साम्प्रदायिकता – रचना | Saampradaayikata Rachana

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साम्प्रदायिकता

भारत एक अत्यन्त विशाल और धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र है। यहां जनता हो अंततः सर्वोपरि है। जनता के चुने हुए प्रतिनिधि ही संसद व विधान परिषदों में पहुचकर कानून बनाते हैं और देश का शासन चलाते हैं। भारत विविधताओं में अनेकता का एक अनुपम उदाहरण प्रस्तुत करता है। यहां विभिन्न धर्मो, जातियों, सम्प्रदायों और मतमंतारों के लोग निवास करते हैं। वे अनेक भाषाएं बोलते है। यद्यपि भारत में हिन्दुओं की प्रधानता है. रन्तु फिर भी यह कोई हिन्दू राष्ट्र नहीं है। लिंग, धर्म, जाति, रंग, सम्प्रदाय, भाषा, नवास स्थान आदि के आधार पर यहां कोई भेदभाव नहीं है। न्याय व व्यवस्ता की दृष्टि से सब नागरिक समान है। हिन्दुओं के अतिरिक्त मुसलमान, जैन, सिकख, बौद्ध, पारसी, ईसाई, यहूदी आदि विभिन्न धर्मोव सम्प्रदायों के लोग यहां पूरी स्वतंत्रता और शांति से रहते हैं और अपने-अपने धर्म का पालन करते हैं, उसके प्रचार-प्रसार में योग देते हैं। भारत में मुसलमानों की संख्या कम नहीं है। इनकी जनसंख्या की दृष्टि से भारत

विश्व का दूसरा सबसे बड़ा देश है। केवल इंडोनेशिया ही एक मात्र देश है जहां मुसलमानों की आबादी भारत से अधिक है। अन्य धर्म व सम्प्रदायों के लोगों की तरह मुसलमान यहां पूरी धार्मिख स्वंतत्रता के साथ पिछली अनेक शताब्दियों से रह रहे हैं। यह हमारी धार्मिक सरिष्णुता, सद्भाव, शांति और परस्पर सहयोग का एक अनुपम उदाहरण है, परन्तु कभी-कभी यह शांति और सद्भाव छिन्न-भिन्न होते भी देखा जा सकता है। यह बड़ी चिंता का विषय है। साम्प्रदायिकता का विष हमारे देश के जीवन को निर्बल कर रहा है। साम्प्रदायिकता का तात्पर्य है किसी धर्म या सम्प्रदाय के लोगों में भारत के प्रति देश-प्रेम व निष्ठा का अभाव। साम्प्रदायिकता का कारण इन धर्म और संप्रदायों के लोगों के लिए राष्ट्र गौण और महत्वहीन हो जाता है और वे अपने संकीर्ण स्वार्थों और अनुचित धार्मिक निष्ठा से प्रेरित होकर राष्ट्र विरोधी कार्यों में संलग्न हो जाते हैं। हिन्दू धर्म में भी अनेक संप्रदाय, पंथ और मतमंता हैं। मुसलमानों में सुन्नी और सिया सम्प्रदाय हैं। जैनियों में दिगम्बर व श्वेताम्बर है, तो इसाईयों में रोमन कैथालिक, प्रोटस्टेट आदि। हिन्दुओं में एक और विभाजन रेखा सवर्ण और हरिजनों के रूप में देखी जा सकती हैं। जब तभी इन विभिन्न संप्रदायों, धार्मिक वर्गों और जातियों में टकराव व संघर्ष को स्थिति उत्पन्न हो जाती है और स्थिति बेकाबू हो जाती है। इससे देश को धन-जन की अपार हानि होती है, वातावरण प्रदूषित हो जाता है तथा विकास की गति रूक जाती है। देश में साम्प्रदायिकता, धार्मिक टकराव व संघर्ष अंग्रेजों की देने है। अंग्रेज निरे स्वार्थी, दुष्ट और लोलुप लोग थे। उन्होंने कभी भारत का हित चिंतन नहीं किया।

“बाँटो और रोज करो” उनकी प्रधान नीति थी। उन्होंने भारतीय समाज को सवर्ण दलित, हिन्दू-मुसलमान जैसे वर्गों में बाँटने के प्रयन्त किये। कभी हरिजनों को सवर्ण हिन्दुओम से अलग किया, तो कभी हिन्दुओं और मुसलमानों को संघर्ष के लिए आमने सामने ला खड़ा किया। स्वतंत्रता प्राप्ति के साथ अंग्रेजों को भारत छोड़ना पड़ा परन्तु जाते-जाते भी वे अपनी ओछी हरकतों से बाज नहीं आये और देश का भारत व पाकिस्तान में विभाजन करते गये। देश का यह विभाजन दो धर्मो के आधार पर किया गया था जो सर्वथा अनुचित और अव्यावहारिक था। मुसलमानों के लिए पाकिस्तान बनाया गया परन्तु आज भी भारत में लाखों मुसलमान रहते हैं। इस विभाजन के कारण हिंसा, आगजनी, बलात्कार, मारकाट और अराजकता का जो तांडव नृत्य देखने को मिला, वह आज भी त्रस्त और भयभीत कर देता है। इस विभाजन के समय लाखों लोगों ने इधर से उधर पलायन किया और हजारों स्त्री-पुरुष व बच्चे इस प्रक्रिया में सांप्रदायकि हिंसा की बलि चढ़ गये। सांप्रदायिकता के इस विष ने राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी को भी नहीं। छोड़ा और एक सिरफिरे हिन्दु युवक ने गोली मारकर उनकी निर्मम हत्या कर दी।

साम्प्रदायिकता के आधार पर देश के विभाजन में जिन्ना मुस्लिम तथा उनकी लोग ने भी बहुत बड़ी पंरतु अवांछित भूमिका निभाई। जिन्ना अपने संकीर्ण और सड़ेगले स्वार्थो की पूर्ति हेतु पाकिस्तान निमार्ण की अपनी जिद पर अड़े रहे। अंग्रेज तो यह चाहते ही थे और देश को विभाजन के साथ-साथ हमें जिस भीषण त्रासदी व हिंसा से गुजरना पड़ा, उसे सब जानते हैं। पाकिस्तान के निमार्ण ने सांप्रदायिकता की आग में घी का काम किया और देश में जब तभी सांप्रदायिक दंगे व हिंसा भड़कने लगे। कश्मीर की समस्या भी इसी साम्प्रदायिक सोच और विचारधारा की ही परिणाम हैं। इसके कारण भारत व पाकिस्तान में निरंतर कटुता व संघर्ष बढ़ता जा रहा है। पाकिस्तान के प्रोत्साहन पर ही भारत में उग्रवाद और आतंकवाद बढ़ रहे हैं। खालिस्तान की माँग औ अयोध्या का मंदिर-मस्जिद विवाद भी इसी संदर्भ में देखे जा सकते हैं। सांप्रदायिकता के इस विषमय वातावहरण ने कई सेनाओं, धार्मिक दलों, हिंसक वर्गों और संस्थाओं को जन्म दिया है। बजरंग दल, आदम सेना आदि के नाम यहाँ लिये जा सकते हैं।

गुजरात व अहमदाबाद में जो सांप्रदायिक दंगे पिछले कुछ समय में हुए, वे दिल-दहला देने वाले हैं। इस मे पाकिस्तान और पाकिस्तान समर्थित मुसलमान और फिरकापरस्त शक्तियों का बहुत बड़ा हाथ रहा है। सांप्रदायिकता की इस आग में सैकड़ों लोग मृत्युको प्राप्त हुए, हजारों स्त्रियां विधवा हो गई, भीषण नरसंहार हुआ तथा सरकारी व निजी संपत्ति की अपार हानि हुई। सांप्रदायिक दंगों के कारण समाज और मनुष्य जाति को जिस त्रास एवं विषाद से गुजरना पड़ता है उसे शब्दों में कहना असंभव है। इस सांप्रदायिक हिंसा पर नियंत्रण तो पा लिया गया है परन्तु कह नहीं सकते कि कब और कैसे किसी और जगह यह फूट पड़े। सांप्रदायिक शक्तियों का निमूर्ल किया जाना आवश्यक है। परन्तु यह इतना सरल नहीं है। जनता के सच्चे और पूर्ण सहयोग के बिना यह प्रायः असंभव है।

कोई भी धर्म हिंसा, घृणा या विद्वेष नहीं सिखाता। सभी धर्म व सम्प्रदाय मनुष्य को नैतिकता, सहिष्णुता व शांति का पाठ पढ़ाते हैं। परन्तु कुछ असामाजिक तत्व मुल्ला मोलवियों, पंडों-संतों के वेश में लोगो में धार्मिक भावनाएं भड़काकर अशांति, उपद्रव, हिंसा व अराजकता फैलाने में लगे रहते हैं। कुछ लोग उचित शिक्षा, समझबूझ और ज्ञान के अभाव में उनके बहकाने में आ जाते हैं और उनके कहने पर चलकर सांप्रदायिक विद्वेष को फैलाते हैं। इस संदर्भ में महाकवि इकबाल ने ठीक ही कहा है – मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना, हिन्दी हैं हम वतन है, हिन्दोस्ता हमारा। महात्मा गाँधी भी सर्वधर्म समभाव पर बल देते थे। ईश्वर और अल्लाह को वे एक मानते है और सभी दूसरे धर्मों का आदर करते थे। परन्तु वे स्वयं ही साम्प्रदाधि पागलपन का शिकार हो गये। मानसिक संकीर्णता, अशिक्षा, कट्टरता आदि सांप्रदायि घृणा व विद्वेष के प्रधान कारण हैं। लोगों में शिक्षा व ज्ञान का समुचित प्रचार-प्रसाह हो चाहिये। राष्ट्रहित को अन्य सभी हितों से ऊपर रखा जाना चाहिये तथा समस्याओं क सांप्रदायिक रंग देने से बचना चाहिये। दूसरे राजनेताओं को चाहिये कि वे अपने संकी स्वार्थों से ऊपर उठें तथा समाज के समक्ष बच्चे उदाहरण प्रस्तुत करें। साम्प्रदायिकता औ जाति के आधार पर टिकटों का बंटवारा और प्रत्याशियों का चुनाव एक खतरनाक पर है। इसे तुंरत समूल नष्ट किया जाना चाहिये। साम्प्रदायिक भावनाओंको उकसा क अपना उल्लू सीधा करने में आज के तथाकथित राजनेता सिद्धहस्त है। जनता को उन सावधान रहना चाहिये।

सरकारी नौकरियों में जाति व संप्रदाय के आधार पर संरक्षण भी समाप्त किया जान चाहिये। आर्थिक पिछड़ापन व गरीबी ही सरकारी नौकरियों में आरक्षण का आधार होन चाहिये। अपने वोट बैंक को सुरक्षित रखने के लिये राजनीतिक दल व नेता साम्प्रदायिक तुष्टीकरण का सहारा लेते हैं। यह बहुत ही हानिकारक प्रवृत्ति है। कहीं मुसलमानों क संतुष्ट करनेके अनुचित कार्य किये जाते हैं तो कभी जाटों या हरिजनों को संतुष्ट करने के लिये। समाज को इस तहर बाँट कर देखने की यह प्रवृत्ति हमें अंग्रेजों से मिली है। अब समय आ गया है कि हम इस विषभरी प्रवृत्ति से मुक्ति पायें औं समभाव अपनायें। भी आवश्यक है कि अल्पसंख्यकों में ज्ञान व शिक्षा का उचित प्रबंध हो। उनके आर्थिक व सामाजिक विकास के विशेष प्रयत्न किये जायें। उनमें भय, निराशा व असंतोष न पैद होने दिया जाय जिससे वे देश व समाज की मुख्य धारा में बने रहें तथा कट्टरवादी धार्मिक शक्तियों के हाथों के खिलौने न बनें। बहुसंख्यक जातियों व संप्रदायों का भी यह कर्तव् हैं कि वे अल्पसंख्यकों के अधिकारों व सुविधाओं का विशेष ध्यान रखें तथा उन अलग-अलग नहीं पड़ने दें।

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