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NCERT Class 12 History Chapter 2 राजा, किसान और नगर
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राजा, किसान और नगर: आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ (लगभग 600 ई.पू. से 600 ई.)
Chapter: 2
भारतीय इतिहास के कुछ विषय: भाग – 1
चर्चा कीजिए
1. मगध की सत्ता के विकास के लिए आरंभिक और आधुनिक लेखकों ने क्या-क्या व्याख्याएँ प्रस्तुत की हैं? ये एक-दूसरे से कैसे भिन्न हैं।
उत्तर: मगध की सत्ता के विकास के लिए आरंभिक लेखकों ने महान शासकों (जैसे बिंबिसार, अजातशत्रु) की योग्यता, धर्म और नैतिकता से जोड़ा। उन्होंने धार्मिय ग्रंथों और विदेशी यात्रियों के विवरणों पर आधारित व्यक्तित्व-केंद्रित विचार अपनाया और आधुनिक लेखकों ने सत्ता के विकास हेतु भौगोलिक स्थिति, आर्थिक समृद्धि, लोहे की उपलब्धता, और राजनीतिक संगठन जैसे कारकों से जोड़ा। उन्होंने वैज्ञानिक और सामाजिक-आर्थिक दृष्टिकोण अपनाया।
आरंभिक और आधुनिक लेखकों में मुख्य अतंर:
(i) आरंभिक लेखक नैतिक और धार्मिक कारणों को ज्यादा महत्त्व देते हैं।
(ii) उसी प्रकार आधुनिक लेखक व्यावहारिक और भौतिक कारणों को महत्त्व देते हैं।
2. मेगस्थनीज़ और अर्थशास्त्र से उद्धृत अंशों को पुनः पढ़िए। मौर्य शासन के इतिहास लेखन में ये ग्रंथ कितने उपयोगी हैं?
उत्तर: मेगस्थनीज़ की ‘इंडिका’ मौर्य शासन का विदेशी दृष्टिकोण देती है– जैसे नगर व्यवस्था, समाज और सेना। जबकि अर्थशास्त्र (कौटिल्य) द्वारा मौर्य प्रशासन, कर, जासूसी और शासन नीतियों की जानकारी प्रदान करता है।
मौर्य शासन के इतिहास लेखन समझने के लिए उपयोगी हैं: एक बाहरी दृष्टिकोण से (इंडिका) और दूसरी आंतरिक नीति से (अर्थशास्त्र)।
3. राजाओं ने दिव्य स्थिति का दावा क्यों किया?
उत्तर: राजाओं ने दिव्य स्थिति का दावा इसलिए किया था ताकि उनकी सत्ता को धार्मिक सत्यता मिले और प्रजा भी उन्हें ईश्वर का प्रतिनिधित्व मानकर उनकी आदेश का पालन करे। इससे उनका शासन व्यव्स्था मजबूत और अविवादित बनता था।
इसका उद्देश्य हैं-सत्ता को ईश्वरीय रूप देना,जनता में डर और श्रद्धा बनाए रखना,विरोध को धार्मिक रूप से गलत ठहराना।
4. यह पता कीजिए कि क्या आपके राज्य में हल से खेती, सिंचाई, तथा धान की रोपाई की जाती है? और अगर नहीं तो क्या कोई वैकल्पिक व्यवस्थाएँ हैं।
उत्तर: भारत में खेती के लिए विभिन्न तरीकों का उपयोग किया जाता है, जो राज्य और क्षेत्र के अनुसार भिन्न हो सकते हैं। हल से खेती, सिंचाई, और धान की रोपाई मुख्य रूप से उत्तर भारत के राज्यों में अधिक प्रचलित है। विशेष रूप से उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, और असम जैसे राज्यों में यह परंपरा आज भी कायम है।
(i) हल से खेती: हल से खेती का प्रमुख उद्देश्य भूमि की जुताई करना है। असम और उत्तर पूर्वी राज्यों में हल का उपयोग पारंपरिक खेती के लिए व्यापक रूप से किया जाता है। धान की खेती के लिए जलयुक्त भूमि की आवश्यकता होती है और हल का उपयोग मिट्टी को भुरभुरी बनाने में किया जाता है।
(ii) सिंचाई की व्यवस्था: असम जैसे राज्यों में प्राकृतिक जल स्रोतों का विशेष महत्व है। नदी, नाले और बरसाती जल का उपयोग धान के खेतों की सिंचाई के लिए किया जाता है। खेतों में पानी भरकर धान की रोपाई की जाती है। असम में ब्रह्मपुत्र और उसकी सहायक नदियाँ सिंचाई का प्रमुख स्रोत हैं।
(iii) धान की रोपाई: धान की रोपाई का कार्य मुख्य रूप से मानसून के दौरान किया जाता है। असम में धान की खेती व्यापक है और स्थानीय किसानों द्वारा पारंपरिक तरीकों का ही उपयोग किया जाता है। महिलाएँ खेतों में धान की नर्सरी से पौधों को निकालकर पंक्तियों में रोपाई करती हैं।
जहाँ हल और परंपरागत सिंचाई पद्धतियाँ संभव नहीं होतीं, वहाँ वैकल्पिक व्यवस्थाओं का उपयोग किया जाता है।
(i) आधुनिक कृषि उपकरण: आजकल ट्रैक्टर और रोटावेटर जैसी मशीनों का उपयोग हल के विकल्प के रूप में किया जा रहा है। इससे समय और श्रम की बचत होती है।
(ii) ड्रिप सिंचाई और स्प्रिंकलर: असम में भी अब आधुनिक तकनीकों का प्रयोग होने लगा है। ड्रिप सिंचाई और स्प्रिंकलर पद्धति से पानी की बचत के साथ फसल को समय पर पानी मिल जाता है।
(iii) मशीन से रोपाई: कई स्थानों पर अब रोपाई मशीनों का भी प्रयोग होने लगा है। इससे कम समय में बड़े क्षेत्र में धान की रोपाई संभव हो जाती है।
5. व्यापार में विनिमय के लिए क्या-क्या प्रयोग होता था? उल्लिखित स्रोतों से किस प्रकार के विनिमय का पता चलता है। क्या कुछ विनिमय ऐसे भी हैं जिनका ज्ञान स्रोतों से नहीं हो पाता है?
उत्तर: (i) वस्तु विनिमय (Barter System): वस्तु विनिमय एक प्राचीन आर्थिक प्रणाली है जिसमें एक वस्तु के बदले दूसरी वस्तु का लेन-देन किया जाता है। इस प्रणाली में मुद्रा का उपयोग नहीं होता था। उदाहरण के लिए, अनाज के बदले कपड़ा या धातु का आदान-प्रदान किया जाता था। यह प्रणाली खासतौर पर कृषि समाजों में प्रचलित थी।
(ii) मुद्रा का उपयोग: मुद्रा का उपयोग प्राचीन भारत में व्यापारिक लेन-देन का महत्वपूर्ण माध्यम था। तांबा, चांदी और सोने के सिक्के व्यापार में व्यापक रूप से प्रचलित थे। इन सिक्कों पर राजाओं की मुहर और प्रतीक चिह्न अंकित होते थे, जो उनकी प्रामाणिकता को दर्शाते थे। मुद्रा ने वस्तु विनिमय की कठिनाइयों को कम किया।
(iii) वस्त्र और आभूषण: प्राचीन भारत में वस्त्र और आभूषण विनिमय के महत्वपूर्ण साधन थे। विशेषकर ग्रामीण और आदिवासी समाजों में वस्त्र, आभूषण और हस्तशिल्प वस्तुओं का आदान-प्रदान होता था। धनी वर्ग में मूल्यवान आभूषणों का लेन-देन उपहार या कृतज्ञता के रूप में होता था, जो सामाजिक और सांस्कृतिक संबंधों को मजबूत करता था।
(iv) कला और शिल्प वस्तुएं: कला और शिल्प वस्तुएं प्राचीन भारतीय व्यापार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती थीं। विशेष रूप से चित्रकला, हस्तशिल्प और कलाकृतियाँ राजाओं और सामंतों के बीच उपहार या कृतज्ञता के रूप में आदान-प्रदान होती थीं। बूँदी और मेवाड़ के राजाओं के बीच चित्रों का आदान-प्रदान इसके प्रमुख उदाहरण हैं।
हाँ, कुछ विनिमय ऐसे भी थे जिनका प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं मिलता:
(i) लोकल आदान-प्रदान: ग्रामीण और आदिवासी समाजों में मौखिक परंपराओं के आधार पर।
(ii) गुप्त व्यापार: व्यक्तिगत संबंधों पर आधारित, जिनका लिखित प्रमाण नहीं।
(iii) उपहार और कृतज्ञता: कुछ चित्र और कलाकृतियाँ उपहार के रूप में दी जाती थीं।
6. मानचित्र 2 देखिए और असोक के अभिलेख के प्राप्ति स्थान की चर्चा कीजिए। क्या उनमें कोई एक-सा प्रारूप दिखता है?
उत्तर: अशोक के अभिलेख भारतीय उपमहाद्वीप के विभिन्न भागों में पाए गए हैं, जैसे भारत (दिल्ली, सांची, गिरनार), नेपाल (लुंबिनी), पाकिस्तान (शाहबाजगढ़ी, मनसेहरा) और अफगानिस्तान (कंधार)। ये अभिलेख मुख्य रूप से स्तंभों, शिलाओं और गुफाओं पर उत्कीर्ण हैं।
समानताएँ: सभी अभिलेखों में अशोक के नैतिक उपदेश और धम्म के सिद्धांतों का प्रचार मिलता है। अधिकतर अभिलेख ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपियों में हैं, जबकि अफगानिस्तान में ग्रीक और अरामाइक लिपियों का प्रयोग हुआ है।
भिन्नताएँ: क्षेत्रीय भाषा और लिपि में अंतर है। भारत में ब्राह्मी और खरोष्ठी, जबकि अफगानिस्तान में ग्रीक और अरामाइक। प्रस्तुतीकरण में भी भिन्नता है, जैसे स्तंभ और शिला अभिलेखों का अलग प्रारूप।
उत्तर दीजिए (लगभग 100 से 150 शब्दों में)
1. आरंभिक ऐतिहासिक नगरों में शिल्पकला के उत्पादन के प्रमाणों की चर्चा कीजिए। हड़प्पा के नगरों के प्रमाण से ये प्रमाण कितने भिन्न हैं?
उत्तर: साथ ही इनमें से अधिकांश स्थलों पर व्यापक रूप से खुदाई करना संभव नहीं है, इसलिए आज भी इन स्थानों में लोग रहते हैं। हड़प्पा शहरों में खुदाई तुलनात्मक रूप से आसान थी। कमियों के बावजूद, इस काल से विभिन्न प्रकार की कलाकृतियों को बरामद किया गया है जो इस काल के के शिल्प कौशल पर प्रकाश डालती हैं। इनमें उत्कृष्ट श्रेणी के मिट्टी के कटोरे और थालियाँ मिली हैं जिन पर चमकदार कलई चढ़ी है। इन्हें उत्तरी कृष्ण मार्जित पात्रा कहा जाता है। संभवतः इनका उपयोग अमीर लोग किया करते होंगे। इसके साथ ही सोने, चाँदी, कांस्य, ताँबे, हाथी दाँत, शीशे जैसे विभिन्न प्रकार के पदार्थों से बने गहने, उपकरण, हथियार, बर्तन, सीप और पक्की मिट्टी भी मिले हैं। यह संभावना जताई जाती है कि शिल्पकारों ने बढ़ती मांगों को पूरा करने के लिए लोहे के उपकरणों का प्रयोग किया था, लेकिन हड़प्पा शहरों में लोहे के उपकरणों का कोई खास उपयोग नहीं किया जाता था।
2. महाजनपदों के विशिष्ट अभिलक्षणों का वर्णन कीजिए।
उत्तर: महाजनपद की मुख्य विशेषताएँ:
(i) विकास काल: महाजनपद का विकास 600 ई०पू० से 320 ई०पू० के मध्य में हुआ।
(ii) संख्या और प्रकार: महाजनपदों की संख्या 16 थी और इनमें से अनुमानित 12 राजतंत्रीय राज्य और 4 गणतंत्रीय राज्य थे।
(iii) लोहे और सिक्कों का उपयोग: महाजनपदों का विकास लोहे के बढ़ते प्रयोग और सिक्कों के विकास के साथ जोड़ा जाता है।
(iv) शासन व्यवस्था: अधिकतर महाजनपदों पर राजाओं का शासन होता था, लेकिन गण और संघ के नाम से प्रसिद्ध राज्यों में अनेक लोगों का समूह शासन करता था, इस तरह का प्रत्येक व्यक्ति राजा कहलाता था। महावीर और बुद्ध दोनों गण से आते थे।
(v) सामूहिक नियंत्रण: गणराज्यों में भूमि के साथ ही अन्य आर्थिक स्रोतों पर गण के राजाओं का सामूहिक नियंत्रण होता था।
(vi) राजधानी और सुरक्षा: प्रत्येक महाजनपद की एक राजधानी होती थी जो प्रायः सुरक्षित होती थी। सुरक्षित राजधानियों के रखरखाव, प्रारंभिक सेनाओं और नौकरशाहों के लिए आर्थिक स्रोत की ज़रूरत होती थी।
(vii) धर्म और संस्कृत भाषा का प्रयोग: महाजनपदों में ब्राह्मणों ने प्रायः छठी शताब्दी ईस्वी पूर्व से संस्कृत भाषा में धर्मशास्त्र नामक ग्रंथों की रचनाएँ शुरू कीं। अन्य लोगों के लिए नियमों का निर्णय किया गया।
(viii) कर और भेट संग्रह: शासकों का काम किसानों, व्यापारियों और शिल्पकारों से कर तथा भेट वसूलना माना जाता था। संपत्ति जुटाने का एक वैध उपाय पड़ोसी राज्यों पर आक्रमण करके धन इकट्ठा करना भी माना जाता था।
(ix) स्थायी सेना का विकास: धीरे-धीरे कुछ राज्यों ने अपनी स्थिर सेनाएँ और शासन-तंत्र नौकरशाही तंत्र तैयार कर लिए। बाकी राज्य अब भी सहायक सेना पर निर्भर थे जिन्हें प्रायः कृषक वर्ग से नियुक्त किया जाता था।
3. सामान्य लोगों के जीवन का पुनर्निर्माण इतिहासकार कैसे करते हैं?
उत्तर: इतिहासकारों ने सामान्य लोगों के जीवन का पुनर्निर्माण करने के लिए कई तरह के स्रोतों का प्रयोग किया है।
जिनमें से कुछ मुख्य इस प्रकार हैं-
(i) आधुनिक कृतियाँ जैसे मेगास्थनीज के लेख, अर्थशास्त्र (जिसके कुछ भाग की रचना चाणक्य द्वारा की गई थी ) पौराणिक और जैन साहित्य या संस्कृत साहित्यिक रचनाएं, पत्थरों और स्तंभों पर मिले अशोक के विवरण।
(ii) कई नगरों से प्राप्त अभिलेखों में छोटे दान का उल्लेख मिलता है। इनमें दानी अर्थात दान करने वालौ के नाम के साथ-साथ प्रायः उनके कारवार का भी वर्णन होता है। अभिलेखों से नगरों में रहने वाले धोबी, बुनकर, लिपिक, बढ़ई, कुम्हार, स्वर्णकार, लौहार, अधिकारी, धार्मिक गुरु, व्यापारी तथा राजाओं के जीवन और गतिविधियों की जानकारी मिलती है।
4. पांड्य सरदार (स्रोत 3) को दी जाने वाली वस्तुओं की तुलना दंगुन गाँव (स्रोत 8) की वस्तुओं से कीजिए। आपको क्या समानताएँ और असमानताएँ दिखाई देती हैं?
उत्तर: पांड्य सरदार को दी गई चीजों की सूची में हाथी दाँत, सुगंधित लकड़ी, हिरण के बाल से बने पंखे, शहद, चंदन, लाल गेरू, सुरमा, हल्दी, इलायची, काली मिर्च, इत्यादि जैसी चीजें शामिल थीं। वे नारियल, आम, औषधीय पौधे, फल, प्याज, गन्ना, फूल, एस्का नट, केले, बेबी टाइगर, शेर, हाथी, बंदर, भालू, हिरण, कस्तूरी मृग, लोमड़ी, मोर, कस्तूरी बिल्ली, जंगली मुर्गे, बोलने वाले तोते, आदि भी लाए थे। दंगुन गाँव में पैदा होने वाली चीजें घास, नीम की खाल, लकड़ी का कोयला, किण्वित शराब, नमक, दूध और फूल, खनिज, आदि थे। दोनों में ही एक तरीके की एकरूपता फूल हैं ।
5. अभिलेखशास्त्रियों की कुछ समस्याओं की सूची बनाइए।
उत्तर: अभिलेखशात्री वह व्यक्ति होता है जो अभिलेख का अध्ययन करता है। अभिलेखशास्त्रिायों के सामने आने वाली समस्याएं हैं: कभी-कभी अक्षरों को हलके ढंग से उत्कीर्ण किया जाता है जिन्हें पढ़ पाना मुश्किल होता है। कभी-कभी अभिलेख नष्ट भी हो सकता है जिनसे अक्षर गायब हो जाते हैं। अभिलेखों के शब्दों के प्रामाणिक अर्थ के बारे में पूर्ण रूप से ज्ञान हो पाना हमेशा के लिए सरल नहीं होता क्योंकि कुछ अर्थ किसी विशिष्ट स्थान एवं समय से संबंधित होते हैं। शिलालेखों की सामग्री अधिकतर उस व्यक्ति या व्यक्तियों के विचार को दर्शाती है जो उन्हें कमीशन करते थे।
निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 500 शब्दों में)
6. मौर्य प्रशासन के प्रमुख अभिलक्षणों की चर्चा कीजिए। असोक के अभिलेखों में इनमें से कौन-कौन से तत्वों के प्रमाण मिलते हैं?
उत्तर: चंद्र-गुप्त मौर्य मौर्य साम्राज्य के प्रवर्तक थे। उनका शासन पश्चिमोत्तर में अफ़ग़ानिस्तान और बलूचिस्तान तक फैला था।
मौर्य प्रशासन की मुख्य विशेषताएँ हैं:
(i) मौर्य साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र थी और मौर्य साम्राज्य के चार प्रांतीय केंद्र तक्षशिला, उज्जयिनी, तोसलि और सुवर्णगिरि थे।
(ii) राजधानी और प्रांतीय केंद्रों के आसपास के क्षेत्रों में प्रशासनिक नियंत्रण सबसे मजबूत था।
(iii) मेगस्थनीज ने सैन्य गतिविधियों के समन्वय के लिए छः उप-समितियों वाली समिति का उल्लेख किया है।
उपसमितियाँ एवं उनकी गतिविधियाँ इस प्रकार है:
(क) पहली समिति नौसेना की देखभाल करती थी।
(ख) दुसरी समिति परिवहन और प्रावधानों का प्रबंधन करती थी।
(ग) तीसरी समिति पैदल सैनिकों के लिए जिम्मेदार थी।
(घ) चौथी समिति घोड़ों के लिए जिम्मेदार थी।
(ङ) पाँचवीं समिति रथों के लिए जिम्मेदार थी।
(च) छठी समिति हाथियों के लिए जिम्मेदार थी।
(iv) चन्द्र-गुप्त मौर्य के पौत्र अशोक ने धम्म का प्रचार करके अपने साम्राज्य को एक साथ रखने की कोशिश की। धम्म सिद्धांत एवं मनुष्यों के लिए नैतिक आचार संहिता का समूह था।
(v) उनके अनुसार, यह इस संसार में और इसके बाद के संसार में लोगों की भलाई सुनिश्चित करेगा। धम्म के संदेश के प्रसार के लिए जिन विशेष अधिकारियों को नियुक्त किया गया था उन्हें धम्म- महामत्ता के रूप में जाना जाता था।
(vi) एक मजबूत सड़क नेटवर्क था जो लोगों और सामानों की आवाजाही सुगम बनता था।
(vii) अशोक ने अपने संदेशों को अपनी प्रजा और अधिकारियों के लिए पत्थर की सतहों – प्राकृतिक चट्टानों और साथ ही स्तंभों पर अंकित कराया, उन्होंने शिलालेखों का उपयोग यह घोषित करने के लिए किया कि वे धम्म को क्या समझते हैं उनके अनुसार इसमें बड़ों के प्रति सम्मान, ब्राह्मणों के प्रति उदारता और सांसारिक जीवन का त्याग करने वालों, दासों और नौकरों के साथ विनम्रता से व्यवहार करना और खुद के अलावा अन्य धर्मों और परंपराओं के प्रति सम्मान शामिल था।
7. यह बीसवीं शताब्दी के एक सुविख्यात अभिलेखशास्त्री, डी.सी. सरकार का वक्तव्य है: भारतीयों के जीवन संस्कृति, और गतिविधियों का ऐसा कोई पक्ष नहीं है जिसका प्रतिबिंब अभिलेखों में नहीं है: चर्चा कीजिए।
उत्तर: सुप्रसिद्ध अभिलेखशास्त्री डी०सी० सरकार का मत है कि अभिलेखों से भारतीयों के जीवन, संस्कृति अथवा विभिन्न गतिविधियों से संबंधित सभी प्रकार की जानकारी प्राप्त होती है।
अभिलेखों से मिलने वाली जानकारी का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है-
(i) शासकों के नाम: अभिलेखों से शासकों के नामों के बारे में जानकारी प्राप्त होती है। इसके माध्यम से हमें न केवल राजाओं के नाम, बल्कि उनकी उपाधियों का भी पता चलता है। उदाहरण के लिए, अशोक का नाम अभिलेखों में उल्लेखित है, और साथ ही उसकी दो उपाधियाँ ‘देवनाम्प्रिय’ और ‘पियदस्स’ का भी उल्लेख मिलता है। इसी प्रकार समुद्रगुप्त, खारवेल और रुद्रदामा जैसे शासकों के नाम भी अभिलेखों में उल्लिखित हैं।
(ii) राज्य-विस्तार: उत्कीर्ण अभिलेखों की स्थापना वहीं पर की जाती थी जहाँ पर उस राजा का अपना राज्य विस्तार होता था। उदाहरण के लिए, मौर्य साम्राज्य का विस्तार जानने के लिए हमारे पास सबसे मुख्य स्रोत अशोक के अभिलेख हैं।
(iii) राजा का चरित्र: ये अभिलेख शासकों के चरित्र का चित्रण करने में भी सहायक हैं। उदाहरण के लिए, अशोक जनता के बारे में क्या सोचता था, अनेक विषयों पर उसने खुद के विचार व्यक्त किए हैं। ठीक इसी प्रकार समुद्रगुप्त के चरित्र चित्रण के लिए प्रयाग प्रशस्ति उपयोगी है। यद्यपि इनमें राजा के चरित्र को बढ़ावा देकर लिखा गया है।
(iv) काल निर्धारण: अभिलेख की लिपि की शैली अथवा भाषा के आधार पर शासकों के काल का भी निर्धारण कर लिया जाता है।
(v) भाषा और धर्म: अभिलेखों की भाषा से हमें उस काल के भाषा के विकास का पता चल जाता है। ठीक इसी प्रकार अभिलेखों पर धर्म संबंधी जानकारी भी प्राप्त होती है। उदाहरण के लिए, अशोक के धम्म की जानकारी के स्रोत उसके अभिलेख हैं। भूमि अनुदान पत्रों से भी धर्म व संस्कृति के बारे में जानकारी मिलती है।
(vi) सामाजिक वर्गों की जानकारी: अभिलेखों से हमें तत्कालीन वर्गों के बारे में भी जानकारी मिलती है। हमें पता चल जाता है कि शासक व राज्याधिकारियों के अलावा नगरों में व्यापारी व शिल्पकार (बुनकर, सुनार, धोबी, लौहकार, बढ़ई) आदि भी रहते थे।
(vii) भू-राजस्व एवं प्रशासन: अभिलेखों से हमें भू-राजस्व प्रणाली अथवा प्रशासन के विविध पक्षों की जानकारी भी प्राप्त होती है। विशेषतौर पर भूदान पत्रों से हमें राजस्व की जानकारी मिलती है। साथ ही जब भूमि अनुदान राज्याधिकारियों को दिया जाने लगा तो धीरे-धीरे स्थानीय सामंतों की शक्ति में वृद्धि हुई। इसी प्रकार से भूमि अनुदान पत्र राजा की घटती शक्ति को छुपाने के प्रयास की जानकारी भी देते हैं।
उक्त सभी बातों के साथ हमें यह भी ध्यान रखना लेना चाहिए कि इन अभिलेखों का सावधानीपूर्वक अध्ययन करना चाहिए। अभिलेखों की सीमाएँ भी होती हैं। विशेषतौर पर जनसामान्य से संबंदी जानकारी इन अभिलेखों में कम पाई जाती है। तथापि अभिलेखों से समाज के विविध पक्षों से काफी जानकारी मिलती है।
8. उत्तर-मौर्य काल में विकसित राजत्व के विचारों की चर्चा कीजिए।
उत्तर: मौर्य काल में विकसित राजत्व के विचारों में महत्वपूर्ण परिवर्तन देखने को मिलता है। इस काल में राजनीतिक और आर्थिक दृष्टिकोण से कई बदलाव हुए। उत्तर-मौर्य काल में राजत्व की अवधारणा अधिक जटिल और बहुआयामी हो गई थी।
(i) राजनीतिक संरचना का विकास: उत्तर-मौर्य काल में विभिन्न क्षेत्रों में स्वतंत्र और अर्ध-स्वतंत्र शासकों का उदय हुआ। इन शासकों ने अपनी सत्ता को मजबूत करने के लिए स्थानीय प्रशासनिक ढांचे का विकास किया।
(ii) आर्थिक गतिविधियों का नियंत्रण: इस काल में शासकों ने कृषि, व्यापार और शिल्पकला पर अधिक ध्यान केंद्रित किया। राजाओं ने आर्थिक संसाधनों का अधिकतम उपयोग करने के लिए कर प्रणाली में सुधार किया।
(iii) धार्मिक और सामाजिक भूमिका: उत्तर-मौर्य काल में शासक धार्मिक संरक्षक के रूप में उभरे। इस काल में ब्राह्मण धर्म का प्रभाव बढ़ा और शासकों ने धार्मिक अनुष्ठानों में सक्रिय भूमिका निभाई।
(iv) केंद्रीय सत्ता का ह्रास: मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद, केंद्रीकृत सत्ता का ह्रास हुआ और क्षेत्रीय राजाओं का प्रभुत्व बढ़ गया। इन राजाओं ने अपनी स्वतंत्र पहचान बनाए रखने का प्रयास किया।
9. वर्णित काल में कृषि के तौर तरीकों में किस हद तक परिवर्तन हुए?
उत्तर: उत्तर-मौर्य काल में कृषि के तौर-तरीकों में महत्वपूर्ण परिवर्तन देखने को मिलते हैं। इस काल में सिंचाई व्यवस्था में सुधार हुआ, जिसमें नहरों, कूपों और जलाशयों का निर्माण किया गया। इससे कृषि भूमि को सिंचित करने में सहूलियत हुई। लोहे के हल और उन्नत कृषि उपकरणों का उपयोग बढ़ा, जिससे जुताई और बुवाई की प्रक्रिया में सुधार हुआ। कृषि उत्पादन में विविधता आई और धान, गेहूं, जौ, तिलहन और कपास जैसी फसलों की पैदावार बढ़ी।
कृषि में अधिशेष उत्पादन के कारण भंडारण और वितरण प्रणाली में भी सुधार हुआ, जिससे व्यापार को बढ़ावा मिला। भूमि सुधार के तहत भूमि मापन और कराधान की नई प्रणाली विकसित हुई, जिससे किसानों के भूमि अधिकार सुरक्षित हुए। इन परिवर्तनों ने कृषि उत्पादन में वृद्धि की और किसानों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में सुधार लाया। उत्तर-मौर्य काल में कृषि के इन नवाचारों ने आर्थिक और सामाजिक संरचना को मजबूत बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

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