NCERT Class 12 Sociology Chapter 2 सांस्कृतिक परिवर्तन

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NCERT Class 12 Sociology Chapter 2 सांस्कृतिक परिवर्तन

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Chapter: 2

भारत में सामाजिक परिवर्तन एवं विकास
प्रश्नावली

1. संस्कृतीकरण पर एक आलोचनात्मक लेख लिखें।

उत्तर: संस्कृतीकरण शब्द की उत्पत्ति एम.एन. श्रीनिवास ने की। संस्कृतीकरण का अभिप्राय उस प्रक्रिया से है जिसमें निम्न जाति या जनजाति या अन्य समूह उच्च जातियों विशेषकर, द्विज जाति की जीवन पद्धति, अनुष्ठान, मूल्य, आदर्श, विचारधाराओं का अनुकरण करते हैं।

संस्कृतीकरण के बहुआयामी प्रभाव हैं। इसके प्रभाव भाषा, साहित्य, विचारधारा, संगीत, नृत्य, नाटक, अनुष्ठान व जीवन पद्धति में देखे जा सकते हैं।

मूलतः संस्कृतीकरण की प्रक्रिया हिंदू समाज के अंतर्गत विद्यमान है। यद्यपि श्रीनिवास को गैर हिंदू संप्रदायों और समूहों में भी यह प्रक्रिया दिखाई पड़ती है। विभिन्न क्षेत्रों के अध्ययन से यह पाया गया है कि यह प्रक्रिया देश के विभिन्न हिस्सों में अलग-अलग ढंग से होती है। जिन क्षेत्रों में उच्चस्तरीय सांस्कृतिक जातियाँ प्रभुत्वशाली थीं, उस क्षेत्र की संपूर्ण संस्कृति में किसी न किसी स्तर का संस्कृतीकरण हुआ। जहाँ गैर संस्कृतीकरण जातियाँ प्रभुत्वशाली थीं, वहाँ की संस्कृति को इन जातियों ने प्रभावित किया। इस प्रक्रिया को श्रीनिवास ने विसंस्कृतीकरण की संज्ञा दी। इसके अलावा अन्य क्षेत्रीय विभिन्नताएँ भी पाई जाती हैं। कई सदियों तक 19वीं शताब्दी के तीन चौथाई भाग तक पारसियों को प्रभुत्वशाली माना जाता था।

2. पश्चिमीकरण का साधारणतः मतलब होता है पश्चिमी पोशाकों व जीवन शैली का अनुकरण। क्या पश्चिमीकरण के दूसरे पक्ष भी हैं? क्या पश्चिमीकरण का मतलब आधुनिकीकरण है? चर्चा करें।

उत्तर: एम. एन. श्रीनिवास ने पश्चिमीकरण की परिभाषा देते हुए कहा कि यह भारतीय समाज और संस्कृति में, लगभग 150 सालों के ब्रिटिश शासन के परिणामस्वरूप आए परिवर्तन हैं, जिसमें विभिन्न पहलू आते हैं, जैसे- प्रौद्योगिकी, संस्था, विचारधारा, और मूल्य।

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पश्चिमीकरण के विभिन्न प्रकार रहे हैं –

एक प्रकार के पश्चिमीकरण का मतलब उस पश्चिमी उप सांस्कृतिक प्रतिमान से है जिसे भारतीयों के उस छोटे समूह ने अपनाया जो पहली बार पश्चिमी संस्कृति के संपर्क में आए हैं। इसमें भारतीय बुद्धिजीवियों की उपसंस्कृति भी शामिल थी। इन्होंने न केवल पश्चिमी प्रतिमान चिंतन के प्रकारों, स्वरूपों एवं जीवनशैली को स्वीकारा बल्कि इनका समर्थन एवं विस्तार भी किया। 

पाश्चात्य संस्कृति का विस्तार नई तकनीक, वेशभूषा, खानपान तथा सामान्य जीवन में हुआ। पश्चिमीकरण में किसी संस्कृति विशेष के बाह्य तत्वों के अनुकरण की प्रवृत्ति भी होती है। परंतु यह आवश्यक नहीं कि वे प्रजातंत्र तथा सामाजिक समानता जैसे आधुनिक मूल्यों में भी विश्वास रखते हों।

जीवनशैली तथा चिंतन के अलावा भारतीय कला और साहित्य पर भी पश्चिमी संस्कृति का प्रभाव पड़ा। राजा रवि वर्मा के द्वारा किजाक्के पलाट कृष्णा मेनन नामक एक देशीय परिवार की पेंटिंग बनाई गई, जिसमें एक ऐसे परिवार का चित्रण किया गया है, जोकि एक विशेष पितृसत्तामक एकाकी परिवार लगता है, जिसमें कि माता-पिता तथा बच्चे सम्मिलित हैं।

श्रीनिवास का मानना है कि निम्न जाति के लोग संस्कृतीकरण की प्रक्रिया को अपनाते हैं, जबकि अन्य जाति के लोग पश्चिमीकरण को, लेकिन इस तरह का सामान्यीकरण उपयुक्त नहीं है। उदाहरण के तौर पर, केरल के थिय्या (जो कि किसी भी प्रकार से उच्च जाति के नहीं हैं।) पश्चिमीकरण की इच्छा रखते हैं। अभिजात थिय्याओं ने तो ब्रिटिश संस्कृति को स्वीकार किया तथा एक ऐसी विश्वजनीन जीवन-शैली की आकांक्षा थी जो जाति व्यवस्था की आलोचना करती है। पश्चिमी शिक्षा ने विभिन्न समूह के लोगों के बीच नए अवसर के द्वार खोले।

आधुनिकीकरण –

आधुनिकता’ का मतलब ये समझ में आता है कि इसके समक्ष सीमित संकीर्ण-स्थानीय दृष्टिकोण कमज़ोर पड़ जाते हैं और सार्वभौमिक प्रतिबद्धता और विश्वजनीन दृष्टिकोण (यानी कि समूचे विश्व का नागरिक होना) ज़्यादा प्रभावशाली होता है; इसमें उपयोगिता, गणना और विज्ञान की सत्यता को भावुकता, धार्मिक पवित्रता और अवैज्ञानिक तत्त्वों के स्थान पर महत्त्व दिया जाता है; इसके प्रभाव में सामाजिक तथा राजनीतिक स्तर पर व्यक्ति को प्राथमिकता दी जाती है न कि समूह को; इसके मूल्यों के मुताबिक मनुष्य ऐसे समूह/संगठन में रहते और काम करते हैं जिसका चयन जन्म के आधार पर नहीं बल्कि इच्छा के आधार पर होता है इसमें भाग्यवादी प्रवृत्ति के ऊपर ज्ञान तथा नियंत्रण क्षमता को प्राथमिकता दी जाती है और यही मनुष्य को उसके भौतिक तथा मानवीय पर्यावरण से जोड़ता है; अपनी पहचान को चुनकर अर्जित किया जाता है न कि जन्म के आधार पर, इसका मतलब यह भी है कि कार्य को परिवार, गृह और समुदाय से अलग कर नौकरशाही संगठन में शामिल किया जाता है। 

यह कहना आसान है कि इस प्रकार की जटिल संरचना केवल परंपरा तथा आधुनिकता का मिश्रण है। परंपरा तथा आधुनिक एक निर्धारित तत्व है। यह भी कहना भ्रांतिपूर्ण है कि भारत केवल एक ही तरह की परंपराओं का समुच्चय था अथवा है। आधुनिकता तथा परंपरा हमेशा परिवर्तित तथा पुनर्परिभाषित होती रही है।

3. लघु निबंध लिखें

(i) संस्कार और पंथनिरपेक्षीकरण।

उत्तर: अधिकांश संस्कार धर्म द्वारा अनुमोदित होते हैं। लेकिन,धर्मनिरपेक्षीकरण के परिणामस्वरूप नगरीय क्षेत्रों में न केवल संस्कारों एवं अनुष्ठानों के महत्त्व में कमी हुई है, अपितु इनका संक्षिप्तीकरण भी हुआ है। उदाहरण के लिए हम विवाह संस्कार को देखें तो पहले दो दिनों में होने वाला संस्कार अब संजीव पास बुक्स दो-तीन घण्टों में सम्पन्न हो जाता है।

दूसरे, धर्मनिरपेक्षता के कारण विभिन्न प्रकार के संस्कारों, त्यौहारों, अनुष्ठानों से जुड़े निषेध, मूल्यों में भी परिवर्तन आ रहा है। आज पारम्परिक त्यौहार जैसे दिवाली, दुर्गापूजा, गणेश पूजा, दशहरा, करवा चौथ, क्रिसमस त्यौहार मनाए जाते हैं, लेकिन पारम्परिक विधि-विधान से नहीं, अपनी – अपनी सुविधानुसार। इन त्यौहारों का मुख्य उद्देश्य भी पारम्परिक नहीं वरन् आधुनिक है। तीसरे, पिछले कुछ दशकों में संस्कारों व धार्मिक अनुष्ठानों के आर्थिक, राजनीतिक और प्रस्थिति सम्बन्धी आयाम अधिक उभरकर आए हैं। इन अनुष्ठानों के समय पर पुरुष व महिलाओं को अवसर मिलता है कि वे अपने मित्र-रिश्तेदारों से घुलें – मिलें और अपनी सम्पत्ति व कपड़े, जेवर पहनकर उनका प्रदर्शन करें। इसमें दिखावे की प्रवृत्ति ज्यादा है। संस्कार या परम्परा का स्थान कम होता है। चौथे, धर्मनिरपेक्षीकरण के कारण आज परम्परा व संस्कारों से जुड़ी कर्त्तव्यपरायणता की भावना लगभग खत्म हो चुकी है। उसके स्थान पर पश्चिमी त्योहारों जैसे वेलेन्टाइन डे, मदर्स डे, फादर्स डे का चलन ज्यादा हुआ है।

(ii) जाति और पंथनिरपेक्षीकरण।

उत्तर: भारतीय समाज एक जटिल संरचना वाला समाज है जिसमें जाति व्यवस्था एक परंपरागत सामाजिक ढाँचे के रूप में मौजूद रही है। जाति व्यवस्था ने सामाजिक असमानता, भेदभाव और ऊँच-नीच को जन्म दिया। यही कारण है कि 19वीं और 20वीं सदी में अनेक समाज सुधारकों जैसे राजा राममोहन राय, ज्योतिबा फुले, पंडिता रमाबाई और सर सैयद अहमद खान ने जाति के आधार पर होने वाले अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठाई। इन आंदोलनों ने महिलाओं, दलितों और वंचित वर्गों को शिक्षा व समान अधिकार दिलाने में अहम भूमिका निभाई।

जातिगत भेदभाव से मुक्ति के साथ-साथ धार्मिक असहिष्णुता को भी चुनौती दी गई। इसी संदर्भ में पंथनिरपेक्षीकरण एक महत्त्वपूर्ण अवधारणा बनकर उभरी। पंथनिरपेक्षता का तात्पर्य है — राज्य का किसी भी धर्म से न जुड़ना और सभी धर्मों के प्रति समान दृष्टिकोण रखना। भारतीय संविधान में भी यह व्यवस्था दी गई है कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है।

आधुनिकीकरण और पंथनिरपेक्षीकरण आपस में जुड़े हुए हैं। जैसे-जैसे आधुनिक विचार, जैसे समानता, स्वतंत्रता और वैज्ञानिक सोच फैलते गए, वैसे-वैसे जाति और धर्म के प्रभाव में कमी आई। परंतु यह परिवर्तन आसान नहीं रहा — आज भी समाज में कई जगह जाति आधारित भेदभाव और धार्मिक असहिष्णुता मौजूद हैं।

नवजागरण, समाज सुधार आंदोलन, आधुनिक शिक्षा और संचार माध्यमों ने जातिगत सोच और धार्मिक कट्टरता को चुनौती दी। उदाहरण के लिए, पंडिता रमाबाई ने महिला शिक्षा के लिए कार्य किया, वहीं सर सैयद अहमद खान ने धार्मिक ग्रंथों की आधुनिक व्याख्या की।

(iii) जेंडर और संस्कृतीकरण।

उत्तर: संस्कृतीकरण एक ऐसी प्रक्रिया की ओर संकेत करता है जिसमें व्यक्ति सांस्कृतिक दृष्टि से प्रतिष्ठित समूहों के रीति रिवाज एवं नामों का अनुकरण कर अपनी प्रस्थिति को उच्च बनाते हैं। संदर्भ प्रारूप अधिकतर आर्थिक रूप में बेहतर होता है। दोनों ही स्थितियों में यह संकेत विद्यमान हैं कि जब व्यक्ति धनवान होने लगते हैं तो उनकी आकांक्षाओं और इच्छाओं को प्रतिष्ठित समूह भी स्वीकारने लगते हैं।

आलोचना यह है कि संस्कृतीकरण की अवधारणा एक ऐसे प्रारूप को सही ठहराती है जो दरअसल असमानता और अपवर्जन पर आधारित है इससे संकेत मिलता है कि पवित्रता और अपवित्रता के जातिगत पक्षों को उपयुक्त माना जाए।

संस्कृतीकरण के अधिकांश समर्थक स्त्री के जीवन को घर की चारदीवारी के अन्दर बिताने का समर्थन करते हैं। वे स्त्री की माँ, बहिन और पुत्री की भूमिकाओं को बड़े आदर के साथ प्राथमिकता देते हैं।

उच्च जाति के अनुष्ठानों, रिवाजों और व्यवहार को संस्कृतीकरण के कारण स्वीकृति मिलने से लड़कियों और महिलाओं को असमानता की सीढ़ी में सबसे नीचे धकेल दिया जाता है। इससे कन्यामूल्य के स्थान पर दहेज प्रथा और अन्य समूहों के साथ जातिगत भेदभाव इत्यादि बढ़ गए हैं।

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