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NCERT Class 11 Sociology Samaj Shastra Parichay Chapter 5 समाजशास्त्र-अनुसंधान पद्धतियाँ
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समाजशास्त्र-अनुसंधान पद्धतियाँ
Chapter: 5
समाजशास्त्र परिचय |
अभ्यास |
1. वैज्ञानिक पद्धति का प्रश्न विशेषतः समाजशास्त्र में क्यों महत्त्वपूर्ण है?
उत्तर: विज्ञान से वस्तुनिष्ठ, तथ्यपरक और प्रमाणिक होने की उम्मीद की जाती है। यह भौतिक विज्ञान की तुलना में अपेक्षाकृत कठिन है। समाजशास्त्री सामाजिक तथ्यों की खोज के लिए वैज्ञानिक पद्धतियों का प्रयोग करते हैं। भौतिक और प्राकृतिक विज्ञानों की तरह समाजशास्त्र भी अपनी विषय-वस्तु के प्रसंग में विभिन्न वैज्ञानिक पद्धतियों का विकसित किया है। समाजशास्त्र एक विज्ञान है क्योंकि इसमें वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग किया जाता है। समाजशास्त्र में वैज्ञानिक पद्धति के प्रयोग का प्रश्न इसलिए ज्यादा महत्त्वपूर्ण है क्योंकि कुछ विद्वान् इस विषय को विज्ञान मानने से इंकार करते हैं। वे समझते हैं कि समाजशास्त्र की विषय-वस्तु के बारे में उन्हें अपने अनुभवों के द्वारा ही काफी ज्ञान प्राप्त है। सामाजिक वैज्ञानिक पद्धति के रूप में सर्वेक्षण का मुख्य लाभ यह है कि इसके द्वारा जनसंख्या के केवल छोटे से भाग पर सर्वेक्षण करके इसके परिणामों को बड़ी जनसंख्या पर लागू किया जा सकता है। अतः सीमित समय, प्रयास तथा धन के निवेश द्वारा सर्वेक्षण बड़ी जनसंख्याओं के अध्ययन को संभव बनाता है। यही कारण है कि समाजिक विज्ञानों तथा अन्य क्षेत्रों में यह अत्यधिक लोकप्रिय पद्धति है।
2. सामाजिक विज्ञान में विशेषकर समाजशास्त्र जैसे विषय में ‘वस्तुनिष्ठता’ के अधिक जटिल होने के क्या कारण हैं?
उत्तर: सामाजिक विज्ञान में विशेषकर समाजशास्त्र जैसे विषय में ‘वस्तुनिष्ठता’ के अधिक जटिल होने के कारण हैं यह है कि समाजशास्त्री जिस चीज़ को खोज रहा होता है वह किसी न किसी समूह में मिलती है तथा वह स्वयं ही किसी न किसी समूह का स्वयं सदस्य होता है। वास्तव में, वस्तुनिष्ठता की पुरानी धारणा को व्यापक तौर पर एक पुराना दृष्टिकोण माना जाता है। समाज-विज्ञानी अब विश्वास नहीं करते कि ‘वस्तुनिष्ठता एवं अरुचि’ की पारंपरिक धारणा, समाजिक विज्ञान में प्राप्त की जा सकती है। वास्तव में ऐसे आदर्श भ्रामक हो सकते हैं। इसका यह अर्थ नहीं है कि समाजशास्त्र के माध्यम से कोई लाभप्रद ज्ञान प्राप्त नहीं किया जा सकता या वस्तुनिष्ठता एक व्यर्थ संकल्पना है। इसका तात्पर्य है कि वस्तुनिष्ठता को पहले से प्राप्त अंतिम परिणाम के स्थान पर लक्ष्य प्राप्ति हेतु निरंतर चलती रहने वाली प्रक्रिया के रूप में सोचा जाना चाहिए। समाजशास्त्रीय अध्ययनों में प्राकृतिक विज्ञानों की भाँति प्रामाणिकता लाना कठिन है। समाज विज्ञानों के नियम प्राकृतिक विज्ञानों के नियमों की भाँति अटल नहीं होते, वे तो सामाजिक व्यवहार के संबंध में संभावित प्रवृत्ति को प्रकट करते हैं। ऐसी स्थिति के लिए अनेक कारक उत्तरदायी हैं; जैसे-सामाजिक प्रघटना का स्वभाव, ठोस मापदंडों को विकसित न होना आदि। इन्हीं कारणों में एक प्रमुख समस्या वस्तुनिष्ठता की भी है। किसी भी वैज्ञानिक अध्ययन एवं अनुसंधान की सफलता की। पूर्वापेक्षित शर्त वस्तुनिष्ठता है। इसके अभाव में अनुसंधान के द्वारा प्राप्त निष्कर्षों की विश्वसनीयता एवं प्रामाणिकता संदिग्ध हो जाती है। समाजशास्त्र में वस्तुनिष्ठता के अन्य कारण विषय-वस्तु की है। सामाजिक परिघटनाएँ अस्पष्ट एवं जटिल हैं। बहुआयाम और बहुआकृति हैं, जिनका मापन पारंपरिक मानकों द्वारा संभव नहीं है।
3. वस्तुनिष्ठता को प्राप्त करने के लिए समाजशास्त्री को किस प्रकार की कठिनाइयों और प्रयत्नों से गुज़रना पड़ता है?
उत्तर: वस्तुनिष्ठता को प्राप्त करने के लिए समाजशास्त्री को बहुत सी कठिनाइयों और प्रयत्नों से गुज़रना पड़ता हैं। जैसे—
(i) समस्या का चयन मूल्य-निर्णयों द्वारा प्रभावित–सामाजिक अनुसंधान में वस्तुनिष्ठता न रख पाने का सर्वप्रथम कारण अनुसंधान समस्या का चयन है जो कि अंवेषणकर्ता के मूल्यों तथा रुचियों द्वारा प्रभावित होता है।
(ii) समाजशास्त्री अपने व्यक्तिगत ज्ञान और अनुभवों पर निर्भर नहीं करते हैं। इसके विपरीत विवाद की वास्तविकता की खोज के लिए वे सर्वेक्षण पद्धति का प्रयोग करते हैं।
(iii) सामाजिक घटनाओं की प्रकृति-सामाजिक घटनाओं की प्रकृति भी सामाजिक विज्ञानों में वस्तुनिष्ठ अध्ययनों में एक बाधा है, क्योंकि इनकी प्रकृति गुणात्मक होती है और कई बार अनुसंधानकर्ता को समूह के सदस्यों की मनोवृत्तियों, मूल्यों एवं आदर्शों आदि का अध्ययन करना पड़ता है।
(iv) बाह्य हितों द्वारा बाधा–सामाजिक विज्ञानों में वस्तुनिष्ठता से संबंधित तीसरी बाधा अनुसंधानकर्ता के बाह्य हित हैं। जब वह अपने समूह का अध्ययन करता है तो बहुत-सी बातों की, जिन्हें वह अनुचित मानता है, उपेक्षा कर देती है। दूसरी ओर, जब वह किसी दूसरे समूह को अध्ययन करता है तो वह ऐसी बातों की ओर अधिक ध्यान देता है।
(v) संजातिकेंद्रवाद–अनुसंधानकर्ता स्वयं एक सामाजिक प्राणी है तथा वह किसी विशेष जाति, प्रजाति, वर्ग, लिंग समूह का सदस्य होने के नाते विभिन्न मानवीय क्रियाओं एवं सामाजिक पहलुओं के बारे में अपने विचार एवं मूल्ये रखता है। उसके ये विचार एवं मूल्य उसके अध्ययन को प्रभावित करते हैं।
4. ‘प्रतिबिंबता’ का क्या तात्पर्य है तथा यह समाजशास्त्र में क्यों महत्त्वपूर्ण है?
उत्तर: प्रतिबिंबता का संदर्भ इस तथ्य से है कि हमारी अनुभूति की व्यवस्था वार्तालाप प्रक्रिया का परिणाम है। समाजशास्त्र में अनुसंधानकर्ता के अपने मूल्यों एवं पूर्वाग्रहों द्वारा प्रभावित होने तथा इस नाते वस्तुनिष्ठ अध्ययन न कर पाने की समस्या का समाधान करने के अनेक उपाय खोजने का प्रयास किया गया है। प्रतिबिंबता नृजाति कार्यप्रणाली से संबंधित एक विचार है जो गारफिनकेल्टो नामक एक तकनीक है जो कुछ कोई कर रही है, उसका सावधानीपूर्वक दस्तावेजीकरण का महत्त्व प्रतिबिंबता का एक व्यवहारिक पहलू है। अधिकांशत: समाजशास्त्री अपने कार्य के लिए किसी बाहरी व्यक्ति के दृष्टिकोण को ग्रहण करने का प्रयास करते हैं वे अपने आपको तथा अपने अनुसंधान कार्यों को दूसरों की आँखों से देखने का प्रयास करते हैं। समाजशास्त्री लगातार अपनी मनोवृत्तियों तथा मतों की स्वयं जाँच करते रहते हैं। वह अपने अनुसंधान से संबंधित अन्य व्यक्तियों के मतों को सावधानीपूर्वक अपनाते रहते हैं। प्रतिबिंबता का एक व्यावहारिक पहलू किसी व्यक्ति द्वारा किए जा रहे कार्य का सावधानीपूर्वक वर्णन करना है। भले ही समाजशास्त्री वस्तुनिष्ठ होने का भरसक प्रयास क्यों न करें, तथापि अवचेतन पूर्वाग्रह की संभावना सदैव बनी रहती है।
5. सहभागी प्रेक्षण के दौरान समाजशास्त्री और मानवविज्ञानी क्या कार्य करते हैं?
उत्तर: समाजशास्त्र में विशेष रूप से सामाजिक मानवविज्ञान में लोकप्रिय सहभागी प्रेक्षण का आशय एक विशेष पद्धति से है जिसके द्वारा समाजशास्त्री उस समाज, संस्कृति तथा उन लोगों के बारे में सीखता है जिनका वह अध्ययन कर रहा होता है।
यह पद्धति अन्य पद्धतियों से कई प्रकार से अलग है। सर्वेक्षणों या साक्षात्कारों जैसी प्रारंभिक आँकड़ें एकत्र करने वाली अन्य पद्धतियों के विपरीत क्षेत्रीय कार्य में अनुसंधान के विषय के साथ लंबी अवधि की अंतःक्रिया शामिल होती है। सामान्यतः समाजशास्त्री या समाजिक मानवविज्ञानी कई महीने लगभग एक वर्ष या कभी-कभी इससे ज़्यादा भी उन लोगों के बीच उनकी तरह बनकर व्यतीत करते हैं जिनका उन्हें अध्ययन करना होता है। ‘बाहरी’ अर्थात वहाँ का निवासी न होने के कारण मानवविज्ञानी को अपने आपको मूल निवासियों की संस्कृति में उनकी भाषा सीखकर तथा उनके प्रतिदिन के जीवन में निकट से सहभागी बनकर उनमें ही मिलना पड़ता है ताकि समस्त स्पष्ट तथा अस्पष्ट ज्ञान तथा कौशल को प्राप्त किया जा सके जोकि ‘अंदर के निवासियों’ के पास होता है। यद्यपि समाजशास्त्री या मानवविज्ञानी की रुचि कुछ विशेष क्षेत्रों में होती है ‘सहभागी प्रेक्षण’ क्षेत्रीय कार्य का समग्र लक्ष्य समुदाय के ‘जीने के संपूर्ण तरीके’ सीखना होता है। वास्तव में यह एक बच्चे के उदाहरण जैसा है जिसमें समाजशास्त्री तथा मानवविज्ञानी से आशा की जाती है कि वह अपने अपनाए गए समुदायों के बारे में प्रत्येक वस्तु ठीक उसी प्रकार संपूर्ण तरीके से सीखे जैसेकि एक छोटा बच्चा संसार के बारे में सीखता है।
6. एक पद्धति के रूप में सहभागी प्रेक्षण की क्या-क्या खूबियाँ और कमियाँ हैं?
उत्तर: एक पद्धति के रूप में सहभागी प्रेक्षण की खूबियाँ निम्न प्रकार से हैं:
(i) सूक्ष्म रूप से घटना का अध्ययन–सहभागी प्रेक्षण में अनुसंधानकर्ता समुदाय के सदस्यों के साथ घुल-मिल जाता है, इसलिए यह प्रविधि सामाजिक घटनाओं का प्रत्यक्ष तथा सूक्ष्म रूप से गंभीरता से अध्ययन करती है।
(ii) विश्वसनीय सूचनाओं की प्राप्ति-सहभागी प्रेक्षण में निरीक्षणकर्ता व्यक्तिगत रूप से समुदाय का सदस्य रहता है। इसलिए समुदाय से संबंधित जो भी सूचनाएँ’ वह प्राप्त करता है वे विश्वसनीय होती हैं।
(iii) सूचना की प्रमाणीकता संभव है – जब कभी अन्वेषक को किसी जानकारी के संबंध में कोई शक होता है तो इसकी पुनर्परीक्षण और सत्यापन की जा सकती है।
एक पद्धति के रूप में सहभागी प्रेक्षण की कमियाँ निम्न प्रकार से हैं:
(i) वस्तुनिष्ठता का अभाव-सहभागी प्रेक्षण में तटस्थता का अभाव पाया जाता है, क्योंकि अनुसंधानकर्ता स्वयं ही समूह का सदस्य बन जाता है। वह निष्पक्ष भाव से समस्या का अध्ययन नहीं कर सकता। सहभागी प्रेक्षणकर्ता का समूह के साथ अनेक प्रकार का भावात्मक लगाव भी हो जाता है जो अध्ययन एवं प्रेक्षणकर्ता की वस्तुनिष्ठता को कम कर देता है।
(ii) व्ययशील पद्धति–सहभागी प्रेक्षण एक खर्चीली पद्धति है, जिसमें अनुसंधानकर्ता को समूह का सदस्य बनने के लिए काफी समय सदस्यों का विश्वास प्राप्त करने में ही लग जाता है।
(iii) समूह के सदस्यों का सहयोग–सहभागी प्रेक्षण में अनुसंधानकर्ता समूह में काफी देर तक रहता है तथा उसका सदस्य बन जाता है। इसलिए अध्ययन-कार्य में उसे समूह के सदस्यों का सहयोग प्राप्त हो जाता है।
7. सर्वेक्षण पद्धति के आधारभूत तत्त्व क्या हैं? इस पद्धति का प्रमुख लाभ क्या है?
उत्तर: सर्वेक्षण पद्धति प्रश्न पूछने के आधार पर जानकारी एकत्र करने की ओर झुकी है। यह एक विधि है जो एक विशेष जनसंख्या की समस्याओं को हल करती है जो उन लोगों से पूछे जाने वाले प्रश्नों के आधार पर होती है जो यादृच्छिक नमूने के आधार पर लोगों से पूछे जाते हैं। सर्वेक्षण आधुनिक सार्वजनिक जीवन का एक सामान्य हिस्सा बन गया है। सर्वेक्षण में संपूर्ण तथ्यों का पता लगाने का प्रयास किया जाता है। यह किसी विषय पर सावधानीपूर्वक चयन किए गए लोगों के प्रतिनिधि समग्र से प्राप्त सूचना का व्यापक दृष्टिकोण होता है।
प्रतिदर्श सर्वेक्षण पद्धति के प्रमुख लाभ निम्न प्रकार हैं—
(i) वैज्ञानिक परिशुद्धता-सामाजिक सर्वेक्षण द्वारा प्राप्त परिणाम एवं निष्कर्ष सूक्ष्म, उपयुक्त और विश्वसनीय होते हैं क्योंकि इसमें वैज्ञानिकता का गुण पाया जाता है अर्थात् संपूर्ण सर्वेक्षण वैज्ञानिक पद्धति द्वारा किया जाता है।
(ii) परिमाणात्मक सूचनाएँ-सामाजिक सर्वेक्षण विस्तृत सामग्री के संबंध में परिमाणात्मक सूचनाएँ प्रदान करने का मुख्य स्रोत है जिसमें सांख्यिकीय प्रविधियों को भी विस्तार से लागू किया जा सकता है।
(iii) उपकल्पना का निर्माण एवं परीक्षण सामाजिक सर्वेक्षण उपकल्पना या प्रकल्पना के निर्माण में सहायता देते हैं तथा इतना ही नहीं अपितु इनसे संबंधित आँकड़े एकत्रित करके उनकी प्रामाणिकता की जाँच करने में भी सहायक होते हैं।
(iv) गुणात्मक सूचनाएँ-सामाजिक सर्वेक्षण परिमाणात्मक सूचनाओं के साथ-साथ गुणात्मक सूचनाओं के संकलन का भी एक अति उपयोगी साधन है।
8. प्रतिदर्श प्रतिनिधित्व चयन के कुछ आधार बताएँ?
उत्तर: प्रतिदर्श चयन प्रक्रिया मुख्य रूप से दो सिद्धांतों पर निर्भर करती है:
(i) साक्षात्कार: साक्षात्कार मूलतः अनुसंधानकर्ता तथा उत्तरदाता के बीच निर्देशित बातचीत होती है, हालाँकि इसके साथ कुछ तकनीकी पक्ष जुड़े होते हैं। प्रारूप की सरलता भ्रामक हो सकती है क्योंकि एक अच्छा साक्षात्कारकर्ता बनने के लिए व्यापक अनुभव तथा कौशल होना ज़रूरी होता है। साक्षात्कार, सर्वेक्षण में प्रयोग की गई संरचित प्रश्नावली तथा सहभागी प्रेक्षण पद्धति की तरह पूर्णरूप से खुली अंतः क्रियाओं के बीच स्थान रखता है। इसका सबसे बड़ा लाभ प्रारूप का अत्यधिक लचीलापन है।
(ii) स्तरीकरण का सिद्धांत: जनसंख्या के सभी प्रासंगिक उप-समूहों को प्रतिदर्श में पहचान और प्रस्तुत किया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए, यदि कोई धर्म के प्रति अभिवृत्ति पर अनुसंधान कर रहा है, तो सभी धर्मों के सदस्यों और प्रत्येक धार्मिक वर्ग के अधीन पुरुष और औरत दोनों को इसमें शामिल किया जाएगा।
9. सर्वेक्षण पद्धति की कुछ कमजोरियों का वर्णन करें?
उत्तर: सर्वेक्षण पद्धति की कमजोरियों:
(i) गहन जानकारी की कमी: सर्वेक्षण में प्रत्येक उत्तरदाता से गहराई में जानकारी प्राप्त करना कठिन होता है क्योंकि प्रत्येक उत्तरदाता के साथ बिताया गया समय सीमित होता है।
(ii) प्रश्न पूछने में विविधता: सर्वेक्षण में कई अन्वेषकों की भागीदारी के कारण यह सुनिश्चित करना चुनौतीपूर्ण होता है कि जटिल प्रश्नों को सभी उत्तरदाताओं से समान और स्पष्ट तरीके से पूछा गया है।
(iii) व्यक्तिगत और भावनात्मक प्रश्नों की सीमा: सर्वेक्षण में व्यक्तिगत या भावनात्मक प्रकृति के प्रश्न शामिल करना मुश्किल होता है क्योंकि अन्वेषक और उत्तरदाता के बीच लंबे समय तक चलने वाला संवाद या संबंध स्थापित नहीं हो पाता।
(iv) प्रतिक्रिया की प्रामाणिकता: प्रेक्षण पद्धति के विपरीत, सर्वेक्षण में यह सुनिश्चित करना अन्वेषक के लिए कठिन होता है कि उत्तरदाता द्वारा दी गई प्रतिक्रिया सही है या नहीं।
10. अनुसंधान पद्धति के रूप में साक्षात्कार के प्रमुख लक्षणों का वर्णन करें।
उत्तर: साक्षात्कार के प्रमुख लक्षणः
(i) आमने-सामने की अंतः क्रिया के माध्यम से उद्देश्यपूर्ण वार्तालाप।
(ii) कम प्रचलित रूप में जो उत्तरदाता समय पर उपलब्ध नहीं होते हैं, उनके स्थान पर प्रतिनिधि मुख्तार सूचनादाता को आमंत्रित किया जाता है।
(iii) एक सामाजिक अंतः क्रिया जिसका परिणाम साक्षात्कारकर्ता से अनुसंधानकर्ता की ओर सूचना का हस्तांतरण है।
(iv) भेटवार्ता के एक अलग उपागम में समूह परिचर्चा सम्मिलित है जिसमें चार से बारह व्यक्ति अनुसंधानकर्ता के मार्गदर्शन के अधीन उनके साथ रुचि के विषयों पर चर्चा करते हैं।