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NCERT Class 12 Sociology Chapter 14 सांस्कृतिक विविधता की चुनौतियाँ
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सांस्कृतिक विविधता की चुनौतियाँ
Chapter: 14
भारतीय समाज |
प्रश्नावली |
1. सांस्कृतिक विविधता का क्या अर्थ है? भारत को एक अत्यंत विविधतापूर्ण देश क्यों माना जाता है?
उत्तर: सांस्कृतिक विविधता का अर्थ है विभिन्न सामाजिक समूहों और समुदायों का एक स्थान पर साथ रहना, जो भाषा, धर्म, जाति, प्रजाति या पंथ जैसे सांस्कृतिक चिह्नों के आधार पर एक-दूसरे से भिन्न होते हैं।सांस्कृतिक विविधता व्यक्तियों, समुदायों और देशों के लिए सतत विकास का मुख्य स्रोत है। भारत को एक अत्यंत विविधतापूर्ण देश इसलिए माना जाता है क्योंकि यहाँ अनेक प्रकार के सांस्कृतिक समुदाय निवास करते हैं। ये विविधताएँ जहाँ भारत की पहचान को समृद्ध बनाती हैं, वहीं कभी-कभी यह संघर्ष और कठिनाइयों का कारण भी बन जाती हैं। सांस्कृतिक पहचानें लोगों के भावनात्मक जुड़ाव का विषय होती हैं, जिससे भावनाएँ भड़क सकती हैं और बड़े समूह संगठित हो सकते हैं। यदि सांस्कृतिक अंतर सामाजिक और आर्थिक असमानताओं से जुड़ जाते हैं, तो समस्याएँ और गहरा जाती हैं। एक समुदाय के लिए उठाए गए कदम कभी-कभी दूसरे समुदाय में विरोध पैदा कर सकते हैं, विशेषकर जब संसाधनों के बँटवारे जैसे मुद्दे सामने आते हैं।
2. सामुदायिक पहचान क्या होती है और वह कैसे बनती है?
उत्तर: सामुदायिक पहचान उस पहचान को कहते हैं जो किसी व्यक्ति को उसके जन्म, भाषा, धर्म, जाति, क्षेत्र या परिवार से प्राप्त होती है। यह पहचान अर्जित नहीं होती, बल्कि हमें जन्म से ही मिलती है, जिसे “प्रदत्त पहचान” कहा जाता है। मनुष्य को अपने अस्तित्व और समाज में स्थान बनाने के लिए एक स्थायी पहचान की आवश्यकता होती है, और यह पहचान हमारे समाजीकरण की प्रक्रिया के दौरान बनती है। हमारा समुदाय हमें भाषा, सांस्कृतिक मूल्य और सोचने का ढंग देता है, जिससे हम अपने चारों ओर की दुनिया को समझते हैं। सामुदायिक पहचान हमें यह महसूस कराती है कि हम किस समूह से जुड़े हैं और हमें सुरक्षा तथा अपनापन प्रदान करती है। चूंकि यह पहचान भावनात्मक रूप से गहराई से जुड़ी होती है, इसलिए लोग अपनी सामुदायिक पहचान को लेकर संवेदनशील होते हैं। जब उन्हें लगता है कि उनकी पहचान को कोई खतरा है, तो वे भावुक या कभी-कभी हिंसक भी हो सकते हैं। सामुदायिक पहचान सार्वभौमिक होती है और अधिकांश लोग इससे गहरे रूप से जुड़े रहते हैं, यही कारण है कि समुदायों के बीच विवादों को सुलझाना कठिन होता है।
3. राष्ट्र को परिभाषित करना क्यों कठिन है? आधुनिक समाज में राष्ट्र और राज्य कैसे संबंधित हैं?
उत्तर: राष्ट्र को परिभाषित करना इसलिए कठिन है क्योंकि यह एक ऐसा अनूठा समुदाय होता है जिसे साझा भाषा, धर्म, संस्कृति, नृजातीयता या इतिहास जैसी विशेषताओं के आधार पर समझा तो जा सकता है, लेकिन इन सभी के लिए कोई एक निश्चित कसौटी तय नहीं की जा सकती। कई राष्ट्रों में इन विशेषताओं का अभाव होता है, जबकि कुछ विशेषताएँ जैसे भाषा या धर्म, कई देशों में साझा होती हैं, फिर भी वे एक राष्ट्र नहीं कहलाते। राष्ट्र और अन्य समुदायों के बीच स्पष्ट भेद करना भी कठिन है क्योंकि कोई भी समुदाय भविष्य में राष्ट्र बन सकता है। आज के दौर में राष्ट्र और राज्य का गहरा संबंध है। राष्ट्र को राज्य की जरूरत होती है ताकि वह राजनीतिक वैधता प्राप्त कर सके, वहीं राज्य भी खुद को राष्ट्र के रूप में प्रस्तुत कर अपनी सत्ता को उचित ठहराता है। आधुनिक समाज में राष्ट्रवाद और लोकतंत्र, राज्य की वैधता के प्रमुख स्रोत बन गए हैं। इसलिए राज्य अकसर एक समान राष्ट्रीय पहचान को बढ़ावा देने की कोशिश करता है, लेकिन इससे सांस्कृतिक विविधताओं का दमन हो सकता है, जो अल्पसंख्यक समुदायों को अलग-थलग कर सकता है। अतः सांस्कृतिक विविधता को प्रोत्साहित करना ही अधिक उचित और व्यावहारिक नीति है।
4. राज्य अक्सर सांस्कृतिक विविधता के बारे में शंकालु क्यों होते हैं?
उत्तर: राज्य अक्सर सांस्कृतिक विविधता के बारे में शंकालु इसलिए होते हैं क्योंकि भारत जैसे राष्ट्र-राज्य में अत्यधिक सामाजिक और सांस्कृतिक विविधता पाई जाती है। यहाँ 1,632 भाषाएँ और बोलियाँ बोली जाती हैं, अनेक धर्मों के लोग रहते हैं और जातियों एवं भाषाओं की दृष्टि से भी समाज विभाजित है। इतने विविध समुदायों के बीच संतुलन बनाए रखना राज्य के लिए एक बड़ी चुनौती होती है। भारत ने आत्मसात्करणवादी नीति को कभी स्वीकार नहीं किया, लेकिन बहुसंख्यक हिंदू समुदाय के कुछ वर्ग इसकी माँग करते रहे हैं। हालाँकि संविधान ने धर्म-निरपेक्षता को मान्यता दी है और अल्पसंख्यक धर्मों को प्रबल संवैधानिक सुरक्षा भी दी गई है, फिर भी व्यवहार में इन सिद्धांतों के पालन में कुछ कमी रही है। यही कारण है कि भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में राज्य सांस्कृतिक विविधता को लेकर शंकालु रहता है, क्योंकि उसे राष्ट्र की एकता और अखंडता बनाए रखने की चिंता सताती रहती है।
5. क्षेत्रवाद क्या होता है? आमतौर पर यह किन कारकों पर आधारित होता है?
उत्तर: क्षेत्रवाद एक ऐसी भावना है जो विशेष क्षेत्रों की पहचान, संस्कृति, भाषा, जनजातीयता और संसाधनों से जुड़ी होती है। भारत में क्षेत्रवाद की उत्पत्ति देश की भाषाई, सांस्कृतिक, धार्मिक और जनजातीय विविधता के कारण होती है। जब किसी विशेष क्षेत्र के लोग यह महसूस करते हैं कि उनके क्षेत्र को विकास, संसाधनों या राजनीतिक प्रतिनिधित्व में उपेक्षित किया जा रहा है, तो क्षेत्रीय वंचना की भावना पैदा होती है, जो क्षेत्रवाद को और भी प्रबल बनाती है। यह भावना तब और तीव्र हो जाती है जब क्षेत्र विशेष के पहचान चिह्न जैसे भाषा, जनजातीयता, संस्कृति आदि वहाँ भौगोलिक रूप से केंद्रित होते हैं। स्वतंत्रता के बाद भारत में कई बहुभाषी और बहुजनजातीय प्रांत थे, लेकिन जन आंदोलनों के कारण उन्हें भाषाई और नृजातीय आधार पर नए राज्यों में पुनर्गठित करना पड़ा। उदाहरण के लिए, पुराने बंबई और मद्रास राज्यों को कई भाषाई राज्यों में बाँटा गया। हालाँकि, कुछ राज्यों जैसे छत्तीसगढ़, झारखंड और उत्तरांचल का निर्माण भाषाई आधार पर नहीं बल्कि जनजातीय पहचान, क्षेत्रीय वंचन और पारिस्थितिकीय कारणों के आधार पर हुआ। क्षेत्रवाद केवल भावनाओं के स्तर तक सीमित नहीं रहता, इसके सफल प्रबंधन के लिए एक संस्थागत और संवैधानिक ढाँचे की आवश्यकता होती है। भारतीय संविधान में केंद्र और राज्य की शक्तियाँ स्पष्ट रूप से परिभाषित की गई हैं और वित्त आयोग, राज्यसभा तथा पंचवर्षीय योजनाओं जैसे माध्यमों से केंद्र-राज्य संबंधों को संतुलित किया जाता है। इस प्रकार, क्षेत्रवाद भारत में एक जटिल लेकिन संवैधानिक रूप से संरक्षित प्रक्रिया है जो विविधताओं के सम्मान और संघीय ढाँचे के बीच संतुलन स्थापित करता है।
6. आपकी राय में, राज्यों के भाषाई पुनर्गठन ने भारत का हित या अहित किया है?
उत्तर: मेरी राय में, भारत में राज्यों का भाषाई पुनर्गठन देश के हित में रहा है। 1956 में जब राज्य पुनर्गठन आयोग की रिपोर्ट के आधार पर भाषाई आधार पर राज्यों का निर्माण हुआ, तब यह एक महत्वपूर्ण और साहसी निर्णय था। प्रारंभ में नेताओं को यह आशंका थी कि भाषाई राज्यों से भारत में विभाजन की भावना बढ़ सकती है, लेकिन वास्तव में इसका परिणाम उल्टा हुआ।
भाषाई आधार पर राज्य निर्माण से विभिन्न भाषाई समुदायों की सांस्कृतिक पहचान को सम्मान मिला, जिससे उनमें देश के प्रति एकता और जुड़ाव की भावना मजबूत हुई। जैसे तमिल, मराठी, गुजराती, बंगाली, तेलुगु आदि भाषाई समूहों ने जब अपनी-अपनी भाषा में राज्य प्राप्त किए, तो उन्होंने खुद को भारतीय संघ का सक्रिय और समान भागीदार माना। इससे भारत की एकता को मज़बूती मिली।
साथ ही, भारत ने अपने पड़ोसी देशों जैसे श्रीलंका और पाकिस्तान से अलग रास्ता अपनाया, जहाँ अल्पसंख्यक भाषाई समूहों की उपेक्षा और दमन ने गृहयुद्ध या विभाजन जैसी स्थितियाँ पैदा कर दीं। भारत में भाषाई पुनर्गठन ने ऐसी किसी उग्र स्थिति को टालने में मदद की।
हालाँकि, भाषाई राज्यों के बीच कुछ मतभेद और विवाद होते रहे हैं, लेकिन इनसे राष्ट्रीय एकता को कोई बड़ा नुकसान नहीं पहुँचा है। बल्कि, यह पुनर्गठन भारतीय संघवाद को और अधिक सशक्त बनाने का माध्यम बना, जिससे विभिन्न क्षेत्रों को प्रशासनिक स्वायत्तता और सांस्कृतिक सम्मान दोनों प्राप्त हुए। इसलिए निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि भाषाई पुनर्गठन ने भारत को नुकसान नहीं, बल्कि एकजुटता, स्थायित्व और लोकतांत्रिक मजबूती प्रदान की है।
7. ‘अल्पसंख्यक’ (वर्ग) क्या होता है? अल्पसंख्यक वर्गों को राज्य से संरक्षण की क्यों ज़रूरत होती है?
उत्तर: अल्पसंख्यक वर्ग वे समूह होते हैं जिनकी जनसंख्या किसी देश या समाज में बहुसंख्यक समुदाय की तुलना में कम होती है। भारत में धार्मिक अल्पसंख्यकों में मुसलमान, ईसाई, सिख, बौद्ध, जैन आदि शामिल हैं। मुसलमान सबसे बड़ा अल्पसंख्यक वर्ग हैं जिनकी जनसंख्या देश की कुल जनसंख्या का लगभग 14.2% है, जबकि ईसाई 2.3%, सिख 1.7%, बौद्ध 0.7% और जैन 0.4% हैं। ये समूह भौगोलिक रूप से पूरे देश में फैले हुए हैं, पर कुछ क्षेत्रों में उनका घनत्व अधिक है, जैसे कि सिखों का पंजाब में, ईसाइयों का पूर्वोत्तर राज्यों में और बौद्धों का महाराष्ट्र व सिक्किम में।
अल्पसंख्यक वर्गों को राज्य से संरक्षण की आवश्यकता इसलिए होती है क्योंकि उनकी संख्या कम होने के कारण वे सामाजिक, राजनीतिक या सांस्कृतिक रूप से बहुसंख्यक समुदाय के दबाव में आ सकते हैं। डॉ. अंबेडकर के अनुसार, यदि अल्पसंख्यकों को सुरक्षा नहीं दी गई तो वे असंतोष का केंद्र बन सकते हैं, जिससे राज्य की स्थिरता को खतरा उत्पन्न हो सकता है। इसके अलावा, भारतीय संविधान ने भी अनुच्छेद 29 और 30 के माध्यम से अल्पसंख्यकों को अपनी भाषा, लिपि, संस्कृति और शिक्षा संस्थान स्थापित करने और चलाने का अधिकार दिया है। यह सुनिश्चित करता है कि वे अपनी पहचान को बनाए रखते हुए समान रूप से विकास कर सकें और किसी प्रकार के भेदभाव का शिकार न हों। इस प्रकार, अल्पसंख्यकों को संरक्षण देना न केवल संवैधानिक कर्तव्य है, बल्कि सामाजिक समरसता और राष्ट्रीय एकता के लिए भी आवश्यक है।
8. सांप्रदायवाद या सांप्रदायिकता क्या है?
उत्तर: सांप्रदायिकता या संप्रदायवाद’ का अर्थ है धार्मिक पहचान पर आधारित आक्रामक उग्रवाद। उग्रवाद, अपने आप में एक ऐसी अभिवृत्ति है जो अपने समूह को ही वैध या श्रेष्ठ समूह मानती है और अन्य समूहों को निम्न, अवैध अथवा विरोधी समझती है। इसी बात को और सरल शब्दों में कहें तो सांप्रदायिकता एक आक्रामक राजनीतिक विचारधारा है जो धर्म से जुड़ी होती है। यह एक अनूठा भारतीय अथवा शायद दक्षिण एशियाई अर्थ है जो साधारण अंग्रेज़ी शब्द के भाव से भिन्न है। अंग्रेज़ी भाषा में, ‘कम्युनल’ (communal) शब्द का अर्थ है व्यक्ति की बजाय समुदाय (यानी कम्युनिटी) या सामूहिकता से जुड़ा हुआ (व्यक्ति, भाव, विचार आदि)। अंग्रेज़ी अर्थ तटस्थ है जबकि दक्षिण एशियाई अर्थ प्रबल रूप से आवेशित है। इस आवेश को सकारात्मक दृष्टि से देखा जा सकता है, यदि देखने वाला सांप्रदायिकता के प्रति सहानुभूति रखता हो अथवा नकारात्मक दृष्टि से भी, यदि देखने वाला इस का विरोधी हो।
9. भारत में वह विभिन्न भाव (अर्थ) कौन से हैं जिनमें धर्मनिरपेक्षता या धर्मनिरपेक्षतावाद को समझा जाता है?
उत्तर: भारत में धर्मनिरपेक्षता या धर्मनिरपेक्षतावाद को कई विभिन्न भावों में समझा जाता है। पाश्चात्य संदर्भ में यह शब्द मुख्यतः चर्च और राज्य के पृथक्करण का प्रतीक है, जहाँ धर्म को व्यक्ति का निजी और स्वैच्छिक विषय माना जाता है तथा राज्य धार्मिक मामलों से दूर रहता है। यह विचार आधुनिकता, विज्ञान और तर्क के उदय से जुड़ा है, जिसने धर्म को सार्वजनिक जीवन से धीरे-धीरे अलग किया। भारत में धर्मनिरपेक्षता के अर्थ इन पश्चिमी भावों को तो समाहित करते हैं, लेकिन इसके साथ-साथ इसमें कुछ विशिष्ट भारतीय विशेषताएँ भी जुड़ी हैं। यहाँ धर्मनिरपेक्षता का एक प्रमुख भाव सभी धर्मों के प्रति समान आदर का होता है, जिसमें राज्य किसी एक धर्म का पक्ष न लेकर सभी धर्मों के त्यौहारों को समान रूप से महत्व देता है। साथ ही, भारतीय संदर्भ में धर्मनिरपेक्षता का सामान्य प्रयोग ‘सांप्रदायिकता’ के विरोध के रूप में भी होता है। भारतीय राज्य जब अल्पसंख्यकों को संरक्षण देता है, तो वह धर्मनिरपेक्षता की अपनी प्रतिबद्धता निभाने का प्रयास करता है, परंतु इससे यह आरोप भी लग सकता है कि यह तुष्टीकरण मात्र है। विरोधी इसे राजनीतिक स्वार्थ मानते हैं जबकि समर्थक इसे आवश्यक सुरक्षा का उपाय बताते हैं ताकि अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों के मूल्यों को स्वीकार करने के लिए बाध्य न किया जाए। इस प्रकार, भारत में धर्मनिरपेक्षता एक बहुस्तरीय और जटिल अवधारणा है, जो समानता, निष्पक्षता और विविधता के सम्मान से जुड़ी हुई है।
10. आज नागरिक समाज संगठनों की क्या प्रासंगिकता है?
उत्तर: आज नागरिक समाज के संगठनों के क्रियाकलाप और भी व्यापक रूप ले चुके हैं जिनमें राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय अभिकरणों के साथ पक्ष समर्थन तथा प्रचार संबंधी गतिविधियाँ चलाने के साथ-साथ विभिन्न आंदोलनों में सक्रियतापूर्वक भाग लेना शामिल है। विविध प्रकार के मुद्दों को उठाया गया जिसमें भूमि संबंधी अधिकारों के लिए जनजातीय संघर्ष, नगरीय शासन का हस्तांतरण, स्त्रियों के प्रति हिंसा और बलात्कार के विरुद्ध अभियान, बाँधों के निर्माण अथवा विकास की अन्य परियोजनाओं के कारण विस्थापित हुए लोगों का पुनर्वास, मशीनों की सहायता से मछली पकड़ने के विरुद्ध मछुआरों का संघर्ष, फेरी लगाकर सामान बेचने वालों या पटरी पर रहने वालों का पुनर्वास, गंदी बस्तियाँ हटाने के विरुद्ध और आवासीय अधिकारों के लिए अभियान, प्राथमिक शिक्षा संबंधी सुधार, दलितों को भूमि का वितरण आदि शामिल हैं। नागरिक स्वतंत्रता संगठन राज्य के कामकाज पर नज़र रखने और उससे कानून का पालन करवाने की दिशा में विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण रहे हैं। जनसंचार माध्यमों ने भी, विशेष रूप से इसके उभरते हुए दृश्य और इलेक्ट्रॉनिक खंडों ने उत्तरोत्तर बढ़ती हुई सक्रिय भूमिका अदा की है।

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