NCERT Class 11 Sociology Samaj Ka Bodh Chapter 2 ग्रामीण तथा नगरीय समाज में सामाजिक परिवर्तन तथा सामाजिक व्यवस्था

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Chapter: 2

समाज का बोध
अभ्यास

1. क्या आप इस बात से सहमत हैं कि तीव्र सामाजिक परिवर्तन मनुष्य के इतिहास में तुलनात्मक रूप से नवीन घटना है? अपने उत्तर के लिए कारण दें।

उत्तर: हां, हम इस बात से सहमत हैं कि तीव्र सामाजिक परिवर्तन मनुष्य के इतिहास में तुलनात्मक रूप से नवीन घटना हैं। अधिकांश सामाजिक परिवर्तनों का स्रोत अंग्रेजी शासनकाल को माना जाता है। इसी काल में परंपरागत भारतीय समाज के सभी प्रमुख पहलुओं, विशेष रूप से गाँव, जाति तथा संयुक्त परिवार, में दूरगामी एवं तीव्र परिवर्तन प्रारंभ हुए। नगरीकरण, औद्योगीकरण, पश्चिमीकरण, आधुनिकीकरण, लौकिकीकरण, जैसी प्रक्रियाएँ भारत में तीव्र सामाजिक परिवर्तन के लिए उत्तरदायी रही हैं। यह अनुमान लगाया जाता है कि मानव जाति का पृथ्वी पर अस्तित्व तकरीबन 5,00,000 (पाँच लाख) वर्षों से है, परंतु उनकी सभ्यता का अस्तित्व मात्र 6,000 वर्षों से ही माना जाता रहा है। परिवर्तन का ‘बड़ा होना इस बात से नहीं मापा जाता है कि वह कितना परिवर्तन लाता है, अपितु यह परिवर्तन के पैमाने में मापा जाता है अर्थात् परिवर्तन समाज के कितने बड़े भाग को परिवर्तित करता है। यदि वह समाज के अधिकांश भाग को प्रभावित करता है तो उसे हम तीव्र सामाजिक परिवर्तन कहते हैं। समाजशास्त्र का उद्भव ही इस तीव्र सामाजिक परिवर्तन के परिणामस्वरूप समाज में होने वाले बदलाव को समझने के प्रयास से हुआ है। तीन ऐसी प्रमुख घटनाएँ मानी जाती हैं जो तीव्र सामाजिक परिवर्तन के लिए उत्तरदायी हैं-“औद्योगिक क्रांति, फ्रांसीसी क्रांति तथा ज्ञानोदय। इन घटनाओं ने न केवल पूरे यूरोप के सामजों को हिलाकर रख दिया अपितु गैर-यूरोपीय समाजों पर भी इनका दूरगामी प्रभाव पंड़ा।

2. सामाजिक परिवर्तन को अन्य परिवर्तनों से किस प्रकार अलग किया जा सकता है?

उत्तर: ‘सामाजिक परिवर्तन’ एक सामान्य अवधारणा है जिसका प्रयोग किसी भी परिवर्तन के लिए किया जा सकता है, जो अन्य अवधारणा द्वारा परिभाषित नहीं किया जा सकता, जैसे आर्थिक अथवा राजनैतिक परिवर्तन। सामाजिक परिवर्तन को अन्य परिवर्तनों से उनके क्षेत्र के आधार पर अलग किया जा सकता है। प्राकृतिक परिवर्तन केवल प्रकृति के क्षेत्र से ही संबंधित होते हैं। आर्थिक परिवर्तन केवल समाज तथा व्यक्ति की अर्थव्यवस्था से ही संबंधित होते हैं। विभिन्न प्रकार के परिवर्तन जो अपनी प्रकृति अथवा परिणाम द्वारा पहचाने जाते हैं वे हैं, संरचनात्मक परिवर्तन एवं विचारों, मूल्यों तथा मान्यताओं में परिवर्तन। संरचनात्मक परिवर्तन समाज की संरचना में परिवर्तन को दिखाता है, इसकी संस्थाओं अथवा नियमों जिनसे इन संस्थाओं को चलाया जाता है।

3. संरचनात्मक परिवर्तन से आप क्या समझते हैं? पुस्तक से अलग उदाहरणों द्वारा स्पष्ट कीजिए।

उत्तर: संरचनात्मक परिवर्तन समाज की संरचना में परिवर्तन को दिखाता है, इसकी संस्थाओं अथवा नियमों जिनसे इन संस्थाओं को चलाया जाता है। उदाहरण के लिए, कागजी रुपए का मुद्रा के रूप में प्रादुर्भाव वित्तीय संस्थानों तथा लेन-देन में बड़ा भारी परिवर्तन लेकर आया। इस परिवर्तन के पहले, मुख्य रूप से सोने-चाँदी के रूप में मूल्यवान धातुओं का प्रयोग मुद्रा के रूप में होता था। सिक्के की कीमत उसमें पाए जाने वाले सोने अथवा चाँदी से मापी जाती थी। सामाजिक संरचना से अभिप्राय किसी इकाई के अंगों की क्रमबद्धता से है। समाज में व्यक्ति आपसी संबंधों में बँधकर उपसमूहों का निर्माण करते हैं तथा विभिन्न उपसमूह आपस में बँधकर समूहों का निर्माण करते हैं। भारत में जाति व्यवस्था, संयुक्त परिवार, हिंदू विवाह इत्यादि में होने वाले परिवर्तनों से संपूर्ण भारतीय सामाजिक संरचना परिवर्तित हुई है क्योंकि इनसे जुड़े मूल्यों एवं मान्यताओं के बदलते ही परंपरागत सामाजिक संरचना का स्वरूप भी परिवर्तित हो गया है। औद्योगीकरण, नगरीकरण, पश्चिमीकरण, आधुनिकीकरण और लौकिकीकरण जैसी प्रक्रियाओं ने परंपरागत भारतीय सामाजिक संरचना के स्वरूप में महत्वपूर्ण परिवर्तन किए हैं। इन प्रक्रियाओं ने भारतीय समाज की परंपरागत विशेषताओं को काफी हद तक प्रभावित और बदल दिया है। उदाहरण के तौर पर, जातीय श्रेणियों में संस्तरण पर आधारित परंपरागत सामाजिक संरचना जातीय निषेधों में आए बदलावों के कारण परिवर्तित हो गई है।

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4. पर्यावरण संबंधित कुछ सामाजिक परिवर्तनों के बारे में बताइए।

उत्तर: प्रकृति, पारिस्थितिकी तथा भौतिक पर्यावरण का समाज की संरचना तथा स्वरूप पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव हमेशा से रहा है। विगत समय के संदर्भ में यह विशेष रूप से सही है, जब मनुष्य प्रकृति के प्रभावों को रोकने अथवा झेलने में अक्षम था। उदाहरण के लिए, मरुस्थलीय वातावरण में रहने वाले लोगों के लिए एक स्थान पर रहकर कृषि करना संभव नहीं था, जैसे मैदानी भागों अथवा नदियों के किनारे इत्यादि। अतः जिस प्रकार का भोजन वे करते थे अथवा कपड़े पहनते थे, जिस प्रकार आजीविका चलाते थे तथा सामाजिक अन्तः क्रिया ये सब काफी हद तक उनके पर्यावरण के भौतिक तथा जलवायु की स्थितियों से निर्धारित होता है। अत्यधिक ठंडी जलवायु में रहने वालों के लिए भी यह सही था, अथवा बंदरगाह पर स्थित नगरों, प्रमुख व्यापारिक मार्गों अथवा पर्वतीय दरों अथवा उपजाऊ नदी घाटियाँ। प्राकृतिक विपदाओं के अनेकानेक उदाहरण इतिहास में देखने को मिल जाएँगे, जो समाज को पूर्णरूपेण परिवर्तित कर देते हैं अथवा पूर्णतः नष्ट कर देते हैं।

5. वे कौन से परिवर्तन हैं जो तकनीक तथा अर्थव्यवस्था द्वारा लाए गए हैं?

उत्तर: विशेषकर आधुनिक काल में, आर्थिक परिवर्तन के संयोग से तकनीक तथा समाज में तीव्र परिवर्तन आया है। तकनीक समाज को कई प्रकार से प्रभावित करती है। यह हमारी मदद, प्रकृति को विभिन्न तरीकों से नियंत्रित, उसके अनुरूप ढालने में अथवा दोहन करने में करती है। बाज़ार जैसी शक्तिशाली संस्था से जुड़कर तकनीकी परिवर्तन अपने सामाजिक प्रभाव की तरह ही प्राकृतिक कारकों; जैसे-सुनामी अथवा तेल की खोज की तरह प्रभावी हो सकते हैं। सामाजिक परिवर्तन के बृहत, दृष्टिगोचर तथा सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उदाहरण जो तकनीकी परिवर्तन द्वारा लाए गए वह था औद्योगिक क्रांति, जिसके बारे में आपने पहले पढ़ा है। वाष्प शक्ति की खोज ने, उदीयमान विभिन्न प्रकार के बड़े उद्योगों को शक्ति की उस ताकत को जो न केवल पशुओं तथा मनुष्यों के मुकाबले कई गुना अधिक थी बल्कि बिना रुकावट के लगातार चलने वाली भी थी, से परिचित कराया। इसका दोहन जब यातायात के साधनों; जैसे- वाष्पचलित जहाज़ तथा रेलगाड़ी के रूप में किया गया तो इसने दुनिया की अर्थव्यवस्था तथा सामाजिक भूगोल को बदल कर रख दिया। रेल ने उद्योग तथा व्यापार को अमेरिका महाद्वीप तथा पश्चिमी विस्तार को सक्षम किया। भारत में भी, रेल परिवहन ने अर्थव्यवस्था को आकार देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है, विशेषकर 1853 में भारत में आने से लेकर मुख्यतः प्रथम शताब्दी तक। वाष्पचलित जहाज़ों ने समुद्री यातायात को अत्यधिक तीव्र तथा भरोसेमंद बनाया तथा इसने अंतरराष्ट्रीय व्यापार तथा प्रवास की गति को बदल कर रख दिया। दोनों परिवर्तनों ने विकास की विशाल लहर पैदा की, जिसने न केवल अर्थव्यवस्था को प्रभावित किया अपितु समाज के सामाजिक, सांस्कृतिक तथा जनसांख्यिक-रूप को बदल दिया।

6. सामाजिक व्यवस्था का क्या अर्थ है तथा इसे कैसे बनाए रखा जा सकता है?

उत्तर: सामाजिक व्यवस्था सुस्थापित समाजिक प्रणालियाँ हैं, जो परिवर्तन को प्रतिरोध तथा उसे विनियमित करती हैं। सामाजिक व्यवस्था को परस्पर अंत:क्रियारत व्यक्तियों अथवा समूहों का कुलक (Set) कहा जा सकता है। यह एक ऐसा कुलक है जिसे सामाजिक इकाई के रूप में देखा जाता है एवं जिसका व्यक्तियों (जो इस कुलक का निर्माण करते हैं) से भिन्न अपना पृथक् अस्तित्व है। स्मेलसर (Smelser) के अनुसार, “सामाजिक व्यवस्था से अभिप्राय संरचनात्मक तत्त्वों से प्रतिमानित संबंधों का एक ऐसा कुलक है जिनमें एक तत्त्व में परिवर्तन अन्य इकाइयों पर अनुकूलन के लिए दबाव डालने अथवा इन्हें भी परिवर्तित करने की क्षमता रखता है। सामाजिक व्यवस्था सामाजिक परिवर्तन को रोकती है, हतोत्साहित करती है अथवा कम से कम नियंत्रित करती है। अपने आपको एक शक्तिशाली तथा प्रासंगिक सामाजिक व्यवस्था के रूप में सुव्यवस्थित करने के लिए प्रत्येक समाज को अपने आपको समय के साथ पुनरूत्पादित करना तथा उसके स्थायित्व को बनाए रखना पड़ता है। सामाजिक व्यवस्था के सहज संकेंद्रण का स्रोत मूल्यों एवं मानदंडों की साझेदारी से निर्धारित होता है। इन मूल्यों एवं मानदंडों को समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा आने वाली पीढ़ी को हस्तांरित किया जाता है। इसी प्रक्रिया द्वारा सामाजिक व्यवस्था अपनी निरंतरता सुनिश्चित करती है। सामाजिक व्यवस्था द्वारा सामाजिक परिवर्तन का भी विरोध इसलिए किया जाता है ताकि व्यवस्था में विघटन की परिस्थिति विकसित न हो पाए। सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने में सामाजिक संरचना एवं स्तरीकरण की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। समाज के शासक प्रभावशाली वर्ग अधिकतर उन सभी सामाजिक परिवर्तनों का प्रतिरोध करते हैं जो उनकी स्थिति को बदल सकते हैं। वे स्थायित्व में अपना हित समझते हैं। दूसरी ओर, अधीनस्थ अथवा शोषित वर्गों को हित परिवर्तन में होता है। सामान्य स्थितियाँ अधिकांशत: अमीर तथा शक्तिशाली वर्गों की तरफदारी करती है तथा वे परिवर्तन के प्रतिरोध में सफल होती हैं। इससे भी समाज में स्थिरता बनी रहती है।

7. सत्ता क्या है तथा यह प्रभुता तथा कानून से कैसे संबंधित है?

उत्तर: सत्ता की परिभाषा अधिकांशतः इस रूप में दी जाती है कि सत्ता स्वेच्छानुसार एक व्यक्ति से मनचाहे कार्य को करवाने की क्षमता रखती है। जब सत्ता का संबंध स्थायित्व तथा स्थिरता से होता है तथा इससे जुड़े पक्ष अपने सापेक्षिक स्थान के अभ्यस्त हो जाते हैं, तो हमारे सामने प्रभावशाली स्थिति उत्पन्न होती है। यदि सामाजिक तथ्य (व्यक्ति, संस्था अथवा वर्ग) नियमपूर्वक अथवा आदतन सत्ता की स्थिति में होते हैं, तो इसे प्रभावी माना जाता है। साधारण समय में, प्रभावशाली संस्थाएँ, समूह तथा व्यक्ति समाज में निर्णायक प्रभाव रखते हैं। ऐसा नहीं है कि उन्हें चुनौतियों का सामना नहीं करना पड़ता, परंतु यह विपरीत तथा विशिष्ट परिस्थितियों में होता है। हालाँकि इसका मतलब हो सकता है कि व्यक्ति को कुछ कार्य जबरन करना पड़ता है।

मैक्स वैबर के अनुसार सत्ता कानूनी शक्ति है- अर्थात शक्ति न्यायसंगत तथा ठीक समझी जाती है। उदाहरण के लिए, एक पुलिस ऑफिसर, एक जज अथवा एक स्कूल शिक्षक-सब अपने कार्य में निहित सत्ता का प्रयोग करते हैं। ये शक्ति उन्हें विशेषकर उनके सरकारी कार्यों की रूपरेखा को देखते हुए प्रदान की गई है-लिखित कागजातों द्वारा सत्ता क्या कर सकती है तथा क्या नहीं, का बोध होता है।

सत्ता का अर्थ है कि समाज के अन्य सदस्य जो इसके नियमों तथा नियमावलियों को मानने को तैयार हैं, इस सत्ता को एक सही क्षेत्र में मानने को बाध्य हों। मसलन, एक जज का कार्य क्षेत्र कोर्टरूम होता है, और जब नागरिक कोर्ट में होते हैं, उन्हें जज की आज्ञा का पालन करना पड़ता है अथवा उनकी शक्ति से वे असहमति जता सकते हैं। कोर्टरूम के बाहर जज किसी भी अन्य नागरिक की तरह हो सकता है। अतः सड़क पर उसे पुलिस की कानूनी सत्ता को मानना पड़ेगा।

8. गाँव, कस्बा तथा नगर एक दूसरे से किस प्रकार भिन्न है?

उत्तर: समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से, गाँवों का उद्भव सामाजिक संरचना में आए महत्त्वपूर्ण परिवर्तनों से हुआ जहाँ खानाबदोशी जीवन की पद्धति जो शिकार, भोजन संकलन तथा अस्थायी कृषि पर आधारित थी, का संक्रमण स्थायी जीवन में हुआ। स्थानीय कृषि-अथवा कृषि का वह रूप जहाँ जीविकोपार्जन के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान पर नहीं घूमना पड़ता-के साथ सामाजिक संरचना में भी परिवर्तन आया। भूमि निवेश तथा तकनीकी खोजों ने कृषि में अतिरिक्त उत्पादन की संभावना को जन्म दिया जो उसके सामाजिक अस्तित्व के लिए अपरिहार्य है। अतः स्थायी कृषि का अर्थ हुआ संपत्ति का जमाव संभव था जिसके कारण सामाजिक विषमताएँ भी आईं। अत्यधिक उच्च श्रम-विभाजन ने व्यावसायिक विशिष्टता की आवश्यकता को जन्म दिया। इन सब परिवर्तनों ने मिलकर गाँव के उद्भव को एक आकार दिया जहाँ लोगों का निवास एक विशिष्ट प्रकार के सामाजिक संगठन पर आधारित था। गाँव को उनके आर्थिक प्रारूप में कृषिजन्य क्रियाकलापों में एक बड़े भाग के आधार पर भी अलग किया जाता है। दूसरे शब्दों में, गाँवों की आबादी का एक बड़ा हिस्सा कृषि संबंधित व्यवसाय से जुड़ा है। अधिकांश वस्तुएँ कृषि उत्पाद ही होती हैं जो इनकी आय का प्रमुख स्त्रोत होता है।

मुख्यतः कस्बे तथा नगर में अंतर, प्रशासनिक परिभाषा का विषय है। एक कस्बा तथा नगर मुख्यतः एक ही प्रकार के व्यवस्थापन होते हैं, जहाँ अंतर उनके आकार के आधार पर होता है। एक ‘शहरी संकुल’ (शब्द जो जनगणना तथा कार्यालयी रिपोर्ट में इस्तेमाल किए जाते हैं) एक ऐसे नगर के संदर्भ में प्रयुक्त होता है जिसके चारों ओर उप-नगरीय क्षेत्र तथा उपाश्रित व्यवस्थापन होते हैं। ‘महानगरीय क्षेत्र’ के अंतर्गत एक से अधिक नगर आते हैं अथवा एक क्रमवार शहरी व्यवस्थापन जो एक अकेले शहर के कई गुना के बराबर होते हैं।

9. ग्रामीण क्षेत्रों की सामाजिक व्यवस्था की कुछ विशेषताएँ क्या हैं?

उत्तर: ग्रामीण क्षेत्रों की सामाजिक व्यवस्था की अपनी कुछ विशेषताएँ होती हैं। इन विशेषताओं को निम्न प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है—

(i) प्राथमिक समूहों की महत्ता: ग्रामीण समाज में परिवार का विशेष महत्त्व होता है। परिवार न केवल सामाजिक संगठन की आधारशिला है, बल्कि सामाजिक नियंत्रण का भी मुख्य साधन है। पारिवारिक परंपराओं और मूल्यों को ध्यान में रखते हुए ही अधिकांश कार्य संपन्न किए जाते हैं। व्यक्तिगत स्वार्थों की तुलना में सामूहिक और पारिवारिक हितों को अधिक प्राथमिकता दी जाती है।

(ii) जनसंख्या घनत्व में कमी: ग्रामीण क्षेत्रों में अपेक्षाकृत कम जनसंख्या निवास करती है। यहाँ अधिकांश परिवार कृषि पर निर्भर होते हैं, और औद्योगिक या व्यापारिक गतिविधियाँ नगण्य होती हैं। बाहरी लोगों का आगमन भी सीमित रहता है, जिससे जनसंख्या वृद्धि की गति धीमी बनी रहती है।

(iii) कृषि आधारित अर्थव्यवस्था: ग्रामीण समाज की प्रमुख विशेषता कृषि आधारित जीवनशैली है। अधिकतर लोग खेती-किसानी से जुड़े होते हैं और अपनी आजीविका के लिए प्रकृति पर निर्भर रहते हैं। कृषि के कारण ग्रामीण लोग प्रकृति के निकट रहते हैं और पारंपरिक जीवनशैली अपनाते हैं, जिससे वहाँ प्रवासन की दर भी कम होती है।

(iv) प्रकृति से निकटता: ग्रामीण समाज में लोग सुबह से शाम तक अपने खेतों में कार्य करते हैं, जिससे उनका गहरा संबंध प्रकृति से बना रहता है। मौसम, भूमि और जलवायु का सीधा प्रभाव उनके जीवन पर पड़ता है। प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भरता ग्रामीण जीवन की प्रमुख विशेषता है।

(v) सांस्कृतिक एकरूपता: ग्रामीण क्षेत्रों में सामाजिक जीवन सामूहिकता पर आधारित होता है। यहाँ निवास करने वाले लोग एक-दूसरे को अच्छी तरह पहचानते हैं और उनकी भाषा, परंपराएँ, रहन-सहन, खान-पान एवं रीति-रिवाजों में समानता पाई जाती है। सांस्कृतिक विविधता की तुलना में सांस्कृतिक एकरूपता अधिक देखने को मिलती है।

(vi) जाति व्यवस्था का प्रभाव: ग्रामीण समाज में जाति व्यवस्था का विशेष महत्त्व होता है। यहाँ सामाजिक गतिशीलता अपेक्षाकृत कम होती है, जिससे पारंपरिक जातिगत संरचना बनी रहती है। जाति पंचायतों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है और सामाजिक निर्णयों में उनका प्रभाव देखा जा सकता है।

(vii) पारंपरिक विश्वासों की उपस्थिति: ग्रामीण समाज में परंपरागत विश्वास एवं धारणाएँ अभी भी प्रचलित हैं। टोटका, जंतर-मंतर, भूत-प्रेत जैसी धारणाएँ और धार्मिक अनुष्ठान ग्रामीण जीवन का अभिन्न अंग बने हुए हैं। भारतीय संस्कृति की प्राचीन परंपराओं के कई रूप ग्रामीण क्षेत्रों में अब भी देखने को मिलते हैं।

10. नगरी क्षेत्रों की सामाजिक व्यवस्था के सामने कौन सी चुनौतियाँ हैं?

उत्तर: नगरीय क्षेत्रों की सामाजिक संरचना को कई प्रकार की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जो प्रशासन और समाज के लिए गंभीर चिंता का विषय बनी हुई हैं।

इनमें से प्रमुख चुनौतियाँ निम्नलिखित हैं—

(i) बाल अपराध: नगरीय जीवन की जटिलताओं, आर्थिक असमानता, अत्यधिक जनसंख्या, सामाजिक अपरिचय, माता-पिता और विद्यालयों के नियंत्रण में शिथिलता आदि कारणों से कई बच्चे अपराध की ओर प्रवृत्त हो जाते हैं। इस कारण नगरीय क्षेत्रों में बाल अपराध एक गंभीर समस्या बन चुका है, जिस पर प्रभावी नियंत्रण रखना प्रशासन के लिए एक महत्वपूर्ण चुनौती है।

(ii) सामान्य अपराध एवं श्वेतवसन अपराध: नगरीय क्षेत्रों में अपराध दर अपेक्षाकृत अधिक होती है। चोरी, डकैती, हत्या, अपहरण, चेन स्नैचिंग जैसी घटनाएँ आम हो गई हैं, जो कानून-व्यवस्था के लिए एक बड़ी चुनौती हैं। अपराधी संगठित होकर इन घटनाओं को अंजाम देते हैं, जिससे पुलिस प्रशासन के लिए उन पर अंकुश लगाना कठिन हो जाता है।

(iii) मद्यपान एवं मादक द्रव्य व्यसन: शराब और नशीले पदार्थों का बढ़ता प्रचलन नगरीय समाज की एक गंभीर समस्या है। जगह-जगह शराब के ठेकों का खुलना और मादक द्रव्यों का गैर-कानूनी व्यापार इसके प्रमुख कारण हैं। स्कूलों और कॉलेजों में अध्ययनरत युवाओं के बीच नशे की लत बढ़ती जा रही है, जो समाज के लिए एक गंभीर चुनौती बन चुकी है।

(iv) भ्रष्टाचार: नगरीय क्षेत्रों में भ्रष्टाचार एक विकराल समस्या के रूप में सामने आया है। सरकारी कार्यालयों में सुविधा शुल्क के नाम पर रिश्वत ली जाती है, जबकि अवैध गतिविधियों में संलिप्त लोग पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों को घूस देकर अपने कार्य संपन्न करवाते हैं। इस कारण भ्रष्टाचार निरंतर बढ़ता जा रहा है, जिसे रोकने के लिए प्रभावी उपायों की कमी महसूस की जाती है।

(v) गंदी बस्तियाँ एवं आवास समस्या: नगरीय क्षेत्रों में तीव्र जनसंख्या वृद्धि और रोजगार के अवसरों के कारण बड़ी संख्या में लोग आते हैं, जिससे आवास संकट उत्पन्न होता है। अवैध एवं अस्वच्छ बस्तियों का निर्माण इस समस्या का परिणाम है, जहाँ स्वच्छता, स्वास्थ्य और आधारभूत सुविधाओं की गंभीर कमी होती है।

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