NCERT Class 11 Fine Art Chapter 8 इण्डो-इस्लामिक वास्तुकला के कुछ कलात्मक पहलू

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NCERT Class 11 Fine Art Chapter 8 इण्डो-इस्लामिक वास्तुकला के कुछ कलात्मक पहलू

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Chapter: 8

भारतीय कला का परिचय: भाग – 1
अभ्यास

1. आप इण्डो-इस्लामिक या इण्डो-सारसेनिक शब्दों से क्या समझते हैं? क्या आप इस शैली के लिए किसी दूसरे नाम का सुझाव दे सकते हैं?

उत्तर: इण्डो-इस्लामिक या इण्डो-सारसेनिक शब्द भारतीय और इस्लामी स्थापत्य शैलियों के सम्मिलन को दर्शाते हैं। इस शैली के लिए एक संभावित दूसरा नाम “भारतीय-इस्लामी वास्तुकला” से हो सकता है। यह नाम अधिक सटीक है क्योंकि यह भारतीय और इस्लामी वास्तुकला के मिश्रण का स्पष्ट रूप से संकेत देता है। जो भारत में मुस्लिम शासकों के शासन के दौरान विकसित हुई। उन्होंने इन भारतीय तकनीकों को देखा-परखा, कुछ को स्वीकारा, कुछ को अस्वीकार किया और कुछ को यथोचित परिवर्तन के साथ अपना लिया। इस प्रकार वास्तुकला के क्षेत्र में अनेक संरचनात्मक तकनीकों, शैलियों, रूपों और साज-सज्जाओं का मिश्रण तैयार हो गया।

“इस सांस्कृतिक एवं तकनीकी समन्वय के परिणामस्वरूप जो भवन निर्माण की शैलियाँ विकसित हुईं, उन्हें सामूहिक रूप से इण्डो-इस्लामिक अथवा इंडो-सारसेनिक (इंडो-अरबी) स्थापत्य कला कहा जाता है।”

2. तेरहवीं शताब्दी में भारत में भवन निर्माण के कौन-से नए प्रकार अपनाए गए?

उत्तर: तेरहवीं शताब्दी में भारत में भवन निर्माण के लिए मस्जिदें और जामा मस्जिद, मकबरे, दरगाहें, मीनारें, हमाम, सुनियोजित बाग-बगीचे, मदरसे, सरायें या कारवा सरायें, कोस मीनारें आदि नए प्रकार अपनाए गए।

3. इण्डो-इस्लामिक वास्तुकला की चार श्रेणियों का उल्लेख करें?

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उत्तर: इण्डो-इस्लामिक वास्तुकला की चार श्रेणियाँ है—

(i) शाही शैली (दिल्ली सल्तनत)।

(ii) प्रांतीय शैली (मांडू, गुजरात, बंगाल और जौनपुर)।

(iii) मुगल शैली (दिल्ली, आगरा और लाहौर)।

(iv) दक्कनी शैली (बीजापुर, गोलकुंडा)।

4. मध्य कालीन भारत में किले का क्या महत्व होता था? शत्रुओं को भरमाने या हराने के लिए किलों में क्या-क्या सामरिक उपाय अपनाए जाते थे?

उत्तर: मध्य कालीन भारत में किले का यह महत्व होता था कि किले शासक की शक्ति और संप्रभुता के प्रतीक माने जाते थे। जब ये किले आक्रमणकारियों के कब्जे में चले जाते थे, तो पराजित राजा को विजेता की अधीनता स्वीकार करनी पड़ती थी। इन किलों का निर्माण प्रायः पहाड़ी ऊँचाइयों पर किया जाता था, जिससे दूर-दूर तक निगरानी रखी जा सके, सुरक्षा मजबूत हो, भवन निर्माण की पर्याप्त जगह मिले और शत्रु के मन में भय उत्पन्न हो। शत्रुओं को भरमाने के लिए जटिल प्रवेश द्वार, गहरी खाइयाँ, बहुस्तरीय दीवारें, घुमावदार रास्ते और धोखादायक संरचनाएँ बनाई जाती थीं।

5. इण्डो-इस्लामिक वास्तुकला का उद्भव और विकास कैसे हुआ?

उत्तर:  इण्डो-इस्लामिक वास्तुकला भारतीय उपमहाद्वीप की वास्तुकला है जो इस्लामी संरक्षकों और उद्देश्यों के लिए निर्मित की गई है। लेकिन इसका वास्तविक विकास 12वीं शताब्दी में दिल्ली सल्तनत की स्थापना के साथ हुआ। यह वास्तुकला भारतीय और इस्लामी वास्तुकला शैलियों का मिश्रण है, जो स्थानीय संस्कृति और परंपराओं से भी प्रभावित है। यह शैली अरब, फारस और तुर्की के स्थापत्य प्रभावों के साथ भारतीय स्थापत्य परंपराओं के मेल से विकसित हुई। नए साम्राज्यों ने स्थानीय सामग्रियों और तकनीकों के साथ विदेशी शैलियों का सम्मिलन किया।

6. मांडु इस तथ्य को कैसे उजागर करता है कि मानव अपने आपको पर्यावरण के अनुरूप ढाल लेते हैं?

उत्तर: मांडु इस तथ्य को स्पष्ट रूप से उजागर करता है कि मानव अपने आपको पर्यावरण के अनुसार ढाल लेते हैं। मांडु शहर 2000 फीट ऊंचाई पर स्थित है, जहाँ का प्राकृतिक परिवेश सुरक्षित और सामरिक दृष्टि से उपयुक्त है। यहाँ की जलवायु के अनुकूल भवनों का निर्माण इस तरह किया गया कि गर्मी में भी अंदर ठंडक बनी रहे। जलसंचय के लिए झीलें, बावड़ियाँ और नहरें बनाई गईं। स्थानीय पत्थरो और संगमरमर ने इमारतों को स्थायी, ठंडी और मानसून के मौसम में अत्युत्तम दृश्य दिए। शहर जहाजमहल और हिंडोला महल की सुन्दरता के लिए आदर्श था।

7. अपूर्ण होते हुए भी गोल गुम्बद को इण्डो-इस्लामिक वास्तुकला का भव्य एवं अनूठा प्रतीक क्यों माना जाता है?

उत्तर: अपूर्ण होते हुए भी गोल गुम्बद को अपूर्ण होने के बावजूद इण्डो-इस्लामिक वास्तुकला का भव्य एवं अनूठा प्रतीक माना जाता है क्योंकि गुम्बद एक विशाल वर्गाकार भवन है जिस पर एक गोलाकार ढोल है और ढोल पर एक शानदार गुम्बद टिका हुआ है जिसके कारण उसे यह नाम दिया गया है। यह गहरे स्लेटी रंग के बेसाल्ट पत्थर से बना हुआ है और इसे पलस्तर करके संवारा गया है। गुम्बद की इमारत की हर दीवार 135 फुट लंबी, 110 फुट ऊँची और 10 फुट मोटी है। ढोल और गुम्बद दोनों को मिलाकर इस इमारत की ऊँचाई 200 फुट से भी ऊँची चली जाती है। मकबरे का एक वर्गाकार बड़ा कक्ष है और 125 फुट व्यास वाला गुम्बद है। यह मकबरा 18,337 वर्ग फुट में फैला हुआ है और दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा मकबरा है।

मकबरे के बड़े कक्ष में सुल्तान, उसकी बेगमों व रिश्तेदारों की कब्रगाह हैं और उनकी असली कब्रें नीचे तहखाने में हैं। तहखाने में उतरने के लिए सीढ़ियाँ बनी हैं। वर्गाकार आधार पर बना अर्धगोलाकार गुम्बद बगली डाट के सहारे बनाया गया था। इन बगली डाटों ने गुम्बद को तो आकार दिया ही, साथ ही उसके भार को नीचे की दीवारों पर डाल दिया। बगली डार्टी में चाप-जालियों (आर्चनेट्स) या तारकाकार रूपों वाली प्रणालियाँ बनी हुई हैं जिनसे प्रतिच्छेदी चापों द्वारा बने कोण ढक जाते हैं।

8. मकबरा और दरगाह, कुछ ऐसे स्थान हैं जहां मृतकों को दफनाया जाता है। इन दोनों में क्या अंतर है? क्या आप किसी मृतक व्यक्ति के किसी स्मारक के बारे में जानते हैं?

उत्तर: मकबरा और दरगाह में अंतर इस प्रकार है—

मकबरादरगाह
मकबरा आमतौर पर किसी शासक, राजा या प्रतिष्ठित व्यक्ति की कब्र पर बनाया गया भव्य स्मारक होता है।दरगाह सूफी संतों की समाधि होती है, जो धार्मिक आस्था और श्रद्धा का केंद्र होती है।
यह किसी मृतक की कब्र पर बनी एक इमारत है, जो मुख्य रूप से उनके अवशेषों को सुरक्षित रखने के लिए बनाई जाती है।दरगाह पर लोग श्रद्धा से जाते हैं, दुआ करते हैं, चादर चढ़ाते हैं और कई बार मेलें भी आयोजित होते हैं।
मकबरा किसी शासक या विशिष्ट व्यक्ति की समाधि संरचना होती है।दरगाह को “पवित्र स्थान” माना जाता है।
मकबरे अक्सर ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व रखते हैं।दरगाहें सूफीवाद के महत्वपूर्ण केंद्र हैं, जहां लोग सूफी संतों की शिक्षाओं से जुड़ने और प्रार्थना करने के लिए आते हैं।

हाँ, कई प्रसिद्ध मृतक व्यक्तियों के स्मारक हैं। 

उदाहरण:

महात्मा गांधी का स्मारक — राजघाट (दिल्ली): यह वह स्थान है जहाँ महात्मा गांधी का अंतिम संस्कार किया गया था। यहाँ एक साधारण काले संगमरमर का मंच है जिस पर “हे राम” (गांधीजी के अंतिम शब्द) खुदा हुआ है। राजघाट एक महत्वपूर्ण राष्ट्रीय स्मारक है।

9. ‘पूर्णता’ शब्द ताजमहल के साथ जोड़ा जाता है। क्यों?

उत्तर: ‘पूर्णता’ शब्द ताजमहल के साथ इसलिए जोड़ा जाता है क्योंकि इसकी संरचना में अद्भुत संतुलन, समरूपता और सौंदर्य दिखाई देता है। ताजमहल की योजना सरल, उसकी बनावट सटीक और अनुपात अत्यंत सुव्यवस्थित है। संगमरमर का सुंदर उपयोग, चारों ओर सजीव बाग-बगीचे, नक्काशी, जड़ाई और स्थापत्य कला का उत्कृष्ट संगम इसे सम्पूर्णता का प्रतीक बनाता है। दिन और रात के अलग-अलग समय पर ताजमहल के रंगों में जो परिवर्तन होता है, वह इसकी सुंदरता को और भी अद्वितीय बनाता है।

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