NCERT Class 12 Sociology Chapter 10 भारतीय समाज की जनसांख्यिकीय संरचना

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NCERT Class 12 Sociology Chapter 10 भारतीय समाज की जनसांख्यिकीय संरचना

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Chapter: 10

भारतीय समाज
प्रश्नावली

1. जनसांख्यिकीय संक्रमण के सिद्धांत के बुनियादी तर्क को स्पष्ट कीजिए। संक्रमण अवधि ‘जनसंख्या विस्फोट’ के साथ क्यों जुड़ी है?

उत्तर: जनसांख्यिकीय विषय में एक अन्य उल्लेखनीय सिद्धांत है, इसका तात्पर्य यह है कि जनसंख्या वृद्धि आर्थिक विकास के समग्र स्तरों से जुड़ी होती है एवं प्रत्येक समाज विकास से संबंधित जनसंख्या वृद्धि के एक निश्चित स्वरूप का अनुसरण करता है। जनसंख्या वृद्धि के तीन बुनियादी चरण होते हैं। पहला चरण है समाज में जनसंख्या वृद्धि का कम होना क्योंकि समाज अल्पविकसित और तकनीकी दृष्टि से पिछड़ा होता है। वृद्धि दरें इसलिए कम होती हैं क्योंकि मृत्यु दर और जन्म दर दोनों ही बहुत ऊँची होती हैं इसलिए दोनों के बीच का अंतर (यानी शुद्ध वृद्धि दर) नीचा रहता है। तीसरे (और अंतिम) चरण में भी विकसित समाज में जनसंख्या वृद्धि दर नीची रहती है क्योंकि ऐसे समाज में मृत्यु दर और जन्म दर दोनों ही काफ़ी कम हो जाती हैं और उनके बीच अंतर बहुत कम रहता है। इन दोनों अवस्थाओं के बीच एक तीसरा संक्रमणकालीन चरण होता है जब समाज पिछड़ी अवस्था से उन्नत अवस्था में जाता है और इस अवस्था की विशेषता यह है कि इस दौरान जनसंख्या वृद्धि की दरें बहुत ऊँची हो जाती हैं।

यह ‘जनसंख्या विस्फोट’ इसलिए होता है क्योंकि मृत्यु दर, रोग नियंत्रण, जनस्वास्थ्य और बेहतर पोषण के उन्नत तरीकों के द्वारा अपेक्षाकृत तेज़ी से नीचे ला दी जाती है। लेकिन समाज को इस आपेक्षिक समृद्धि की स्थिति और पहले से अधिक लंबी जीवन अवधियों के अनुरूप अपने आपको ढालने और अपने प्रजननात्मक व्यवहार को (जो उसकी गरीबी और ऊँची मृत्यु दरों की हालत में विकसित हो गया था) बदलने में काफ़ी लंबा समय लगता है। इस प्रकार का संक्रमण पश्चिमी यूरोप में 19वीं शताब्दी के अंतिम वर्षों और 20वीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में हुआ था। अपेक्षाकृत कम विकसित देशों में भी, जो गिरती हुई मृत्यु दरों के अनुसार अपने यहाँ जन्म दर घटाने के लिए संघर्षशील रहे हैं कमोबेश ऐसे ही तरीके अपनाए गए हैं। भारत में भी जनसांख्यिकीय संक्रमण अभी तक पूरा नहीं हुआ है क्योंकि यहाँ मृत्यु दर कम कर दी गई है पर जन्म दर उसी अनुपात में नहीं घटाई जा सकी है।

2. माल्थस का यह विश्वास क्यों था कि अकाल और महामारी जैसी विनाशकारी घटनाएँ, जो बड़े पैमाने पर मृत्यु का कारण बनती हैं, अपरिहार्य हैं?

उत्तर: थॉमस रॉबर्ट माल्थस का यह विश्वास था कि अकाल, महामारी और अन्य विनाशकारी घटनाएँ अपरिहार्य हैं क्योंकि जनसंख्या की वृद्धि दर पृथ्वी की खाद्य उत्पादन क्षमता से कहीं अधिक होती है। उन्होंने कहा कि जनसंख्या की शक्ति इतनी अधिक है कि मानव समाज को किसी-न-किसी रूप में असामयिक मृत्यु का सामना करना ही पड़ेगा। उनके अनुसार, यदि मनुष्य अपने दुर्गुणों जैसे यौन असंयम या अत्यधिक संतानोत्पत्ति पर नियंत्रण नहीं रखता, तो ये दुर्गुण स्वयं ही जनसंख्या को कम करने के लिए विनाश का कारण बन जाते हैं। जब ये उपाय विफल हो जाते हैं, तो बीमारियाँ, महामारियाँ, प्लेग और अंततः भयंकर अकाल जैसे प्राकृतिक निरोध (Positive Checks) सक्रिय हो जाते हैं, जो जनसंख्या को उस स्तर तक घटा देते हैं जहाँ खाद्य सामग्री पर्याप्त हो सके। माल्थस मानते थे कि मनुष्य में कृत्रिम निरोधों (Preventive Checks) — जैसे कि विवाह में देरी, यौन संयम या ब्रह्मचर्य — को अपनाने की सीमित क्षमता है, इसलिए प्रकृति स्वयं संतुलन बनाने के लिए विनाशकारी उपायों का सहारा लेती है। इसीलिए माल्थस को यह विश्वास था कि अकाल और महामारियाँ जनसंख्या नियंत्रण के अपरिहार्य और प्राकृतिक साधन हैं, जो खाद्य आपूर्ति और जनसंख्या के बीच संतुलन बनाए रखने का काम करती हैं।

3. मृत्यु दर और जन्म दर का क्या अर्थ है? कारण स्पष्ट कीजिए कि जन्म दर में गिरावट अपेक्षाकृत धीमी गति से क्यों आती है जबकि मृत्यु दर बहुत तेज़ी से गिरती है।

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उत्तर: मृत्यु दर का अर्थ है किसी निश्चित समय अवधि में प्रति हजार जनसंख्या पर मृत्यु की संख्या, जबकि जन्म दर से आशय है प्रति हजार जनसंख्या पर जन्म लेने वाले शिशुओं की संख्या। जनसांख्यिकीय संक्रमण के सिद्धांत के अनुसार, किसी समाज की जनसंख्या वृद्धि उसकी आर्थिक और सामाजिक प्रगति से जुड़ी होती है और यह तीन चरणों में होती है। पहले चरण में जन्म दर और मृत्यु दर दोनों ही बहुत ऊँची होती हैं, जिससे जनसंख्या में वृद्धि की गति धीमी रहती है। जब समाज तकनीकी और स्वास्थ्य सुविधाओं के विकास के साथ दूसरे यानी संक्रमणकालीन चरण में प्रवेश करता है, तब मृत्यु दर में तेज़ी से गिरावट आती है क्योंकि रोगों पर नियंत्रण, बेहतर पोषण और जनस्वास्थ्य सेवाएँ उपलब्ध हो जाती हैं। वहीं, जन्म दर में गिरावट अपेक्षाकृत धीरे-धीरे आती है क्योंकि समाज को नई परिस्थितियों, जैसे बढ़ती समृद्धि और लंबी जीवन प्रत्याशा के अनुसार अपने सामाजिक और सांस्कृतिक व्यवहार को बदलने में समय लगता है। उच्च जन्म दर का संबंध लंबे समय से चली आ रही सामाजिक परंपराओं, बाल विवाह, कम शिक्षा स्तर, और संतान को सुरक्षा मानने की मानसिकता से होता है, जिन्हें बदलना एक धीमी प्रक्रिया है। यही कारण है कि भारत जैसे देशों में मृत्यु दर तो घट गई है, परंतु जन्म दर अभी भी अपेक्षाकृत ऊँची बनी हुई है और जनसंख्या वृद्धि दर अधिक बनी रहती है।

4. भारत में कौन-कौन से राज्य जनसंख्या संवृद्धि के ‘प्रतिस्थापन स्तरों’ को प्राप्त कर चुके हैं अथवा प्राप्ति के बहुत नज़दीक हैं? कौन-से राज्यों में अब भी जनसंख्या संवृद्धि की दरें बहुत ऊँची हैं? आपकी राय में इन क्षेत्रीय अंतरों के क्या कारण हो सकते हैं?

उत्तर: जनसंख्या वृद्धि के प्रतिस्थापन स्तर को प्राप्त करने वाले राज्य – तमिलनाडु, केरल, गोआ, नागालैंड, मणिपुर, त्रिपुरा, जम्मू और कश्मीर तथा पंजाब हैं।

जनसंख्या वृद्धि के निकटतम प्रतिस्थापन स्तर को प्राप्त करने वाले राज्य – उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम तथा पश्चिम बंगाल हैं।

क्षेत्र तथा क्षेत्रीय विभिन्नताएँ

(i) विभिन्न प्रदेशों में साक्षरता प्रतिशत में विभिन्नता: विभिन्न प्रदेशों की सामाजिक परिस्थितियाँ भिन्न-भिन्न हैं। आतंकवाद, युद्ध जैसी स्थिति तथा उपद्रव की स्थिति जम्मू एवं कश्मीर तथा उत्तर-पूर्वी राज्यों में विद्यमान है।

(ii) विभिन्न राज्यों में सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों में विभिन्नता है।

गरीबी रेखा से नीचे (BPL) रहने वाले लोगों की संख्या सबसे अधिक उत्तर प्रदेश, बिहार तथा उड़ीसा में है। पहले के समय में यह धारणा रही है कि जितने अधिक बच्चे होंगे, उतने अधिक लोग खेती, मजदूरी या घरेलू काम में मदद करेंगे, जिससे परिवार की आर्थिक स्थिति मजबूत होगी। यह सोच मुख्यतः ग्रामीण या श्रम-प्रधान समाजों में देखने को मिलती थी।

5. जनसंख्या की ‘आयु संरचना’ का क्या अर्थ है? आर्थिक विकास और संवृद्धि के लिए उसकी क्या प्रासंगिकता है?

उत्तर: भारत की जनसंख्या बहुत जवान है यानी अधिकांश भारतीय युवावस्था में हैं और यहाँ की आयु का औसत भी अधिकांश अन्य देशों की तुलना में कम है। भारत की जनसंख्या की अधिकांश आबादी 15 से 64 वर्ष की आयु वाले लोगों की है।

देश की संपूर्ण जनसंख्या में 15 वर्ष से कम आयु वाले वर्ग का हिस्सा जो 1971 में 42% के सर्वोच्च स्तर पर था घटकर 2011 में 29% के स्तर पर आ गया है। 15-59 के आयु वर्ग का हिस्सा 53% से कुछ बढ़कर 63% हो गया है जबकि 60 वर्ष से ऊपर की आयु वाले वर्ग का हिस्सा बहुत छोटा है लेकिन वह उसी अवधि के दौरान (5% से 7% तक) बढ़ना शुरू हो गया है। लेकिन अगले दो दशकों में भारतीय जनसंख्या की आयु संरचना में काफ़ी परिवर्तन आने की उम्मीद है और यह परिवर्तन अधिकांशतः आयु क्रम के दोनों सिरों पर आएगा। जैसाकि सारणी 2 में दिखाया गया है 0-14 आयु वर्ग का हिस्सा लगभग 11% घट जाएगा (यह 2001 में 34% था जो 2026 में घटकर 23% हो जाएगा) जबकि 60 वर्ष से अधिक के आयु वर्ग में लगभग 5% की वृद्धि होगी (यह 2001 के 7% से बढ़कर 2026 में 12% हो जाएगा)। 

जनसंख्या पिरामिड’ का 1961 से लेकर 2026 तक का प्रक्षेपित स्वरूप दिखाया गया है।

भारत की जनसंख्या की आयु संरचना, 1961-2026
वर्ष आयु वर्ग जोड़ 
0 – 14 वर्ष 15 – 59 बर्ष 60 वर्ष से अधिक 
196141536100
197142535100
198140546100
199138567100
200134597100
201129638100
2026236412100

स्रोत-राष्ट्रीय जनसंख्या आयोग के जनसंख्या प्रेक्षक विषय तकनीकी समूह के आँकड़ों (1996 और 2006) पर आधारित ।

यह सारणी प्रदर्शित करती है कि कुल जनसंख्या में 15 वर्ष से कम आयु वर्ग के लोगों का प्रतिशत जो 1971 में उच्चतम 42% था, 2011 में घटकर 29% हो गया। 2026 तक इसको 23% हो जाने का अनुमान है। इसका अर्थ यह है कि भारत में जन्म-दर में क्रमशः गिरावट आ रही है।

6. ‘स्त्री-पुरुष अनुपात’ का क्या अर्थ है? एक गिरते हुए स्त्री-पुरुष अनुपात के क्या निहितार्थ हैं? क्या आप यह महसूस करते हैं कि माता-पिता आज भी बेटियों की बजाय बेटों को अधिक पसंद करते हैं? आप की राय में इस पसंद के क्या-क्या कारण हो सकते हैं?

उत्तर: स्त्री-पुरुष अनुपात का अर्थ है किसी समाज में प्रति 1,000 पुरुषों पर स्त्रियों की संख्या। यह अनुपात किसी देश की जनसंख्या में लैंगिक संतुलन को मापने का एक महत्वपूर्ण संकेतक होता है। ऐतिहासिक रूप से यह अनुपात स्त्रियों के पक्ष में रहा है, लेकिन भारत में पिछले एक शताब्दी से यह निरंतर गिरता जा रहा है, जो एक गंभीर सामाजिक चिंता का विषय है। खासकर बाल स्त्री-पुरुष अनुपात यानी 0-6 वर्ष की आयु के बच्चों में लड़कियों की संख्या में भारी गिरावट दर्ज की गई है। जहाँ समग्र अनुपात में कभी-कभी सुधार देखा गया, वहीं बाल अनुपात और नीचे चला गया। उदाहरण के लिए, 2011 की जनगणना के अनुसार प्रति 1,000 पुरुष बच्चों पर केवल 914 लड़कियाँ थीं। हरियाणा जैसे राज्य में यह संख्या और भी चिंताजनक है – मात्र 793।

इस गिरते अनुपात के कई निहितार्थ हैं। यह समाज में लैंगिक असंतुलन पैदा करता है जिससे भविष्य में विवाह संबंधी समस्याएँ, महिलाओं पर अत्याचार, मानव तस्करी जैसी समस्याएँ बढ़ सकती हैं। बालिकाओं के प्रति भेदभाव का यह संकेत है कि समाज में अभी भी बेटियों की स्थिति असुरक्षित है।

आज भी समाज में कई माता-पिता बेटों को बेटियों की तुलना में अधिक पसंद करते हैं। इसके पीछे कई कारण हैं —

(i) बेटों को वंश बढ़ाने वाला माना जाता है।

(ii) बेटियाँ विवाह के बाद दूसरे घर चली जाती हैं जबकि बेटे माता-पिता का सहारा समझे जाते हैं।

(iii) दहेज प्रथा जैसी कुप्रथाओं के कारण बेटी को बोझ माना जाता है।

(iv) धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, अंतिम संस्कार जैसे कर्मों के लिए बेटे को आवश्यक माना जाता है।

यह मानसिकता आज भी समाज के अनेक हिस्सों में मौजूद है, चाहे वह गरीब हो या अमीर। अल्ट्रासाउंड जैसी तकनीकों का दुरुपयोग कर कन्या भ्रूण को जन्म से पहले ही समाप्त किया जाना, इस भेदभाव का आधुनिक रूप है। सरकार ने इस पर रोक लगाने के लिए कानून बनाए हैं जैसे PCPNDT अधिनियम (1994, संशोधित 2003), और ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ जैसे कार्यक्रम शुरू किए हैं। लेकिन स्थायी सुधार समाज की सोच में बदलाव लाकर ही संभव है, ताकि बेटियों को बराबरी का दर्जा मिल सके और स्त्री-पुरुष अनुपात संतुलित हो सके।

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