NCERT Class 11 Sociology Samaj Ka Bodh Chapter 4 पाश्चात्य समाजशास्त्री-एक परिचय

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NCERT Class 11 Sociology Samaj Ka Bodh Chapter 4 पाश्चात्य समाजशास्त्री-एक परिचय

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Chapter: 4

समाज का बोध
अभ्यास

1. बौद्धिक ज्ञानोदय किस प्रकार समाजशास्त्र के विकास के लिए आवश्यक है?

उत्तर: ज्ञानोदय या प्रबोधन ने वैज्ञानिक सोच को भी जन्म दिया तथा यह सब कुछ ही समाजशास्त्र के प्रमुख आधार है। 17वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध व 18वीं शताब्दी में पश्चिमी यूरोप में संसार के बारे में सोचने-विचारने के बिलकुल नए व मौलिक दृष्टिकोण का जन्म हुआ। ज्ञानोदय या प्रबोधन के नाम से जाने गए इस नए दर्शन ने जहाँ एक तरफ़ मनुष्य को संपूर्ण ब्रह्मांड के केंद्र बिंदु के रूप में स्थापित किया, वहीं दूसरी तरफ़ विवेक को मनुष्य की मुख्य विशिष्टता का दर्जा दिया। विवेकपूर्ण व आलोचनात्मक ढंग से सोचने की क्षमता ने मनुष्य को अपनी ही नज़र में हमेशा के लिए बदल दिया। एकल मानव अब ‘व्यक्ति’ बन गया; एक ऐसी हस्ती जो एक साथ ज्ञान का उत्पादक भी है और उपभोक्ता भी। इस मानव व्यक्ति को ‘ज्ञान का पात्र’ की उपाधि भी दी गई। लेकिन दूसरी तरफ, यह भी सच था कि केवल उन्हीं व्यक्तियों को पूर्ण रूप से मनुष्य माना गया जो विवेकपूर्ण ढंग से सोच-विचार सकते थे। जो इस काबिल नहीं समझे गए उन्हें मानव का दर्जा नहीं दिया गया बल्कि आदिमानव या बर्बर मानव कहा गया। चूँकि मानव समाज मनुष्य द्वारा बनाया गया है, इसका युक्तिसंगत विश्लेषण संभव है। इस प्रकार के विश्लेषण के सहारे एक समाज में रहने वाले लोग दूसरे समाज को भी समझ सकते हैं।

2. औद्योगिक क्रांति किस प्रकार समाजशास्त्र के जन्म के लिए उत्तरदायी है?

उत्तर: आधुनिक उद्योगों की नींव औद्योगिक क्रांति के द्वारा रखी गई, जिसकी शुरुआत ब्रिटेन में 18वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तथा 19वीं शताब्दी के प्रारंभ में हुई। इसके दो प्रमुख पहलू थे। पहला, विज्ञान तथा तकनीकी का औद्योगिक उत्पादन में व्यवस्थित प्रयोग, विशेषकर नयी मशीनों का आविष्कार तथा ऊर्जा के नए साधनों का औद्योगिक कामों में उपयोग। दूसरा, औद्योगिक क्रांति ने श्रम तथा बाज़ार को नए ढंग से व बड़े पैमाने पर संगठित करने के तरीके विकसित किए, जैसा कि पहले कभी देखने में नहीं आया था। नयी मशीनों (जैसे कि “स्पिनिंग जेन्नी” नाम की सूत काटने वाली मशीन) ने औद्योगिक उत्पादकता को बेशुमार रूप से बढ़ाया। साथ ही ऊर्जा के नए स्त्रोतों ने (जैसे भाप से चलने वाले इंजन के विभिन्न स्वरूप) उत्पादन प्रक्रिया को सुगम बनाया। इन्हीं प्रक्रियाओं ने विशाल कारखानों की नयी औद्योगिक व्यवस्था व अधिक उत्पादन (यानी बड़े पैमाने पर औद्योगिक वस्तुओं का निर्माण) को जन्म दिया।

3. उत्पादन के तरीकों के विभिन्न घटक कौन-कौन से हैं?

उत्तर: जर्मनी में जन्मे विद्वान कार्ल मार्क्स (1818-1883 ई०) वैज्ञानिक समाजवाद द्वारा मजदूरों पर होने वाले अत्याचार एवं शोषण को समाप्त करना चाहते थे। इसीलिए उन्होंने पूँजीवादी समाज का आलोचनात्मक विश्लेषण कर उसकी कमियों को उजागर किया ताकि इस व्यवस्था का पतन हो सके। पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के बारे में मार्क्स की धारणा थी कि यह उत्पादन के तरीकों पर आधारित होती है। यह उत्पादन की विस्तृत प्रणाली है जिसका संबंध ऐतिहासिक काल से होता है। आदिम साम्यवाद, दास प्रथा, सामंतवाद, पूँजीवाद- ये सब उत्पादन की व्यवस्थाएँ हैं। हालाँकि यह व्यवस्था शोषण तथा अत्याचार पर आधारित थी; परंतु फिर भी मार्क्स का यह मानना था कि पूँजीवाद, मानव इतिहास में एक आवश्यक तथा प्रगतिशील चरण रहा क्योंकि इसने ऐसा वातावरण तैयार किया जो भविष्य में समान अधिकारों की वकालत करने तथा शोषण और गरीबी को समाप्त करने के लिए आवश्यक है। पूँजीवादी समाज में परिवर्तन सर्वहारा वर्ग द्वारा लाया जाएगा जो इसके शोषण के शिकार हैं; जो एक साथ मिलकर क्रांतिकारी परिवर्तन द्वारा इसे जड़ से समाप्त कर स्वतंत्रता तथा समानता पर आधारित समाजवादी (सोशलिस्ट) समाज की स्थापना करेंगे।

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4. मार्क्स के अनुसार विभिन्न वर्गों में संघर्ष क्यों होते हैं?

उत्तर: मार्क्स के लिए, व्यक्ति को सामाजिक समूहों में विभाजित करने का मुख्य तरीका धर्म, भाषा, राष्ट्रीयता अथवा समान पहचान के बजाए उत्पादन प्रक्रिया के संदर्भ में था। उन्होंने तर्क दिया कि सामाजिक उत्पादन प्रक्रिया में, जो व्यक्ति एक जैसे पदों पर आसीन होते हैं, वे स्वतः ही एक वर्ग निर्मित करते हैं। उत्पादन प्रक्रिया में अपनी स्थिति के अनुसार तथा संपत्ति के संबंधों में, उनके एक जैसे हित तथा उद्देश्य होते हैं चाहे उन्हें इसकी पहचान उस समय न हो। वर्गों का निर्माण एक ऐतिहासिक प्रक्रिया के तहत होता है, जो उत्पादन में सहायक शक्तियों की स्थिति में परिवर्तन तथा पहले से विद्यमान वर्गों के मध्य होने वाले संघर्षों के फलस्वरूप होता है। जैसे उत्पादन के साधन उत्पादन तकनीक तथा उत्पादन के सामाजिक संबंधों में परिवर्तन आता है तो विभिन्न वर्गों में संघर्ष बढ़ जाता है जिसका परिणाम संघर्ष होता है। उदाहरणतः उत्पादन के पूँजीवादी साधन सर्वहारा वर्ग का निर्माण करते हैं, जो नवीन शहरी संपत्तिविहीन वर्ग होता है जिसका निर्माण सामंतवादी कृषक व्यवस्था के विनाश के फलस्वरूप हुआ है। सर्फ तथा छोटे-छोटे कृषकों को भूमि तथा आजीविका के पूर्ववर्ती स्त्रोत से बेदखल कर दिया गया। तत्पश्चात् अपनी आजीविका कमाने के लिए वे नगरों में जाकर बसने लगे तथा कानून एवं पुलिस के दबाव के फलस्वरूप उन्हें नए बने कारखानों में काम करना पड़ा। अतः एक बृहद् नवीन सामाजिक वर्ग का निर्माण हुआ जो संपत्तिविहीन था और जिन्हें अपनी आजीविका के लिए मजबूरी में काम करना पड़ता था।

मार्क्स वर्ग संघर्ष के प्रतिपादक थे। उनका यह मानना था कि वर्ग संघर्ष सामाजिक परिवर्तन लाने वाली मुख्य ताकत होती है। कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो (जो कार्य करने का कार्यक्रम भी था) में मार्क्स तथा एंगेल्स ने अपने विचार स्पष्ट तथा संक्षेप में रखे। इसकी प्रारंभिक पंक्तियाँ घोषणा करती हैं, “प्रत्येक विद्यमान समाज का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास है”। मनुष्य के इतिहास को ढूँढ़ते हुए उन्होंने यह बताया कि वर्ग संघर्ष की प्रकृति विभिन्न ऐतिहासिक कालों में भिन्न थी। आदिम से आधुनिक रूप में समाज का विकास कई भिन्न चरणों में हुआ है तथा प्रत्येक काल में शोषक तथा शोषित वर्ग एक दूसरे से अलग होते हैं। मार्क्स और एंगेल्स ने लिखा है, “आजाद तथा दास, कुलीन तथा सामान्यजन, ज़मींदार एवं सर्फ, श्रेणी प्रमुख तथा कारीगर; एक शब्द में शोषक और शोषित, एक दूसरे का विरोध लगातार करते रहे हैं, निरंतर, कभी दबे रूप में, कभी खुले रूप में युद्ध”। प्रत्येक स्तर पर मुख्य विरोधी वर्ग उत्पादन प्रक्रिया के अंतर्विरोध से पहचाने जाते हैं।

5. ‘सामाजिक तथ्य’ क्या हैं? हम उन्हें कैसे पहचानते हैं?

उत्तर: सामाजिक तथ्य वस्तुओं की तरह होते हैं। वे व्यक्ति के लिए बाह्य होते हैं परंतु उनके आचरण को बाधित करते हैं। कानून, शिक्षा तथा धर्म जैसी संस्थाएँ सामाजिक तथ्यों का गठन करती हैं। सामाजिक तथ्य सामूहिक प्रतिनिधान होते हैं जिनका उद्भव व्यक्तियों के संगठन से होता है। वे व्यक्ति विशिष्ट के लिए न होकर सामान्य प्रकृति के होते हैं और व्यक्तियों से स्वतंत्र होते हैं। मान्यताएँ, संवेदनाएँ अथवा सामूहिक मान्यताएँ इसके कुछ उदाहारण हैं।

6. ‘यांत्रिक’ और ‘सावयवी’ एकता में क्या अंतर है?

उत्तर: 

यांत्रिक एकतासावयवी एकता
यांत्रिक एकता का आधार व्यक्तिगत एकरूपता होती है तथा यह कम जनसंख्या वाले समाजों में पाई जाती है।आधुनिक समाज की एक मुख्य विशेषता ‘सावयवी एकता’ है और यह सदस्यों की विषमताओं पर आधारित है।
यह विशिष्ट रूप से विभिन्न स्वावलंबित समूह है जहाँ प्रत्येक व्यक्ति एक विशिष्ट समूह के अंतर्गत एक जैसे क्रियाकलापों तथा प्रकार्यों में लिप्त रहता है।यह बृहत् जनसंख्या वाले समाज में पाई जाती है, जहाँ अधिकतर सामाजिक संबंध अवैयक्तिक होते हैं।
चूँकि व्यक्तियों की एकता अथवा आपसी बंधन समरूपता तथा व्यक्तिगत संबंधों पर आधारित होते हैं, अतः इस प्रकार के समाज किसी प्रकार की विषमता के प्रति सहिष्णु नहीं होते तथा समाज के किसी मानदंड की अवहेलना करने पर कठोर दंड दिया जा सकता है।पारस्परिक निर्भरता सावयवी एकता का सार है।
दूसरे शब्दों में, यांत्रिक एकता पर आधारित समाजों में दमनकारी कानून बनाए जाते हैं ताकि सामाजिक मान्यताओं से विचलन को रोका जा सके।यहाँ व्यक्ति को प्रमुखता दी जाती है तथा वे एक दूसरे से भिन्न आवश्यकताओं की आज्ञा ही नहीं देते बल्कि उनके सावयवी संबंधों तथा बहुविकल्पीय भूमिकाओं को मान्यता भी प्रदान करते हैं।

7. उदाहरण सहित बताएँ कि नैतिक संहिताएँ सामाजिक एकता को कैसे दर्शाती हैं?

उत्तर: नैतिक संहिताओं का सामाजिक एकता को बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। किसी भी समाज की मुख्य विशेषता उसकी नैतिक संहिताएँ होती हैं जो व्यक्तिगत आचरण को निर्धारित करती हैं। एक धार्मिक परिवार से आने के कारण, धर्म संबंधित धर्मनिरपेक्ष चिंतन उन्हें बेहद प्रिय था जिसको वे विकसित करना चाहते थे। अपनी इस इच्छा की पूर्ति वे अपनी आखिरी पुस्तक द एलिमेंट्री फॉर्म्स ऑफ द रिलीजियस लाइफ में कर पाए। दुर्खाइम के लिए समाज एक सामाजिक तथ्य था जिसका अस्तित्व नैतिक समुदाय के रूप में व्यक्ति से ऊपर था। वे बंधन जो मनुष्य को समूहों के रूप में आपस में बाँधते थे, समाज के अस्तित्व के लिए निर्णायक थे। ये बंधन अथवा सामाजिक एकता व्यक्ति पर दबाव डालते हैं ताकि वह समूह के मानदंडों तथा अपेक्षाओं के अनुरूप हो। ये व्यक्ति के व्यवहार प्रतिमानों को बाधित करते हैं तथा विविधताएँ एक छोटे दायरे में सिमट जाती हैं। सामाजिक क्रियाओं में विकल्पों को सीमित करने का आशय यह था कि सामाजिक व्यवहार का पुर्वानुमान संभव था क्योंकि व्यवहार प्रतिमान के साथ होता था। नैतिक संहिताएँ विशेष सामाजिक अवस्थाओं की अभिव्यक्ति थीं। अतः एक समाज की नैतिकता दूसरे समाज के लिए अनुपयुक्त थी। अतः दुर्खाइम के अनुसार नैतिक संहिताओं से सामाजिक परिस्थितियों की व्युत्पत्ति हो सकती है। इसने समाजशास्त्र को प्राकृतिक विज्ञान के समान बना दिया तथा उनके यह बृहत उद्देश्य समाजशास्त्र को एक वैज्ञानिक संकाय के रूप में स्थापित करने के बहुत निकट थे।

8. ‘नौकरशाही’ की बुनियादी विशेषताएँ क्या है?

उत्तर: नौकरशाही संगठन का वह साधन था जो घरेलू दुनिया को सार्वजनिक दुनिया से अलग करने पर आधारित था। इसका अर्थ यह हुआ कि सार्वजनिक क्षेत्र में व्यवहार स्पष्ट नियमों से संचालित होते थे। इसके अतिरिक्त, सार्वजनिक संस्था के रूप में, नौकरशाही कर्मचारियों की शक्तियों को उनकी ज़िम्मेदारियों की तुलना में प्रतिबंधित करती है तथा उन्हें संपूर्ण शक्ति प्रदान नहीं करती।

नौकरशाही सत्ता की विशिष्टताएँ हैं—

(i) अधिकारियों के प्रकार्य: नौकरशाही के अंतर्गत ‘कार्यालयी क्षेत्राधिकार’ होते हैं जिनका संचालन नियम, कानून तथा प्रशासनिक विधानों द्वारा होता है। नौकरशाही संस्थान के नियमित क्रियाकलाप का बँटवारा नियत रूप से सरकारी कर्तव्यों के रूप में होता है। इसके अतिरिक्त, उच्च अधिकारी द्वारा अधीनस्थ वर्गों को आदेश स्थायी रूप से दिए जाते हैं, परंतु उनकी ज़िम्मेदारियों को परिसीमित कर उसका जिम्मा योग्य अधिकारियों को दिया जाता है।

(ii) सोपानिक क्रम: अधिकारी तथा कार्यालय श्रेणीगत सोपान पर आधारित होते हैं जहाँ उच्च अधिकारी द्वारा निम्न अधिकारियों का निर्देशन किया जाता है। निम्न अधिकारियों के निर्णय से असंतुष्टता की स्थिति में उच्च अधिकारियों से अपील की गुंजाइश रहती है।

(iii) लिखित दस्तावेज़ों की विश्वसनीयता: नौकरशाही व्यवस्थाओं का प्रबंधन लिखित दस्तावेज़ों के आधार पर चलाया जाता है तथा फ़ाइलों को रिकॉर्ड के रूप में सँभाल कर रखा जाता है। कार्यालय अथवा ब्यूरों का निर्णायक तंत्र मिलजुल कर निर्णय लेने लगा है। यह सार्वजनिक अधिकार क्षेत्र का भाग होता है जो अधिकारियों के निजी जीवन से अलग होता है।

(iv) कार्यालय प्रबंधन: चूँकि कार्यालय प्रबंधन विशिष्ट तथा आधुनिक क्रिया है अतः यहाँ कार्य के लिए प्रशिक्षित और कुशल कर्मचारियों की आवश्यकता होती है।

(v) कार्यालयी आचरण: कार्यालयी क्रियाकलाप कर्मचारियों से संपूर्ण एकाग्रता की अपेक्षा करते हैं, बिना इसके कार्यालय में उसका समय परीसीमित ही क्यों न हो। अतः कार्यालय में एक कर्मचारी का आचरण नियमों तथा कानूनों द्वारा नियंत्रित होता है।

9. सामाजिक विज्ञान में किस प्रकार विशिष्ट तथा भिन्न प्रकार की वस्तुनिष्ठता की आवश्यकता होती है?

उत्तर: मैक्स वेबर ने समाजशास्त्र को वैज्ञानिक धरातल प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उनका तर्क था कि सामाजिक विज्ञानों का पूर्ण उद्देश्य ‘सामाजिक क्रिया की व्याख्यात्मक सोच’ का विकास करना है। इसी अर्थ में सामाजिक विज्ञान, भौतिक विज्ञानों, जिनका उद्देश्य प्रकृति के नियमों की खोज करना है से भिन्न होते हैं। सामाजिक क्रियाओं में सभी अर्थपूर्ण मानवीय व्यवहार सम्मिलित होते हैं। मानवीय क्रियाओं के विषयगत (व्यक्तिनिष्ठ) अर्थों से संबंधित होने के कारण ही सामाजिक विज्ञान प्राकृतिक विज्ञानों से भिन्न है। सामाजिक क्रियाओं का अध्ययन करते समय समाजशास्त्री का कार्य उन अर्थों को ढूंढना होता है जो कर्ता द्वारा समझे जाते हैं। इसके लिए समानुभूति’ की भावना उसकी सहायता करती है।

वैबर पहले व्यक्ति थे जिन्होंने विशेष तथा जटिल प्रकार की ‘वस्तुनिष्ठता’ की बात की जिसे सामाजिक विज्ञान को अपनाना था। सामाजिक विश्व की खोज मनुष्य के अर्थो, मूल्यों, समझ, पूर्वाग्रह, आदर्शों इत्यादि पर आधारित है। इस दुनिया के अध्ययन हेतु, सामाजिक विज्ञान को इन विषयगत अर्थों को समझने के लिए तथा उसका संपूर्ण वर्णन करने के लिए, सामाजिक वैज्ञानिकों को सदैव ‘समानुभूति समझ’ को अपनाना पड़ेगा और इसे अपनाने के लिए स्वयं उनके स्थान पर (काल्पिक रूप से) जिनकी क्रियाओं का वे अध्ययन कर रहे होते हैं उन्हें रखना पड़ेगा। लेकिन यह अध्ययन वस्तुनिष्ठ तरीके से करना था हालाँकि यह विषयगत मामला था। अतः ‘समानुभूति समझ’ के लिए यह आवश्यक है कि समाजशास्त्री, बिना स्वयं की निजी मान्यताओं तथा प्रक्रिया से प्रभावित हुए, पूर्णरूपेण विषयगत अर्थों तथा सामाजिक कर्ताओं की अभिप्रेरणाओं को ईमानदारीपूर्वक अभिलिखित करें। दूसरे शब्दों में, समाजशास्त्री दूसरों की विषयगत भावनाओं का वर्णन करें न कि परखें। वैबर ने इस प्रकार की वस्तुनिष्ठता को ‘मूल्य तटस्थता’ कहा है।

10. क्या आप ऐसे किसी विचार अथवा सिद्धांत के बारे में जानते हैं जिसने आधुनिक भारत में किसी सामाजिक आंदोलन को जन्म दिया हो?

उत्तर: आधुनिक भारत में अनेक सामाजिक आंदोलन हुए हैं। प्रत्येक आंदोलन के पीछे कोई-न-कोई विचारधारा होती हैं। अगर समाज में कुछ समस्या व्याप्त है तथा समाज को उसके दुष्परिणामों का सामना करना पड़ रहा है तो समाज के कुछ पढ़े-लिखे व्यक्ति उस समस्या तथा उसके दुष्परिणामों को खत्म करने के लिए आंदोलन शुरू करते हैं। उदाहरणार्थ-निम्न जातियों में हुए समाज सुधार आंदोलनों के पीछे न केवल इन जातियों का सामाजिक-आर्थिक उत्थान करना था, अपितु एक ऐसे समाज का निर्माण करना भी था जो समता पर आधारित हो। इसी भाँति, पर्यावरणीय चुनौतियों को लेकर हुए आंदोलनों के पीछे यह विचारधारा रही है कि मानव प्रजाति को सतत विकास के प्रयास में पर्यावरण संतुलन को बनाए रखना चाहिए। ऐसा मानव समाज के अस्तित्व के लिए आवश्यक है क्योंकि पर्यावरणीय असंतुलन विनाश का कारण बन सकता है। चिपको आंदोलन तथा नर्मदा बचाओ आंदोलन इसी विचारधारा पर आधारित आंदोलन रहे हैं। इसी भाँति, महिलाओं में हुए आंदोलनों के पीछे यह सोच रही है कि आधुनिक युग में उन्हें पुरुषों के समान अधिकार मिलने चाहिए तथा आगे बढ़ने के लिए वे सभी अवसर उपलब्ध होने चाहिए जो पुरुषों को उपलब्ध है। कृषक आंदोलन कृषक समस्याओं के समाधान की असफलता के परिणामस्वरूप विकसित असंतोष के कारण हुए हैं। इन आंदोलनों में कृषक अपनी सामूहिक पहचान के आधार पर संगठित हुए हैं। विश्वव्यापी मानवाधिकार आंदोलनों के पीछे यह विचारधारा रही है कि सभी देशों के नागरिकों, चाहे वे किसी भी जाति, प्रजाति, धर्म, रंग के क्यों न हों, को ससम्मान जीने को अधिकार है।

11. मार्क्स तथा वैबर ने भारत के विषय में क्या लिखा है— पता करने की कोशिश कीजिए।

उत्तर: कार्ल मार्क्स और मैक्स वेबर दो समाजवादी थे जिन्होंने आधुनिक समाजवाद के लिए कदम रखा। उनके पास दुनिया, समाज और लोगों के बारे में कई सिद्धांत और विचार थे। उदाहरणार्थ-मार्क्स ने भारतीय समाज की संरचना, उसकी ऐतिहासिक गत्यात्मकता, भारत पर ब्रिटिश राज की स्थापना, ईस्ट इंडिया कंपनी के भारत में कार्यकलाप, अंग्रेजों द्वारा भारत का दोहन व शोषण, भारतीयों को 1857 ई० का स्वतंत्रता संग्राम, उसकी असफलता के कारण, भारत में ब्रिटिश राज के भावी परिणाम आदि के बारे में विस्तार से लिखा है। यह उल्लेखनीय है कि मार्क्स स्वयं कभी न तो भारत आए और न ही उन्होंने विशेष रूप से भारत के इतिहास या उसके शास्त्रीय ग्रंथों का अध्ययन किया। भारत पर उनकी जानकारी के चार प्रमुख स्रोत थे-ब्रिटिश म्यूजियम में उपलब्ध सामग्री, लंदन के समाचार-पत्रों में भारत संबंधी समाचार, ब्रिटिश संसद में भारतीय मुद्दों पर बहस तथा भारत से आए जातियों के संस्मरण। इनके आधार पर मार्क्स ने जो भी लिखा वह काफी हद तक सही था। इतना ही नहीं, मार्क्स ने भारत के उज्ज्वल भविष्य की भी कल्पना की जो अंग्रेज अधिकारियों की इसी टिप्पणी पर आधारित थी कि भारतीयों में अपने को काम के अनुकूल ढाल लेने और मशीनों को चलाने के लिए आवश्यक जानकारी हासिल कर लेने की विशिष्ट योग्यता पायी जाती है। इसी भाँति, मैक्स वेबर ने धर्म के तुलनात्मक अध्ययन में हिंदू एवं बौद्ध धर्म का भी अध्ययन किया तथा यह बताने का प्रयास किया कि किस प्रकार इन धर्मों की मान्यताएँ तथा प्रोटेस्टेंट धर्म की मान्यताओं एवं आचार संहिताओं में अंतर है। उन्होंने इसी आधार पर यह प्रतिपादित करने का प्रयास किया कि भारत में पूँजीवाद विकसित न होने का कारण हिंदू धर्म की मान्यताएँ एवं आचार संहिताएँ ही हैं।

12. क्या आप कारण बता सकते हैं कि हमें उन चिंतकों के कार्यों का अध्ययन क्यों करना चाहिए जिनकी मृत्यु हो चुकी है? इनके कार्यों का अध्ययन न करने के कुछ कारण क्या हो सकते हैं?

उत्तर: किसी भी विषय को समझने के लिए उन चिंतकों का अध्ययन करना अनिवार्य है जिन्होंने उस विषय को विकसित करने में अथवा उसे आगे बढ़ाने में विशेष योगदान दिया है। ऐसे विद्वान् ‘शास्त्रीय चितंक’ कहलाते हैं जिनके विचारों को समझे बना विषय का ज्ञान प्राप्त नहीं किया जा सकता। स्वाभाविक है कि सभी विषय पुराने हैं और उनके प्रतिपादकों की मृत्यु हो गई है। यदि हम समाजशास्त्र का ही उदाहरण लें तो इसके जनक आगस्त कॉम्टे के अतिरिक्त एमाइल दुर्खाइम, मैक्स वैबर, कार्ल मार्क्स, विलफ्रेडो पेरेटो आदि विद्वानों के विचारों को समझना जरूरी है। यही वे विद्वान हैं जिन्होंने न केवल इस विषय के निर्माण हेतु अपितु इसे वैज्ञानिक स्वरूप देने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उन्होंने ही इस विषय में अध्ययन-अनुसंधान हेतु पद्धतिशास्त्र का भी निर्माण किया है। उनके द्वारा जो कार्य किए गए हैं वे उनकी शास्त्रीय रचनाओं में उपलब्ध हैं तथा उनके कार्यों को या रचनाओं को पढ़े बिना समाजशास्त्र को समझना संभव नहीं है। यदि हम उनके कार्यों का अध्ययन नहीं करेंगे तो विषय पर हमारी पकड़ अच्छी नहीं हो पाएगी।

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