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Class 12 Hindi Chapter 18 श्रम विभाजन और जाति प्रथा
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श्रम विभाजन और जाति प्रथा
काव्य खंड
लेखक परिचय: मानव-मुक्ति के पुरोधा बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर का जन्म १४ अप्रैल सन् १८९१ में मध्य प्रदेश के महू में हुआ। प्राथमिक शिक्षा के बाद बड़ोदा नरेश के प्रोत्साहन पर उच्चतर शिक्षा के लिए न्यूयार्क (अमेरिका) फिर वहाँ से लदंन गए। उन्होंने संस्कृत का धार्मिक, पौराणिक और पूरा वैदिक वाङ्मय अनुवाद के जरिए पढ़ा और ऐतिहासिक सामाजिक क्षेत्र में अनेक मौलिक स्थापनाएँ प्रस्तुत की। बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर जी इतिहास-मीमांसक, विधिकेता, अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री, शिक्षाविद् तथा धर्म दर्शन के व्याख्याता बन कर उभरे। आंबेडकर जी ने कुछ समय तक वकालत भी की। समाज और राजनीति में बेहद सक्रिय भूमिका निभाते हुए उन्होने अछूतों, स्त्रियों और मजदूरों को मानवीय अधिकार व सम्मान दिलाने के लिए अथक संघर्ष किया। भारतीय संविधान के निर्माताओं में से एक डॉ भीमराव आंबेडकर आधुनिक भारतीय चितंन में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान के अधिकारी हैं। उन्होंने जीवनभर दलितों की मुक्ति एवं सामाजिक समता के लिए संघर्ष किया। स्वयं दलित जाति में जन्में डॉ आंबेडकर को बचपन से ही जाति आधारित उत्पीड़न शोषण एवं अपमान से गुजरना पड़ा। उनका पूरा लेखन इसी संघर्ष और सरोकार से जुड़ा हुआ हैं। बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर की मृत्यु दिंसबर सन् १९५६ में दिल्ली में हुआ।
प्रमुख रचनाएँ: दॉ कास्ट्स इन इंडिया, देयर मेकनिज्म, जेनेसिस एंड डेवलपमेंट (१९१७, प्रथम प्रकाशित कृति)
द अनटचेबल्स, हू आर दे? (१९४८)
हू आर द शूद्राज (१९४६)
बुद्धा एंड हिज धम्मा (१९५७)
थाट्स लिंग्युस्टिक स्टेट्ज (१९५५)
द प्रॉब्लम ऑफ़ द रूपी (१९२३)
द एबोलुशन आफ प्रोविंशियल फायनांस इन ब्रिटिश इंडियन
(यह इनकी पी. एच. डी. की थीसिस है)
द राइज एंड फॉल ऑफ़ द हिंदूं वीमैन (१९६५)
एनीहिलेशन ऑफ कास्ट (१९३६)
लेवर एंड पार्लियामेंट्री डैमोक्रेसी (१९४३)
बुद्धिज्म एंड कम्युनिज्म (१९५६)
पत्रिका:
उन्होंने ‘जनता’ नामक पत्रिका का सम्पादन किया। साथ ही मूक नायक, बहिष्कृत भारत का भी सम्पादन किया।
साराशं
श्रम विभाजन और जाति प्रथा: लेखक एक विडंबना की बात करते हुए कहते हैं, कि यहाँ ‘जातिवाद’ के पोषकों की कमी नहीं है। इनके द्वारा इसका समर्थन कई आधारों पर किया जाता है। समर्थन का आधार यह कहा जाता है, कि आधुनिक सभ्य समाज कार्य कुशलता के लिए श्रम विभाजन को आवश्यक मानता है। जाति-प्रथा भी श्रम विभाजन का दूसरा रुप हैं, इसलिए इसमें कोई बुराई नहीं हैं। परन्तु आपत्तिजनक बात यह है, कि जाति प्रथा श्रम विभाजन के साथ-साथ श्रमिक विभाजन भी करती है। भारत की जाति प्रथा केवल श्रमिकों का अस्वभाविक विभाजन ही नहीं करती बल्कि विभाजित विभिन्न वर्गों को एक-दूसरे की अपेक्षा ऊँच-नीच भी करार देती है। यह विश्व के किसी समाज में नहीं पाया जाता।
जाति प्रथा को यदि श्रम विभाजन मान लिया जाए तो यह स्वाभाविक विभाजन नहीं कहा। जा सकता। एक सक्षम श्रमिक समाज का निर्माण करने के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्तियों की क्षमता इस सीमा तक विकसित करें, जिसके बल पर वह अपना पेशा या कार्य का चयन स्वंय कर सके। वहीं जाति प्रथा का दूषित सिद्धात यह है, जिसमें उनकी निजी क्षमता का विचार किये बिना माता-पिता के सामाजिक स्तर के अनुसार दी उनका पेशा निर्धारित कर दिया जाता है।
जाति-प्रथा केवल पेरो का दोषपूर्ण दी नही बल्कि व्यक्ति को जीवनभर के लिए एक पेशो में बाँध देती है। भारत में हिन्दू धर्म को जाति प्रथा किसी भी व्यक्ति को | उसको पैतृक पेशा के अलावा अन्य पेशा चुनने की अनुमति नहीं देती है। और प्रकार पेशा परिवर्तन की अनुमति न देकर जाति प्रथा भारत में बेरोजगारी का एक प्रमुख कारण बन गई है।
इस प्रकार कहा जा सकता हैं, कि जाति प्रथा गंभीर दोषों से युक्त हैं। क्योंकि इसमें मनुष्य की व्यक्तिगत भावना और व्यक्तिगत रुचि को कोई महत्व नहीं दिया जाता है। आज समाज में गरीबी और उत्पीड़न से भी बड़ी समस्या यह हैं, कि लोग निर्धारित कार्य को ‘अरुचि के साथ केवल विवशतादश करते हैं। ऐसी व्यवस्ता ही मनुष्य को टालू तथा कम काम करने को प्रेरित करती हैं। ऐसी स्थिति में व्यक्ति से कोई कुशलता कैसे प्राप्त की जा सकती है। अतः आर्थिक पहलू से जाति प्रथा हानिकारक प्रथा है।
मेरी कल्पना का आदर्श समाज: लेखक ने एक आदर्श समाज की कल्पना करते हुए कहते हैं, कि उनका आदर्श समाज स्वतंत्रता, समता, भ्रातृता पर आधारित होगा। इस समाज में इतनी गतिशीलता होंगी जिससे कोई भी वांछित परिवर्तन समाज के एक छोर से दूसरे तक संचारित ही सके। ऐसे | समाज में बहुविधि हितों में सबका भाग होगा चाहिए और सबको उसकी रक्षा के प्रति सजग रहना चाहिए। सबके बीच भाई चारे की भावना होनी चाहिए। इसी भाई चारे का दूसरा नाम लोकतत्रं हैं लोकतन्त्र एक शासन पद्धति ही नहीं है, बल्कि सामूहिक जीवनचर्या की रीति तथा समाज के सम्मिलित अनुभवों के आदान- प्रदान का नाम है जब गमनागमन की स्वाधीनता, जीवन, तथा शारीरिक सुरक्षा की स्वाधीनता, संपति के अधिकार आदि को लेकर आपति नहीं हो सकती तो मनुष्य की शक्ति के सक्षम एवं प्रभावशाली प्रयोग की भी स्वतंत्रता क्यों नहीं दी जाती?
जाति प्रथा के पोषक जीवन, शारीरिक सुरक्षा तथा संपति के अधिकार की स्वतंत्रता को | तो स्वीकार कर लेंगे परन्तु स्वयं पेशा चुनने की स्वतन्त्रता के लिए तैयार नहीं होगे। क्योंकि इससे वे उन लोगों को “दासता” में जकड़कर रख पायेगें। ‘दासता’ केवल कानूनी पराधीनता को नहीं कहते हैं, बल्कि उसे भी कहते हैं, जहाँ कुछ लोगो को दूसरो। द्वारा निर्धारित कर्तत्यो और व्यवहार का पालन करने को विवश किया जाता है। लेखक ने ‘समता’ पर विचार प्रकट करते हुए मनुष्यों की क्षमता को तीन बातों पर निर्भरशील बताया है
१. शारीरिक वशं परम्परा।
२. सामाजिक उत्तराधिकार अर्थात सामाजिक परम्परा के रूप में माता-पिता की कल्याण कामना शिक्षा तथा वैज्ञानिक ज्ञानार्जन आदि सभी उपलब्धियाँ जिनके कारण सभ्य समाज, जंगली लोगों की अपेक्षा विशिष्टता प्राप्त करता है।
३. मनुष्य के अपने प्रयत्न।
प्रत्येक व्यक्ति को अपनी क्षमता का विकास करने का पूरा प्रोत्साहन देना सवर्थों उचित है। समाज में पूर्ण सुविधा संपन्नों को ही ‘उत्तम व्यवहार’ का हकदार माना जाना वास्तव में निष्पक्ष निर्णय नहीं कहा जा सकता। वहीं हम समाज के कुछ लोगों के साथ असमान व्यवहार करते हैं। यह नितांत अनुचित हैं। हमें ऐसे व्यक्तियों के साथ यथासंभव समान व्यवहार करना चाहिए। अतः यह कहा जा सकता है, कि अगर समाज अपने सदस्यों से अधिकतम उपयोगिता प्राप्त करना चाहता हैं, तो उसे समाज के सदस्यों का आरम्भ से ही समान अवसर एवं समान व्यवहार उपलब्ध कराए जाए।
लेखक कहते हैं एक राजनीतिज्ञ का बहुत बड़ी जनसख्या से पाला पड़ता है। राजनीतिज्ञ के पास इतना समय नहीं होता है, कि वह अपनी प्रत्येक जनता के विषय में जानकारी प्राप्त करें जिससे सबकी अलग-अलग आवश्यकतों और क्षमताओं के आधार पर वांछित व्यवहार कर सके। राजनीतिज्ञ को अपने व्यवहार में एक व्यवहार्य सिद्धांत की। आवशयकता रहती है। परन्तु वह यह व्यवहार इसलिए नहीं करता क्योंकि समाज में वर्गीकरण एंव श्रेणीकरण संभव होता है। परन्तु ‘मानवता’ की दृष्टि से समाज दो वर्गों व श्रेणीयों में नहीं बाँटा जा सकता है।
प्रश्नोत्तर
1. जाति प्रथा श्रम विभाजन का ही एक रूप न मानने के पीछे आंबेड़कर के क्या तर्क है?
उत्तर: आंबेडकर जाति प्रथा को श्रम विभाजन का ही एक रूप नही मानते। उनका मानना हैं, कि यह जाति प्रथा श्रम विभाजन के साथ-साथ श्रमिक विभाजन भी करती है। इतना ही नहीं श्रमिकों का अस्वाभाविक विभाजन के साथ ही विभाजित विभिन्न वर्गों को एक-दूसरे की अपेक्षा ऊँच-नीच भी करार देती है। जो समाज के लिए अहितकारी हैं, और समाज कभी भी इससे उन्नत और लाभान्वित नहीं हो पायेगा।
2. जाति प्रथा भारतीय समाज में बेरोजगारी व भुखमरी भी एक कारण कैसे बनती रही है? क्या यह स्थिति आज भी हैं?
उत्तरः जाति प्रथा भारतीय समाज में बेरोजगारी व भुखमरी का एक कारण है। क्योंकि जाति प्रथा मनुष्य को जीवन भर के लिए एक पेशे में बाँध देती है। मनुष्य के प्रशिक्षण अथवा उसकी निजी क्षमता का विचार किए बिना ही उसका पेशा निर्धारित कर दिया जाता है। आधुनिक युग में उद्योग-धंधो की प्रक्रिया व तकनीक में निरंतर विकास और कभी कभी अकस्मात परिवर्तन हो जाता है, जिसके कारण मनुष्य को अपना पेशा बदलने की आवश्यकता पड़ सकती है और यदि ऐसी स्थिति में उसे अपना पेशा बदलते की स्वतंत्रता न हो तो उनके सामने बेरोजगारी तथा भुखमरी जैसी समस्या आ खड़ी होती हैं। इतना ही नहीं लोग पूर्वनिर्धारित कार्य को ‘अरुचि’ के साथ केवल विवशतावश करते है।
वर्तमान समय में भी यह स्थिति देखने को मिलती है। जहाँ लोग अपने पूर्वनिर्धारित कार्य को ‘अरुचि’ के कारण या तो विवशतावश करते है, या नही करते है। ऐसी स्थिति व्यक्ति को कम काम या टालू काम करने के लिए प्रेरित करती है।
3. लेखक के मत से ‘दासता’ की व्यापक परिभाषा क्या है?
उत्तर: लेखक के अनुसार ‘दासता ‘ केवल कानूनी पराधीनता को ही नहीं कहा जाता है। ‘दासता’ उसे भी कहते है, जब कुछ व्यक्तियों को दूसरे लोगों के द्वारा निर्धारित व्यवहार एवं कतव्यों का पालन करने के लिए विवश होना पड़ता हैं। आंबेडकर के अनुसार भारत में जाति प्रथा के कारण जो श्रम विभाजन हुआ है, और इसके कारण समाज में श्रमिकों का जो अस्वाभाविक विभाजन हुआ हैं, वह भी दासता दी है।
4. शारीरिक वंश-परम्परा और सामाजिक उतरारधिकारी की दृष्टि से मनुष्यों में असमानता संभावित रहने के बावजूद आंबेडकर ‘समता’ को एक व्यवहार्य सिद्धांत मानने का आग्रह क्यों करते हैं? इसके पीछे उनके क्या तर्क हैं?
उत्तर: डॉ. आंबेडकर ‘समता’ को एक व्यवहार्य सिद्धातं मानने का आग्रह करते हैं। उनके अनुसार शारीरिक वंश-परम्परा और सामाजिक उतराधिकारी की दृष्टि से मनुष्यों में असमानता होने के कारण उनके साथ असमान व्यवहार करना उचित नहीं है। पूर्ण सुविधा संपन्नों को ही ‘ उत्तम व्यवहार’ का हकदार माना जाना वास्तव में निष्पक्ष निर्णय नहीं कहा जा सकता है। अगर ऐसा हुआ तो वह एकपक्षीय निर्णय देना होगा।
अतः असमानता के कारण असमान व्यवहार नितांत अनुचित है। डॉ आंबेडकर के अनुसार समाज यदि अपने सदस्यों से अधिकतम उपयोगिता प्राप्त करनी है, तो समाज के सभी सदस्यों को आरंभ से ही समान अवसर एवं समान व्यवहार उपलब्ध कराने होगें।
5. सही में आंबेडकर ने भावनात्मक समत्व की मानवीय दृष्टि के तहत जातिवाद का उन्मूलन चाहा है, जिसकी प्रतिष्ठा के लिए भौतिक स्थितियों और जीवन सुविधाओं का तर्क दिया है। क्या इससे आप सहमत है?
उत्तर: आंबेडकर जी ने भावनात्मक समता की मानवीय दृष्टि के तहत जातिवाद का उन्मूलन चाहा है, और उनके अनुसार उसकी प्रतिष्ठा के लिए भौतिक स्थितियों और जीवन सुविधाओं की बात की हैं। उन्होंने कहा है जबतक समाज में सभी को समान अधिकार, समान व्यवहार नही प्रदान किया जाऐगा तब तक समाज को उन्नत नही बनाया जा सकता है। अतः समाज के बहुविधि हितों में सबका भाग होना चाहिए। उन्होंने कहा हैं, कि सामाजिक जीवन में अबाध संपर्क के अनेक साधन व अवसर उपलब्ध रहने चाहिए।
6. आदर्श समाज के तीन तत्वों में से एक ‘भ्रातृता’ को रखकर लेखक ने अपने आदर्श समाज में स्त्रियों को भी सम्मिलित किया है अथवा नहीं? आप इस भ्रातृता शब्द से कहाँ तक सहमत हैं? यदि नहीं तो आप क्या शब्द उचित समझेंगे। समझेंगी?
उत्तरः लेखक ने अपने आदर्श समाज में स्त्रियों को भी सम्मिलित किया है। लेखक ने अछूतों, स्त्रियों और मजूरों को मानवीय अधिकार व सम्मान दिलाने के लिए अथक संघर्ष किया है। उन्होंने आदर्श समाज के गठन में तीन तत्वों की भूमिका को महत्वपूर्ण माना हैं। स्वतंत्रता, समता और भ्रातृता भ्रातृता का अर्थ हैं, भाई चारे की भावना और जबतक भाईचारे की भावना कायम नहीं की जायेगीं तबतक एक आदर्श समाज स्थापित नहीं किया जा सकेगा। जब तक समाज के लोग जाति प्रथा की मानसिकता से मुक्त नहीं होगें तब तक लोगों में भातृता की भावना नहीं आयेगी।
7. भीमराव आंबेडकर का जन्म कब हुआ था?
उत्तरः भीमराव आंबेडकर का जन्म १४ अप्रैल, सन् १८९१ ई० में मध्य प्रदेश में महू नामक स्थान में हुआ था।
8. भीमराव आंबेडकर ने किन पत्रिकाओं का सम्पादन किया था?
उत्तर: मूक नायक, बहिष्कृत भारत, जनता इन पत्रिकाओं का सम्पादन किया।
9. भारतीय संविधान में भीमराव आंबेडकर का क्या योगदान रहा है?
उत्तरः भीमराव आंबेडकर को भारतीय संविधान के निर्माता के रूप में जाना जाता है।
10. श्रम विभाजन और जाति प्रथा नामक पाठ कहाँ से ली गई है?
उत्तरः प्रस्तुत पाठ भीमराव आंबेडकर के विख्यात भाषण “एनीहिलेशन ऑफ कास्ट” से ली गई हैं।
11. लेखक ने भारत की जाति प्रथा की किस विशेषता की और संकेत किया हैं?
उत्तरः लेखक ने भारत की जाति प्रथा की उस विशेषता की और संकेत किया हैं, जहाँ श्रमिकों का अस्वाभाविक विभाजन ही नहीं करती बल्कि विभाजित विभिन्न वर्गों को एक दूसरे की अपेक्षा ऊँच नीच भी करार देती है।
12. लेखक ने आदर्श समाज के लिए किन तीन तत्वों को आवश्यक माना हैं?
उत्तरः लेखक ने स्वतंत्रता, समता, भ्रातृता को आदर्श समाज के लिए आवश्यक माना हैं।
13. आंबेडकर के अनुसार लोकतंत्र का तात्पर्य क्या हैं?
उत्तरः आंबेडकर के अनुसार लोकतंत्र केवल शासन की एक पद्धति ही नहीं हैं, बल्कि सामूहिक जीवनचर्या की एक रीति तथा समाज के सम्मिलित अनुभवों के आदान-प्रदान का नाम है।
14. मनुष्यों की क्षमता किन बातों पर निर्भर करती हैं?
उत्तरः मनुष्यों की क्षमता निम्नलिखित बातों पर निर्भर करती हैं।
क) शारीरिक वंश परम्परा।
ख) सामाजिक उत्तराधिकार जिसमें सामाजिक परम्परा के रूप में माता-पिता की कल्याण कामना, शिक्षा तथा वैज्ञानिक ज्ञानार्जन आदि, सभी उलपब्धियाँ आरती हैं, जिनके कारण सभ्य समाज, जंगली लोगों की अपेक्षा विशिष्टता प्राप्त करता है।
ग) मनुष्य के अपने प्रयत्न।