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NCERT Class 12 History Chapter 3 बंधुत्व, जाति तथा वर्ग
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बंधुत्व, जाति तथा वर्ग: आरंभिक समाज (लगभग 600 ई.पू. से 600 ईसवी)
Chapter: 3
भारतीय इतिहास के कुछ विषय: भाग – 1
चर्चा कीजिए
1. आजकल बच्चों का नामकरण किस भाँति होता है? क्या ये नाम इस अंश में वर्णित नामों से मिलते-जुलते हैं अथवा भिन्न है?
उत्तर: आजकल बच्चों का नामकरण विभिन्न तत्व पर होता है, जिससे कि आधुनिकता, फैशन, धार्मिकता, एवं परिवार की रीति- रीवाजे। कुछ परिवार के माता-पिता देवी-देवताओं, ऐतिहासिक पात्रों और प्रेरणादायक व्यक्तित्वों के आधार पर बच्चों का नाम रखते हैं। हालांकि अतीत में, जैसे महाभारत के अंश में बताया गया है, नाम जाति, कुल, कार्य या पितृवंश पर आधारित होते थे (जैसे कि युधिष्ठिर, भीष्म, कृपाचार्य)। अतः आज के नाम अत्यधिक व्यक्तिगत और विविध हैं जबकि अतीत के नाम सामाजिक पहचान से जुड़े होते थे।
2. इस प्रकरण में कौन से स्रोत हैं जिनसे यह ज्ञात होता है कि लोग ब्राह्मणों द्वारा बताई गई जीविका का अनुसरण करते थे? कौन से स्रोत हैं जिनसे अलग संभावनाओं की जानकारी मिलती है?
उत्तर: ब्राह्मणों द्वारा रचित धार्मिक ग्रंथ जैसे कि ‘धर्मसूत्र’, ‘मनुस्मृति, और महाभारत में वर्ण व्यवस्था पर आधारित कार्यों को अधिक अच्छा माना गया है, जिससे कि यह स्पष्ट होता है कि समाज में कई तरह के लोग ब्राह्मणों की बताई गई विधि-विधान का पालन करते थे। दूसरी ओर, महाभारत जैसे ग्रंथों में कुछ पात्र जैसे हिडिम्बा (राक्षसी), द्रोण (ब्राह्मण), और मातंग (वर्णव्यवस्था से बाहर) द्वारा प्रतिष्ठा और स्वीकृति प्राप्त करने को दर्शाता है कि सामाजिक सीमाओं के बाहर भी जीवन के चयन मौजूद थे।
3. वर्तमान समाजों में सामाजिक रिश्ते किस तरह परिचालित होते हैं? क्या यह अतीत के सामाजिक रिश्तों से मिलते-जुलते हैं, अथवा भिन्न है?
उत्तर: वर्तमान के समाजों में रिश्ते अधिक व्यक्तिगत, भावनात्मक और समानता पर आधारित होते हैं और अब जाति, वर्ग या जन्म के आधार पर रिश्ते तय नहीं होते बल्कि शिक्षा, रुचियों और सोच के समानता पर रिश्ते बनते हैं। जबकि अतीत में रिश्ते अक्सर पितृवंश, जाति, धर्म और सामाजिक दायित्वों के आधार पर बंधे होते थे, जैसे कि महाभारत में युधिष्ठिर द्वारा उम्र, लिंग और कुल के अनुसार अभिवादन करना। आज की सामाजिक रिश्तों में आजादी ज्यादा है।
4. इस अध्याय में महाभारत से उद्धृत अंशों को एक बार फिर पढ़िए। इनमें से प्रत्येक के विषय में यह चर्चा कीजिए कि क्या वे वास्तव में सत्य थे। ये उद्धरण हमें महाकाव्य के रचयिताओं, पाठकों या फिर श्रोताओं के विषय में क्या बताते है?
उत्तर: महाभारत के उद्धरण पूरी तरह ऐतिहासिक सत्य नहीं माने जा सकते, पर वे उस समय की सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक मान्यताओं का प्रतिबिंब हैं। जैसे कि युधिष्ठिर के द्वारा भेजे गए संदेश में वृद्धों, स्तियों, कुलवधुओं, दासों तक को संबोधित करना प्रदर्शित करता है कि समाज के सभी वर्ग को किसी न किसी प्रकार से मान्यता प्राप्त थी। इससे यह भी पता चलता है कि लेखक एवं श्रोता को उच्च वर्गों से तो संबंधित थे, लेकिन वे समाज के विभिन्न वर्गों के प्रति सचेत थे। ये महाकाव्य केवल युद्ध नहीं है, बल्कि ये सामाजिक सरोकारों और मूल्यों का भी अभिलेख है।
उत्तर दीजिए (लगभग 100-150 शब्दों में)
1. स्पष्ट कीजिए कि विशिष्ट परिवारों में पितृवंशिकता क्यों महत्वपूर्ण रही होगी?
उत्तर: विशिष्ट परिवारों में पितृवंशिकता क्यों महत्वपूर्ण रही होगी क्योंकि प्राचीन भारतीय समाज में पितृवंशिकता (पैतृक उत्तराधिकार प्रणाली) को इसलिए महत्व दिया गया है क्योंकि इससे संपत्ति, नाम और सामाजिक प्रतिष्ठा एक ही वंश में संरक्षित रहती थी। पितृसत्ता से आधारित व्यवस्था में पुरुषों को परिवार का मुखिया अर्थात परिवार का मुख्य व्यक्ति माना जाता था और उत्तराधिकार की धारा भी पुरुष सदस्यों को प्राथमिकता देती थी। इससे वंश परंपरा, रीति-रीवाज और राजनीतिक अधिकारों का हस्तांतरण सुनिश्चित किया जाता था। परिवार में विवाह, भूमि स्वामित्व, और सत्ता के स्रोत भी पितृवंश पर आधारित थे। विशेषकर शासक और योद्धा वर्ग में यह व्यवस्था और भी सुदृढ़ थी क्योंकि इससे शक्ति संरचना को बनाए रखना आसान होता था।
2. क्या आरंभिक राज्यों में शासक निश्चित रूप से क्षत्रिय ही होते थे? चर्चा कीजिए।
उत्तर: आरंभिक राज्यों में शासक प्रायः क्षत्रिय होते थे क्योंकि वैदिक परंपरा के अनुसार क्षत्रियों को शासन और युद्ध कौशल में पार्गत माना गया है। लेकिन महाभारत जैसे धर्मिक ग्रथों और ऐतिहासिक साक्ष्यों से यह स्पष्ट होता है कि अन्य वर्णों से आने वाले लोग भी सत्ता में आए थे। उदाहरण के लिए, मतंग ऋषि ब्राह्मण न होने के बावजूद भी समाज में प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। कुछ राज्य दलित एवं वंचित समूहों से आए लोगों द्वारा भी शासित हुए। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि क्षत्रिय वर्चस्व सामान्य नियम था, परंतु यह पूर्णतरूप से अपरिहार्य नहीं था। सामाजिक परिस्थितियों और व्यक्ति विशेष की योग्यताओं के आधार पर अपवाद भी संभव थे।
3. द्रोण, हिडिम्बा और मातंग की कथाओं में धर्म के मानदंडों की तुलना कीजिए व उनके अंतर को भी स्पष्ट कीजिए।
उत्तर: द्रोण की कथा में धर्म का मानक वर्ण व्यवस्था पर आधारित है- जहाँ केवल उच्च वर्णों को शिक्षा एवं शक्ति का अधिकार था। हिडिम्बा की कथा को प्रेम और स्वतंत्र निर्णय की प्रतीक है, जहाँ पर एक राक्षसी महिला अर्जुन से विवाह करती है और उनका पुत्र घटोत्कच वीर योद्धा बनता है। मातंग की कथा सामाजिक समरसता का संदेश देती है- मातंग ब्राह्मण न होने के बावजूद भी ऋषि के रूप में स्वीकारे जाते हैं। तीनों कथाओं में धर्म के मापदंड अलग हैं: द्रोण में वर्णाश्रमी धर्म, हिडिम्बा में प्रेम एवं इच्छा की स्वतंत्रता और मातंग में कर्म आधारित सम्मान। इससे समाज में धर्म के प्रति बहुविध रूप सामने आते हैं।
4. किन मायनों में सामाजिक अनुबंध की बौद्ध अवधारणा समाज के उस ब्राह्मणीय दृष्टिकोण से भिन्न थी जो ‘पुरुषसूक्त’ पर आधारित था।
उत्तर: बौद्ध सामाजिक अनुबंध की अवधारणा में यह माना गया है कि समाज का निर्माण आपसी, सहमति और नैतिक मूल्यों पर आधारित किया जाता है। इसमें कोई भी जन्मजात ऊँच-नीच अर्थात छोटा-बड़ा नहीं होती, बल्कि आचरण से व्यक्ति की प्रतिष्ठा तय होती है। दूसरी ओर, ‘पुरुषसूक्त’ में वर्ण व्यवस्था को देवी उत्पत्ति भी माना गया है- जहाँ जाति को चार वर्णौ में भाग किया गया है – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, पुरुष (ब्रह्मा) के अंगों से उत्पन्न हुए माने जाते हैं। यह व्यवस्था जन्म पर आधारित है और स्थायी सामाजिक पदानुक्रम को स्थापित करती है। इस प्रकार बौद्ध विचार अधिक समतावादी और परिवर्तनशील है, हालांकि ब्राह्मणीय दृष्टिकोण स्थिर और पदानुक्रमिक है।
5. निम्नलिखित अवतरण महाभारत से है जिसमें ज्येष्ठ पांडव युधिष्ठिर दूत संजय को संबोधित कर रहे हैं:
संजय धृतराष्ट्र गृह के सभी ब्राह्मणों और मुख्य पुरोहित को मेरा विनीत अभिवादन दीजिएगा। मैं गुरु द्रोण के सामने नतमस्तक होता हूँ… मैं कृपाचार्य के चरण स्पर्श करता हूँ… (और) कुरु वंश के प्रधान भीष्म के। मैं वृद्ध राजा (धृतराष्ट्र) को नमन करता हूँ। मैं उनके पुत्र दुर्योधन और उनके अनुजों के स्वास्थ्य के बारे में पूछता हूँ तथा उनको शुभकामनाएँ देता हूँ… मैं उन सब युवा कुरु योद्धाओं का अभिनंदन करता हूँ जो हमारे भाई, पुत्र और पौत्र हैं… सर्वोपरि मैं उन महामति विदुर को (जिनका जन्म दासी से हुआ है) नमस्कार करता हूँ जो हमारे पिता और माता के सदृश हैं… मैं उन सभी वृद्धा स्त्रियों को प्रणाम करता हूँ जो हमारी माताओं के रूप में जानी जाती हैं। जो हमारी पत्नियाँ हैं उनसे यह कहिएगा कि, “मैं आशा करता हूँ कि वे सुरक्षित हैं”… मेरी ओर से उन कुलवधुओं का जो उत्तम परिवारों में जन्मी हैं और बच्चों की माताएँ हैं, अभिनंदन कीजिएगा तथा हमारी पुत्रियों का आलिंगन कीजिएगा… सुंदर, सुगंधित, सुवेशित गणिकाओं को शुभकामनाएँ दीजिएगा। दासियों और उनकी संतानों तथा वृद्ध, विकलांग और असहाय जनों को भी मेरी ओर से नमस्कार कीजिएगा…
इस सूची को बनाने के आधारों की पहचान कीजिए उम्र, लिंग, भेद व बंधुत्व के संदर्भ में। क्या कोई अन्य आधार भी हैं? प्रत्येक श्रेणी के लिए स्पष्ट कीजिए कि सूची में उन्हें एक विशेष स्थान पर क्यों रखा गया है?
उत्तर: इस सूची में युधिष्ठिर ने व्यक्तियों को सामाजिक श्रेणी और संबंध के अनुसार ही संबोधित किया है। सर्वप्रथम उन्होंने ब्राह्मण, पुरोहित और वरिष्ठों को अभिवादन दिया- जो उम्र और सामाजिक सम्मान के आधार पर था। फिर गुरुजन, राजा धृतराष्ट्र, भाई दुर्योधन और उसके अनुजों और युवाओं का उल्लेख किया गया- जो बंधुत्व और राजनीतिक संबंध को दर्शाता है। स्त्रीयों में माताओं, पत्नियों कुलवधुओं और बेटियों को विशेष स्नेह से याद किया गया- जो लिंग और परिवार के आधार पर था। अंततः गणिकाओं, दासियों और असहाय व्यक्तियों का भी उल्लेख है- यह सामाजिक भेद धारना और करुणा की भावना को दर्शाता है। यह क्रम सामाजिक पदक्रम, स्नेह, सम्मान और उत्तरदायित्व को दर्शाता है।
निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 500 शब्दों में)
6. भारतीय साहित्य के प्रसिद्ध इतिहासकार मौरिस विंटरविट्ज ने महाभारत के बारे में लिखा था किः “चूँकि महाभारत संपूर्ण साहित्य का प्रतिनिधित्व करता है… बहुत सारी और अनेक प्रकार की चीजें इसमें निहित हैं… (वह) भारतीयों की आत्मा की अगाध गहराई को एक अंतर्दृष्टि प्रदान करता है।” चर्चा कीजिए।
उत्तर: इस प्रकार के अनेक ग्रंथ हैं जिससे हमें भारतीय इतिहास के बारे में गहरी जानकारी देते हैं। इनमे से महाभारत ही एक ऐसा ग्रंथ है जो न केवल भारतीय इतिहासकारों में बल्कि विदेशी इतिहासकारों में भी प्रसिद्ध है। इस महाकाव्य में जीवन के लिए बड़ी संख्या में सीख मौजूद हैं और इसमें भारतीय जीवन के विभिन्न पहलुओं की भी जानकारी है। हमें महाभारत से उस समय के लोगों के दृष्टिकोणों और विचारों के बारे में भी पता चलता है। इतिहासकार इस ग्रंथ की विषय-वस्तु को दो मुख्य शीर्षकों आख्यान तथा उपदेशात्मक-के अंतर्गत रखते हैं। आख्यान में कहानियों का संग्रह है और उपदेशात्मक भाग में सामाजिक आचार-विचार के मानदंडों का चित्रण है। “इसके बावजूद भी महाभारत के उपदेशात्मक और आख्यानात्मक भागों के बीच स्पष्ट पृथकीकरण नहीं है कई उपदेशात्मक अंशों में कहानियाँ समाहित हैं और अधिकांश आख्यानों में समाज के लिए कोई न कोई शिक्षाप्रद तत्व निहित होता है। इतिहासकारों की यह सामान्य सहमति है कि महाभारत मूलतः एक नाटकीय कथा के रूप में रचा गया था, जिसमें उपदेशात्मक भागों की वृद्धि बाद में हुई। महाभारत में युद्धों, वनों, राजमहलों और जनजीवन का अत्यंत सजीव वर्णन मिलता है। इस ग्रंथ में उस समय की राजनीतिक स्थिति, विवाह की विभिन्न परंपराओं, रीति-रीवाजो तथा महिलाओं की सामाजिक स्थिति, विवाह संबंधी नियमों अथवा उत्तराधिकार की प्रथाओं पर भी प्रकाश डालता है।”
7. क्या यह संभव है कि महाभारत का एक ही रचयिता था? चर्चा कीजिए।
उत्तर: महाभारत के रचयिता के बारे में कई विचार हैं जैसे-
(i) संभवतः मुख्य कथा के रचयिता “भाट सारथी” थे जिन्हें ‘सूत’ कहा जाता था। ये क्षत्रिय योद्धाओं के साथ युद्ध-क्षेत्र में जाते थे और उनकी विजय एवं उपलब्धियों के बारे में पद्य लिखते थे। इन रचनाओं का प्रेषण मौखिक रूप में हुआ। पाँचवीं शताब्दी ई. पू. से ब्राह्मणों ने इस कथा को परंपरा पर अपना अधिकार कर लिया था और इसे लिखा गया। ये वह काल था जब की कुरु और पांचाल जिनके इर्द-गिर्द महाभारत की कथा घूमती है, मात्र सरदारी से राजतंत्र के रूप में उभर रहे थे।
(ii) कहानी के कुछ हिस्से संभवतः यह भी दर्शाते है कि प्राचीन सामाजिक मूल्यों को अक्सर नए मानदंडों द्वारा स्थानापन्न प्किया गया था। इस समय विष्णु जी की पूजा बढ़ रही थी और महत्व प्राप्त कर रही थी, और कृष्ण जो महाकाव्य के एक महत्वपूर्ण नायक को विष्णु का रूप बताया जाने लगा।
(iii) महाभारत के प्रारंभिक रूप में लगभग 10,000 से भी कम छंद थे, जो समय के साथ धीरे-धीरे बढ़कर लगभग 1,00,000 हो गए। साहित्यिक परंपरा में इस महान ग्रंथ के रचयिता ऋषि व्यास माने जाते हैं। अगर यह महाकाव्य किसी एकमात्र लेखक द्वारा रचा गया होता, तो इसमें दृष्टिकोणों की इतनी विविधता नहीं होती और इसकी विचारधारा संभवतः एकरूप व कुछ हद तक नीरस हो जाती। ऐसी परिस्थिति में हम इस रचना को केवल लेखक के दृष्टिकोण से ही समझते और इसकी व्याख्या भी उन्हीं विचारों पर करते।
8. आरंभिक समाज में स्त्री-पुरुष के संबंधों की विषमताएँ कितनी महत्वपूर्ण रही होंगी? कारण सहित उत्तर दीजिए।
उत्तर: वंश और रिश्तेदारी का पता लगाने की दो अवधारणाएँ थीं:
(i) पितृवंशिकता: जिसका अर्थ है-वह वंश परंपरा जो पिता से पुत्र फिर पौत्र, प्रपौत्रा आदि से चलती है।
(ii) मातृवंशिकता: इसका इस्तेमाल हम तब करते हैं जहाँ वंश की परंपरा माँ से जुड़ी होती है।
इस समय में पितृवंशिकता प्रचलित था और पितृसत्तात्मक उत्तराधिकार की घोषणा की गई थी कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में महिला जैसे प्रभावशाली गुप्त ने सत्ता का उपभोग किया। मनुस्मृति के अनुसार भाग कि गई जायदाद का माता-पिता की मृत्यु के बाद सभी पुत्रों में समान रूप से बँटवारा किया जाना चाहिए। परतों महिलाए इस पैतृक संपत्ति में हिस्सेदारी की माँग नहीं कर सकती थीं। लेकिन विवाह के समय मिले उपहारों पर स्त्रियों का स्वामित्व माना जाता था और इसे स्त्री-धन की संज्ञा दी जाती थी। इस संपत्ति को उनकी संतान विरासत के रूप में प्राप्त कर सकती थी और इस पर उनके पति का कोई अधिकार नहीं होता था। किंतु मनुस्मृति में स्त्रियों को पति की आज्ञा के विरुद्ध पारिवारिक संपत्ति अथवा स्वयं अपने बहुमूल्य धन के गुप्त संचय के विरुद्ध भी चेतावनी देती है। पुरुषों और महिलाओं दोनों के लिए विवाह के नियम भी अलग-अलग थे। पितृवंश को आगे बढ़ाने के लिए पुत्र महत्वपूर्ण थे वही इस व्यवस्था में पुत्रियों को अलग तरह से देखा जाता था। उनके पास घर के संसाधनों का कोई दावा नहीं होता था। एक धारणा यह भी थी कि कन्या दान पिता का एक महत्वपूर्ण धार्मिक कर्तव्य होता है, जबकि बेटों के मामले में ऐसा कोई विश्वास नहीं था । यद्यपि उच्च वर्ग की महिलाएँ संसाधनों पर अपनी पैठ रखती थीं, सामान्यतः भूमि, पशु और धन पर पुरुषों का ही नियंत्रण था। दूसरे शब्दों में, स्त्री और पुरुष के बीच सामाजिक हैसियत की भिन्नता संसाधनों पर उनके नियंत्रण की भिन्नता की वजह से अधिक प्रखर हुई। उपयुक्त कारणों से स्पष्ट रूप से पता चलता है कि प्रारंभिक समाजों में लैंगिक असमानत प्रचलित थी।
9. उन साक्ष्यों की चर्चा कीजिए जो यह दर्शाते हैं कि बंधुत्व और विवाह संबंधी ब्राह्मणीय नियमों का सर्वत्र अनुसरण नहीं होता था।
उत्तर: साक्ष्य जो यह दर्शाते हैं कि बंधुत्व और विवाह संबंधी ब्राह्मणीय नियमों का सर्वत्र अनुसरण नहीं किया जाता था परिवार एक बड़े समूह का हिस्सा होते हैं जिन्हें हम संबंधी कहते हैं। पारिवारिक रिश्ते नैसर्गिक और रक्त संबंध माने जाते हैं किंतु इन संबंधों की परिभाषा अलग-अलग तरीके से की जाती है। कुछ समाजों में भाई-बहन (चचेरे, मौसेरे आदि) से खून का रिश्ता माना जाता है किंतु अन्य समाज ऐसा नहीं मानते। आरंभिक समाजों के संदर्भ में इतिहासकारों को विशिष्ट परिवारों के बारे में जानकारी आसानी से मिल जाती है अधिकतर राजवंश पितृवंशिकता प्रणाली का अनुसरण करते थे। हालाँकि इस प्रथा में विभिन्नता थी कभी पुत्र के न होने पर एक भाई दूसरे का उत्तराधिकारी हो जाता था तो कभी बंधु बांधव सिंहासन पर अपना अधिकार जमाते थे। कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में स्त्रियाँ जैसे प्रभावती गुप्त सत्ता का उपभोग करती थीं। जहाँ पितृवंश को आगे बढ़ाने के लिए पुत्र महत्वपूर्ण थे वहाँ इस व्यवस्था में पुत्रियों को अलग तरह से देखा जाता था। पैतृक संसाधनों पर उनका कोई अधिकार नहीं था। अपने गोत्र से बाहर उनका विवाह कर देना ही अपेक्षित था। इस प्रथा को बहिरविवाह पद्धति कहते हैं और इसका तात्पर्य यह था कि ऊँची प्रतिष्ठा वाले परिवारों की कम उम्र की कन्याओं और स्त्रियों का जीवन बहुत सावधनी से नियमित किया जाता था जिससे ‘उचित’ समय और ‘उचित’ व्यक्ति से उनका विवाह किया जा सके । इसका प्रभाव यह हुआ कि कन्यादान अर्थात् विवाह में कन्या की भेंट को पिता का महत्वपूर्ण धार्मिक कर्तव्य माना गया। किंतु, सातवाहन शासकों का मामला अलग था। कुछ सातवाहन राजा बहुपत्नी प्रथा (अर्थात् एक से अधिक पत्नी) को मानने वाले थे। सातवाहन राजाओं से विवाह करने वाली रानियों के नामों का विश्लेषण इस तथ्य की ओर इशारा करता है कि विवाह के बाद भी उन्होंने अपने पिता के गोत्र नाम को ही कायम रखा। यह विचार ब्राह्मणवादी सिद्धांतों के विपरीत था।

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