NCERT Class 12 Economics Chapter 3 मुद्रा और बैंकिंग

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NCERT Class 12 Economics Chapter 3 मुद्रा और बैंकिंग

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Chapter: 3

समष्टि अर्थशास्त्र एक परिचय

अभ्यास

1. वस्तु विनिमय प्रणाली क्या है? इसकी क्या कमियाँ हैं?

उत्तर: वस्तु विनिमय प्रणाली एक ऐसी प्रणाली है जिसमें वस्तुओं का आदान-प्रदान सीधे तौर पर किया जाता सकता है। अर्थात् बिना किसी मुद्रा के माध्यम से किया जाता है।

वस्तु विनिमय प्रणाली की कमियाँ निचे उल्लेख किया गया है-

(i) दोहरी आवश्यकता का अभाव: वस्तु विनिमय प्रणाली में लेन-देन तभी संभव होता है जब दो व्यक्ति एक-दूसरे की ज़रूरतों को पूरा कर सकें। जैसे, यदि एक व्यक्ति के पास कपड़ा है और वह चावल चाहता है, तो दूसरा व्यक्ति जिसके पास चावल है, उसे कपड़े की ज़रूरत भी होनी चाहिए। यदि ऐसा संयोग नहीं बनता, तो वस्तुओं का आदान-प्रदान नहीं हो सकता।

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(ii) सामान्य माप की कमी: इस प्रणाली में वस्तुओं के मूल्य की तुलना करने के लिए कोई निश्चित इकाई नहीं होती। जैसे, 1 किलो गेहूँ की कीमत कभी 1 मीटर कपड़ा, कभी 2 लीटर दूध, तो कभी किसी और वस्तु के रूप में बताई जाती है। इससे वस्तुओं का मूल्य जानना और तुलना करना बहुत कठिन हो जाता है।

(iii) सामान्य लेखा इकाई का अभाव: वस्तु विनिमय प्रणाली में भिन्न-भिन्न वस्तुओं का मूल्य जानने के लिए और तुलना करने के लिए कोई सर्वमान्य मापक नहीं है। उदाहरण के लिए यदि 1 किलो गेहूँ की कीमत कभी 1 मीटर कपड़ा, कभी 2 लीटर दूध, तो कभी किसी और वस्तु के रूप में बताई जाती है। इससे वस्तुओं का मूल्य जानना और तुलना करना बहुत कठिन हो जाता है।

2. मुद्रा के प्रमुख कार्य क्या-क्या हैं? मुद्रा किस प्रकार वस्तु विनिमय प्रणाली की कमियों को दूर करता है?

उत्तर: मुद्रा के प्रमुख कार्य चार हैं– माध्यम, मापक, मानक और भण्डार।

मुद्रा के प्रमुख कार्यों को दो भागों में बाँटा जा सकता है-

1. प्राथमिक कार्य। (विनिमय का माध्यम:,मूल्य की इकाई (लेखा की इकाई)

2. गौण कार्य। (स्थगित भुगतान का मान:,मूल्य का संचय:)

(i) विनिमय का माध्यम: यह मुद्रा का सबसे प्रमुख और महत्वपूर्ण कार्य है। इसके कारण क्रय और विक्रय की क्रिया एक-दूसरे से अलग हो गई है। वस्तु विनिमय प्रणाली में सबसे बड़ी समस्या दोहरे संयोग की होती थी, अर्थात् खरीदार और विक्रेता दोनों को एक-दूसरे की आवश्यकता वाली वस्तु चाहिए होती थी। मुद्रा इस समस्या को दूर कर देती है। अब कोई व्यक्ति वस्त्र बेचकर मुद्रा प्राप्त कर सकता है और फिर उसी मुद्रा से चावल या अन्य वस्तु खरीद सकता है। इस प्रकार मुद्रा ने दोहरे संयोग की समस्या को समाप्त कर दिया है, इसलिए इसे सामान्यीकृत क्रय शक्ति कहा जाता है।

(ii) मूल्य की इकाई: मुद्रा का ‘लेखा की इकाई’ कार्य को मूल्यमान का मापक भी कहा जाता है। मुद्रा के इस कार्य को अर्थ है कि जिस प्रकार प्रत्येक चर को मापने की एक इकाई होती है वजन को किलो में, कद को सेमी. में, दूरी को किमी. में इसी प्रकार किसी वस्तु के मूल्य को मुद्रा में मापा जाता है। अतः मुद्रा मूल्य की मापक इकाई का कार्य करती है। यदि कोई पूछे कि इस पर्स का क्या मूल्य है। तो हम यह नहीं कहेंगे कि एक पर्स बराबर 5 किलो चावल या 10 पेन बल्कि हम मौद्रिक रूप में उसका मूल्य बतायेंगे। अतः मुद्रा लेखा की इकाई कार्य करती है। वस्तु विनिमय प्रणाली में सामान्य मूल्य मापक ‘या लेखा की इकाई का अभाव या जिसे मुद्रा के इस कार्य ने दूर कर दिया।

(iii) स्थगित भुगतान का मान: स्थगित भुगतान वे होते हैं जो भविष्य में किए जाते हैं, जैसे उधार या ऋण। मुद्रा की क्रय शक्ति आमतौर पर स्थिर रहती है, जिससे भविष्य में किए जाने वाले भुगतानों के लिए यह विश्वसनीय बनती है। इसी कारण आज के समय में कई दीर्घकालीन अनुबंध संभव हो पाते हैं। यह भी मुद्रा के विनिमय माध्यम होने के गुण पर आधारित है।

(iv) मूल्य का संचय: भविष्य की आवश्यकताओं के लिए लोग मूल्य का संचय करते हैं, और यह कार्य केवल मुद्रा के माध्यम से सरलता से संभव होता है।

इसके कारण:

(i) मुद्रा की क्रय शक्ति अपेक्षाकृत स्थिर होती है।

(ii) मुद्रा को दीमक, कीड़े आदि से हानि नहीं होती।

(iii) इसे रखने के लिए अधिक स्थान की आवश्यकता नहीं होती।

(iv) मुद्रा को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाना आसान होता है।

3. संव्यवहार के लिए मुद्रा की माँग क्या है? किसी निर्धारित समयावधि में संव्यवहार मूल्य से यह किस प्रकार संबंधित है?

उत्तर: संव्यवहार के लिए मुद्रा की मांग का आशय दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए की जाने वाली मुद्रा की मांग से है जैसे मजदूर प्रतिदिन उपयोग में आने वाली वस्तुओं को खरीदने के लिए मुद्रा की मांग करता है। संव्यवहार मूल्य से आशय लेन-देन में भुगतान की गई मुद्रा से है। किसी निर्धारित समयावधि में संव्यवहार मूल्य बढ़ने पर संव्यवहार के लिए मुद्रा की मांग बढ़ जाती है।

संव्यवहार (लेन देन) के लिए मुद्रा की मांग का समीकरण-

MDT = K.T

MDT = संव्यवहार के लिए मुद्रा की मांग

K = धनात्मक अश

T = इकाई समय अवधि के लिए कुल सव्यवहार का मूल्य।

4. भारत में मुद्रा पूर्ति को वैकल्पिक परिभाषा क्या है?

उत्तर: भारत में मुद्रा की पूर्ति की भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा चार वैकल्पिक परिभाषाएँ दी गई हैं। इनके नामतः M1, M2, M3 और M4 जो इस प्रकार हैं।

निम्नलिखित तरह से परिभाषित किये जाते हैं-

M1 = CU+ DD

M2 = M1 + डाकघर बचत बैंकों में बचत जमाएँ।

M3 = M1 + व्यावसायिक बैंकों की निवल आवधिक जमाएँ।

M4 = M3 + डाकघर बचत संस्थाओं में कुल जमाएँ।

5. वैधानिक पत्र क्या है? कागजी मुद्रा क्या है?

उत्तर: वैधानिक पत्र (Legal Tender): इससे तात्पर्य उस मुद्रा से है जिसे कानून द्वारा मान्यता प्राप्त होती है और जिसे कोई भी व्यक्ति भुगतान के रूप में अस्वीकार नहीं कर सकता। उदाहरण के लिए, भारत की घरेलू सीमा के भीतर कोई भी व्यक्ति किसी प्रकार के लेन-देन के लिए भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा जारी किये गए 100 ₹ या उससे अधिक के नोटों को लेने से इंकार नहीं कर सकता।

कागजी मुद्रा (Paper Currency): इससे तात्पर्य भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा जारी किए गए करेंसी नोटों और सरकार द्वारा जारी किए गए सिक्कों से है। इसका सोने और चाँदी के सिक्कों की तरह कोई आंतरिक मूल्य नहीं होता और यह सरकार के आदेश पर प्रचलित होती है। इस मुद्रा को आदेश मुद्रा भी कहा जाता है।

6. उच्च शक्तिशाली मुद्रा क्या है?

उत्तर: उच्च शक्तिशाली मुद्रा वह है जो जनता के पास करेंसी (C) के रूप में ,बैंकों के सुरक्षित कोष (R) के रूप में तथा केंद्रीय बैंक के पास अन्य जमाओं के रूप में सुरक्षित होती है। उच्च शक्तिशाली मुद्रा केंद्रीय बैंक तथा सरकार द्वारा सृजित की जाती है जबकि जनता एवं बैंकों द्वारा धारित की जाती है।

7. व्यावसायिक बैंक के कार्यों का वर्णन कीजिए।

उत्तर: व्यावसायिक बैंक के कार्यों का वर्णन निचे दिए गए हैं-

(i) जमा स्वीकार करना‌: बचत खाता: बचत को प्रोत्साहित करता है और नाममात्र का ब्याज देता है।

चालू खाता: व्यापारी और व्यवसायों के लिए, जिसमें लगातार लेन-देन होते हैं। इस खाते पर कोई ब्याज नहीं दिया जाता।

(ii) ऋण और अग्रिम देना: बैंक का एक महत्वपूर्ण कार्य है ग्राहकों को ऋण देना। बैंक आम जनता से जो धनराशि जमा करता है, उसका एक भाग सुरक्षा के रूप में रखता है और शेष धनराशि व्यापारियों, उद्यमियों तथा अन्य जरूरतमंदों को उत्पादक कार्यों के लिए उधार देता है। इस उधार पर ब्याज प्राप्त कर बैंक अपनी आय अर्जित करता है। वास्तव में, यही बैंक की आय का प्रमुख स्रोत होता है।

(i) नकद साख।

(ii) मांग उधार।

(iii) अल्पावधि ऋण।

(iv) ओवर ड्राफ्ट।

(v) विनिमय बिलों पर कटौती।

8. मुद्रा गुणक क्या है? गुणक का मूल्य क्या निर्धारित करता है?

उत्तर: जब लोग बैंक में पैसा जमा करते हैं, तो बैंक उसका कुछ हिस्सा अपने पास आरक्षित रखता है और बाकी पैसा उधार देता है। यही उधार फिर से किसी और के खाते में जमा होता है और वही प्रक्रिया दोहराई जाती है। इस तरह एक छोटी सी मूल राशि से बहुत बड़ी राशि की मुद्रा बन जाती है। ईसि को मुद्रा कि गुणक कहते हैं।

गुणक का मूल्य निधर्धारित निचे उल्लेख किया गया है:

करेंसी जमा अनुपात (cdr) -के बराबर है – CU/DD 

CU = लोगों के पास रखी हुई करेंसी DD = व्यावसायिक बैंक की कोष्ठ नकदी

रिजर्व बैंक अनुपात – इसका सूत्र इस प्रकार है

रिजर्व बैंक अनुपात = व्यावसायिक बैंक का रिर्जव व्यावसायिक बैंक की कुल जमा

9. भारतीय रिज़र्व बैंक की मौद्रिक नीति के कौन-कौन से उपकरण है?

उत्तर: भारतीय रिज़र्व बैंक की मौद्रिक नीति के उपकरण निचे उल्लेख किया गया है-

(i) रिज़र्व आवश्यकताः देश का केंद्रीय बैंक यह सुनिश्चित करता है कि सभी वाणिज्यिक बैंक अपनी कुल नकदी का एक निश्चित हिस्सा उसके पास जमा करें। इस जमा राशि का उपयोग बैंक किसी भी आर्थिक या व्यावसायिक कार्य के लिए नहीं कर सकते। इस प्रकार, देश के अन्य सभी बैंकों को अपनी देनदारियों का एक हिस्सा केंद्रीय बैंक के पास नकदी या जमा के रूप में रखना होगा। ऐसा वाणिज्यिक बैंक द्वारा घरेलू अर्थव्यवस्था को दिए जाने वाले ऋण की मात्रा को सीमित करने के लिए किया जाता है, और बदले में, मुद्रा की आपूर्ति को सीमित करता है। इसके पीछे विचार यह है कि वाणिज्यिक बैंक रिज़र्व बैंक को दिए गए धन और जनता को दिए जाने वाले धन के बीच एक स्थिर संबंध बनाए रखते हैं।

(ii) संशोधित छोटा रूप: खुले बाजार के संचालन का अर्थ है केंद्रीय बैंक द्वारा बाजार में सरकारी प्रतिभूतियाँ खरीदना या बेचना। जब बैंक प्रतिभूतियाँ बेचता है, तो बाज़ार में पैसे की आपूर्ति घटती है, और जब वह खरीदता है, तो आपूर्ति बढ़ती है। इस प्रक्रिया से वह धन की आपूर्ति को नियंत्रित करता है।

(iii) ब्याज दर: जब रिज़र्व बैंक अन्य बैंकों को ऋण देता है, तो वह यह सुनिश्चित करता है कि वे बैंक वित्तीय रूप से सक्षम हों। इसके बाद, वह उन्हें एक विशेष दर पर पैसा उधार देता है, जिसे न्यूनतम छूट दर कहा जाता है। इस दर को MMR (न्यूनतम छूट दर) कहा जाता है। यह MMR मुद्रा बाज़ार में दर व्यवस्था के लिए मानक तय करता है। यह दर निवेश, बचत और ऋण की आपूर्ति को प्रभावित करने वाला कारक है।

(iv) चयनात्मक ऋण नियंत्रणः जब विशिष्ट प्रकार के ऋण को प्रभावित करने की आवश्यकता होती है, तो यह नीति काम में आती है। मार्जिन आवश्यकताओं में परिवर्तन इस प्रकार की नीति के उदाहरण हैं।

10. क्या आप ऐसा मानते हैं कि अर्थव्यवस्था में व्यावसायिक बैंक ही ‘मुद्रा का निर्माण करते हैं?’

उत्तर: हां, वाणिज्यिक बैंक अर्थव्यवस्था में मुद्रा की आपूर्ति का एक महत्वपूर्ण स्रोत होते हैं। वे अपने द्वारा दिए गए ऋणों के माध्यम से साख (क्रेडिट) का सृजन करते हैं, जो माँग जमाओं के रूप में प्रकट होता है। वाणिज्यिक बैंकों की माँग जमाएँ अक्सर उनके पास उपलब्ध नकद कोषों की तुलना में कई गुना अधिक होती हैं।

यदि यह मान लें कि उनके नकद कोषों की राशि के 1000 है तथा माँग जमाएँ ₹ 10,000 है, तो अर्थव्यवस्था में मुद्रा की पूर्ति वाणिज्यिक बैंकों के नकद कोषों से दस गुणा अधिक हो जाएगी। इसी प्रकार नकद कोषों के ₹ 1,000 के आधार पर वाणिज्यिक बैंकों ने मुद्रा की पूर्ति में ₹ 10,000 का योगदान दिया।

11. भारतीय रिज़र्व बैंक की किस भूमिका को अंतिम ऋणदाता कहा जाता है?

उत्तर: रिज़र्व बैंक एक मात्र संस्था है जो करेंसी निगर्मित कर सकती है। जब अधिक साख सूजन के लिए व्यावसायिक बैंकों को अधिक कोषों की आवश्यकता होती है, वे इन कोषों को प्राप्त करने के लिए बाज़ार में जा सकते हैं अथवा केंद्रीय बैंक के पास। केंद्रीय बैंक विभिन्न उपकरणों के द्वारा उनको कोष प्रदान करती है। रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया की यह भूमिका, हर समय बैंकों को कोष प्रदान करने के लिये तैयार रहना, केंद्रीय बैंक का एक और महत्वपूर्ण कार्य है। इसी कारण केंद्रीय बैंक को अंतिम शरण ऋणदाता कहते हैं।

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