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Class 12 Hindi Chapter 20 अतीत में दबे पांव
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अतीत में दबे पांव
काव्य खंड
लेखक परिचय: ओम थानवी जी का जन्म सन् 1957 में हुई। इनकी शिक्षा-दीक्षा बीकानेर में हुई। इन्होंने राजस्थान विश्वविद्यालय से व्यावसायिक प्रशासन में एम कॉम किया। ये एडीर्टस गिल्ड आफ़ इंडिया के महासचिव भी रह चुके है। साथ ही नौ वर्ष (सन् 1980-1989 ) तक राजस्थान पत्रिका में काम किया। ‘इतवारी पत्रिका’ के संपादक भी रह चुके हैं। इतवारी पत्रिकाके कारण साप्ताहिक पत्रिका को विशेष प्रतिष्ठा मिली। इतना ही नहीं अभिनय और निर्देशन में भी इनका हस्तक्षेप रहा है। अभिनेता और निर्देशक के रूप में रंगमंच पर सदैव सक्रिय रहे हैं। साथ ही साहित्य, कला, सिनेमा, वास्तुकला, पुरातत्व और पर्यावरण में इनकी गहन रूचि है। पत्रकारिता के लिए इन्हें कई पुरस्कार मिले हैं, जिनमें गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्कार उल्लेखनीय हैं। सन् 1999 से संपादक के नाते दैनिक जनसत्ता दिल्ली और कलकत्ता के संस्करणों का दायित्व संभाला। ये 17 वर्षों से इंडियन एक्सप्रेस समूह के हिंदी दैनिक ‘जनसत्ता’ में संपादक के रूप में कार्यरत हैं।
सागशं
मुअनजो-दड़ो और हड़प्पा केवल भारत के नहीं बल्कि दुनिया के दो सबसे पुराने नियोजित शहर माने जाते हैं। ये सिंधु घाटी सभ्यता के परवर्ती दौर के शहर हैं। ताम्र काल के शहरों में मुअनओ दड़ो सबसे बड़ा तथा उत्कृष्ट माना जाता है। अपने दौर में वह घाटी सभ्यता का केंद्र था। यह शहर दो सौ हैक्टर क्षेत्र में फैला था। इसकी आबादी पचासी हजार थी जो वर्तमान समय के महानगर की परिभाषा को भी लांघता था। | मुओनजो दड़ो छोटे-मोटे टीलों पर बसा था। परंतु ये टीले प्राकृतिक नहीं थे। कच्ची और पक्की दोनों तरह की ईंटों से धरती की सतह को ऊंचा उठाया गया था। आज भी इस शहर को सड़कों और गलियों में घुमा जा सकता हैं। आज भी किसी दोवार पर पीठ टिकाकर सुस्ताया जा सकता है। इस शहर के सबसे ऊंचे चबूतरे पर बड़ा बौद्ध स्तूप है। यह चबूतरा कोई पचोस फुट ऊंची है। यह स्तूप मुअनजो-दड़ो सभ्यता के बिखरने के बाद बनाया गया है। चबूतरे पर भिक्षुओं के कमरे भी हैं। सर्वेक्षन करने पर भारत को मिस्त्र और मेसोपोटामिया (इराक) के समकक्ष पाया गया।
लेखक सबसे पहले इसी स्तूप को देखने पहुँचे और देखते ही लेखक को अपलक कर दिया। इसे नागर भारत का सबसे पुराना लैंडस्केप कहा गया है। उस बौद्ध स्तूप में मानो हजारों सालों से लेकर पलभर पहले तक की धड़कन बसी हुई हैं। लेखक को यह इलाका राजस्थान से बहुत ही मिलता-जुलता लगता है। भले ही यहाँ रेत के टीले को जगह खेतों का हरापन हैं। परंतु वहीं खुला आकाश, सूना परिवेश धूल, बबूल और ज्यादा ठंड और ज्यादा गरमी यहां भी मिलती हैं। राजस्थान की धूप पारदर्शी हैं, परंतु यहां की धूप चाँधयाती हैं। स्तूपवाला चबूतरा मुअनजो-दड़ो के सबसे खास हिस्से के एक सिरे पर स्थित है। इस हिस्से को ‘गढ़’ कहा जाता है। नगर नियोजन के क्षेत्र में मुअनजोदड़ो अनूठी मिसाल पैदा करता है। स्तूप वाले चबूतरे के पीछे ‘गढ़’ और ठीक सामने ‘उच्च वर्ग’ की बस्ती है। उसके पीछे पांच किलोमीटर दूर सिंधु बहती है। दक्षिण में जो टूटे फूटे घरों का जमघट हैं, वह कामगारों की बस्ती है।
उसके बाद लेखक स्तूप के टीले से महाकुंड के बिहार की दिशा में गये। दाई तरफ एक लंबी गली दिखती है। इसके आगे महाकुंड है। कुंड करीब चालीस फुट लंबा और पच्चीस फुट चौड़ा है। इसकी गहराई सात फुट है। इसके तीन तरफ साधुओं के कक्ष बना है। उत्तर में दो पाँत में आठ स्नान घर हैं। इसकी खास बात यह है कि इसमें पक्की ईंटों का जमाव है। कुंड में अशुद्ध पानी न आ सके इसके लिए दीवारों और तल के बीच चूने और चिरोड़ी के गारे का इस्तेमाल किया गया है। वहां दोहरे घेर वाला एक कुँआ है। पानी को बाहर निकालने के लिए नालिया है।
पक्की और आकार में समरूप धूसर ईटें ही सिंधु घाटी सभ्यता की विशिष्ट पहचान हैं। महाकुंड के बाद लेखक ने गढ़ की परिक्रमा की। कुंड के दूसरी तरफ विशाल कोठार है। सिंधु घाटी के दौर में व्यापार ही नहीं बल्कि खेती भी उन्नत होती थी। विद्वानों का मानना है, कि वह खेतिहर और पशुपालक ही थी। यहाँ लोहे की तुलना में पत्थर और तांबे की बहुतायत थी। पत्थर और तांबे के उपकरण खेती-बाड़ी में प्रयोग किया जाता था। इतिहासकार इरफान हबीब के मुताबिक यहां के लोग रबी की फसल करते थे खुदाई के दौरान गेहूँ, कपास, जौ, सरसों और चने की उपज के सबूत पाये जाते है। धीरे-धीरे खेत सूखे में ढल गया। यहाँ के लोग खजूर, खरबूजे और अंगूर उगाते थे। कपास की खेती भी होती थी। ये दुनियामें सूत के दो सबसे पुराने नमूनों में एक है। यहाँ सूत की कताई बुनाई के साथ रंगाई भी होती थी। छालटी (लिनन) और ऊन सुमेर से आयात किया जाता था। महाकुंड के उत्तर-पूर्व में एक बहुत लम्बी-सी इमारत के अवशेष है। इसके बीचोंबीच खुला ढालान है। दक्षिण में एक भग्न इमारत है। जिसमें बीस खम्भों वाला एक बड़ा हॉल है। अनुमान लगाया जाता है कि यह राज्य सचिवालय, सभा भवन या कई सामुदायिक केंद्र रहा होगा। इसके बाद लेखक गढ़ की चारदीवारी पार कर | बस्तियों की ओर बढ़े जो गढ़ के मुकाबले छोटे टीलों पर बनी है, इसलिए इन्हें नीचा नगर कहकर पुकारा जाता है। यहाँ सड़क के दोनों और घर हैं, परंतु ये घर सड़क की और पौठ किये हुए है। यहाँ नालियाँ ढकी हुई तथा मुख्य सड़क के दोनों ओर समांतर दिखाई पड़ते हैं। इतिहासकारों का मानना है, सिंधु घाटी सभ्यता संसार में पहली ज्ञात संस्कृति है जो कुएँ खोदकर भू-जल तक पहुंची। यहाँ घर बनाने के लिए पक्की ईंटों का प्रयोग किया जाता हैं। जिसकी आकार एक होती थी 1:2:4 के अनुपात की। इन घरों की दिलचस्प बात यह होती थी कि सामने को दीवार में केवल प्रवेश द्वार बना होता है, | इसमें कोई खिड़की नहीं होती थी। छोटे-बड़े दोनों प्रकार के घर एक ही कतार में होते थे। इनकी वास्तु शैली कमोबेश एक-सी प्रतीत होती है। इसके एक घर को ‘मुखिया’ का घर कहा जाता है, जिसमें दो आँगन और करीब बीस कमरे होते हैं।
मुअनजो-दड़ो में कुँओं को छोड़कर लगता हैं कि सबकुछ चौकोर या आयताकार है। यहाँ घर की खिड़कियों या दरवाजों पर छज्जों के चिह्न नहीं है। गरम इलाकों के घरों में छाया के लिए यह प्रावधान किया जात है। अनुमान लगाया गया है कि शायद उस समय वहाँ कड़ी धूप नहीं पड़ती होंगी। लेखक कहते है कि मुअनजोदड़ो में उस दिन तेज हवा बह रही थी। सांय सांय की ध्वनि उसी तरह प्रतीत हो रही थी, जैसे सड़क पर वाहक गुजर रहा हो। सुनो घरों में हवा की लय और ज्यादा गूंजती है। लेखक कहते हैं कि यहां की गलियों या घरों में घुमते हुए उन्हें राजस्थान की याद अक्सर आती रही। | केवल इसलिए नहीं कि यहाँ को दृश्यावली एक-सी है, बल्कि इसलिए कि दोनों जगहों | के खेती-बाड़ी भी मिलती थी। यहाँ भी बाजरे और ज्वार की खेती की जाती थी। यहाँ टहलते हुए लेखक को कुलधरा गाँव की याद आ गयी जो जैसलमेर के मुहाने पर बसा यहाँ पीले पत्थरों के घर हैं, डेढ़ सौ साल पहले राजा से तकरार होने पर यहाँ के स्वाभिमानी गाँववासी घर छोड़कर चले गये। बाशिंदा तो नहीं है, पर घर आज भी मौजूद जॉन मार्शल ने मुअनजो-दड़ो पर तीन खंडों का विशद प्रबंध छपवाया था। लेखक ने आजायवघर भी देखने गये आजायवर बहुत ही छोटाथा समान भी ज्यादा नहीं था क्योंकि खास चीजें कराची, लाहौर, दिल्ली और लंदन में रखा गया था। मुट्ठी भर चीजे यहां प्रदर्शित की गई थी, जिसमें काला पड़ गया गेहूं, तांबे और कांसे के बर्तन, मुहरें, वाद्य, मृदु-भांड, चौपड़ की गोटियां, दीये, तांबे का आईना, मिट्टी की बैलगाड़ी, कंघी, मिट्टी के कंगन आदि। सोने के गहने भी रखा गया था, परंतु वे चोरी हो गया। यहाँ हथियार नहीं देखा गया जैसा राजतंत्र में पाया जाता है। विद्वानों का मानना हैं शायद यहाँ कोई सैन्य सत्ता नहीं था, परंतु कोई अनुशासन अवश्य था, जो यहाँ की सामाजिक | व्यवस्था में एकरुपता को कायम रखे हुए था।
कई जगहों पर राजतंत्र या धर्मतंत्र की ताकत का प्रदर्शन करने वाले महल, उपासना स्थल, मूर्तियाँ और पिरामिड मिलते है। हड़प्पा संस्कृति में न तो भव्य महल मिले और नही मंदिर। मुअनजोदड़ों को देखकर यह कहा जा सकता है, कि लघुता में भी महत्ता अनुभव करने वाली संस्कृति। यह शहर सिंधु सभ्यता का सबसे बड़ा ही नहीं बल्कि समृद्धशाली शहर भी कहा जा सकता है।
सिंधु घाटी के लोगों में कला या सुरुचि का महत्व ज्यादा था। इस बात को प्रमाणित करती हैं, वहाँ की धातु और पत्थर की मूर्तियां, उस पर चित्रित पशु-पक्षियों की छवियां, सुनिर्मित मुहरें, आभूषण आदि। अजायबघरों में रखी चीजों में कुछ सुइयां भी है। काशीनाथ दीक्षित को तीन सोने की सुइयां मिली जिनमें एक दो इंच लंबी थी। अनुमान लगाया जाता है, कि यह कशीदेकारी के काम आती थी। वहाँ हाथी दाँत और तांबे के सूई भी मिले।
वर्तमान मुअनजो-दड़ो में खुदाई का काम बंद कर दिया गया है, क्योंकि पानी के रिसाव के कारण क्षार और दलदल की समस्या पैदा हो गई है। आज आवश्यक है कि इन खंडहरों को बचाकर रखा जाए।
प्रश्नोत्तर
1. सिंधु सभ्यता साधन-संपन्न थी, पर उसमें भव्यता का आइबर नहीं था। कैसे?
उत्तर: सिंधु-सभ्यता साधन संपन्न थी। खुदाई के दौरान बड़ी तदाद में इमारतें, सड़कें, धातु-पत्थर की मूर्तियां, चाक पर बने चित्रित भांडे, मुहरें, साजो-सामान और खिलौने आदि मिले। वहां की सड़कों और गलियों में आज भी घुमा जा सकता है। वहां के चबूतरे पर बौद्ध स्तूप था। साथ ही भिक्षुओं के रहने के लिए कमरे भी बने हुए थे। पक्की और आकार समरूप धूसर ईंटें तो सिंधु घाटी सभ्यता की विशिष्ट पहचान है। सड़कों की व्यवस्था बहुत अच्छी है। सड़क के दोनों ओर घर है। यहाँ जल की भी सुव्यवस्था थी। अतः सिंधु घाटी सभ्यता संसार में पहली ज्ञात संस्कृति है, जो कुएं खोद कर भूजल तक पहुंची। वहां की नालियाँ भी अनगढ़ पत्थरों से ढकी दिखाई देती है। ढकी हुई नालियाँ मुख्य सड़क के दोनों तरफ समांतर दिखाई देती है। हर घर में एक स्नानघर है। वहाँ ज्ञानशालाएँ, प्रशासनिक इमारतें, सभा भवन, सामुदायिक केंद्र हुआ करते थे। इतना ही नहीं यह मूलत: खेतिहर और पशुपालक सभ्यता ही थी। यहाँ कपास, गेहूं, जौ, सरसों और चने की उपज की जाती थी। यहाँ सूत की कताई-बुनाई के साथ रंगाई भी जाती थी। इतना साधन संपन्न होने के पश्चात भी उसमें भव्यता का आडंबर नहीं था। सिंधु सभ्यता में न तो भव्य राजप्रसाद मिले है, न मंदिर, न राजाओं, मंहतों की समाधियाँ। यहाँ पाई जानेवाली मूर्तिशिल्प छोटे है और औजार भी। नरेश की सिर के ‘ मुकुट’ भी इतने छोटे है, कि उससे छोटे सिरपेंच की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। उनके नावों की बनावट मिस्त्र की नावों जैसी होते हुए भी आकार में छोटी होती थी। इसके साधनों और व्यवस्थाओं को देखते हुए इसे सबसे समृद्ध माना गया है।
2. ‘सिंधु सभ्यता की खूबी उसका सौंदर्य-बोध है, जो राज-पोषित या धर्म पोषित न होकर समाज पोषित था।’ ऐसा क्यों कहा गया?
उत्तर: एक पुरातत्ववेत्ता का कहना है कि सिंधु सभ्यता की खूबी उसका सौंदर्य बोध है, जो राज पोषित या धर्म-पोषित न होकर समाज पोषित था और यहाँ कारण है कि यहां आकार की भव्यता की जगह उसमें कला की भव्यता दिखाई देती हैं। यहां के लोगों में कला या सुरुचि का महत्व ज्यादा था। वहाँ की वास्तुकला या नगर-नियोजन ही नहीं, बल्कि चातु और पत्थर की मूर्तियां, मृदु-भांड़ तथा उन मूर्तियों पर चित्रित मनुष्य, वनस्पति और पशु पक्षियों की छवियां, सुनिर्मित मुहरें, साथ ही उन पर बारीकी से उत्कीर्ण आकृतियाँ, खिलौने, केश विन्यास, आभूषण और सबसे ऊपर सुघड़ अक्षरों का लिपिरूप सिंधु सभ्यता को कला-सिद्ध प्रमाणित करता है।
3. पुरातत्व के किन चिह्नों के आधार पर आप यह कह सकते हैं कि ‘सिंधु सभ्यता ताकत से शासित होने की अपेक्षा समझ से अनुशासित सभ्यता थी।’
उत्तर: मुअनजोदड़ो के अजायबघरों में समस्त प्रदर्शित चीजों में औजार तो थे, परंतु हथियार कहीं नहीं थे। समूची सिंधु सभ्यता में उस तरह के हथियार कहीं नहीं मिले जैसा कि राजतंत्र में मिलते हैं। हथियार न मिलने की वजा से विद्वानों ने यह अनुमान लगाया है,कि यहाँ अनुशासन तो अवश्य था, पर ताकत के बल पर नहीं था। विद्वानों का अनुमान है। कि यहाँ सैन्य सत्ता शायद न रही होगी। मगर अवश्य ही कोई समझ से अनुशासित सभ्यता रही होगी जो नगर योजना, वास्तुशिल्प मुहर ठप्पों, पानी या साफ-सफाई जैसी सामाजिक व्यवस्थाओं आदि में एकरूपता तक को कायम रखे हुए था।
4. ‘यह सच है कि यहाँ किसी आंगन की टूटी-फूटी सीढ़ियों अब आपको कही नहीं ले जाती, वे आकाश की तरफ अधूरी रह जाती है। लेकिन उन अधूरे पायदानों पर खड़े होकर अनुभव किया जा सकता है, कि आप दुनिया की छत पर है, वहाँ से आप इतिहास को नहीं उसके पार झांक रहे है।’ इस कथन के पीछे लेखक का क्या आशय है?
उत्तर: यहाँ लेखक ने मुओनजोदड़ो और हड़प्पा नामक दो प्राचीन शहर को और संकेत किया है। ये दो शहर सबसे पुराने नियोजित शहर माने जाते है। आज भले ही ये दोनों शहर नहीं है। इनका ध्वंस हो चुका है, परंतु आप भी इनके उन समृद्धशाली -शहर को स्मरण दिलाते है। भले ही आज यहाँ किसी आंगन की टूटी-फूटी सीढ़ियाँ अब कहीं नहीं ले जाती वे आकाश की तरफ अधूरी रह जाती है। लेकिन उन टूटे पायदानों पर खड़े होकर यह अनुभव किया जा सकता है, कि हम दुनिया की छत पर है, और वहाँ खड़े होकर हम केवल इतिहास नहीं बल्कि उसके पार झांक सकते है। आज भी वहाँ की सड़कों और गलियों में शुम सकते है। किसी दीवार पर पोठ टिका कर आज भी सुस्ताया जा सकता है। आज भी शहर के सुनसान मार्ग पर कान देकर उस बैलगाड़ी की रूनझुन सुन सकते है, जिसे हम पुरातत्व की तस्वीरों में देखते है। यहाँ की सभ्यता संस्कृति का सामान हमें हमारी इतिहास का स्मरण दिलाते है।
5. टूटे-फूटे खंडहर, सभ्यता और संस्कृति के इतिहास के साथ-साथ धड़कती जिंदगियों के अनछुए समयों का भी दस्तावेज होते हैं इस कथन का भाव स्पष्ट कीजिए।
उत्तर: टूटे-फूटे खंडहर, सभ्यता और संस्कृति के इतिहास के साथ धड़कती जिंदगियों के अनछुए समय का दस्तावेज भी होता है। ये खंडहर वहाँ बसने वाले लोगों को रहन सहन, जीवन शैली को दर्शाता है। लेखक कहते हैं कि भले ही आज वहां कोई नहीं बसता है, परंतु उन टूटे घरों में घूमते हुए अजनबी घर में अनाधिकार चहल कदमों का अपराध बोध का एहसास होता है। ऐसा लगता है मानों किसी पराए घर में पिछवाड़े से चोरी-छुपे में घुस आए हो। ये टूटे हुए घर यहाँ आने वाले लोगों को हमेशा यह अहसास दिलाता है कि यह भले ही यह आपकी सभ्यता परंपरा है परंतु यह घर आपका नहीं है। इन घरों में भले ही आज कोई नहीं बसता है, परंतु बीते हुए कल में यह पचासी हजार आबादी वाला शहर हुआ करता था। पचास हजार पहले का दो सी हैक्टर क्षेत्र में फैला हुआ यह शहर आज के ‘महानगर’ की परिभाषा को भी लांघता है। वर्तमान समय में भले ही यह खंडहर बन गया है, परंतु आज भी किसी घर की रसोई की खिड़की पर खड़े होकर उसकी गंध महसूस कर सकते हैं
6. इस पाठ में एक ऐसे स्थान का वर्णन है, जिसे बहुत कम लोगों ने देखा होगा, परंतु इससे आपके मन में उस नगर की एक तस्वीर बनती है। किसी ऐसे ऐतिहासिक स्थल, जिसको आपने नजदीक से देखा हो, का वर्णन अपने शब्दों में कीजिए।
उत्तर: इस पाठ में स्तूप वाले चबूतरे के पीछे स्थित गढ़ का वर्णन है। जिसे शायद बहुत कम लोगों ने देखा होगा। उस गढ़ के ठीक सामने उच्च वर्ग की बस्ती है। और पूरब में स्थित इस बस्ती से दक्षिण की तरफ नज़र दौड़ाते हुए अगर घूम जाएं तो यहां से मुअनजो दड़ो के खंडहर हर जगह दिखाई देंगे। उसके दक्षिण में टूटे-फूटे घरों का जमघट है, अनुमान लगाया जाता है, कि कामगरों की बस्ती है। हर संपन्न समाज में वर्ग होते है, इससे यह कहा जा सकता है, कि यहां भी वर्ग विभाजन था। लेकिन निम्न वर्ग के घर इतने मजबूत, सामग्री से नहीं बनाए गये होंगे कि वह इतने दिन टिक सके।
एक बार तेजपुर गयी थी, जहाँ मुझे अग्निगढ़ देखने का मौका मिला था। अग्निगढ़ बहुत में ही ऊँचाई पर अवस्थित गढ़ है, जहाँ किसी समय वाण राजा अपनी पुत्री उषा को अनिरुद्ध नामक राजकुमार द्वारा अपहरण से बचाने के लिए रखा था। इसका नाम अग्निगढ़ इसलिए रखा गया था, क्योंकि इसके चारों ओर अग्नि प्रज्ज्वलित की गई थी। आज भी वहाँ कई मूर्तियाँ अवस्थित है तथा आये दिन उसे देखने के लिए अधिक संख्यक लोग जाते है।
7. नदी, कुएं, स्नानागार और बेजोड़ निकासी व्यवस्था को देखते हुए लेखक पाठकों से प्रश्न पूछता है, कि क्या हम सिंधु घाटी सभ्यता को जल संस्कृति कह सकते है? आपका जबाव लेखक के पक्ष में है या विपक्ष में? तर्क दें?
उत्तर: नदी, कुएं, स्नानागार और बेजोड़ निकासी व्यवस्था को देखते हुए सिंधु घाटी को सभ्यता को जल संस्कृति कह सकते है। क्योंकि इतिहासकारों का मानना है कि सिंधु सभ्यता संसार में पहली जात संस्कृति है, जो कुएं खोदकर भूजल तक पहुंची थी। उस समय सामूहिक स्नान किसी अनुष्ठान का अंग होता था। अतः देवमार्ग में एक स्नानागार है, जो करीब चालीस फुट लंबा और पच्चीस फुट चौड़ा है तथा गहराई सात फुट है। इस कुंड का पानी रिस न सके और बाहर का ‘अशुद्ध’ पानी अंदर आ सके इसके लिए कुंड के तल में और दीवारों पर ईंटों के बीच चूने और चिरोड़ी के गारे का इस्तेमाल हुआ है। तथापावं की दीवारों के साथ दूसरों दीवार खड़ी की गई है, जिसमें सफेद डामर का प्रयोग किया गया है। इस कुंड में पानी के बंदोबस्त के लिए एक तरफ हुआ है। यह दोहरे घेरे वाला यह अकेला कुआं है। इतना ही नहीं कुंड से पानी को बाहर बहाने के लिए नालियां है। ये पक्को ईंटों से बनी तथा ढकी भीहै। मुअनजो-दड़ो में सभी नालियाँ ढकी हुई तथा मुख्य सड़क के दोनों तरफ समांतर हैं। यहाँ के हर घर में एक स्नानघर हैं। यहाँ की कुएँ पक्की ईंटों से निर्मित होती थी तथा सभी एक ही आकार के ईंटों से बने है। इतिहासकारों के मुताबिक यहाँ कुल सात सौ के करीब कुएँ है।
8. सिंधु घाटी सभ्यता का कोई लिखित साक्ष्य नहीं मिला है। सिर्फ अवशेषों के आधार पर ही धारणा बनाई है। इस लेख में मुअनजो-दड़ो के बारे में जो धारणा व्यक्त की गई है। क्या आपके मन में इससे कोई भिन्न धारणा या भाव भी पैदा होता है? इन संभावनाओं पर कक्षा में समूह चर्चा करें।
उत्तर: जी, नहीं मुअनजोदड़ो के बारे में जो धारणा व्यक्त की गई है, उससे भिन्न धारणा या भाव पैदा नहीं होता है। इन अवशेषों को ध्यान में रखकर इतिहासकारों ने इसे समृद्धशाली शहर माना है। मुअनजोदड़ो ताम्र-काल के शहर में सबसे बड़ा शहर माना गया है। इस शहर के बारे धारणा है कि यह अपने दौर में वह घाटी की सभ्यता का केंद्र रहा होगा। यानी राजधानी रहा होगा। उस समय इसकी आबादी पचीसी हजार रही होगी जो आज के महानगर की परिभाषा को लाँघता है। मुअनजो-दड़ो नगर नियोजन की अनूठी मिसाल कायम करता है। इतनी संपन्न शहर होने के बावजूद भी इसमें भव्यता का आडंबर नहीं दिखता है।
9. ‘अतीत के दबे पांव’ के लेखक कौन हैं?
उत्तर: अतीत के दबे पांव के लेखक हैं, ओम धनवी
10. ओम थनवी का जन्म कब और कहां हुआ था ?
उत्तर: ओम धनवी का जन्म सन 1957 में बीकानेर राजस्थान में हुआ।
11. ओम धनवी ने ‘राजस्थान पत्रिका’ का संपादन कब किया था?
उत्तर: उन्होंने सन 1980 से 1989 ई. तक राजस्थान पत्रिका का संपादन किया।
12. पत्रकारिता के लिए उन्हें कौन सा पुरस्कार मिला था?
उत्तर: पत्रकारिता के लिए उन्हें गणेशशंकर विद्यार्थी पुरस्कार मिला था।