परोपकार – रचना | Paropakaar Rachana

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परोपकार

उपकार का अर्थ है भलाई। अपना उपकार तो हम सभी करते हैं। परन्तु दूसरों का उपकार बिरले ही करते हैं। सच्चा आनन्द अपने उपकार से नहीं दूसरों के उपकार से मिलता है। इसीलिए महान विचारकों और लेखकों ने परोपकार को सबसे बड़ा धर्म बताया है और परोपकारी के गुण गाए हैं। तुलसीदास के शब्दों में –

परहित सरिस धर्म नहिं भाई। 

परपीड़ा सम नहिं अधमाई॥

यदि आँख खोलकर चारों ओर दृष्टि डाले तो हमें अनेक परोपकारी मिलेंगे जो युगों से निरन्तर परोपकार कर रहे हैं, पर परोपकार का ढोल नहीं पीटते। सूर्य हमें प्रकाश और उष्णता ही नहीं जीवन भी देता है। नदियाँ दूसरों के लिए बहती है। पेड़ को कभी अपना पेट भरते नहीं देखा, पर वह हमारा पेट भरता है। वायु दूसरों के लिए बहती है। इसी प्रकार मेघ दूसरों के लिए बरसते हैं। सच तो यह है कि सारी प्रकृति ही हमें परोपकार का पाठ पढ़ाती है। उसे अनदेखा कर जो लोग उसे अपना हित साधन करते हैं, दूसरों की चिन्ता नहीं करते, उन्हें क्या कहा जाए।

परोपकारी का गुण चाहे जितना आकर्षक हो, परोपकारी बनना उतना सरल नहीं है। परोपकारी के हृदय में प्रेम का स्रोत अवश्य होना चाहिए। जिसके पास पूँजी नहीं होगी वह क्या विनिमय करेगा। परोपकार में धन-सम्पत्ति की पूंजी नहीं चाहिए बल्कि सहानुभूति, करुणा, प्रेम, संवेदना की पूँजी चाहिए। अतः परोपकार के लिए मन में उपकार भावना की निधि होना पहली शर्त है।

यह आवश्यक नहीं कि उपकार धन से ही होता है। निर्धन भी परोपकारी हो सकते हैं। किसी अंधे को राह दिखाने में, रोगी को मदद देने में दुखी को सान्त्वना देने में, निराश को आशा बांधने में कानी कौड़ी नहीं लगती। इसके अलावा हम रक्त देकर लोगों को जान बचा सकते हैं और तो और मरने के बाद भी हम अपनी आँख, हृदय, गुर्दे आदि अंग दूसरों को छेने की व्यवस्था जीते जी कर सकते हैं।

हमारा देश परोपकारियों का देश रहा है। भूखे रन्तिदेव ने अपनी और परिवार की चिन्ता न कर भोजन दूसरों को दे दिया था। शिवि ने कबूतर की रक्षा के लिए अपना मांस काटकर दिया था। महर्षि दधीचि ने अपना अस्थिपंजर ही दे डाला। पन्ना धाय ने अपने बेटे तक को दे दिया। असंख्य वीर अपने कुल, राज्य या देश के लिए न्यौछावर हो गए।

परोपकार करने से सच्चे आनन्द की प्राप्ति होती है। नानक ने खरा सौदा परोपकार से ही किया था। ईसा मसीह ने पत्थरों की चोटे सही, अपशब्द सहे, अपना सलीब खुद ढोकर उसी पर शहीद हो गए, पर परोपकार का मार्ग नहीं छोड़ा। अपने विरोधियों के लिए भी ईश्वर से क्षमा माँगना परोपकार की सीमा है। राजकुमार सिद्धार्थ परोपकार की भावना से ही गौतम बुद्ध बने तथा दान और करूणा का आलोक बिखेरते रहे।

आज कुछ लोगों के लिए परोपकार एक व्यवसाय भी हो गया है। वे अपने आपको जनसेवक और समाज सेवक कहते हैं। जनता के बीच सेवा का ढोंग करते हैं। उपकार के नाम पर फूट, घृणा, द्वेष, जातिवाद, धार्मिक संकीर्णता फैलाते हैं। उनकी नजर छोटे-मोटे पदों, चुनावों पर होती है। परोपकार के खेल में वे विशुद्ध स्वार्थी होते हैं। ऐसे नकली परोपकारियों से बचना और उनके चंगुल से भोल-भाले देशवासियों को बचाना भी परोपकार की ही श्रेणी में आएगा।

परोपकार से ही जीवन की सार्थकता है। परोपकार-भावना ही पुण्य है। महर्षि वेद व्यास के ग्रंथों का भी यही सार है-

अष्टादशा पुराणेषणु व्यासस्य वचनद्वयम्। 

परोपकारः पुण्याय, पाषाय परपीडनम्॥

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