NCERT Class 11 Sociology Samaj Ka Bodh Chapter 1 समाज में सामाजिक संरचना, स्तरीकरण और सामाजिक प्रक्रियाएँ

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NCERT Class 11 Sociology Samaj Ka Bodh Chapter 1 समाज में सामाजिक संरचना, स्तरीकरण और सामाजिक प्रक्रियाएँ

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Chapter: 1

समाज का बोध
अभ्यास

1. कृषि तथा उद्योग के संदर्भ में सहयोग के विभिन्न कार्यों की आवश्यकता की चर्चा कीजिए।

उत्तर: सहयोग सहचारी सामाजिक प्रक्रिया है। इसमें व्यक्तियों या समूहों के व्यक्तिगत या सामूहिक लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु साथ मिलकर काम करना शामिल है। साथ ही इसमें व्यक्तियों को एकत्रित करने के लिए सहानुभूति, परानुभूति और योग्यता भी सम्मिलित है। सरल समाजों में जहाँ अतिरिक्त उत्पादन संभव नहीं, वहाँ व्यक्तियों और समूहों के मध्य सहयोग की भावना विद्यमान थी। यद्यपि पूँजीवादी समाजों में सहयोग की भावना विद्यमान तो है तथापि अनेक बार इसे आरोपित किया जाता है। कृषि के क्षेत्र में किसान हल तो चला सकता है परंतु उसे हल के लिए लुहार एवं बढ़ई के सहयोग की आवश्यकता होती है। फसल बोने एवं काटने के समय उसे कृषि श्रमिकों का सहयोग लेना पड़ता है। इस प्रकार के सहयोग के बिना कृषि उत्पादन संभव नहीं है। इसी भॉति, उद्योग भी सहयोग द्वारा ही संचालित होता है। अन्य समूह दुकानदार की तरह कार्य करते हैं और खाद, बीज और कीटनाशी की व्यवस्था करता है। व्यक्तियों का अन्य समूह खेतों में बीज बोने का कार्य करते हैं, फसल कटाई के अवसर पर फसलों को काटते हैं तथा अन्य क्रिया-कलाप भी करते हैं। कृषक उद्देश्यों की प्राप्ति अकेला नहीं कर सकता है। इसी प्रकार औद्योगिक संचालन के क्षेत्र में विशेषज्ञता की आवश्यकता है।

2. क्या सहयोग हमेशा स्वैच्छिक अथवा बलात् होता है? यदि बलात् है, तो क्या मंजूरी प्राप्त होती है अथवा मानदंडों की शक्ति के कारण सहयोग करना पड़ता है? उदाहरण सहित चर्चा करें।

उत्तर: सहयोग स्वैच्छिक अथवा बालत् दोनों प्रकार का हो सकता है। श्रम-विभाजन में पाया जाने वाला सहयोग स्वैच्छिक होता है। यदि यह स्वैच्छिक सहयोग न हो तो मानव जाति का अस्तित्व कठिन हो सकता है। दुख़म जैसे प्रकार्यवादी समाजशास्त्रियों का मत है कि मानव जाति में भूख तथा प्यास जैसी मौलिक संतुष्टि भी सहयोग द्वारा ही संभव है। सहयोग, प्रतिस्पर्धा एवं संघर्ष के आपसी संबंध अधिकतर जटिल होते हैं तथा ये आसानी से अलग नहीं किए जा सकते। यह समझने के लिए कि सहयोग और संघर्ष किस प्रकार अनुलग्नित हैं, तथा ‘बाह्य’ एवं ‘स्वैच्छिक सहयोग में क्या अंतर है, हम औरतों के संपत्ति के अधिकार का उदाहरण ले सकते हैं। बेटियों के संपत्ति पर अधिकार के ज्ञान के बावजूद भी, वे जन्म से परिवार में संपत्ति का संपूर्ण या साझा अधिकार का दावा करने से असमर्थ हैं; कारण यह है कि वे डरती थीं कि ऐसा करने से भाइयों के साथ उनके संबंधों में कड़वाहट आ जाएगी। स्वैच्छिक सहयोग का उदाहरण है। दूसरी ओर, एक फैक्ट्री में काम करने वाले मजदूर जिसका एकमात्र कार्य पूरे दिन में लीवर खींचना या बटन दबाना होता है, आरोपित या बलात् सहयोग का उदाहरण है। इसी भाँति, परिवार के सदस्यों में पाया जाने वाला सहयोग स्वैच्छिक होता है, जबकि फैक्ट्री में काम करने वाले लोगों में पाया जाने वाला सहयोग आरोपित या बलात् प्रकृति का होता है। संघर्ष परिप्रेक्ष्य के अनुसार, जहाँ समाज जाति या वर्ग के आधार पर बँटा होता है, वहीं कुछ समूह सुविधावंचित हैं तथा एक-दूसरे के प्रति भेदभावमूलक स्थिति बरतते हैं।

3. क्या आप भारतीय समाज से संघर्ष के विभिन्न उदाहरण ढूँढ़ सकते हैं? प्रत्येक उदाहरण में वे कौन से कारण थे जिसने संघर्ष को जन्म दिया? चर्चा कीजिए।

उत्तर: भारतीय समाज में संघर्ष के अनेक उदाहरण हैं। इनमें वे सभी प्रक्रियाएँ शामिल हैं जिनमें व्यक्ति दूसरों की इच्छा के विरुद्ध कार्य करता है। अपने लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु यह एक सचेत प्रक्रिया है। सांप्रदायिकता धर्म के नाम पर होने वाले संघर्षों तथा दंगों के रूप में प्रतिफलित होती है। इसी भाँति, जातिवाद जातीय संघर्षों (जिनमें अधिकांशतः उच्च जातियाँ निम्न जातियों का शोषण करती हैं या उन पर अत्याचार करती हैं) तथा क्षेत्रवाद विभिन्न प्रदेशों में रहने वाले लोगों में होने वाले संघर्ष के रूप में देखा जा सकता है। क्षेत्रवाद ऐसी भावनाओं को जन्म देता है जो अन्य क्षेत्रों के हितों को नुकसान पहुँचाने वाली होती हैं। उदाहरणार्थ-कई बार महाराष्ट्र या असम में अन्य प्रदेशों के लोगों को नौकरी देने का प्रबल विरोध क्षेत्रवाद की भावना के आधार पर ही किया जाता है। भारतीय समाज में संरचनात्मक अवस्थित में गरीबी का उच्च दर, आर्थिक तथा सामाजिक स्तरीकरण असमानता, सीमित राजनैतिक और सामाजिक अवसर सम्मिलित है। व्यक्तिगत स्तर पर विचार, पूर्वागृहिक अभिवृत्ति तथा वैयक्तित्व मुख्य निर्धारक हैं।

4. संघर्ष को किस प्रकार कम किया जाता है इस विषय पर उदाहरण सहित निबंध लिखिए।

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उत्तर: सहयोग एवं संघर्ष जीवन के दो अभिन्न पहलू माने जाते हैं। दोनों ही समाज के लिए अनिवार्य हैं परंतु संघर्ष का सहयोग के अंतर्गत होना समाज के अस्तित्व के लिए उपयोगी माना जाता है। इसीलिए प्रत्येक समाज संघर्ष को कम-से-कम करने का प्रयास करता है। दूसरी बात है कि संघर्ष के लिए उत्तरदायी कारण जब तक समाज में विद्यमान हैं तब तक संघर्ष को कम करना संभव नहीं है। संघर्ष किसी भी समाज का अभिन्न अंग है। यह एक विघटनकारी प्रक्रिया है। चूंकि केंद्रबिंदु पद्धति जो कार्य रखने की है, इसलिए प्रतिस्पर्धा और संघर्ष को ऐसा समझा जाता है कि अधिकतर विवादों में बिना पर्याप्त कष्ट के उनका समाधान ढूंढ़ लिया जाता है। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि पहले उन सब कारणों का पता लगाया जाए जो संघर्ष के लिए उत्तरदायी हैं। इन सब कारणों को दूर करने का प्रयास किया जाए तथा विवादित मुद्दों पर सर्वसम्मति बनाने का भरसक प्रयास किया जाए। सरकार किसी भी संप्रदाय, प्रदेश अथवा जाति विशेष के प्रति राजनीतिक कारणों के किए जाने वाले भेदभाव की नीति न अपनाए तो संघर्ष को काफी सीमा तक कम किया जा सकता है। निर्धनता, बेरोजगारी जैसी समस्याएँ भी संषर्घ का कारण होती हैं तथा इन पर भी अंकुश लगाए जाने की आवश्यकता है। संसाधनों का वितरण भी इस ढंग से किया जाना आवश्यक है कि विभिन्न वर्गों में किसी प्रकार का रोष या वंचना की भावना विकसित न हो। वस्तुत: संघर्ष पर नियंत्रण करना अथवा इसे कम करना अत्यंत कठिन कार्य है तथा कोई भी समाज इस लक्ष्य को प्राप्त करने में पूरी तरह से सफल नहीं हो पाया है। तथा सोवियत संघ के विघटन तथा पूर्वी यूरोप के देशों द्वारा उदारवादी अर्थव्यवस्था अपनाने के परिणमस्वरूप यह मत और भी अधिक कमजोर हो गया है। समाजशास्त्रियों ने इस तथ्य की ओर ध्यान आकर्षित किया है कि सामाजिक विकास की विभिन्न अवस्थाओं में संघर्ष की प्रकृति तथा रूप सदैव परिवर्तित होते रहे हैं। परंतु संघर्ष किसी भी समाज का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा सदैव से रहा है।

5. ऐसे समाज की कल्पना कीजिए जहाँ कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है, क्या यह संभव है? अगर नहीं तो क्यों?

उत्तर: आज प्रतिस्पर्धा को विश्वव्यापी तथा स्वाभाविक माना जाता है। इसीलिए समकालीन समाजों में प्रतिस्पर्धा एक मार्गदर्शक ताकत के रूप में विद्यमान है। पूँजीवादी समाजों में तो प्रतिस्पर्धा एक सशक्त विचाराधारी मानी जाती है। ऐसा माना जाता है कि परंपरागत समाजों में प्रतिस्पर्धा नहीं थी क्योंकि सभी व्यक्ति एक समान थे तथा एक जैसे कार्यों में लगे हुए थे। प्रतियोगिता लक्ष्य इस प्रकार निर्धारित किया जाता है। कि यदि अन्य अपने लक्ष्य को प्राप्त करने से असफल रहते हैं, तो प्रत्येक व्यक्ति अपने लक्ष्य को ही प्राप्त कर सकता है। कई बार संबंध उत्पादन की पद्धति के अंतर्गत समूहों और व्यक्तियों की अवस्थिति विविध और असमान रहती है। दुर्णीम के अनुसार, इस प्रकार के समाजों में ‘यांत्रिक एकता’ पायी जाती है। अनेक मार्क्सवादी विद्वान् संघर्ष एवं प्रतिस्पर्धा विहीन समाज की कल्पना को नकराते हैं तथा इस बात पर बल देते हैं कि सभी ज्ञात समाजों में किसी न किसी रूप में संघर्ष एवं प्रतिस्पर्धा विद्यमान थी। यदि देखें तो सरलतॆम समाजों में भी प्रतिस्पर्धा किसी-न-किसी रूप में प्रचलित थी। स्वाभाविक वृत्ति के रूप में भी प्रतिस्पर्धा के अस्तित्व को स्वीकार किया जाता है। इसलिए ‘विजेता तथा पराजित’ जैसे शब्दों का व्यक्ति अथवा समूह के लिए प्रचलन प्रतिस्पर्धा से ही संबंधित रहा है। जनजातियों में परंपरागत रूप से सबसे बड़े शिकारी या बहादुर का मुखिया होना भी इस बात का प्रतीक है कि उसके इस गुण का चयन किसी-न-किसी प्रतिस्पर्धा पर ही आधारित रहा होगा। अपनी भूख, प्यास जैसी मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु भी विभिन्न समूहों में प्रतिस्पर्धा एवं संघर्ष के उदाहरण मिलते हैं, इसीलिए पूरी तरह से प्रतिस्पर्धा-विहीन समाज की कल्पना करना संभव नहीं है।

6. अपने माता-पिता, बड़े-बुजुर्गों तथा उनके समकालीन व्यक्तियों से चर्चा कीजिए कि क्या आधुनिक समाज सही मायनों में प्रतिस्पर्धा है अथवा पहले की अपेक्षा संघर्षों से भरा है और अगर आपको ऐसा लगता है तो आप समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य में इसे कैसे समझाएँगे?

उत्तर: विद्यार्थी स्वयं करें।

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