NCERT Class 11 Fine Art Chapter 7 भारतीय कांस्य प्रतिमाएँ

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NCERT Class 11 Fine Art Chapter 7 भारतीय कांस्य प्रतिमाएँ

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Chapter: 7

भारतीय कला का परिचय: भाग – 1
अभ्यास

1. आपके विचार से क्या कांसे की ढलाई की तकनीक एक सतत प्रक्रिया है और इसका विकास आने वाले समय तक कैसा हुआ?

उत्तर: हाँ, कांस्य ढलाई की तकनीक और परंपरागत देवी-देवताओं की कांस्य प्रतिमाएँ बनाने का कार्य मध्यकाल के दौरान दक्षिण भारत में विकास के उच्च स्तर पर पहुँच गया था। सिंधु घाटी सभ्यता से लेकर आधुनिक काल तक यह तकनीक लगातार विकसित होती रही। प्रारंभ में ‘लुप्त मोम’ विधि का प्रयोग किया गया, जो आज भी कई कलाकारों द्वारा उपयोग में लाई जाती है। यद्यपि पल्लव काल में आठवीं तथा नौवीं शताब्दियों के दौरान कांस्य प्रतिमाएँ बहुतायत में बनाई जाने लगी थीं लेकिन दसवीं से बारहवीं शताब्दी के बीच तमिलनाडु में चोल वंश के शासन काल में कुछ अत्यंत सुंदर एवं उत्कृष्ट स्तर की कांस्य प्रतिमाएँ बनाई गई। कांस्य प्रतिमाएँ बनाने की उत्तम तकनीक और कला आज भी दक्षिण भारत, विशेष रूप से कुंभकोणम् में प्रचलित है।

2. भारत में पत्थर और धातु से मूर्तियाँ बनाने की कला साथ-साथ चलती रही। आपकी राय में, इन दोनों प्रक्रियाओं के बीच तकनीक, शैली और कार्य उपयोग की दृष्टि से क्या-क्या समानताएँ और अंतर हैं?

उत्तर: आपकी राय में, इन दोनों प्रक्रियाओं के बीच तकनीक, शैली और कार्य उपयोग की दृष्टि से निम्नलिखित समानताएँ है—

(i) इन दोनों कलाओं में धार्मिक और आध्यात्मिक भावनाओं की अभिव्यक्ति प्रमुख है।

(ii) भारत में पत्थर और धातु से मूर्तियाँ में मानव आकृति और भाव-भंगिमाओं को बारीकी से दर्शाया जाता है।

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(iii) प्रतीकात्मकता और धार्मिक प्रतीकों का प्रयोग सामान्य है।

भारत में पत्थर और धातु से मूर्तियाँ के अंतर है—

पत्थर की मूर्तियांधातु की मूर्तियां 
तकनीकी दृष्टि से, पत्थर की मूर्तियों को तराशा जाता है।धातु की मूर्तियाँ ढलाई द्वारा बनाई जाती हैं।
पत्थर की मूर्तियाँ स्थायित्व और भव्यता को दर्शाती हैं।शैली में, कांस्य मूर्तियाँ अक्सर अधिक सूक्ष्म और गतिशील भाव-भंगिमाओं वाली होती हैं।
पत्थर की मूर्तियाँ स्थायी रूप से मंदिरों या गुफ़ाओं में स्थापित की जाती थीं।धातु की मूर्तियाँ पोर्टेबल होती थीं और बौद्ध भिक्षु उन्हें यात्रा में साथ ले जा सकते थे।

3. चोल कालीन कांस्य प्रतिमाओं को सर्वाधिक परिष्कृत क्यों माना जाता है?

उत्तर: चोल कालीन कांस्य प्रतिमाएँ अपने अत्यंत सूक्ष्म शिल्प, लयात्मक गतियों, प्रतीकात्मक मुद्राओं और धार्मिक भावनाओं की प्रभावशाली अभिव्यक्ति के कारण सर्वाधिक परिष्कृत मानी जाती हैं। विशेष रूप से “नटराज” की प्रतिमा, जिसमें शिव को नृत्य की मुद्रा में दर्शाया गया है, एक उत्कृष्ट उदाहरण है। वे बहुत अधिक अलंकरण का उपयोग नहीं करते हैं, वे परिष्कृत लेकिन प्राकृतिक रूपों का उपयोग करते हैं, और मूर्तिकारों को अपने विषयों को कैसे प्रस्तुत करना है, इस बारे में बहुत अधिक स्वतंत्रता है। इस काल में ‘लुप्त मोम’ विधि का उपयोग तकनीकी रूप से परिपक्व था और कलाकारों में अद्वितीय कलात्मक दक्षता थी। इन प्रतिमाओं में रूप, सौंदर्य और तकनीक का आदर्श समन्वय देखा जाता है।

4. चोल काल के अतिरिक्त, हिमाचल प्रदेश और कश्मीर से पायी गईं कांस्य प्रतिमाओं के मुद्रित चित्र खोजें।

उत्तर: हिमाचल प्रदेश और कश्मीर के क्षेत्रों में भी बौद्ध देवताओं तथा हिंदू देवी-देवताओं की कांस्य प्रतिमाएँ बनाई जाती थीं। इनमें से अधिकांश मूर्तियाँ आठवीं, नौवीं और दसवीं शताब्दियों में बनी पाई गई हैं। भारत के अन्य भागों में पाई जाने वाली प्रतिमाओं से अगर इन प्रतिमाओं की तुलना की जाए तो दोनों के बीच स्पष्ट अंतर दिखाई देगी। विष्णु की प्रतिमाएँ नाना रूपों में बनाई जाने लगीं। इन क्षेत्रों में चार सिरों वाले अर्थात् चतुरानन विष्णु की पूजा की जाती थी। यह व्यूह सिद्धांत पर आधारित है और ऐसे चतुरानन विष्णु को बैकुंठ विष्णु या बैकुंठवासी विष्णु कहा जाता है। विष्णु की चतुरानन मूर्ति का मध्यवर्ती या केंद्रीय मुख वासुदेव का होता है और बाकी दो मुख नरसिंह और वराह के होते हैं। नरसिंह अवतार या महिषासुरमर्दिनी की मूर्तियाँ हिमाचल प्रदेश में पाई जाने वाली मूर्तियों में अत्यंत प्रचलित एवं लोकप्रिय रही हैं।

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