NCERT Class 11 Sociology Samaj Ka Bodh Chapter 5 भारतीय समाजशास्त्री

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NCERT Class 11 Sociology Samaj Ka Bodh Chapter 5 भारतीय समाजशास्त्री

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Chapter: 5

समाज का बोध
अभ्यास

1. अनन्तकृष्ण अय्यर तथा शरतचंद्र रॉय ने सामाजिक मानवविज्ञान के अध्ययन का अभ्यास कैसे किया?

उत्तर: अनन्तकृष्ण अय्यर संभवतः पहले शिक्षित मानवविज्ञानी थे, जिन्हें एक विद्वान तथा शिक्षाविद् के रूप में राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय रूप में ख्याति मिली। उन्हें मद्रास विश्वविद्यालय में व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया गया और बाद में कलकत्ता विश्वविद्यालय में रीडर के रूप में उनकी नियुक्ति की गई, जहाँ उन्होंने भारत के सर्वप्रथम स्नातकोत्तर मानवविज्ञान विभाग की स्थापना करने में मदद की। सन् 1917-1932 तक वे कलकत्ता विश्वविद्यालय में ही रहे। हालाँकि, मानवविज्ञान में उनके पास कोई औपचारिक उपाधि नहीं थी, परंतु उन्हें इंडियन साइंस कांग्रेस के नृजातीय विभाग का अध्यक्ष चुना गया। यूरोपियन विश्वविद्यालयों में अपने भाषणों तथा भ्रमण के दौरान जर्मनी विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें डॉक्ट्रेट की मानद उपाधि दी गई। कोचीन रजवाड़े की तरफ़ से उन्हें राय बहादुर तथा दीवान बहादुर की उपाधि से सम्मानित किया गया।

कानूनविद् शरत चंद्र रॉय (1871-1942) एक अन्य मानवविज्ञानी हैं जो भारत में इस वर्ग के अग्रणी थे तथा अकस्मात मानवविज्ञानी बने। कलकत्ता के रिपन कॉलेज से कानून की डिग्री लेने से पूर्व, रॉय ने अंग्रेज़ी विषय में स्नातक तथा स्नातकोत्तर की उपाधि हासिल की थी। कुछ दिनों कानून की प्रैक्टिस करने के बाद सन् 1898 में राँची जाकर ईसाई मिशनरी विद्यालय में अंग्रेज़ी के शिक्षक के रूप में कार्य करने का निर्णय लिया।

अनन्तकृष्ण अय्यर तथा शरतचंद्र रॉय दोनों सही मायनों में इस क्षेत्र के अग्रणी विद्वान थे। 1900 के प्रारंभ में ही उन्होंने एक ऐसे विषय पर कार्य करना प्रारंभ किया जो भारत में न तो अभी तक विद्यमान था और न ही कोई ऐसी संस्था थी जो इसे किसी प्रकार का संरक्षण देती थी। दोनों-अय्यर तथा रॉय का जन्म तथा मृत्यु अंग्रेज़ों द्वारा शासित भारत में हुई। इस अध्याय में आपका परिचय चार भारतीय समाजशास्त्रियों से करवाया जाएगा, जिन्होंने अय्यर तथा रॉय के एक पीढ़ी बाद जन्म लिया। ये सभी औपनिवेशिक भारत में जन्मे परंतु इनका कार्य स्वतंत्र भारत में चलता रहा तथा इन्होंने पहली औपचारिक संस्थाओं की रूपरेखा बनाई जिस पर आगे चल कर भारतीय समाजशास्त्र जैसी औपचारिक संस्थाओं की स्थापना की गई।

2. ‘जनजातीय समुदायों को कैसे जोड़ा जाए’ –इस विवाद के दोनों पक्षों के क्या तर्क थे?

उत्तर: सन् 1930 और 1940 के दशकों में इस विषय पर काफ़ी वाद-विवाद हुआ कि भारत में जनजातीय समाज का क्या स्थान हो और राज्य उनसे किस प्रकार का व्यवहार करे। कई ब्रिटिश प्रशासक-मानवविज्ञानी भारतीय जनजातियों में रुचि रखते थे और उनका मानना था कि ये आदिम लोग थे जिनकी अपनी विशिष्ट संस्कृति थी जो हिंदू मुख्यधारा से काफ़ी अलग थी। उनका मानना था कि सीधे-सादे जनजातीय लोग हिंदू समाज तथा संस्कृति से न केवल शोषित होंगे बल्कि सांस्कृतिक रूप से भी उनका पतन होगा। इस कारण को ध्यान में रखते हुए उन्हें लगा कि यह राज्य का कर्तव्य है कि वे जनजातियों को संरक्षण दें ताकि वे अपनी जीवन-पद्धति तथा संस्कृति को बनाए रख सकें क्योंकि उन पर लगातार यह दबाव बन रहा था कि वे हिंदू संस्कृति की मुख्यधारा में अपना समायोजन करें। हालाँकि, राष्ट्रवादी भारतीय भी भारत की एकता तथा भारतीय समाज तथा संस्कृति को आधुनिक बनाने की आवश्यकता को लेकर उतने ही उत्तेजित थे। उनका यह मानना था कि जनजातीय संस्कृति के संरक्षण के प्रयास दिशाहीन थे और आदिम संस्कृति को बचाने का कार्य वास्तव में गुमराह करने की कोशिश थी। इसके परिणामस्वरूप जनजातियों के पिछड़ेपन को आदिम संस्कृति के ‘संग्रहालय’ के रूप में ही बनाए रखा गया था। एक मुख्य विवाद-कि भारतीय जनजाति एक ऐसी आदिम जाति थी जो शायद ही कभी अलग-थलग रही हो, जिसका वर्णन शास्त्रीय मानवविज्ञान की पुस्तकों में हुआ है-विवादास्पद नहीं रहा। इस तथ्य पर मतभेद था कि मुख्यधारा की संस्कृति का उस पर क्या प्रभाव पड़ा और इसकी जाँच की गई। ‘संरक्षणवादियों’ का यह विश्वास था कि समायोजन का परिणाम जनजातियों के शोषण तथा उनकी संस्कृति की विलुप्तता के रूप में सामने आएगा। दूसरी तरफ़ घूर्ये तथा राष्ट्रवादियों ने यह तर्क दिया कि ये दुष्परिणाम मात्र जनजातीय संस्कृति तक ही सीमित न होकर भारतीय समाज के सभी पिछड़े तथा दलित वर्गों में समान रूप में देखे जा सकते हैं। विकास के मार्ग में आने वाली ये वे आवश्यक कठिनाइयाँ हैं जिनसे बचा नहीं जा सकता।

3. भारत में प्रजाति तथा जाति के संबंधों पर हरबर्ट रिज़ले तथा जी.एस. घूर्य की स्थिति की रूपरेखा दें।

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उत्तर: घूर्य की शैक्षिक साख उनके द्वारा केम्ब्रिज में किए गए डॉक्ट्रेट के शोध निबंध के आधार पर बनी जो आगे चल कर 1932 में कास्ट एंड रेस इन इंडिया के नाम से प्रकाशित हुआ। घूर्ये के कार्य ने लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया क्योंकि इन्होंने समकालीन भारतीय मानवविज्ञान के मुद्दों को संबोधित किया था। इस पुस्तक में घूर्ये ने जाति तथा प्रजाति के संबंधों पर प्रचलित सिद्धांतों की विस्तारपूर्वक आलोचना की। इस सर्वप्रचलित विचार के प्रमुख उद्घोषक हरबर्ट रिजले थे, जो ब्रिटिश औपनिवेशिक अधिकारी थे और मानवविज्ञान के मामलों में बेहद रुचि रखते थे। इस विचारधारा के अनुसार मनुष्य का विभाजन उसकी शारीरिक विशिष्टताओं को ध्यान में रखते हुए जैसे-खोपड़ी की चौड़ाई, नाक की लंबाई, अथवा कपाल का भार या खोपड़ी का वह हिस्सा जहाँ दिमाग की स्थिति होती है-अलग तथा भिन्न प्रजातियों में बाँटा गया है। रिजले तथा अन्य लोगों की यह मान्यता थी कि भारत विभिन्न प्रजातियों के उद्विकास के अध्ययन की एक विशिष्ट ‘प्रयोगशाला’ था क्योंकि जाति एक लंबे समय से विभिन्न समूहों के बीच एक लंबे समय से अंतर्विवाह निषिद्ध करती है। रिजले का मुख्य तर्क था कि जाति का उद्भव प्रजाति से हुआ होगा क्योंकि विभिन्न जाति समूह किसी विशिष्ट प्रजाति से संबंधित लगते हैं। सामान्य रूप से उच्च जातियाँ तकरीबन भारतीय-आर्य प्रजाति की विशिष्टताओं से मिलती हैं, जबकि निम्न जातियों में अनार्य जनजातियों, मंगोल अथवा अन्य प्रजातियों के गुण देखने को मिलते हैं।

रिजले द्वारा दिए गए तर्कों से घूर्ये असहमत नहीं थे लेकिन वे उसे केवल अंशतः सत्य मानते थे। उन्होंने उन समस्याओं की ओर ध्यान दिलाया जो केवल औसत के आधार पर, बिना परिवर्तनों को ध्यान में रखे किसी भी समुदाय पर विशिष्ट मापदंड लागू कर दिए जाने से होती हैं। घूर्ये का यह विश्वास था कि रिजले के शोध प्रबंध में उच्च जातियों को आर्य तथा निम्न जातियों को अनार्य बताया गया है, यह व्यापक रूप से केवल उत्तरी भारत के लिए ही सही है। भारत के अन्य भागों में, अंतरसमूहों की भिन्नताएँ मानवमिति माप बहुत व्यापक अथवा व्यवस्थित नहीं है। इसका यह अर्थ हुआ कि अधिकांश भारत में, सिंधु-गंगा के मैदान छोड़कर, विभिन्न प्रजातीय वर्गों का आपस में काफी लंबे समय से मेल-मिलाप था। अतः ‘प्रजातीय शुद्धता’ केवल उत्तर भारत में ही बची हुई थी क्योंकि वहाँ अंतर्विवाह निषिद्ध था। शेष भारत में अन्तः विवाह (जाति विशेष में ही विवाह करना) का प्रचलन उन वर्गों में हुआ जो प्रजातीय स्तर पर वैसे ही भिन्न थे।

4. जाति की सामाजिक मानवशास्त्रीय परिभाषा को सारांश में बताए।

उत्तर: जाति की कुछ परिभाषाएँ ऐसी हैं जो जाति के साथ-साथ जनजाति पर भी लागू होती हैं। इन परिभाषाओं को ही जाति की सामाजिक मानवशास्त्रीय परिभाषा कहते हैं। उदाहरणार्थ-रिजले ने अपनी पुस्तक ‘दि पीपुल ऑफ इंडिया’ में जाति को इन शब्दों में परिभाषित किया है, “यह परिवार या कई परिवारों का संकलन है जिसको एक सामान्य नाम दिया गया है, जो किसी काल्पनिक पुरुष या देवता से अपनी उत्पत्ति मानता है तथा पैतृक व्यवसाय को स्वीकार करता है और जो लोग विचार कर सकते हैं उन लोगों के लिए एक सजातीय समूह के रूप में स्पष्ट होता है।

घूर्ये जाति की एक विस्तृत परिभाषा दिए जाने के कारण भी जाने जाते हैं। उनकी परिभाषा छह महत्त्वपूर्ण विशेषताओं पर बल देती है।

(i) जाति एक ऐसी संस्था है जो खंडीय विभाजन पर आधारित है। इसका अर्थ है कि जातीय समाज कई बंद, पारस्परिक अनन्य खंडों में बँटा है। प्रत्येक जाति ऐसा ही एक खंड है। यह बंद है क्योंकि जाति का निर्धारण जन्म से होता है। एक विशिष्ट जाति के बच्चे हमेशा उसी जाति के होंगे। दूसरे शब्दों में, जाति की सदस्यता केवल जन्म के आधार पर मिलती है।

(ii) जातिगत समाज सोपानिक विभाजन पर आधारित होते हैं। प्रत्येक जाति दूसरी जाति की तुलना में असमान होती है अर्थात प्रत्येक जाति दूसरी से उच्च अथवा निम्न होती है। सैद्धांतिक रूप से (प्रचलन में नहीं) कोई भी दो जातियाँ समान नहीं होतीं।

(iii) संस्था के रूप में जाति सामाजिक अंतःक्रिया पर प्रतिबंध लगाती है विशेषकर साथ बैठकर भोजन करने पर। किस प्रकार के खाद्य पदार्थ को विभिन्न जातियों के बीच बाँटा जा सकता है; इसके विस्तृत नियम हैं। ये नियम पवित्रता तथा अपवित्रता के विचार से संचालित होते हैं। यही तथ्य सामाजिक अंतः क्रिया पर भी लागू होते हैं; यह विशेष नाटकीय रूप से अस्पृश्यता के क्षेत्र में दिखाई देता है, जहाँ किसी जाति विशेष के व्यक्ति द्वारा छू जाने मात्र से इनसान अपवित्र हो जाता है।

(iv) सोपानिक तथा प्रतिबंधित सामाजिक अंतःक्रिया के सिद्धांतों को मानते हुए जाति में विभिन्न जातियों के लिए भिन्न-भिन्न अधिकार तथा कर्तव्य निर्धारित होते हैं। उनके अधिकार तथा कर्तव्य केवल धार्मिक क्रियाओं तक ही सीमित न रहकर धर्मनिरपेक्ष विश्व तक फैले हुए हैं।

(v) जाति व्यवसाय के चुनाव को भी सीमित कर देती है जो जाति की तरह, जन्म पर आधारित तथा वंशानुगत होता है। समाज के स्तर पर, जातिगत श्रम विभाजन में कठोरता देखी जाती है तथा विशिष्ट व्यवसाय कुछ विशिष्ट जातियों को ही दिए जाते हैं।

(vi) जाति, विवाह पर कठोर प्रतिबंध लगाती है। जाति में अंतःविवाह (जाति में ही विवाह), के साथ ही ‘बहिर्विवाह’ के नियम भी जुड़े रहते हैं, अथवा किसकी शादी किससे नहीं हो सकती है।

5. ‘जीवंत परंपरा’ से डी.पी. मुकर्जी का क्या तात्पर्य है? भारतीय समाजशास्त्रियों ने अपनी परंपरा से जुड़े रहने पर बल क्यों दिया?

उत्तर: 5 अक्तूबर 1894 को एक मध्यमवर्गीय बंगाली ब्राह्मण परिवार में जन्म, जहाँ कि उच्च शिक्षा की लंबी परंपरा थी। विज्ञान में स्नातक; कलकत्ता विश्वविद्यालय से इतिहास तथा अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की। डी.पी. मुकर्जी भारतीय इतिहास तथा अर्थव्यवस्था के प्रति अपने असंतोष के कारण समाजशास्त्र की ओर मुड़े। उनका यह मानना था कि भारत की सामाजिक व्यवस्था ही उसका निर्णायक एवं विशिष्ट लक्षण है और इसलिए, यह प्रत्येक सामाजिक विज्ञान के लिए आवश्यक है कि वह इस संदर्भ में इससे जुड़ा हो।

भारत में समाज की केंद्रीय स्थिति को देखते हुए, भारतीय समाजशास्त्री का यह प्रथम कर्तव्य था कि वह सामाजिक परंपराओं के बारे में पढ़े तथा जाने। डी.पी. के लिए परंपरा का अध्ययन केवल भूतकाल तक ही सीमित नहीं था बल्कि वह परिवर्तन की संवेदनशीलता से भी जुड़ा था। अतः परंपरा एक जीवंत परंपरा थी, जिसने अपने आपको भूतकाल से जोड़ने के साथ ही साथ वर्तमान के अनुरूप भी ढाला था और इस प्रकार समय के साथ अपने आपको विकसित कर रही थी। जैसा कि उन्होंने लिखा, “…. सिर्फ़ भारतीय समाजशास्त्री के लिए एक समाजशास्त्री होना काफ़ी नहीं होता है। बल्कि उसकी प्रथम आवश्यकता एक भारतीय होना है क्योंकि वह लोकरीतियों, रूढ़ियों, प्रथाओं तथा परंपराओं से जुड़कर ही अपनी सामाजिक व्यवस्था के अंदर तथा उसके आगे क्या है, को समझ पाएगा। इस विचार को ध्यान में रखते हुए, उनका मानना था कि समाजशास्त्रियों को भाषा को सीखना तथा भाषा की उच्चता-निम्नता और संस्कृति की पहचान हो-न केवल संस्कृत, फ़ारसी अथवा अरबी भाषाएँ बल्कि स्थानीय बोलियों की भी जानकारी हो।”

6. भारतीय संस्कृति तथा समाज की क्या विशिष्टताएँ हैं तथा ये बदलाव के ढाँचे को कैसे प्रभावित करते हैं?

उत्तर: भारतीय संस्कृति और समाज का एक समृद्ध एवं दीर्घकालिक इतिहास रहा है। इसकी संरचनात्मक विशिष्टताओं और प्रमुख परंपराओं ने इसे बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। प्राचीनता, स्थायित्व, सहिष्णुता, अनुकूलनशीलता, सर्वांगीणता, ग्रहणशीलता और आशावादी दृष्टिकोण भारतीय संस्कृति और समाज की मुख्य विशेषताएँ मानी जाती हैं। हजारों वर्षों के सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवर्तन के बावजूद ये विशेषताएँ अपने मूल स्वरूप में बनी हुई हैं। विभिन्न विद्वानों ने भारतीय संस्कृति और समाज की विविध विशिष्टताओं को रेखांकित किया है। एम.एन. श्रीनिवास ने इसकी सामाजिक-सांस्कृतिक विविधता को प्रमुखता दी है, जबकि ड्युमो ने श्रेणीबद्धता को इसकी मुख्य विशेषता माना है। योगेन्द्र सिंह ने श्रेणीबद्धता, समग्रवाद, निरंतरता और लोकातीत तत्व को भारतीय समाज की प्रमुख विशेषताएँ बताया है। वहीं, मैंडलबानी ने भारतीय संस्कृति और समाज की संरचना को समझने के लिए जाति और धर्म को इसकी आधारभूत संकल्पनाएँ माना है। भारतीय संस्कृति और समाज की विशिष्टताएँ समय के साथ परिवर्तनशील रही हैं, लेकिन उनकी मूल संरचना आज भी किसी-न-किसी रूप में विद्यमान है। यही कारण है कि भारतीय समाज, आधुनिकता और परंपरा के समन्वय से निरंतर विकसित हो रहा है।

7. कल्याणकारी राज्य क्या है? ए.आर. देसाई कुछ देशों द्वारा किए गए दावों की आलोचना क्यों करते हैं?

उत्तर: आधुनिक पूँजीवादी राज्य एक महत्त्वपूर्ण विषय था, जिसमें ए.आर. देसाई की रुचि थी। हमेशा की तरह, इस विषय को समझने में भी उन्होंने मार्क्सवादी दृष्टिकोण अपनाया। ‘द मिथ ऑफ़ द वेलफेयर स्टेट’ नामक निबंध में देसाई ने विस्तारपूर्वक इसकी विवेचनात्मक समीक्षा की है तथा इसकी कमियों की ओर ध्यान आकर्षित किया है। 

समाजशास्त्रीय साहित्य की प्रमुख परिभाषाओं को ध्यान में रखते हुए, देसाई ने कल्याणकारी राज्य की निम्नलिखित विशेषताएँ बताई हैं—

(i) कल्याणकारी राज्य एक सकारात्मक राज्य होता है। इसका अर्थ है कि वह उदारवादी राजनीति के शास्त्रीय सिद्धांत की लेसेज़ फेयर (Laissez faire) नीति से भिन्न होता है। कल्याणकारी राज्य केवल न्यूनतम कार्य ही नहीं करता जो कानून तथा व्यवस्था को बनाए रखने के लिए आवश्यक होते हैं। बल्कि कल्याणकारी राज्य हस्तक्षेपीय राज्य होता है और समाज की बेहतरी के लिए सामाजिक नीतियों को तैयार तथा लागू करने के लिए अपनी शक्तियों का प्रयोग सक्रिय रूप से करता है।

(ii) कल्याणकारी राज्य लोकतांत्रिक राज्य होता है। कल्याणकारी राज्य के जन्म के लिए लोकतंत्र की एक अनिवार्य दशा होती है। औपचारिक लोकतांत्रिक संस्थाओं, विशेषकर बहुपार्टी चुनाव, कल्याणकारी राज्य की पारिभाषिक विशेषता समझी जाती है।

(iii) कल्याणकारी राज्य की अर्थव्यवस्था मिश्रित होती है। ‘मिश्रित अर्थव्यवस्था’ का अर्थ है ऐसी अर्थव्यवस्था जहाँ निजी पूँजीवादी कंपनियाँ तथा राज्य अथवा सामूहिक कंपनियाँ-दोनों साथ साथ कार्य करती हों। एक कल्याणकारी राज्य न तो पूँजीवादी बाजार को ही खत्म करना चाहता है और न ही यह उद्योगों तथा दूसरे क्षेत्रों में जनता को निवेश करने से रोकता है।

ए.आर. देसाई कल्याणकारी राज्य की आलोचना मार्क्सवादी तथा सोशलिस्ट दृष्टिकोण से करते हैं। वे चाहते हैं कि पाश्चात्य पूँजीवादी कल्याणकारी राज्यों ने जो किया है, राज्य अपने नागरिकों के लिए उससे अधिक करे। आज इसके विपरीत ये तर्क दिए जा रहे हैं कि राज्य अपनी भूमिकाओं को निरंतर कम करे और इन भूमिकाओं और दायित्व के निर्वाह का बड़ा भाग स्वतंत्र बाज़ार के हवाले कर देना चाहिए। 

8. समाजशास्त्रीय शोध के लिए ‘गाँव’ को एक विषय के रूप में लेने पर एम.एन. श्रीनिवास तथा लुई ड्यूमों ने इसके पक्ष तथा विपक्ष में क्या तर्क दिए हैं?

उत्तर: एम.एन. श्रीनिवास की रुचि भारतीय गाँव तथा ग्रामीण समाज में जीवनभर बनी रही। यद्यपि वे गाँवों में कई बार सर्वेक्षणों तथा साक्षात्कार के लिए जा चुके थे, लेकिन एक वर्ष तक मैसूर के निकट के एक गाँव में कार्य करने के पश्चात ही इन्हें ग्रामीण समाज के बारे में प्रत्यक्ष जानकारी प्राप्त हुई। गाँव में रहकर कार्य करने का अनुभव इनके व्यवसाय तथा बौद्धिक विकास के लिए महत्त्वपूर्ण साबित हुआ। 1950-60 के दौरान श्रीनिवास ने ग्रामीण समाज से संबंधित विस्तृत नृजातीय ब्यौरों के लेखे-जोखों को तैयार करने में सामूहिक परिश्रम को न केवल प्रोत्साहित किया बल्कि उसका समन्वय भी किया। श्रीनिवास ने एस.सी. दुबे तथा डी.एन. मजूमदार जैसे विद्वानों के साथ मिलकर भारतीय समाजशास्त्र में उस समय के ग्रामीण अध्ययन को प्रभावशाली बनाया।

गाँव पर श्रीनिवास द्वारा लिखे गए लेख मुख्यतः दो प्रकार के हैं। सर्वप्रथम, गाँवों में किए गए क्षेत्रीय कार्यों का नृजातीय ब्यौरा और इन ब्यौरों पर परिचर्चा। द्वितीय प्रकार के लेखन में भारतीय गाँव सामाजिक विश्लेषण की एक इकाई के रूप में कैसे कार्य करते हैं- इस पर ऐतिहासिक तथा अवधारणात्मक परिचर्चाएँ। द्वितीय प्रकार के लेखन में गाँव की एक अवधारणा के रूप में उनकी उपयोगिता के प्रश्न पर श्रीनिवास का विवाद हुआ। ग्रामीण अध्ययन के खिलाफ, कुछ सामाजिक मानवशास्त्रियों जैसे लुई ड्यूमों का मानना था कि जाति जैसी सामाजिक संस्थाएँ गाँव की तुलना में अधिक महत्त्वपूर्ण थीं क्योंकि गाँव केवल कुछ लोगों का समूह था जो एक विशेष स्थान पर रहते थे। गाँव बने रह सकते हैं या समाप्त हो सकते हैं और लोग एक गाँव को छोड़ दूसरे गाँव को जा सकते हैं, लेकिन उनकी सामाजिक संस्थाएँ, जैसे जाति अथवा धर्म, सदैव उनके साथ रहते हैं और जहाँ वे जाते हैं वहाँ सक्रिय हो जाते हैं। इस कारण से ड्यूमों का मानना था कि गाँव को एक श्रेणी के रूप में महत्त्व देना गुमराह करने वाला हो सकता है। इसके विरुद्ध, श्रीनिवास का यह मानना था कि गाँव एक आवश्यक सामाजिक पहचान है।

9. भारतीय समाजशास्त्र के इतिहास में ग्रामीण बढ़ाने में अध्ययन का क्या महत्व है? ग्रामीण अध्ययन को आगे बढ़ाने में एम.एन. श्रीनिवास की क्या भूमिका रही?

उत्तर: श्रीनिवास ने ब्रिटिश प्रशासक मानव वैज्ञानिकों की आलोचना की जिन्होंने भारतीय गाँव का स्थिर, आत्मनिर्भर, छोटे गणतंत्र के रूप में चित्रण किया था। ऐतिहासिक तथा सामाजिक साक्ष्य द्वारा, श्रीनिवास ने यह दिखाया कि वास्तव में गाँवों में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आए हैं। यहाँ तक कि गाँव कभी भी आत्मनिर्भर नहीं थे और विभिन्न प्रकार के आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक संबंधों से क्षेत्रीय स्तर पर जुड़े हुए थे।

गाँव ग्रामीण शोधकार्यों के स्थल के रूप में भारतीय समाजशास्त्र को कई तरह से लाभान्वित करते हैं। इसने नृजातीय शोधकार्य की पद्धति के महत्त्व से परिचित कराने का एक मौका दिया। नव-स्वतंत्र राष्ट्र जब विकास की योजनाएँ बना रहा था, ऐसे समय में इसने भारतीय गाँवों में तीव्र गति से होने वाले सामाजिक परिवर्तन के बारे में आँखों देखी जानकारी दी। ग्रामीण भारत से संबंधित इन विविध जानकारियों की उस समय काफ़ी प्रशंसा हुई क्योंकि नगरीय भारतीय तथा नीति निर्माता इससे अनुमान लगा सकते थे कि भारत के आंतरिक हिस्सों में क्या हो रहा था। इस प्रकार ग्रामीण अध्ययन ने समाजशास्त्र जैसे विषय को स्वतंत्र राज्य के परिप्रेक्ष्य में एक नयी भूमिका दी। मात्र आदिम मानव के अध्ययन तक सीमित न रहकर, इसे आधुनिकता की ओर बढ़ते समाज के लिए भी उपयोगी बनाया जा सकता है।

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