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NCERT Class 11 Political Science Chapter 10 संविधान का राजनीतिक दर्शन
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संविधान का राजनीतिक दर्शन
Chapter: 10
भारत का संविधान सिद्धांत और व्यवहार |
INTEX QUESTION |
1. क्या हम यह कह सकते हैं कि संविधान सभा के सदस्य सामाजिक बदलाव के लिए आतुर थे? लेकिन, हम तो यह भी कहते हैं कि संविधान सभा में हर तरह के विचार रखे गए !
उत्तर: हाँ, हम कह सकते हैं कि संविधान सभा के अधिकांश सदस्य सामाजिक बदलाव के लिए आतुर थे, क्योंकि वे एक नए भारत की नींव रखना चाहते थे जो समानता, स्वतंत्रता और न्याय के मूल्यों पर आधारित हो। लेकिन यह भी सच है कि संविधान सभा में हर तरह के विचार रखे गए। कुछ सदस्य पारंपरिक मूल्यों को बनाए रखने के पक्ष में थे, जबकि कुछ समाज में व्यापक परिवर्तन चाहते थे।
प्रश्नावली |
1. नीचे कुछ कानून दिए गए हैं। क्या इनका संबंध किसी मूल्य से है? यदि हाँ, तो वह अंतर्निहित मूल्य क्या है? कारण बताएँ।
(क) पुत्र और पुत्री दोनों का परिवार की संपत्ति में हिस्सा होगा।
उत्तर: वाक्य में समानता का मूल्य छिपा है क्योंकि यह कानून महिलाओं को आर्थिक स्वतंत्रता प्रदान करता है और लैंगिक भेदभाव को समाप्त करने का प्रयास करता है।
(ख) अलग-अलग उपभोक्ता वस्तुओं के बिक्री कर का सीमांकन अलग-अलग होगा।
उत्तर: गुण के अनुसार कीमत और उसके अनुरूप कर का ढाँचा समानता का दिग्दर्शक है।
(ग) किसी भी सरकारी विद्यालय में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी।
उत्तर: इस वाक्य में धर्म-निरपेक्षता के मूल्य का बोध है क्योंकि इसमें राज्य व धर्म को अलग-अलग रखने की बात कही गई है।
(घ) ‘बेगार’ अथवा बंधुआ मजदूरी नहीं कराई जा सकती।
उत्तर: मानवीय गरिमों व मानव-मानव में ऊँच-नीच की समानता का बोध है।
2. नीचे कुछ विकल्प दिए जा रहे हैं। बताएँ कि इसमें किसका इस्तेमाल निम्नलिखित कथन को पूरा करने में नहीं किया जा सकता?
लोकतांत्रिक देश को संविधान की ज़रूरत”
(क) सरकार की शक्तियों पर अंकुश रखने के लिए होती है।
(ख) अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों से सुरक्षा देने के लिए होती है।
(ग) औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता अर्जित करने के लिए होती है।
(घ) यह सुनिश्चित करने के लिए होती है कि क्षणिक आवेग में दूरगामी के लक्ष्यों से कहीं विचलित न हो जाएँ।
(ङ) शांतिपूर्ण ढंग से सामाजिक बदलाव लाने के लिए होती है।
उत्तर: (ग) औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता अर्जित करने के लिए होती है।
3. संविधान सभा की बहसों को पढ़ने और समझने के बारे में नीचे कुछ कथन दिए गए हैं – (अ) इनमें से कौन-सा कथन इस बात की दलील है कि संविधान सभा की बहसें आज भी प्रासंगिक है? कौन-सा कथन यह तर्क प्रस्तुत करता है कि ये बहसें प्रासंगिक नहीं है। (ब) इनमें से किस पक्ष का आप समर्थन करेंगे और क्यों?
(क) आम जनता अपनी जीविका कमाने और जीवन की विभिन्न परेशानियों के निपटारे में व्यस्त होती है। आम जनता इन बहसों की कानूनी भाषा को नहीं समझ सकती।
उत्तर: (अ) व (ब) वाक्यों में यह स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है कि संविधान सभा में हुई। वार्ता व बहस की आज की परिस्थितियों के आधार पर कोई उपयोगिता नहीं है जबकि (c) वाक्य में संविधान सभा में हुई वार्ता की आज भी उपयोगिता है। यह कथन ये तर्क प्रस्तुत करता है कि संविधान सभा की बहसें प्रासंगिक नहीं हैं। कारणः यह कहता है कि आम जनता संविधान सभा की बहसों की कानूनी भाषा को नहीं समझ सकती और वे अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में व्यस्त रहते हैं। इसलिए यह तर्क देता है कि संविधान सभा की बहसों की जनता के लिए कोई विशेष उपयोगिता नहीं है।
(ख) आज की स्थितियाँ और चुनौतियाँ संविधान बनाने के वक्त की चुनौतियों और स्थितियों से अलग है। संविधान निर्माताओं के विचारों को पढ़ना और अपने नए जमाने में इस्तेमाल करना दरअसल अतीत को वर्तमान में खींच लाना है।
उत्तर: यह कहता है कि वर्तमान की स्थितियाँ और चुनौतियाँ संविधान निर्माण के समय से भिन्न हैं। इस दृष्टिकोण के अनुसार, पुरानी बहसों को वर्तमान संदर्भ में लागू करना उचित नहीं है, क्योंकि वे अतीत से संबंधित हैं और साधारण व्यक्ति संविधान में हुई बहस की भाषा को समझने में असमर्थ है व आज किसी को भी उसमें रुचि नहीं है क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति अपनी आजीविका कमाने में लगा है।
(ग) संसार और मौजूदा चुनौतियों को समझने की हमारी दृष्टि पूर्णतया नहीं बदली है। संविधान सभा की बहसों से हमें यह समझने के तर्क मिल सकते हैं कि कुछ संवैधानिक व्यवहार क्यों महत्त्वपूर्ण हैं। एक ऐसे समय में जब संवैधानिक व्यवहारों को चुनौती दी जा रही है, इन तों को न जानना संवैधानिक व्यवहारों को नष्ट कर सकता है।
उत्तर: हम यह समझते हैं कि संविधान सभा में भारत की सामाजिक-आर्थिक व राजनीतिक समस्याओं पर चर्चा हुई जिनकी उपयोगिता आज की समस्याओं के सन्दर्भ में भी है। संविधान सभा की बहसों में दिए गए तर्क आज भी संवैधानिक व्यवहारों को समझने में सहायक हो सकते हैं। विशेष रूप से जब संवैधानिक व्यवहारों को चुनौती दी जा रही हो, तो इन बहसों को जानना उन्हें बचाने के लिए महत्वपूर्ण हो सकता है।
4. निम्नलिखित प्रसंगों के आलोक में भारतीय संविधान और पश्चिमी अवधारणा में अंतर स्पष्ट करें-
(क) धर्मनिरपेक्षता की समझ।
उत्तर: भारतीय संविधान सभी को अपने धार्मिक विश्वासों और तौर-तरीकों को अपनाने की पूरी छूट देता है। सबके लिए समान धार्मिक स्वतंत्रता के इस विचार को ध्यान में रखते हुए भारतीय राज्य ने धर्म और राज्य की शक्ति को एक-दूसरे से अलग रखने की रणनीति अपनाई है। धर्म को राज्य से अलग रखने की इसी अवधारणा को धर्मनिरपेक्षता कहा जाता है।
(ख) अनुच्छेद 371
उत्तर: पूर्वोत्तर से संबंधित अनुच्छेद 371 को जगह देकर भारतीय संविधान ने ‘असमतोल संघवाद’ जैसी अत्यंत महत्त्वपूर्ण अवधारणा को अपनाया। संघवाद से संबंधित अध्याय में हमने देखा कि संविधान में एक मज़बूत केंद्रीय सरकार की बात मानी गई है। संविधान का झुकाव केंद्र सरकार की मजबूती की तरफ तो है लेकिन इसके बावजूद भारतीय संघ की विभिन्न इकाइयों की कानूनी हैसियत और विशेषाधिकार में महत्त्वपूर्ण अंतर है। अमेरिकी संघवाद की संवैधानिक बनावट समतोल है लेकिन भारतीय संघवाद संवैधानिक रूप से असमतोल है।
(ग) सकारात्मक कार्य-योजना या अफरमेटिव एक्शन।
उत्तर: जाति आधारित ‘सकारात्मक कार्य योजना (Affirmative action programme) के प्रति संवैधानिक वचनबद्धता से प्रकट होता है कि भारत दूसरे राष्ट्रों की तुलना में कहीं आगे है। क्या कोई इस बात को भूल सकता है कि संयुक्त राज्य अमेरिका में सकारात्मक कार्य-योजना सन् 1964 के नागरिक अधिकार आंदोलन के बाद आरंभ हुई जबकि भारतीय संविधान ने इसे लगभग दो दशक पहले ही अपना लिया था।
(घ) सार्वभौम वयस्क मताधिकार।
उत्तर: सार्वभौम मताधिकार को अपनाना इसलिए भी महत्त्वपूर्ण कहा जाएगा क्योंकि पश्चिम के उन देशों में भी जहाँ लोकतंत्र की जड़ स्थायी रूप से जम चुकी थी, कामगार तबके और महिलाओं को मतदान का अधिकार काफी देर से दिया गया था। एक बार राष्ट्र के विचार ने समाज के अभिजात्य तबके में जगह बना ली, तो इसके परिणामस्वरूप लोकतांत्रिक स्व-शासन का विचार भी पनपा। इस प्रकार, भारतीय राष्ट्रवाद की धारणा में हमेशा एक ऐसी राजव्यवस्था की बात मौजूद रही जो समाज के प्रत्येक सदस्य की इच्छा पर आधारित हो। सार्वभौम मताधिकार का विचार भारतीय राष्ट्रवाद के बीज-विचारों में एक है। भारत के लिए अनौपचारिक रूप से संविधान तैयार करने का पहला प्रयास ‘कस्टिट्यूशन ऑफ इंडिया बिल’ के नाम से सन् 1895 में हुआ था। इस पहले प्रयास में भी इसके लेखक ने घोषणा की थी कि प्रत्येक नागरिक अर्थात् भारत में जन्मे व्यक्ति को देश के मामलों में भाग लेने तथा सरकारी पद हासिल करने का हक है।
5. निम्नलिखित में धर्मनिरपेक्षता का कौन-सा सिद्धांत भारत के संविधान में अपनाया गया है?
(क) राज्य का धर्म से कोई लेना-देना नहीं है।
(ख) राज्य का धर्म से नजदीकी रिश्ता है।
(ग) राज्य धर्मों के बीच भेदभाव कर सकता है।
(घ) राज्य धार्मिक समूहों के अधिकार को मान्यता देगा।
(ङ) राज्य को धर्म के मामलों में हस्तक्षेप करने की सीमित शक्ति होगी।
उत्तर: (क) राज्य का धर्म से कोई लेना-देना नहीं है।
6. निम्नलिखित कथनों को सुमेलित करें-
(क) विधवाओं के साथ किए जाने वाले बरताव की आलोचना की आज़ादी। | आधारभूत महत्व की उपलब्धि |
(ख) संविधान-सभा में फ़ैसलों का स्वार्थ के आधार पर नहीं बल्कि तर्कबुद्धि के आधार पर लिया जाना। | प्रक्रियागत उपलब्धि |
(ग) व्यक्ति के जीवन में समुदाय के महत्त्व को स्वीकार करना। | लैंगिक न्याय की उपेक्षा |
(घ) अनुच्छेद 371 | उदारवादी व्यक्तिवाद |
(ङ) महिलाओं और बच्चों को परिवार की संपत्ति में असमान अधिकार। | धर्म-विशेष की जरूरतों के प्रति ध्यान देना |
उत्तर:
(क) विधवाओं के साथ किए जाने वाले बरताव की आलोचना की आज़ादी। | उदारवादी व्यक्तिवाद |
(ख) संविधान-सभा में फ़ैसलों का स्वार्थ के आधार पर नहीं बल्कि तर्कबुद्धि के आधार पर लिया जाना। | प्रक्रियागत उपलब्धि |
(ग) व्यक्ति के जीवन में समुदाय के महत्त्व को स्वीकार करना। | आधारभूत महत्व की उपलब्धि |
(घ) अनुच्छेद 371 | धर्म-विशेष की जरूरतों के प्रति ध्यान देना |
(ङ) महिलाओं और बच्चों को परिवार की संपत्ति में असमान अधिकार। | लैंगिक न्याय की उपेक्षा |
7. यह चर्चा एक कक्षा में चल रही थी। विभिन्न तों को पढ़ें और बताएँ कि आप इनमें किस से सहमत हैं और क्यों?
जयेश- मैं अब भी मानता हूँ कि हमारा संविधान एक उधार का दस्तावेज़ है।
सबा – क्या तुम यह कहना चाहते हो कि इसमें भारतीय कहने जैसा कुछ है ही नहीं? क्या मूल्यों और विचारों पर हम ‘भारतीय’ अथवा ‘पश्चिमी’ जैसा लेबल चिपका सकते हैं? महिलाओं और पुरुषों की समानता का ही मामला लो। इसमें ‘पश्चिमी’ कहने जैसा क्या है? और. अगर ऐसा है भी तो क्या हम इसे महज पश्चिमी होने के कारण खारिज कर दें?
जयेश – मेरे कहने का मतलब यह है कि अंग्रेजों से आजादी की लड़ाई लड़ने के बाद क्या हमने उनकी संसदीय शासन की व्यवस्था नहीं अपनाई?
नेहा – तुम यह भूल जाते हो कि जब हम अंग्रेजों से लड़ रहे थे तो हम सिर्फ अग्रेजों के खिलाफ़ थे। अब इस बात का, शासन की जो व्यवस्था हम चाहते थे उसको अपनाने से कोई लेना-देना नहीं, चाहे यह जहाँ से भी आई हो।
उत्तर: में सबा और नेहा के तर्क से सहमत हुँ, क्योंकि उनका कहना है कि संविधान में केवल पश्चिमी या भारतीय लेबल चिपकाना गलत है। भारतीय संविधान में जो मूल्यों की बातें हैं, जैसे कि महिलाओं और पुरुषों की समानता, वे किसी एक संस्कृति या देश से संबंधित नहीं है। और ब्रिटिश उपनिवेशवाद की नीति में अन्यायपूर्ण थे, लेकिन उनके शासन के कुछ सिद्धांत आधुनिक और उपयुक्त थे क्योंकि उन्होंने लोगों को अपने प्रतिनिधि चुनने की अनुमति दी थी। इस प्रकार, ब्रिटिश उपनिवेशवाद के नकारात्मक प्रभाव के आधार पर ब्रिटिश व्यवस्था के सकारात्मक मूल्यों की उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए।
8. ऐसा क्यों कहा जाता है कि भारतीय संविधान को बनाने की प्रक्रिया प्रतिनिधिमूलक नहीं थी? क्या इस कारण हमारा संविधान प्रतिनिध्यात्मक नहीं रह जाता? अपने उत्तर के कारण बताएँ।
उत्तर: भारतीय संविधान सभा के विषय में कहा जाता है कि भारतीय संविधान सभा प्रतिनिधिमूलक नहीं थी। क्योंकि संविधान सभा के सदस्य सीधे जनता के चुनावों से नहीं चुने गए थे। वे प्रांतीय असेंबलीयों के माध्यम से चुने गए थे, जो ब्रिटिश शासन के तहत थीं। यह सन् 1946 के चुनाव पर गठित विधानसभाओं द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से गठित की गई थी। इस चुनाव में वयस्क मताधिकार भी नहीं दिया गया था। उस समय सीमित मताधिकार प्रचलित था। इसमें अनेक लोगों को मनोमीत किया गया था। इसलिए भारतीय संविधान बनाने की प्रक्रिया प्रतिनिधिमूलक नहीं थी।
9. भारतीय संविधान की एक सीमा यह है कि इसमें लैंगिक-न्याय पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है। आप इस आरोप की पुष्टि में कौन-से प्रमाण देंगे। यदि आज आप संविधान लिख रहे होते। तो इस कमी को दूर करने के लिए उपाय के रूप में किन प्रावधानों की सिफारिश करते?
उत्तर: भारतीय संविधान में लैंगिक – न्याय पर पर्याप्त ध्यान न दिए जाने का प्रमाण यह है कि महिलाओं के लिए विशेष प्रावधान सीमित है, यद्यपि संविधान में ऐसी व्यवस्था की गयी है जिसमें किसी भी सार्वजनिक क्षेत्र में, या कानूनी मामलों में, या शिक्षा या रोजगार के क्षेत्र में किसी भी स्तर पर लैंगिक भेदभाव नही किया जाएगा। अगर आज संविधान लिखा जा रहा होता, तो मैं इसे लैंगिक समानता के विस्तार के साथ अद्यतन करता, जिसमें महिलाओं के लिए शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य और सुरक्षा के क्षेत्रों में विशेष प्रावधान होते। इसके अलावा, समान कार्य के लिए समान वेतन का प्रावधान और लैंगिक हिंसा के खिलाफ कठोर कानूनों को शामिल किया जाता। साथ ही, लैंगिक समानता की शिक्षा को पाठ्यक्रम में अनिवार्य किया जाता।
10. क्या आप इस कथन से सहमत हैं कि – ‘एक गरीब और विकासशील देश में कुछ एक बुनियादी सामाजिक-आर्थिक अधिकार मौलिक अधिकारों की केंद्रीय विशेषता के रूप में दर्ज करने के बजाए राज्य की नीति-निर्देशक तत्त्वों वाले खंड में क्यों रख दिए गए यह स्पष्ट नहीं है।’ आपके जानते सामाजिक-आर्थिक अधिकारों को नीति-निर्देशक तत्त्व वाले खंड में रखने के क्या कारण रहे होंगे?
उत्तर: यह कथन सही है कि एक ग़रीब और विकासशील देश में सामाजिक-आर्थिक अधिकारों को मौलिक अधिकारों के बजाय नीति-निर्देशक तत्वों वाले खंड में रखा गया था। इसका कारण यह था कि भारत उस समय एक गरीब और विकासशील देश था, और सरकार के पास इन अधिकारों को तुरंत लागू करने के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं थे। नीति-निर्देशक तत्त्वों में इन अधिकारों को रखकर संविधान निर्माताओं ने यह सुनिश्चित किया कि राज्य इन अधिकारों को धीरे-धीरे लागू करने की दिशा में काम करे, लेकिन तत्काल बाध्यता न हो।
11. आपके विद्यालय ने 26 नवंबर को संविधान दिवस कैसे मनाया?
उत्तर: हमारे विद्यालय में संविधान दिवस 26 नवंबर को बहुत उत्साह से मनाया जाता है। दिन की शुरुआत संविधान की प्रस्तावना का सामूहिक पाठ से होती है। उसके बाद एक सभा आयोजित की गई, जिसमें संविधान के महत्व पर चर्चा की जाती है। विद्यार्थियों ने संविधान पर भाषण और रचनात्मक प्रस्तुतियाँ देते है। सभी ने संविधान के प्रति सम्मान और आदर की शपथ ली जाती है। इस दिन का उद्देश्य विद्यार्थियों में संविधान के प्रति जागरूकता और जिम्मेदारी का एहसास दिलाना होता है।