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NCERT Class 12 Sociology Chapter 8 सामाजिक आंदोलन
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सामाजिक आंदोलन
Chapter: 8
भारत में सामाजिक परिवर्तन एवं विकास |
प्रश्नावली |
1. एक ऐसे समाज की कल्पना कीजिए जहाँ कोई सामाजिक आंदोलन न हुआ हो, चर्चा करें। ऐसे समाज की कल्पना आप कैसे करते हैं, इसका भी आप वर्णन कर सकते हैं।
उत्तर: सामाजिक आंदोलन के बिना समाज की कल्पना: यदि हम एक ऐसे समाज की कल्पना करें जहाँ कोई सामाजिक आंदोलन न हुआ हो, तो यह समाज निश्चित रूप से भिन्न होगा उस समाज से जिसमें सामाजिक आंदोलनों का इतिहास और प्रभाव गहरा रहा हो। सामाजिक आंदोलन समाज में परिवर्तन लाने का एक महत्वपूर्ण उपकरण होते हैं, जो विभिन्न सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक मुद्दों पर ध्यान आकर्षित करते हैं। इस समाज में न तो शोषण के खिलाफ कोई संघर्ष हुआ हो, न ही असमानता के खिलाफ आवाज उठाई गई हो, और न ही किसी वर्ग या समुदाय के अधिकारों की रक्षा के लिए कोई प्रयास किया गया हो। यह समाज स्थिरता की जगह निष्क्रियता और असमानता का शिकार हो सकता है। हम इस समाज को अलग-अलग दृष्टिकोण से समझने का प्रयास करते हैं:
(i) राजनीतिक बदलाव का अभाव: सामाजिक आंदोलनों ने समाज में राजनीतिक परिवर्तन लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उदाहरण स्वरूप, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम ने हमें स्वतंत्रता दिलाई। अगर कोई आंदोलन नहीं हुआ होता, तो हम शायद आज भी उपनिवेशी शासन के अधीन होते। ऐसे समाज में राजनीतिक परिवर्तन की कोई संभावना नहीं होती, और सरकारें जनता के अधिकारों के प्रति लापरवाह होतीं।
(ii) सांस्कृतिक विकास और चेतना का अभाव: सामाजिक आंदोलनों का समाज पर एक गहरा सांस्कृतिक प्रभाव होता है। जैसे कि भारतीय सांस्कृतिक पहचान और परंपराओं के संरक्षण के लिए कई आंदोलन हुए। बिना इन आंदोलनों के, शायद हम अपनी सांस्कृतिक धरोहर को पूरी तरह से नहीं समझ पाते या उसका सम्मान नहीं करते।
(iii) शिक्षा और सामाजिक सुधार का अभाव: सामाजिक आंदोलनों ने समाज में शिक्षा के महत्व को बढ़ावा दिया है। जैसे 19वीं सदी में ब्राह्मो समाज और आर्य समाज ने महिलाओं की शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए आंदोलनों की शुरुआत की थी। ऐसे समाज में जहाँ कोई आंदोलन न हुआ हो, वहां शिक्षा का स्तर बहुत कम होता।
2. निम्न पर लघु टिप्पणी लिखें-
(i) महिलाओं के आंदोलन।
उत्तर: 20वीं सदी के प्रारंभ में राष्ट्रीय तथा स्थानीय स्तर पर महिलाओं के संगठनों में वृद्धि देखी गई। विमेंस इंडिया एसोसिएशन (भारतीय महिला एसोसिएशन; डबल्यू. आई.ए., 1971) आल-इंडिया विमेंस कॉन्फ्रेंस (अखिल भारतीय महिला कॉन्फ्रेंस; ए.आई.डबल्यू.सी., 1926) और नेशलन काउंसिल फॉर विमेन इन इंडिया (भारत में महिलाओं की राष्ट्रीय काऊंसिल; एन.सी.डबल्यू.आई.) ये ऐसे संगठनों के नाम हैं जिन्हें हम तुरंत पहचान कर बता सकते हैं। जबकि इनमें से कई की शुरुआत सीमित कार्यक्षेत्र से हुई, इन का कार्यक्षेत्र समय के साथ विस्तृत हुआ। उदाहरण के लिए प्रारंभ में ए.आई. डबल्यू.सी. का विचार था कि ‘महिला कल्याण’ तथा ‘राजनीति’ आपस में असंबद्ध है। कुछ वर्ष बाद उसके अध्यक्षीय भाषण में कहा गया, “क्या भारतीय पुरुष अथवा स्त्री स्वतंत्र हो सकते हैं यदि भारत गुलाम रहे? हम अपनी राष्ट्रीय स्वतंत्रता जोकि सभी महान सुधारों का आधार है, के बारे में चुप कैसे रह सकते हैं? (चौधरी 1993:149)”
यह तर्क दिया जा सकता है कि सक्रियता का यह काल सामाजिक आंदोलन नहीं था। इसका विरोध भी किया जा सकता था। चलो हम उन विशेषताओं का स्मरण करें जो सामाजिक आंदोलनों को चिह्नित करती हैं। इनमें संगठन, विचारधारा, नेतृत्व, एक साझी समझ तथा जन मुद्दों पर परिवर्तन लाने का लक्ष्य था। सम्मिलित रूप से ये एक ऐसा वातावरण बनाने में सफल हुए जहाँ महिलाओं के मुद्दों की उपेक्षा नहीं की जा सकती थी।
(ii) जनजातीय आंदोलन।
उत्तर: देश भर में फैले विभिन्न जनजातीय समूहों के मुद्दे समान हो सकते हैं, लेकिन उनके विभेद भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं। जनजातीय आंदोलनों में से कई अधिकांश रूप से मध्य भारत की तथाकथित ‘जनजातीय बेल्ट’ में स्थित रहे हैं जैसे- छोटानागपुर व संथाल परगना में स्थित संथाल, हो, ओरांव व मुंडा। नए गठित हुए झारखंड प्रदेश का मुख्य भाग इन्हीं से बना है। हमारे लिए विभिन्न आंदोलनों के बारे में विस्तृत विवरण देना संभव नहीं है। हम उदाहरण के रूप में झारखंड की चर्चा करेंगे जहाँ जनजातीय आंदोलन का इतिहास सौ वर्ष पुराना है। हम पूर्वोत्तर राज्यों के जनजातीय आंदोलनों की विशिष्टताओं के बारे में भी संक्षिप्त में चर्चा करेंगे परंतु इनकी भी विस्तृत विवेचना संभव नहीं है क्योंकि एक ही क्षेत्र में जनजातीय आंदोलन के विभिन्न स्वरूप विद्यमान हो सकते हैं।
3. भारत में पुराने तथा नए सामाजिक आंदोलनों में स्पष्ट भेद करना कठिन है।
उत्तर: भारत में पुराने और नए सामाजिक आंदोलनों के बीच स्पष्ट भेद करना कठिन है, क्योंकि दोनों के उद्देश्य, संगठनात्मक ढांचे और कार्यप्रणालियों में समय के साथ परिवर्तन हुआ है। पुराने सामाजिक आंदोलन मुख्यतः औपनिवेशिक शासन के विरोध और वर्ग आधारित असमानताओं के खिलाफ संगठित होते थे। इन आंदोलनों का नेतृत्व राजनीतिक दलों द्वारा किया जाता था, जैसे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व किया। इन आंदोलनों का मुख्य उद्देश्य शक्ति संबंधों का पुनर्गठन और सामाजिक न्याय की स्थापना था।
वहीं, नए सामाजिक आंदोलन 1960-70 के दशक में उभरे, जो जीवन की गुणवत्ता, पर्यावरण संरक्षण, मानवाधिकार, लैंगिक समानता और सांस्कृतिक पहचान जैसे मुद्दों पर केंद्रित हैं। ये आंदोलन पारंपरिक राजनीतिक ढांचे से बाहर रहकर, गैर-सरकारी संगठनों और नागरिक समाज के माध्यम से कार्य करते हैं। इनकी संरचना वितेंत होती है, और ये वैश्विक स्तर पर भी सक्रिय होते हैं।
हालांकि, दोनों आंदोलनों में कुछ समानताएं भी हैं। दोनों ही सामाजिक न्याय, समानता और मानवाधिकारों की मांग करते हैं। इसके अलावा, पुराने और नए आंदोलन अक्सर एक-दूसरे के साथ सहयोग करते हैं, जैसे विश्व सामाजिक फोरम में, जहाँ विभिन्न मुद्दों पर संयुक्त रूप से कार्य किया जाता है।इस प्रकार, भारत में पुराने और नए सामाजिक आंदोलनों के बीच स्पष्ट भेद करना कठिन है, क्योंकि दोनों समय के साथ विकसित हुए हैं और सामाजिक परिवर्तन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
4. पर्यावरणीय आंदोलन प्रायः आर्थिक एवं पहचान के मुद्दों को भी साथ लेकर चलते है, विवेचना कीजिए।
उत्तर: पर्यावरण संबंधित आंदोलन-आर्थिक एवं पहचान के मुद्दों को भी साथ लेकर चलते हैं। जब कोई परिस्थिति किसी आंदोलन को जन्म देती है वह आंदोलन पारिस्थितिकीय आंदोलन कहलाता है। आधुनिक काल में विकास पर बल दिया जाता है। विकास के लिए प्राकृतिक संसाधनों का अनियंत्रित उपयोग तथा विकास निर्माण में वे प्राकृतिक संसाधन जो पहले से ही कम हैं – उनका अत्यधिक शोषण हो रहा है।पर्यावरणीय आंदोलन अक्सर केवल पारिस्थितिकीय सुरक्षा तक सीमित नहीं रहते, बल्कि वे आर्थिक न्याय और सामाजिक पहचान जैसे मुद्दों को भी साथ लेकर चलते हैं। भारत में चिपको आंदोलन इसका एक प्रमुख उदाहरण है, जहाँ स्थानीय समुदायों, विशेषकर महिलाओं, ने वनों की कटाई के विरुद्ध संघर्ष किया। यह आंदोलन न केवल पर्यावरण संरक्षण के लिए था, बल्कि यह ग्रामीण आजीविका, संसाधनों पर स्थानीय नियंत्रण और सरकार की नीतियों के खिलाफ प्रतिरोध का प्रतीक भी बना।
चिपको आंदोलन में महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका थी, क्योंकि वे प्रतिदिन की आवश्यकताओं जैसे ईंधन, चारा और पानी के लिए वनों पर निर्भर थीं। वनों की कटाई से उनकी आजीविका पर सीधा प्रभाव पड़ता था, जिससे यह आंदोलन उनके अस्तित्व और पहचान से जुड़ गया। इस आंदोलन ने यह स्पष्ट किया कि पर्यावरणीय मुद्दे सामाजिक और आर्थिक न्याय से गहराई से जुड़े होते हैं। इसी प्रकार, नर्मदा बचाओ आंदोलन ने बड़े बाँधों के निर्माण से विस्थापित होने वाले लोगों के अधिकारों की रक्षा के लिए संघर्ष किया। यह आंदोलन भी आर्थिक और सामाजिक न्याय संरक्षण के साथ-साथ गंग करता था।
इन आंदोलनों ने यह दर्शाया कि पर्यावरणीय संरक्षण केवल प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा नहीं है, बल्कि यह सामाजिक न्याय, आर्थिक समानता और सांस्कृतिक पहचान की रक्षा का भी माध्यम है। इसलिए, पर्यावरणीय आंदोलनों को व्यापक दृष्टिकोण से समझना आवश्यक है, जहाँ वे पारिस्थितिकीय, आर्थिक और सामाजिक मुद्दों को एक साथ संबोधित करते हैं।
5. कृषक एवं नव किसान आंदोलनों के मध्य अंतर बताइए।
उत्तर: कृषक एवं नव किसान आंदोलनों के मध्य अंतर:
कृषक आंदोलनों | नव किसान आंदोलनों |
कृषक आंदोलन औपनिवेशिक काल में उत्पन्न हुए, जैसे 1859-62 का नील विद्रोह और 1928 का बारदोली सत्याग्रह। इन आंदोलनों का उद्देश्य जमींदारी प्रथा, लगान और शोषणकारी नीतियों के खिलाफ विरोध करना था। | नव किसान आंदोलन 1970 के दशक में पंजाब और तमिलनाडु में उभरे, जो हरित क्रांति के प्रभाव से उत्पन्न हुए। इन आंदोलनों ने बाजार से जुड़े किसानों की समस्याओं पर ध्यान केंद्रित किया। |
कृषक आंदोलन अक्सर राजनीतिक दलों या किसान सभाओं द्वारा संचालित होते थे, जैसे ऑल इंडिया किसान सभा। | नव किसान आंदोलन अधिकतर गैर-राजनीतिक और क्षेत्रीय स्तर पर संगठित थे, जैसे महाराष्ट्र की शेतकारी संगठन और उत्तर प्रदेश की भारतीय किसान यूनियन। |
कृषक आंदोलन गरीब और भूमिहीन किसानों द्वारा संचालित होते थे, जो जमींदारों और साहूकारों के शोषण के खिलाफ संघर्ष करते थे। | नव किसान आंदोलन संपन्न और मध्यम वर्ग के किसानों द्वारा संचालित होते थे, जो बाजार मूल्य, उर्वरक की कीमतों और ऋण नीतियों जैसे मुद्दों पर केंद्रित थे। |
कृषक आंदोलन भूमि सुधार, लगान माफी और सामाजिक न्याय की मांग करते थे। | नव किसान आंदोलन मूल्य समर्थन, कृषि निवेश की कीमतों में कमी, ऋण माफी और बाजार में निष्पक्षता की मांग करते थे। |
कृषक आंदोलन अहिंसात्मक सत्याग्रह, धरना और रैलियों के माध्यम से अपने उद्देश्य प्राप्त करने का प्रयास करते थे। | नव किसान आंदोलन सड़कों और रेलमार्गों को बंद करना, सरकारी अधिकारियों को गांवों में प्रवेश से रोकना जैसे उपद्रवी तरीकों का उपयोग करते थे। |

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