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NCERT Class 12 History Chapter 6 भक्ति-सूफ़ी परंपराएँ
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भक्ति-सूफ़ी परंपराएँ: धार्मिक विश्वासों में बदलाव और श्रद्धा ग्रंथ (लगभग आठवीं से अठारहवीं सदी तक)
Chapter: 5
भारतीय इतिहास के कुछ विषय: भाग – 2
चर्चा कीजिए
1. अपने शहर या गाँव में पूजित देवी-देवताओं के नाम और उनके चित्रण पर विचार कीजिए। उनकी उपासना से जुड़े अनुष्ठानों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर: हमारे गाँव में मुख्य रूप से देवी पूजा, हनुमान जी, शिव जी और गणेश जी की पूजा होती है। देवी पूजा विशेष रूप से बहुत ही धूमधाम से मनाई जाती है, जिसमें मिट्टी की मूर्तियां बनती हैं और माता को महिषासुर मर्दिनी के रूप में दर्शाया जाता है। शिवरात्रि, हनुमान जयंती और गणेश चतुर्थी भी बहुत श्रद्धा से मनाए जाते हैं। उपासना से जुड़े अनुष्ठानों में भजन-कीर्तन, हवन, पूजा-अर्चना और प्रसाद वितरण आदि प्रमुख अनुष्ठान होते हैं।
2. आपको क्यों लगता है कि शासक भक्तों से अपने संबंध को दर्शाने के लिए उत्सुक थे?
उत्तर: शासक भक्तों और संतों से संबंध बनाकर जनता के बीच अपनी धार्मिक और धर्मानिष्ट छवि को शक्तिशाली करना चाहते थे। इससे उन्हें सामाजिक समर्थन मिलता था, और संतों की प्रसिद्धता के कारण राजशक्ति को भी स्वीकृति मिलती थी।
3. अपने गाँव अथवा शहर की मस्जिद की स्थापत्य कला के बारे में जानकारी हासिल कीजिए। इसे बनाने में किस तरह की सामग्री का इस्तेमाल हुआ है? क्या यह सामग्री स्थानीय स्तर पर मिलती है? क्या इसके कुछ विशिष्ट स्थापत्य लक्षण हैं?
उत्तर: हमारे अपने शहर की पुरानी जामा मस्जिद लाल ईंट और पत्थर से बनी है। इसमें गुंबद, मेहराब और मीनारें हैं। मस्जिद में स्थानीय चूना-पत्थर और सादा ईंटें प्रयुक्त हुई हैं। यह स्थापत्य मुग़ल शैली से प्रभावित है परंतु सजावट में स्थानीय उत्कीर्णन और फूल-पत्तियों के छवि भी हैं।
4. क्या आपके गाँव अथवा शहर में ख़ानक़ाह या दरगाह है? मालूम कीजिए इनकी स्थापना कब हुई थी तथा इनके संग कौन से क्रियाकलाप जुड़े हुए हैं? क्या ऐसे अन्य स्थान हैं जहाँ धार्मिक स्त्री और पुरुष मिलते और रहते हैं?
उत्तर: हमारे शहर में एक मशहूर दरगाह है जो एक सूफ़ी संत की स्मृति में बनी थी। इसकी स्थापना 17वीं सदी में हुई थी। यहाँ हर गुरुवार को सूफी संगीत होती हैं, और श्रद्धालु भक्तगण चादर चढ़ाते हैं। यह एक ऐसा स्थान है जहाँ विभिन्न धर्मावलंबी के लोगों को मिलने का केंद्र है।
5. धार्मिक और राजनीतिक नेताओं में टकराव के संभावित स्रोत क्या-क्या हैं?
उत्तर: धार्मिक और राजनीतिक नेताओं में टकराव के संभावित स्रोत हैं- धार्मिक नेताओं का लक्ष रहस्यवादी और नैतिक मार्गदर्शन देना होता है हालाँकि राजनीतिक नेताओं का लक्ष्य सत्ता और शासन होता है और जब धार्मिक और राजनीतिक नेताओं दोनों अपनी हद को पार करते हैं एवं एक-दूसरे के कार्यों में हस्तक्षेप करते हैं, तो टकराव होता है।
6. आपको क्यों लगता है कबीर, बाबा गुरु नानक और मीराबाई इक्कीसवीं शताब्दी में भी महत्त्वपूर्ण हैं?
उत्तर: कबीर, बाबा गुरु नानक और मीराबाई ने श्रद्धा, भक्ति, समानता, और धार्मिक सहिष्णुता का संदेश दिया जो आज के समाज में भी अत्यंत प्रासंगिक है। उनके धारना हमें जाति, धर्म, वर्ण और भेदभाव से प्रगति करने की प्रेरणा देते हैं।
उत्तर दीजिए (लगभग 100-150 शब्दों में)
1. उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए कि संप्रदाय के समन्वय से इतिहासकार क्या अर्थ निकालते हैं?
उत्तर: संप्रदाय के समन्वय से इतिहासकार ये समझते हैं कि किस प्रकार विभिन्न धार्मिक, भाषाएँ और सामाजिक समूहों के चिंतन और आचार मिलकर एक सामान्य संस्कृति बनाते हैं। हिंदू-मुस्लिम परंपराओं के बीच भक्ति और सूफ़ी आंदोलनों ने सेतु का कार्य किया, जहाँ असंख्य संतों ने प्रेम, सेवा और ईश्वर-भक्ति को प्रधान मूल्य बनाया। ये समन्वय सामाजिक समरसता और धार्मिक सहनशीलता को बढ़ावा अथवा प्रेरणा देता है।
2. किस हद तक उपमहाद्वीप में पाई जाने वाली मस्जिदों का स्थापत्य स्थानीय परिपाटी और सार्वभौमिक आदशों का सम्मिश्रण है?
उत्तर: उपमहाद्वीप में पाई जाने वाली मस्जिदों में इस्लामी स्थापत्य के व्यापक तत्व जैसे मेहराब, मीनार और गुंबद पाए जाते हैं, किन्तु निर्माण हेतु स्थानीय सामग्री, शिल्प, और कलाकारी का प्रयोग होता है। जैसे कि दक्षिण भारत में मस्जिदों में पत्थर की खुदाई और स्थानीय कला चमकती है, जबकि उत्तर भारत में मुग़ल शैली मुख्य है। ये मिश्रण सांस्कृतिक सहयोग को प्रस्तुत करता है।
3. बे शरिया और बा शरिया सूफी परंपरा के बीच एकरूपता और अंतर, दोनों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर: बा-शरिया सूफ़ी (इस्लामी क़ानून) का पालन करते हैं और आधिकारिक धार्मिक रीति-रीवाजो से जुड़े रहते हैं। वहीं बे शरिया सूफ़ी परंपराएँ पारम्परिक धार्मिक नियमों को अहमियत नहीं देतीं और आत्मा की मुक्ति को प्यार और अनुभव से जोड़ती हैं। बे शरिया और बा शरिया दोनों ही ईश्वर से एकात्मता के रास्ते हैं, लेकिन उनके उपाय अलग हैं।
4. चर्चा कीजिए कि अलवार, नयनार और वीरशैवों ने किस प्रकार जाति प्रथा की आलोचना प्रस्तुत की?
उत्तर: अलवार और नयनार संतों ने समाज में प्रचलित जाति प्रथा और ब्राह्मणों की प्रभुता के खिलाफ आवाज उठाई। इन संतों में विभिन्न सामाजिक पृष्ठभूमियों के लोग शामिल थे। कुछ संत ब्राह्मण समुदाय से थे, तो कुछ शिल्पकार, किसान और यहां तक कि उन जातियों से थे जिन्हें उस समय अस्पृश्य माना जाता था। अलवार और नयनार संतों की रचनाओं को भी वेदों जितना ही महत्व दिया गया। उदाहरण के लिए, अलवार संतों के मुख्य काव्य संकलन ‘नलयिरादिव्यप्रबन्धम्’ को तमिल वेद के रूप में माना गया, जिसका महत्व संस्कृत के चार वेदों के समान समझा गया।
वीरशैव संतों ने भी जातिगत भेदभाव का कड़ा विरोध किया। उन्होंने पुनर्जन्म के सिद्धांत को अस्वीकार कर दिया और ब्राह्मण धर्मशास्त्रों में जिन प्रथाओं को नकारा गया था, जैसे-वयस्क विवाह और विधवा पुनर्विवाह, उन्हें स्वीकृति दी। इस कारणवश, जिन समुदायों के साथ ब्राह्मणों द्वारा भेदभाव किया गया, उन्होंने वीरशैव परंपरा को अपनाया।
5. कबीर अथवा बाबा गुरु नानक के मुख्य उपदेशों का वर्णन कीजिए। इन उपदेशों का किस तरह संप्रेषण हुआ।
उत्तर: कबीर ने निराकार ईश्वर में विश्वास, जातिवाद और मूर्तिपूजा का विरोध किया। उन्होंने श्री रामको विस्तृत अर्थ में उपयोग कर सत्य की ओर आगे बढ़ने की सलाह प्रदान की। कबीर ने कहा कि ईश्वर एक है और उसे विभिन्न नामों से पुकारा जाता है। वह हिन्दू-मुस्लिम भेदभाव का कड़ा विरोध करते थे।
बाबा गुरु नानक, सिख धर्म के संस्थापक थे। गुरु नानक ने एक ईश्वर की उपासना् एवं आराधना, सेवा, ईमानदारी और सभी मनुष्यों की समानता पर बल दिया। उनके उपदेश “गुरबाणी” के रूप में व्यवस्तित हुए और गुरुद्वारों में कीर्तन के माध्यम से प्रचारित होते हैं।
निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 250-300 शब्दों में)
6. सूफ़ी मत के मुख्य धार्मिक विश्वासों और आचारों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर: सूफ़ी मत इस्लामिक की एक रहस्यमय प्रथा है, जिसका उद्देश्य आत्मा की ईश्वर से एकता है। यह भौतिकता से दूर रहकर प्रेम, सेवा, और अभ्यास को महत्व देता है। सूफ़ी संत यह मानते हैं कि ईश्वर को केवल प्रेम और भक्ति के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है, न कि केवल औपचारिक कर्मकांडों से।
सूफ़ियों का भरोसा है कि सभी धर्म का सार प्रेम है, और इसलिए वे विभिन्न धर्मों के अनुयायियों से मेल-जोल रखते थे। वे दरवेश जीवन जीते थे- सादगी, त्याग और ध्यान उनका मार्ग था। वे खानकाहों में रहते, जहाँ शिष्यों को शिक्षित किया जाता था। वहाँ लंगर, ध्यान और कव्वाली मुख्य गतिविधियों थीं।
सूफ़ी संतों में ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती, निज़ामुद्दीन औलिया और बाबा फरीद प्रमुख हैं। हिन्दू और मुस्लिम दोनों आज भी इन संतों की दरगाहों पर श्रद्धा मन से जाते हैं। सूफ़ी मत में संगीत को आत्मा की शुद्धि का एक माध्यम माना गया है, इसलिए कव्वाली और समा जैसी संगीत परंपराएँ मशहूर हुई।
सूफ़ी मत ने इस्लाम को कठिन नियमों को छोड़ मानवीय संवेदना और सहिष्णुता से जोड़ दिया, जो कि आज भी उसकी सबसे गंभीर विशेषता मानी जाती है।
7. क्यों और किस तरह शासकों ने नयनार और सूफ़ी संतों से अपने संबंध बनाने का प्रयास किया?
उत्तर: नयनार संतों और सूफ़ियों की जनप्रियता और धार्मिक प्रभाव को देखकर कई शासकों ने उनके प्रति श्रद्धा प्रकट की और उनके केंद्रों को संरक्षण दिया। इससे शासकों को नागरिको का भरोसा और धार्मिक वैधता मिलती थी।
दक्षिण भारत में चोल शासकों ने शिव भक्त नयनार संतों को संरक्षण दिया। उत्तर भारत में दिल्ली के सुल्तानों और मुग़लों ने सूफी दरगाहों को अभिदान दिए और भी कई बार खुद भी दरगाहों में श्रद्धा प्रकट की। उदाहरणस्वरूप, अकबर ने ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर चढ़ावा चढ़ाया। यह संबंध राजनीति और धर्म का परस्पर सहारा भी था।
8. उदाहरण सहित विश्लेषण कीजिए कि क्यों भक्ति और सूफ़ी चिंतकों ने अपने विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए विभिन्न भाषाओं का प्रयोग किया?
उत्तर: भक्ति और सूफ़ी संतों ने अपनी शिक्षाओं को जनसामान्य तक पहुँचाने के लिए स्थानीय भाषाओं का प्रयोग किया। जैसे, कबीर ने अवधी और पंजाबी मिश्रित भाषा, मीरा ने राजस्थानी, गुरु नानक ने पंजाबी में उपदेश दिए। इससे आम लोग उनके विचार समझ सके और भक्ति-संदेश व्यापक रूप से फैल सका।
उर्दू, हिंदी, तमिल, बांग्ला, सिंधी, और कश्मीरी जैसे आदि भाषाओं का उपयोग करके संतों ने ज्ञान को सीमित वर्ग तक न रखकर जनता तक पहुँचाया। कारण यही है कि अनके भजन और कविताएँ आज भी लोगों की जुबान पर हैं।
9. इस अध्याय में प्रयुक्त किन्हीं पाँच स्त्रोतों का अध्ययन कीजिए और उनमें निहित सामाजिक व धार्मिक विचारों पर चर्चा कीजिए।
उत्तर: इस अध्याय में दिए गए स्त्रोत और उनमें निहित सामाजिक व धार्मिक विचार हैं-
(i) कबीर के दोहे – सामाजिक समानता, मूर्तिपूजा का विरोध, एक ईश्वर में आस्था।
(ii) गुरु नानक की वाणी सेवा, श्रम, सच्चाई और धार्मिक सहिष्णुता।
(iii) मीराबाई के पद – भक्ति की गहराई, आत्मिक प्रेम और सामाजिक बंधनों की उपेक्षा।
(iv) ख्वाजा निज़ामुद्दीन औलिया के प्रवचन मानवता और प्रेम की शिक्षा।
(v) अलवार और नयनार की कविताएँ ईश्वर प्रेम, जाति विरोध, भक्ति में समर्पण।
ये सभी स्त्रोत हमें मध्यकालीन भारत के धार्मिक विविधता, सामाजिक बदलाव और एकात्मता की भावना को समझने में मदद करते हैं।

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