्योग्यता निवारण अधिनियम: इस कानून के तहत धर्म या जाति बदलने के आधार पर किसी व्यक्ति के नागरिक अधिकारों को नहीं छीना जा सकता था। यह कानून दलितों को सरकारी स्कूलों में दाखिला दिलाने के लिए महत्त्वपूर्ण था।

(ii) भारतीय संविधान (1950): अनुच्छेद 17 के तहत अस्पृश्यता को गैरकानूनी घोषित किया गया। अनुसूचित जातियों, जनजातियों और पिछड़े वर्गों को शिक्षा, नौकरियों और राजनीतिक प्रतिनिधित्व में आरक्षण की व्यवस्था की गई।

(iii) 1989 का अनुसूचित जाति और जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम:  यह कानून दलितों और आदिवासियों के विरुद्ध होने वाले हिंसा, अपमान और अन्य अत्याचारों के लिए सख्त दंड का प्रावधान करता है।

(iv) 2005 का संविधान (93वाँ संशोधन) अधिनियम: यह संशोधन उच्च शिक्षा संस्थानों में अन्य पिछड़े वर्गों (OBC) के लिए आरक्षण लागू करने की अनुमति देता है।

8. अन्य पिछड़े वर्ग, दलितों (या अनुसूचित जातियों) से भिन्न कैसे हैं?

उत्तर: अस्पृश्यता सामाजिक भेदभाव का सर्वाधिक स्पष्ट एवं व्यापक रूप था। किंतु, जातियों का एक काफ़ी बड़ा समूह ऐसा भी था जिन्हें नीचा समझा जाता था। उनके साथ तरह-तरह का भेदभाव भी बरता जाता था पर उन्हें अछूत नहीं माना जाता था। ये सेवा करने वाली शिल्पी (कारीगर) जातियों के लोग थे जिन्हें जाति-सोपान में नीचा स्थान प्राप्त था। भारत के संविधान में इस संभावना को स्वीकार किया गया है कि अनुसूचित जनजातियों और अनुसूचित जातियों के अलावा और भी कई समूह हो सकते हैं जो सामाजिक असुविधाओं से पीड़ित हैं। ऐसे समूहों का जाति पर आधारित होना ज़रूरी नहीं हैं, लेकिन वे आमतौर पर किसी जाति के नाम से ही पहचाने जाते हैं। इन समूहों को ‘सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग’ कहा गया है। यह आम बोलचाल में प्रचलित ‘अन्य पिछड़े वर्ग’ शब्द का संवैधानिक आधार है, जो आजकल सामान्य रूप से प्रयोग किया जाता है।

9. आज आदिवासियों से संबंधित बड़े मुद्दे कौन से हैं?

उत्तर: आज आदिवासियों से संबंधित कई गंभीर और जटिल मुद्दे सामने हैं, जो उनके सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक अधिकारों से जुड़े हुए हैं। ऐतिहासिक रूप से आदिवासी समुदाय जंगलों और प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर रहते आए हैं, लेकिन औपनिवेशिक शासन और फिर स्वतंत्र भारत में भी सरकार द्वारा वनों और खनिजों के दोहन की नीतियों ने उन्हें उनके पारंपरिक जीवन और आजीविका से वंचित कर दिया। वनों पर सरकारी नियंत्रण, झूम खेती पर प्रतिबंध, और विकास परियोजनाओं के नाम पर भूमि अधिग्रहण से लाखों आदिवासी विस्थापित हुए हैं, जिनमें से बहुतों को उचित मुआवज़ा या पुनर्वास तक नहीं मिला।

उद्योगों, खानों और बाँधों के निर्माण के लिए आदिवासियों की ज़मीनें छीनी गईं, जिससे वे घुसपैठिए या अपराधी समझे जाने लगे और मजबूरी में मजदूरी या शहरों की झुग्गियों में पलायन कर गए। आर्थिक उदारीकरण के बाद यह प्रक्रिया और तेज़ हो गई। इन अन्यायपूर्ण स्थितियों ने आदिवासियों को राजनीतिक रूप से सचेत किया और उन्होंने बाहरी लोगों व सरकार के खिलाफ़ संघर्ष शुरू किया।

इन संघर्षों के परिणामस्वरूप झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे अलग राज्यों का निर्माण संभव हो सका। इस प्रकार, आज के आदिवासी मुद्दों में भूमि का अधिकार, सांस्कृतिक पहचान की रक्षा, विस्थापन, और राजनीतिक भागीदारी जैसे प्रश्न प्रमुख हैं, जो आज भी उनके अस्तित्व और आत्म-सम्मान से जुड़े हुए हैं।

10. नारी आंदोलन ने अपने इतिहास के दौरान कौन-कौन से मुख्य मुद्दे उठाए हैं?

उत्तर: नारी आंदोलन ने अपने इतिहास के दौरान समाज में व्याप्त लैंगिक असमानता को चुनौती दी और स्त्रियों के अधिकारों से जुड़े कई महत्वपूर्ण मुद्दों को उठाया। इस आंदोलन की शुरुआत उन्नीसवीं सदी में मध्यवर्गीय सामाजिक सुधार आंदोलनों से हुई, जहाँ पाश्चात्य शिक्षा प्राप्त सुधारकों ने स्त्रियों की स्थिति में सुधार लाने के प्रयास किए। इन आंदोलनों ने यह समझाने की कोशिश की कि पुरुष और स्त्री के बीच असमानता प्राकृतिक नहीं, बल्कि सामाजिक रूप से निर्मित है।

प्रारंभिक दौर में आंदोलन ने सती प्रथा, विधवा पुनर्विवाह, और स्त्री शिक्षा जैसे मुद्दों को केंद्र में रखा। उदाहरण के लिए, राजा राममोहन राय ने सती प्रथा के खिलाफ अभियान चलाया, रानाडे ने विधवाओं के पुनर्विवाह के लिए आंदोलन किया, और जोतिबा फुले ने स्त्रियों की शिक्षा और जातीय अत्याचार के खिलाफ संघर्ष किया। इन प्रयासों ने यह दर्शाया कि स्त्रियाँ भी समान अधिकारों और सम्मान की हकदार हैं।

इन आंदोलनों ने यह भी उजागर किया कि मातृवंशीय समाजों और अफ्रीकी समुदायों में स्त्रियाँ प्रमुख भूमिकाएँ निभाती रही हैं, जिससे यह साबित होता है कि स्त्रियों की सामाजिक स्थिति उनके जैविक लक्षणों पर नहीं बल्कि सामाजिक संरचनाओं पर निर्भर करती है। इस प्रकार, नारी आंदोलन ने स्त्रियों के लिए समान अधिकार, स्वतंत्रता और सम्मान की माँग करते हुए समाज की पितृसत्तात्मक सोच को चुनौती दी और सामाजिक सुधार की दिशा में एक सशक्त पहल की।

11. हम यह किस अर्थ में कह सकते हैं कि ‘असक्षमता’ जितनी शारीरिक है उतनी ही सामाजिक भी?

उत्तर: असक्षमता संबंधी सामाजिक विचारधारा का एक और भी पहलू है। असक्षमता और गरीबी के बीच एक अटूट संबंध होता है। कुपोषण, बार-बार बच्चे पैदा करने से कमज़ोर हुईं माताएँ रोग-प्रतिरक्षा के अपर्याप्त कार्यक्रम, भीड़-भाड़ भरे घरों में दुर्घटनाएँ- ये सब बातें एक साथ मिलकर गरीब लोगों में असक्षमता की ऐसी स्थिति ला देती हैं जो आसान परिस्थितियों में रहने वाले लोगों की तुलना में काफी गंभीर होती हैं। इसके अलावा असक्षमता, व्यक्ति के लिए ही नहीं बल्कि पूरे परिवार के लिए पृथक्करण और आर्थिक दबाव को बढ़ाते हुए गरीबी की स्थिति पैदा करके उसे और गंभीर बना देती हैं। इस बात में कोई संदेह नहीं कि असक्षम लोग गरीब देशों में सबसे गरीब होते हैं।

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