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NCERT Class 12 Hindi Antra Chapter 11 सुमिरिनी के मनके
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सुमिरिनी के मनके
Chapter: 11
अंतरा गद्य खंड |
प्रश्न-अभ्यास |
(क) बालक बच गया
1. बालक से उसकी उम्र और योग्यता से ऊपर के कौन-कौन से प्रश्न पूछे गए?
उत्तर: बालक से जितने भी प्रश्न पूछे गए वे सभी प्रश्न उसकी उम्र और योग्यता से ऊपर के थे। जैसे— धर्म के लक्षण, रसों के नाम तथा उनके उदाहरण, पानी के चार डिग्री के नीचे ठंड फैल जाने के बाद भी मछलियाँ कैसे जिंदा रहती हैं तथा चंद्रग्रहण होने का वैज्ञानिक कारण इत्यादि प्रश्न उसकी उम्र की तुलना में बहुत अधिक गंभीर थे।
2. बालक ने क्यों कहा कि मैं यावज्जन्म लोकसेवा करूँगा?
उत्तर: बालक ने ऐसा इसलिए कहा क्योंकि उसके पिता ने उसे इस प्रकार का उत्तर रटा रखा था। यह एक संवाद है, जिसे बोलने वाला व्यक्ति वाह! वाह! पाता है। पिता ने शायद सोचा होगा कि इस तरह का संवाद सिखाकर वे अपनी योग्यता पर श्रेष्ठता का ठप्पा लगा पाएंगे। लेकिन असल में, इस प्रकार से बच्चे को बुलवाकर वे उसके बालपन को समाप्त करने की कोशिश कर रहे थे। पिता के लिए सामाजिक प्रतिष्ठा बच्चे के मासूमियत से कहीं अधिक महत्वपूर्ण थी।
3. बालक द्वारा इनाम में लड्डू माँगने पर लेखक ने सुख की साँस क्यों भरी?
उत्तर: जब इनाम में बच्चे ने लड्डू माँगा, तो लेखक ने सुख की साँस भरी। एक बालक के लिए यही स्वाभाविक बात थी। उसे यही माँगना चाहिए था और उसने माँगा भी। उसे विश्वास हो गया कि पिता तथा अन्य लोग अपने इस प्रयास में सफल नहीं हो पाए हैं।
4. बालक की प्रवृत्तियों का गला घोटना अनुचित है, पाठ में ऐसा आभास किन स्थलों पर होता है कि उसकी प्रवृत्तियों का गला घोटा जाता है?
उत्तर: बालक इस प्रकार के प्रश्नों को सुनकर असहज हो जाता था। वह प्रश्नों का उत्तर देते हुए आँखों में नहीं झाँकता बल्कि जमीन पर नज़रे गडाए रहता है। उसका चेहरा पीला हो गया है और आखें भय के मारे सफ़ेद पड़ गई हैं।
5. “बालक बच गया। उसके बचने की आशा है क्योंकि वह ‘लड्डू की पुकार जीवित वृक्ष के हरे पत्तों का मधुर मर्मर था, मरे काठ की अलमारी की सिर दुखानेवाली खड़खड़ाहट नहीं” कथन के आधार पर बालक की स्वाभाविक प्रवृत्तियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर: इस कथन के आधार पर बालक की स्वाभाविक प्रवृत्तियाँ निम्नलिखित हैं:
(क) जीवित और सजीवता की ओर आकर्षण: बालक का जीवन की ओर स्वाभाविक आकर्षण है, जैसा कि ‘लड्डू की पुकार’ और ‘जीवित वृक्ष के हरे पत्तों का मधुर मर्मर’ से स्पष्ट होता है। यह दर्शाता है कि बालक प्राकृतिक और जीवित चीजों के प्रति आकर्षित है।
(ख) सकारात्मकता और आशा: बालक की आशा है और वह ‘लड्डू की पुकार’ जैसी शुभ संकेतों की ओर आकर्षित होता है, जो जीवन की उम्मीद और संभावना को दर्शाता है।
(ग) नकारात्मकता से बचाव: बालक को ‘मरे काठ की अलमारी की सिर दुखानेवाली खड़खड़ाहट’ से बचाव है, जो उसकी स्वाभाविक प्रवृत्ति को नकारात्मक और जीवनहीन चीजों से दूर रखने की ओर इशारा करती है।
6. उम्र के अनुसार बालक में योग्यता का होना आवश्यक है किन्तु उसका ज्ञानी या दार्शनिक होना जरूरी नहीं। ‘लर्निंग आउटकम’ के बारे में विचार कीजिए।
उत्तर: उम्र के अनुसार बालक में योग्यता का होना आवश्यक है परंतु उस बालक से इतना उम्मीद रखना जैसे कि वह एक दार्शनिक या ज्ञानी है, तो यह जरूरी नहीं है। आजकल के माता और पिता अपने बच्चों को समाज में प्रथम और सचमे आगे रखने के लिए तरह-तरह के प्रशिक्षण दिलाते हैं। उनको हमेशा पढ़ाई के अंदर रखना, उनके विकाम की खत्म करता है। इसने बच्चे का जीवन यानी उसका बचपन कहीं को जाता है। पढ़ाई के साथ-साथ उनका खेलना-कूदना, घूमना-फिरना तथा दोस्तों से मिलना यह सब भी आवश्यक है।
(ख) घड़ी के पुर्जे
1. लेखक ने धर्म का रहस्य जानने के लिए ‘घड़ी के पुर्जे’ का दृष्टांत क्यों दिया है?
उत्तर: लेखक ने धर्म के रहस्य को समझाने के लिए घड़ी के पुर्जों का उदाहरण दिया है, क्योंकि जैसे घड़ी की संरचना जटिल होती है, वैसे ही धर्म की संरचना को समझना भी एक कठिन कार्य है। हर व्यक्ति घड़ी को खोल तो सकता है, लेकिन उसे फिर से जोड़ना उसके लिए संभव नहीं होता। वह प्रयास कर सकता है, परंतु ऐसा करता नहीं है, क्योंकि उसका मानना होता है कि वह इसे ठीक से जोड़ नहीं सकता। इसी तरह, लोग बिना धर्म को समझे, उसके जाल में उलझे रहते हैं, क्योंकि धर्मगुरुओं ने उसे एक रहस्य बना दिया होता है। वे इस रहस्य को जानने का प्रयास भी नहीं करते और धर्मगुरुओं के अधीन रहते हैं, यह मानते हुए कि वे इसे समझने में सक्षम नहीं हैं, जबकि केवल धर्मगुरु ही इसे समझने की सामर्थ रखते हैं।
लेखक यह बताते हैं कि जैसे घड़ी पहनने वाला और उसे ठीक करने वाला अलग होते हैं, वैसे ही समाज में धर्म को मानने वाले और धर्म के ठेकेदार अलग-अलग होते हैं। धर्मगुरु साधारण लोगों के लिए धर्म के नियम और कानून निर्धारित कर देते हैं। लोग बिना किसी विश्लेषण के इन नियमों में उलझ जाते हैं और इस तरह वे धर्मगुरुओं को पोषित करते रहते हैं। वे धर्म को एक रहस्य के रूप में प्रस्तुत करते हैं। घड़ी की जटिलता धर्म के इस रहस्य को स्पष्ट रूप से दर्शाती है।
2. ‘धर्म का रहस्य जानना वेदशास्त्रज्ञ धर्माचार्यों का ही काम है।’ आप इस कथन से कहाँ तक सहमत हैं? धर्म संबंधी अपने विचार व्यक्त कीजिए।
उत्तर: यह बिलकुल सही नहीं था कि धर्म का रहस्य केवल वेदशास्त्रज्ञों और धर्माचार्यों का ही कार्य था। धर्म बाहरी रूप से जितना जटिल दिखाई देता था, वह उतना जटिल नहीं था। यह इस बात पर निर्भर करता था कि लोग उसे कैसे व्यवहार में लाते थे। बहुत से लोग व्रत, पूजा, नमाज, रोजे आदि को धर्म मान लेते थे और पूरी ज़िन्दगी इन्हीं नियमों में उलझे रहते थे। लेकिन धर्म की असली परिधि बहुत सरल थी। धर्म का वास्तविक आचरण यह था कि हम अपने आंखों के सामने होने वाली गलतियों को न देखें और हमेशा सत्य का पालन करें।
3. घड़ी समय का ज्ञान कराती है। क्या धर्म संबंधी मान्यताएँ या विचार अपने समय का बोध नहीं कराते?
उत्तर: घड़ी का मुख्य कार्य समय का ज्ञान देना है। वह समय बताती है, इसलिए उसका मूल्य है और लोग तभी उसका उपयोग करते हैं। यदि घड़ी समय दिखाना बंद कर दे, तो उसका कोई महत्व नहीं रह जाता। इसी प्रकार, धर्म संबंधी मान्यताएँ और विचार भी मानव जीवन में समय का बोध कराते हैं। प्रारंभिक मानव जीवन में धर्म का कोई स्पष्ट रूप नहीं था, इसलिए उस समय के धार्मिक चिह्न हमें नहीं मिलते। लेकिन जैसे-जैसे मानव सभ्यता का विकास हुआ, धर्म संबंधी विचार और मान्यताएँ उत्पन्न होने लगीं।
धर्म का अर्थ विभिन्न संप्रदायों ने अलग-अलग रूप में समझा। यह मूलतः परोपकार और मानवता पर आधारित था, लेकिन इसमें समय के साथ कुछ आडंबर भी जुड़ने लगे। धर्म का उद्देश्य मनुष्य को बुराई से बचाना और निराशा के समय में जीवन के प्रति आस्था और विश्वास उत्पन्न करना था। पूरे विश्व में विभिन्न धर्मों को मानने वाले लोग विद्यमान हैं, जैसे भारत में हिन्दू, जैन, बौद्ध, ईसाई, मुस्लिम आदि। ये धर्म इस बात के प्रतीक हैं कि उन समयों में लोगों ने इन्हें क्यों स्वीकारा और क्यों इनका उद्भव और विकास हुआ।
4. धर्म अगर कुछ विशेष लोगों वेदशास्त्रज्ञ धर्माचार्यों, मठाधीशों, पंडे-पुजारियों की मुट्ठी में है तो आम आदमी और समाज का उससे क्या संबंध होगा? अपनी राय लिखिए।
उत्तर: यदि धर्म कुछ विशेष लोगों जैसे वेदशास्त्रज्ञों, धर्माचार्यों, मठाधीशों, पंडे-पुजारियों के हाथों में केंद्रित हो, तो आम आदमी हमेशा मूर्ख बना रहेगा। ये धर्म के तथाकथित ठेकेदार समाज को धर्म का वास्तविक रहस्य जानने का अवसर नहीं देते। वे अपने वर्चस्व को बनाए रखने के लिए धर्म को अपने कब्जे में रखते हैं और लोगों को उतना ही बताते हैं, जितना वे चाहें। इस प्रकार, धर्म के ये ठेकेदार आम आदमी और समाज को अपने पाखंड का शिकार बना देते हैं और धार्मिक अंधविश्वास फैलाते हैं।
हर व्यक्ति को धर्म के बारे में स्वयं जानने का प्रयास करना चाहिए, क्योंकि धर्म पर किसी का एकाधिकार नहीं होना चाहिए। अगर धर्म कुछ विशेष लोगों के नियंत्रण में रहेगा, तो आम आदमी और समाज उनकी कठपुतली बनकर रह जाएंगे। ये लोग अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए समाज को शोषित करेंगे और समय-समय पर उन्हें अपने प्रभाव में रखेंगे। इस प्रकार, समाज और व्यक्ति के बीच शोषण का संबंध स्थापित हो जाएगा। ये शोषक समाज में अराजकता फैलाएँगे और धर्म आम आदमी से दूर हो जाएगा।
5. ‘जहाँ धर्म पर कुछ मुट्ठीभर लोगों का एकाधिकार धर्म को संकुचित अर्थ प्रदान करता है वहीं धर्म का आम आदमी से संबंध उसके विकास एवं विस्तार का द्योतक है।’ तर्क सहित व्याख्या कीजिए।
उत्तर: यह कथन पूरी तरह उपयुक्त है कि जब धर्म पर कुछ मुट्ठी भर लोगों का एकाधिकार हो जाता है, तो यह स्थिति उसे संकुचित और सीमित बना देती है। ऐसे लोग धर्म को अपनी इच्छानुसार तोड़-मरोड़ कर पेश करते हैं, जिससे यह इतना जटिल और उलझा हुआ प्रतीत होने लगता है कि लोग उसमें फंसे रहते हैं। स्वतंत्रता से पहले भारत में कुछ इसी तरह की जटिलताएँ थीं, जिनके कारण भारत लंबे समय तक गुलाम रहा और ऊँच-नीच, छूआछूत जैसी कुरीतियाँ समाज में समाहित हो गईं। पूजा-पाठ के आडंबरों में लिप्त होकर लोग मानवता से भी दूर हो गए थे। हालाँकि, आज भी समाज में कुछ कुरीतियाँ मौजूद हैं, लेकिन स्थिति पहले के मुकाबले बहुत सुधार चुकी है। आज धर्म का अर्थ लोगों ने समझ लिया है और वह आम आदमी से जुड़ गया है। लोग अब इन आडंबरों से मुक्त होने लगे हैं। वे ईश्वर को अपनी आंतरिक शक्ति मानते हैं और उसे पूजा-पाठ में ढूँढने के बजाय अपने परिश्रम और मानवता की भलाई में ढूँढने का प्रयास कर रहे हैं। यही कारण है कि आज मनुष्य और समाज की स्थिति में बहुत सुधार हुआ है, और धर्म की धारणाओं, मान्यताओं तथा परंपराओं में बदलाव आया है। इस कारण समाज का स्तर सुधरने के साथ-साथ उसका समग्र विकास हुआ है। आज का समाज और मानव जीवन इसका सशक्त उदाहरण हैं।
6. निम्नलिखित का आशय स्पष्ट कीजिए—
(क) ‘वेदशास्त्रज्ञ धर्माचार्यों का ही काम है कि घड़ी के पुर्जे जानें, तुम्हें इससे क्या?
उत्तर: वेदशास्त्रों का ज्ञान रखने वाले धर्माचार्य अक्सर धर्म के ठेकेदार बन जाते हैं और वही धर्म के रहस्य को अपनी दृष्टि से हमें समझाते हैं। वे घड़ीसाज की तरह कार्य करते हैं, जो अपने तरीके से चीजों को प्रस्तुत करते हैं। हालांकि, यह उचित नहीं है कि हम केवल उनके दृष्टिकोण पर निर्भर रहें। हमें भी धर्म की समझ होनी चाहिए, क्योंकि धर्म का संबंध हम सभी से है। हमें इन तथाकथित धर्माचार्यों को बिना विचार किए अत्यधिक महत्त्व नहीं देना चाहिए। धर्म का असली उद्देश्य व्यक्तिगत समझ और आस्था को बढ़ावा देना है, न कि किसी विशेष वर्ग द्वारा इसे नियंत्रित करना।
(ख) ‘अनाड़ी के हाथ में चाहे घड़ी मत दो पर जो घड़ीसाजी का इम्तहान पास कर आया है, उसे तो देखने दो।’
उत्तर: तुम अपनी घड़ी को किसी अनाड़ी व्यक्ति को देने से डरते हो। तुम्हारे इस इनकार को समझा जा सकता है। जो व्यक्ति इस विषय पर सब सीख कर आया है, जो इसका जानकार है, उसे भी तुम अपनी घड़ी में हाथ लगाने नहीं देते हो। यह बात समझ में नहीं आती है। अर्थात लेखक कहता है कि जो व्यक्ति मूर्ख है, उसे तुम धर्म के बारे में समझाने या बताने से मना करते हो। अन्य और कोई व्यक्ति इस विषय में जानता है, जिसने इस विषय में जानकारी हासिल की है, तुम उसे कुछ क्यों नहीं बताने देते हो।
(ग) ‘हमें तो धोखा होता है कि परदादा की घड़ी जेब में डाले फिरते हो, वह बंद हो गई है, तुम्हें न चाबी देना आता है न पुर्जे सुधारना, तो भी दूसरों को हाथ नहीं लगाने देते।’
उत्तर: इस पंक्ति का आशय है कि धर्म के रहस्य जानने पर प्रतिबंध लगाने वाले धर्माचार्यों को संबोधन कर लेखक कहता है कि धर्माचार्यों। तुम अनाड़ी व्यक्ति के हाथ में चाहे घड़ी मत दो लेकिन जो घड़ीसाज़, घड़ी को ठीक करने की परीक्षा पास कर आया है उसे तो इस घड़ी को देखने दो, उसे तो इजाज़त दो कि वह घड़ी को देख सके। धर्म के रहस्य को जान सके।
(ग) ढेले चुन लो
1. वैदिककाल में हिंदुओं में कैसी लाटरी चलती थी जिसका जिक्र लेखक ने किया है।
उत्तर: उस समय एक हिंदू युवक विवाह के लिए युवती के घर जाता था, और यह प्रथा कुछ हद तक लाटरी की तरह होती थी। युवक अपने साथ सात ढेले लेकर जाता था और युवती से उन ढेलों में से एक चुनने को कहता था। ये ढेले विभिन्न प्रकार की मिट्टी से बने होते थे, और इस विषय में केवल युवक को ही जानकारी होती थी कि कौन-सी मिट्टी कहाँ से लाई गई है। इन ढेलों में मसान, खेत, वेदी, चौराहा, और गौशाला की मिट्टियाँ शामिल होती थीं। हर मिट्टी के ढेले का एक विशिष्ट अर्थ था।
अगर युवती गौशाला की मिट्टी से बना ढेला उठाती थी, तो उसे यह माना जाता था कि उससे जन्म लेने वाला पुत्र पशु-सम्बंधी संपत्ति का मालिक होगा। वेदी की मिट्टी से बना ढेला विद्वान पुत्र का प्रतीक माना जाता था। मसान की मिट्टी से बना ढेला अमंगल का संकेत माना जाता था। इस प्रकार, हर ढेले के साथ एक मान्यता जुड़ी हुई थी। यह प्रथा एक लाटरी के समान थी: जिसने सही ढेला उठाया, उसे वर या वधू मिल गई, और जिसने गलत ढेला उठाया, उसे निराशा का सामना करना पड़ा। लेखक ने इसी कारण से इस प्रथा को लाटरी के समान बताया है।
2. ‘दुर्लभ बंधु’ की पेटियों की कथा लिखिए।
उत्तर: दुर्लभ बंधु एक नाटक है, जिसका प्रमुख पात्र पुरश्री है। उसके सामने तीन पेटियाँ रखी जाती हैं, जिनमें से प्रत्येक अलग-अलग धातु की बनी होती है: एक सोने की, दूसरी चाँदी की, और तीसरी लोहे की। हर व्यक्ति को यह स्वतंत्रता होती है कि वह अपनी पसंद की पेटी चुने।
अकड़बाज़ नामक व्यक्ति सोने की पेटी चुनता है, लेकिन वह खाली हाथ लौटता है। एक अन्य व्यक्ति चाँदी की पेटी चुनता है, लेकिन लोभ के कारण उसे भी कुछ नहीं मिलता। इसके विपरीत, जो व्यक्ति सच्चा और परिश्रमी होता है, वह लोहे की पेटी चुनता है, और उसके परिणामस्वरूप उसे घुड़दौड़ में प्रथम पुरस्कार मिलता है। यह नाटक यह संदेश देता है कि सही और ईमानदारी से किया गया प्रयास ही सफलता की कुंजी है।
3. ‘जीवन साथी’ का चुनाव मिट्टी के ढेलों पर छोड़ने के कौन-कौन से फल प्राप्त होते हैं।
उत्तर: ढेला चुनना प्राचीन समय की प्रथा है। इसमें वर या लड़का अपने साथ मिट्टी के ढेले लाता है। हर ढेले की मिट्टी अलग-अलग स्थानों से लायी जाती थी। माना जाता था कि दिए गए अलग-अलग ढेलों में से लड़की जो भी ढेला उठाएगी, उस ढेले की मिट्टी के गुणधर्म के अनुसार वैसी ही संतान प्राप्त होगी। जैसे वेदी का ढेला चुनने से विद्वान पुत्र की प्राप्ति होगी। गौशाला की मिट्टी से बनाए गए ढेले को चुनने से संतान पशुधन से युक्त होगा और यदि खेत की मिट्टी से बने ढेले को चुन लिया जाए, तो कहने ही क्या होने वाली संतान भविष्य में जंमीदार बनेगी। इस प्रकार के फायदे देखकर ही यह प्रथा लंबे समय तक समाज में कायम रही।
इससे यह फल प्राप्त होते होगें—
(क) मनोवांछित संतान न मिलने पर पछताना पड़ता होगा।
(ख) अच्छी लड़कियाँ इस प्रथा के कारण हाथ से निकल जाती होगी।
(ग) अपनी मूर्खता समझ में आती होगी।
4. मिट्टी के ढेलों के संदर्भ में कबीर की साखी की व्याख्या कीजिए—
पत्थर पूजे हरि मिलें तो तू पूज पहार।
इससे तो चक्की भली, पीस खाय संसार।।
उत्तर: यदि मिट्टी के ढेलों से मनुष्य को उसकी मनचाही संतान मिल सकती, तो फिर ज्ञान प्राप्त करने या परिश्रम करने की आवश्यकता ही नहीं होती। कबीर ने इस संदर्भ में बिल्कुल सही कहा है कि यदि पत्थर पूजने से भगवान मिल जाते, तो मैं पहाड़ की पूजा करता। शायद पहाड़ की पूजा से भगवान जल्दी मिल जाते। उनके अनुसार, इससे बेहतर तो चक्की को पूजना है, जो पूरे संसार का पेट भरने का कार्य करती है।
लेखक इस दोहे के माध्यम से मनुष्य की मूर्खता पर व्यंग्य करता है। वह यह बताना चाहता है कि भविष्य का निर्धारण मिट्टी के ढेलों के आधार पर करना हास्यास्पद है। ढेले किसी का भाग्य नहीं बना सकते; वे केवल ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न कर सकते हैं, जो जीवनभर पछतावा लाने वाली हों। लेखक का यह तर्क कबीर के इस दोहे के माध्यम से और भी स्पष्ट हो जाता है, जो धर्म के नाम पर फैले अंधविश्वासों और आडंबरों पर चोट करता है।
5. जन्मभर के साथी का चुनाव मिट्टी के ढेले पर छोड़ना बुद्धिमानी नहीं है। इसलिए बेटी का शिक्षित होना अनिवार्य है। ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ के संदर्भ में विचार कीजिए।
उत्तर: ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ अभियान भारत सरकार द्वारा चलाया गया एक महत्वपूर्ण सामाजिक सुधार कार्यक्रम है, जिसका उद्देश्य बेटियों की सुरक्षा, शिक्षा और सशक्तिकरण सुनिश्चित करना है।
आपके दिए गए कथन में इस अभियान के महत्व को स्पष्ट किया गया है। बेटी का शिक्षित होना न केवल उसके व्यक्तिगत विकास के लिए बल्कि पूरे समाज की प्रगति के लिए भी अनिवार्य है। शिक्षित बेटियां समाज में अपनी भूमिका बेहतर तरीके से निभा सकती हैं, निर्णय लेने में सक्षम बन सकती हैं, और आत्मनिर्भर बनकर अपने परिवार और समुदाय को आगे बढ़ा सकती हैं।
‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ अभियान के संदर्भ में विचार:
(क) लिंग अनुपात में सुधार: यह अभियान बेटियों के प्रति समाज के दृष्टिकोण में बदलाव लाने का प्रयास करता है। यह भ्रूण हत्या और लिंग चयन जैसे कुप्रथाओं को समाप्त करने की दिशा में काम करता है।
(ख) शिक्षा का प्रसार: बेटियों को शिक्षित करना उनके जीवन के हर पहलू में सुधार करता है। यह उन्हें आर्थिक, सामाजिक और मानसिक रूप से सशक्त बनाता है।
(ग) सशक्तिकरण: शिक्षित बेटियां रोजगार के अवसर प्राप्त कर सकती हैं और परिवार तथा समाज में समान अधिकार प्राप्त कर सकती हैं।
(घ) सामाजिक कुरीतियों का अंत: यह अभियान दहेज प्रथा, बाल विवाह और अन्य सामाजिक बुराइयों को रोकने में मदद करता है।
6. निम्नलिखित का आशय स्पष्ट कीजिए—
(क) ‘अपनी आँखो से जगह देखकर, अपने हाथ से चुने हुए मिट्टी के डगलों पर भरोसा करना क्यों बुरा है और लाखों करोड़ों कोस दूर बैठे बड़े-बड़े मट्टी और आग के बेलों मंगल, शनिश्चर और बृहस्पति की कल्पित चाल के कल्पित हिसाब का भरोसा करना क्यों अच्छा है।
उत्तर: इन पंक्तियों में लेखक भारतीय संस्कृति में प्रचलित आडंबरों पर गंभीर प्रहार करता है। वह यह प्रश्न उठाता है कि यदि हमने स्वयं किसी मिट्टी के ढेले पर विश्वास किया है, तो उसे गलत मानना क्यों उचित है? यह तो हमारा अपना चुनाव होता है। लेकिन दूसरी ओर, हम उन ग्रह-नक्षत्रों की चाल के आधार पर अपने जीवन का निर्णय लेते हैं, जिन्हें हमने कभी देखा तक नहीं, और इसे सही मानते हैं। यह लेखक के अनुसार सबसे बड़ी मूर्खता है। विचार यह है कि यदि एक बात को हम अनुचित मानते हैं, तो समान रूप से दूसरी बात भी अनुचित होनी चाहिए। ऐसे विरोधाभासी आडंबरों से मुक्त होकर हमें तर्क और विवेक के आधार पर अपने जीवन का मार्ग चुनना चाहिए।
(ख) ‘आज का कबूतर अच्छा है कल के मोर से, आज का पैसा अच्छा है कल की मोहर से। आँखों देखा देला अच्छा ही होना चाहिए लाखों कोस के तेज पिंड से।’
उत्तर: यह विचार वात्स्यायन ने प्रस्तुत किए हैं, जिसमें उन्होंने तर्क और वास्तविकता पर आधारित जीवन जीने का संदेश दिया है। उनके अनुसार, जो वस्तु हमारे पास इस समय विद्यमान है, उसे ही सत्य और महत्वपूर्ण मानना चाहिए। बीते कल की या आने वाले कल की किसी वस्तु को सत्य मानना व्यर्थ है। कल कोई मोहरा सोने की थी या चाँदी की, यह आज के लिए महत्वहीन है। महत्वपूर्ण यह है कि वर्तमान में हमारे पास क्या है।
वात्स्यायन कहते हैं कि जो चीज़ हमने अपनी आँखों से देखी है, उसे ही सत्य मानना सही है। इसके विपरीत, लाखों दूर स्थित किसी पिंड या ग्रह पर विश्वास करना, जिसे हमने कभी देखा भी नहीं है, तर्कहीनता और मूर्खता है। इसलिए, हमारे वर्तमान और आँखों देखी वास्तविकता को महत्व देना ही विवेकपूर्ण जीवन का आधार होना चाहिए।
योग्यता-विस्तार |
(क) बालक बच गया
1. बालक की स्वाभाविक प्रवृत्तियों के विकास में ‘रटना’ बाधक है— कक्षा में संवाद कीजिए।
उत्तर: बालक की स्वाभाविक प्रवृत्तियों के विकास में रटना सबसे बड़ी बाधा है। रटी हुई सामग्री कुछ समय के लिए तो याद रहती है, लेकिन जल्दी ही दिमाग से निकल जाती है। इसके विपरीत, जो ज्ञान समझकर और गहराई से ध्यानपूर्वक पढ़ा जाता है, वह लंबे समय तक स्मृति में बना रहता है। रटने की प्रवृत्ति बच्चे के वास्तविक सीखने की प्रक्रिया को बाधित करती है। रटने से बालक विषयों की गहराई तक नहीं पहुँचता और वह केवल तोते की तरह रटी-रटाई बातों को दोहराने तक सीमित रह जाता है। चीज़ों के पीछे छिपे तर्क और गहराई उसके समझ से परे रह जाते हैं। वह बस अपनी जिम्मेदारियों को रटकर पूरा करने का प्रयास करता है। उदाहरण के लिए, गणित को रटकर समझना संभव नहीं है। जब तक बच्चे को अभ्यास के माध्यम से गणितीय समीकरणों को हल करने का तरीका नहीं सिखाया जाएगा, तब तक यह विषय उसके लिए एक अनसुलझी पहेली बना रहेगा। यही स्थिति विज्ञान और अन्य विषयों के साथ भी होती है।
रटने की प्रवृत्ति बच्चे की बौद्धिक क्षमता के विकास में बाधा डालती है। वह नई जानकारियों का गहन विश्लेषण नहीं कर पाता और उसका मस्तिष्क निष्क्रिय रहता है। मस्तिष्क का विकास तभी संभव है, जब उसे विचारशील और रचनात्मक गतिविधियों में संलग्न किया जाए।
2. ज्ञान के क्षेत्र में ‘रटने’ का निषेध है किंतु क्या आप रटने में विश्वास करते हैं। अपने विचार प्रकट कीजिए।
उत्तर: यह बात पूर्णतः सत्य है कि ज्ञान के क्षेत्र में रटने की कोई जगह नहीं है। मैं इस विचार से पूरी तरह सहमत हूँ। सच्चा ज्ञान प्राप्त करने के लिए रटने की प्रवृत्ति को त्यागना अनिवार्य है। ज्ञान अर्जित करने के लिए विषय को समझना, गहराई से उसका अध्ययन करना और उसके विभिन्न पहलुओं पर विचार करना आवश्यक है। हमें केवल पाठ याद करने तक सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि विषय के बारे में गहन चर्चा और विश्लेषण करना चाहिए। यदि किसी बात को समझने में कठिनाई हो, तो अपने शिक्षकों या परिवार के सदस्यों से मार्गदर्शन लेना चाहिए। यह प्रक्रिया न केवल हमारी समझ को गहरा करती है, बल्कि हमें विषय के प्रति जिज्ञासु और आत्मनिर्भर बनाती है। यदि हम केवल रटकर आगे बढ़ते हैं, तो वह मात्र औपचारिकता होगी, जिसे ज्ञान अर्जन नहीं कहा जा सकता। इस तरह से प्राप्त जानकारी अस्थायी होती है और उसका कोई स्थायी प्रभाव नहीं पड़ता। अतः सच्चे ज्ञान के लिए रटने के बजाय समझने, विचार करने और चर्चा करने की आदत विकसित करनी चाहिए। यही वास्तविक ज्ञान प्राप्ति का मार्ग है।
(ख) घड़ी के पूर्ज
1. धर्म संबंधी अपनी मान्यता पर लेख/निबंध लिखिए।
उत्तर: धर्म संबंधी मेरी मान्यता:
धर्म मानव जीवन का एक महत्वपूर्ण आधार है। यह केवल पूजा-पाठ या परंपराओं का पालन भर नहीं है, बल्कि जीवन को सही दिशा में संचालित करने वाली एक मार्गदर्शक शक्ति है। धर्म का उद्देश्य मनुष्य को नैतिकता, सदाचार और सत्य के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देना है। मेरी मान्यता में धर्म का सच्चा अर्थ आत्म-अनुशासन, परोपकार और समाज के प्रति जिम्मेदारी निभाने में निहित है।
आज के समय में धर्म को अक्सर सीमित अर्थों में देखा जाता है। लोग इसे केवल रीति-रिवाजों, कर्मकांडों या आडंबरों तक सीमित कर देते हैं। लेकिन मैं मानता हूँ कि धर्म का संबंध केवल बाहरी दिखावे से नहीं, बल्कि मनुष्य के भीतर की शुद्धता और सच्चाई से है। सच्चा धर्म वह है, जो मनुष्य को दूसरों के प्रति प्रेम, सहानुभूति और समानता का भाव सिखाए। धर्म किसी विशेष पंथ, जाति या समुदाय तक सीमित नहीं होना चाहिए। यह तो सभी के लिए समान है, क्योंकि इसका आधार सत्य, अहिंसा और मानवता है। मेरी मान्यता है कि यदि धर्म के नाम पर किसी प्रकार का भेदभाव या हिंसा होती है, तो वह धर्म नहीं, बल्कि अधर्म है।
सच्चा धर्म वह है, जो हमें आत्मनिरीक्षण करना सिखाए। वह हमें यह समझने की शिक्षा दे कि हमारी सोच, हमारे कर्म और हमारा आचरण दूसरों पर किस प्रकार का प्रभाव डालता है। धर्म का उद्देश्य केवल व्यक्तिगत मुक्ति नहीं, बल्कि समाज और समूचे विश्व का कल्याण होना चाहिए।
अतः मेरी मान्यता में धर्म का पालन आत्मा की शुद्धता, नैतिक मूल्यों और दूसरों की भलाई के लिए होना चाहिए। धर्म का आधार मनुष्य की अंतरात्मा और उसके कर्म हैं, न कि बाहरी आडंबर। धर्म केवल मंदिर, मस्जिद या गिरजाघर तक सीमित नहीं है, यह हर उस कार्य में निहित है, जो मानवता की सेवा और सत्य के मार्ग पर ले जाता है। यही धर्म का वास्तविक स्वरूप और सच्चा उद्देश्य है।
2. ‘धर्म का रहस्य जानना सिर्फ धर्माचार्यों का काम नहीं, कोई भी व्यक्ति अपने स्तर पर उस रहस्य को जानने की कोशिश कर सकता है, अपनी राय दे सकता है’ टिप्पणी कीजिए।
उत्तर: ‘धर्म का रहस्य जानना केवल धर्माचार्यों का काम नहीं है। हर व्यक्ति अपने स्तर पर इसे समझने की कोशिश कर सकता है और अपनी राय दे सकता है।’ यह कथन पूर्णतः सही है। धर्म इतना रहस्यमय या जटिल नहीं है कि साधारण व्यक्ति इसे न समझ सके। धर्म की मूल परिभाषा बेहद सरल और सहज है। लेकिन धर्माचार्यों ने इसे जटिल कहानियों और प्रतीकों के माध्यम से इतना उलझा दिया है कि आम लोग इसे समझने के लिए उनके सहारे पर निर्भर हो जाते हैं।
दरअसल, धर्म का आधार मानवता है। यह हमें सिखाता है कि हम प्रत्येक जीव-जंतु और सभी प्राणियों के प्रति दया और सहानुभूति का भाव रखें। किसी को अपने स्वार्थ के लिए दुखी न करें। यही धर्म का वास्तविक रूप है। महाभारत में धर्म की सरल और व्यावहारिक व्याख्या मिलती है। कृष्ण ने दुर्योधन को अधर्मी और पांडवों को धर्म का रक्षक कहा है। यदि दुर्योधन के कार्यों पर दृष्टि डालें तो स्पष्ट होता है कि उसने केवल अपने स्वार्थ के लिए ऐसे कर्म किए जो मानवता के विरुद्ध थे। यह कहानी हमें धर्म का वास्तविक अर्थ समझने में मदद करती है—ऐसे कार्य जो समाज और मानवता के लिए कल्याणकारी हों, वही धर्म है।
तो फिर हम धर्म को समझने के लिए दूसरों पर निर्भर क्यों रहें? धर्म को समझने के लिए किसी विशेष मार्गदर्शक की आवश्यकता नहीं है। इसे स्वयं समझने और अनुभव करने का प्रयास करना चाहिए। जब हम अपने विवेक और तर्क से धर्म को समझेंगे, तभी हमें इसका सच्चा अर्थ और रहस्य स्पष्ट होगा। यही सत्य हमारे लिए सबसे महत्वपूर्ण होगा।
(ग) बेले चुन लो
1. समाज में धर्म संबधी अंधविश्वास पूरी तरह व्याप्त है। वैज्ञानिक प्रगति के संदर्भ में धर्म, विश्वास और आस्था पर निबंध लिखिए।
उत्तर: मनुष्य जब जन्म लेता है, तो धर्म उसके साथ ही रहता है। धर्म का हमारे जीवन से गहरा और महत्वपूर्ण संबंध है। लेकिन अक्सर हम यह विचार नहीं करते कि धर्म वास्तव में क्या है और इसका उद्देश्य क्या है। हम धर्म को समझने का प्रयास नहीं करते, बल्कि इसके प्रति अनेक अंधविश्वास पाल लेते हैं, जो हमें इसके मूल स्वरूप को जानने से रोकते हैं।
आज विज्ञान और तर्क का युग है। हमारे पास वैज्ञानिक दृष्टिकोण है, लेकिन कई लोग इसे अपनाने के बजाय त्याग देते हैं। उनके लिए विज्ञान और धर्म दो अलग-अलग रास्ते हैं, जिन्हें जोड़ना उचित नहीं माना जाता। उदाहरण के लिए, चंद्रग्रहण या सूर्यग्रहण जैसी प्राकृतिक घटनाओं को धर्म के संदर्भ में जो व्याख्याएँ दी गई हैं, उन्हें ही अंतिम सत्य मान लिया जाता है, जबकि वैज्ञानिक दृष्टिकोण को नज़रअंदाज कर दिया जाता है। धर्म को हम ईश्वर की पूजा और पूजा-पद्धतियों तक सीमित कर देते हैं। इस सीमित दृष्टिकोण के कारण हमने मनुष्यों को भी धर्म के आधार पर बाँट दिया है। यही कारण है कि आज का समाज हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध जैसे धर्मों में विभाजित हो गया है। यह विभाजन उन अंधविश्वासों का परिणाम है, जिन्हें मनुष्य सदियों से ढोता आ रहा है। लेकिन यह सवाल अब भी वहीं खड़ा है—धर्म आखिर है क्या?
धर्म का वास्तविक अर्थ मानवता है। किसी की सहायता करना, किसी के दुख को कम करने के लिए प्रयास करना, यही धर्म है। धर्म यह नहीं है कि ईश्वर को पूजने के लिए कौन-सी विधि अपनाई जाए। पूजा-पद्धतियाँ इसलिए बनाई गई थीं ताकि मनुष्य का ध्यान केंद्रित किया जा सके और उसे बुराई के मार्ग पर जाने से रोका जा सके। ईश्वर का भय दिखाकर उसे अधर्म से बचाने का प्रयास किया गया। लेकिन धीरे-धीरे धर्म में अंधविश्वास का समावेश हो गया और इसका मूल उद्देश्य पीछे छूट गया। अब धर्म पूजा-पद्धतियों, व्रतों और अनुष्ठानों तक सीमित हो गया है। आज हमारी संकीर्ण सोच और कमजोर आस्था के कारण धर्म का अर्थ विकृत हो गया है। हमें धर्म के मूल स्वरूप को समझने और पुनः विचार करने की आवश्यकता है। सच्चा धर्म वही है, जो मानवता, प्रेम और सत्य का मार्ग दिखाए। हमें धर्म को उसके वास्तविक रूप में अपनाकर मानवता का पोषण करना चाहिए। यही धर्म का असली उद्देश्य है।
2. अपने घर में या आस-पास दिखाई देने वाले किसी रिवाज या अंधविश्वास पर एक लेख लिखिए।
उत्तर: हमारे समाज में कई रिवाज और परंपराएँ हैं, जिनमें से कुछ सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं, तो कुछ अंधविश्वासों में बदल गई हैं। मेरे घर और आस-पास के क्षेत्र में भी ऐसे कई रिवाज देखने को मिलते हैं, जो विज्ञान और तर्क से परे हैं। इन परंपराओं में से एक ऐसा अंधविश्वास है, जिसे मैंने अक्सर देखा और महसूस किया है— “बिल्ली का रास्ता काटना अशुभ होता है।”
यह मान्यता इतनी गहराई तक फैली हुई है कि अगर रास्ते में कोई बिल्ली आ जाए, तो लोग वहीं रुक जाते हैं। कुछ लोग तो वापस लौट जाते हैं या किसी और को पहले रास्ता पार करने के लिए कह देते हैं। ऐसा कहा जाता है कि यदि बिल्ली का रास्ता काटना अशुभ हो, तो कोई बड़ी दुर्घटना या अनहोनी हो सकती है। इस विचार ने समाज में इतना भय उत्पन्न कर दिया है कि लोग इसे मानने के लिए विवश हो गए हैं। अगर हम इस मान्यता पर तर्क करें, तो यह केवल एक भ्रम है। बिल्ली जैसे प्राणी का हमारे जीवन की घटनाओं से कोई संबंध नहीं हो सकता। यह सिर्फ एक संयोग हो सकता है कि कभी रास्ते में बिल्ली दिखने के बाद कोई अप्रिय घटना हो जाए। लेकिन इसे अशुभ मान लेना और अपने निर्णय इस आधार पर बदल देना एक प्रकार का अंधविश्वास है। यह अंधविश्वास हमें यह समझने पर मजबूर करता है कि हम आज भी वैज्ञानिक सोच को अपनाने से कतराते हैं। हमें यह समझने की आवश्यकता है कि किसी भी जीव-जंतु को अशुभ मानना न केवल तर्कहीन है, बल्कि उनके प्रति अन्याय भी है।
अंततः यह जरूरी है कि हम अपनी परंपराओं का सम्मान करते हुए उनमें छिपे अंधविश्वासों को दूर करें। ऐसे प्रयास न केवल समाज को प्रगतिशील बनाएँगे, बल्कि हमें अंधविश्वासों से आजादी भी दिलाएँगे।