Class 10 Hindi Ambar Bhag 2 Chapter 19 वैचित्र्यमय असम

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Class 10 Hindi Ambar Bhag 2 Chapter 19 वैचित्र्यमय असम

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तिवा

पाठ – 19

सारांश:

असम की जनगोष्ठियों में तिवा अन्यतम है। तिवा लोग प्राचीन काल से ही असम में निवास करते आ रहे हैं। ये लोग इंडो-चीन के अंतर्गत तिब्बती-बर्मी भाषा- परिवार के तहत बृहत् बोड़ो गुट से संबंधित हैं। तिवा समुदाय के लोग असम के कई जिलों में बसे हुए हैं। मुख्य रूप से नगांव, मोरिगांव, कामरूप, कार्बी आंगलंग, जोरहाट, धेमाजी, लखीमपुर, सदिया जिलों के अतिरिक्त मेघालय राज्य के कुछ इलाकों में तिवा समुदाय के लोग रह रहे हैं। तिवा लोग पहाड़ी और मैदानी दोनों क्षेत्रों में रहते हैं। असम के इतिहास में तिवा लोगों का अहम स्थान है। तिवा वीर ‘ जोंगाल बलहू’ एक महान राजा थे। मध्य युग में कपिली नदी के किनारे तिवा लोगों के नेतृत्व में गोभा, नेली, खला, सहरी आदि छोटे-छोटे राज्यों की स्थापना हुई थी। भारत की आजादी की लड़ाई में भी तिवा लोगों का अहम योगदान रहा है। असम के पहले कृषक विद्रोह ‘फूलगुड़ी धेवां’ का आरंभ और नेतृत्व तिवा लोगों ने किया था। सन् 1942 के जन आंदोलन में हेमराम पातर शहीद हुए थे।

तिवा लोग मूलत: जड़वादी या जड़ोपासक और पुरखों की उपासना करते हैं। प्रकृति के विभिन्न उपादानों की पूजा करने के साथ ही उत्सव पर्व में वे लोग अपने पुरखों को देवता मानते हैं। बाद में तिवा लोग हिंदू धर्म के विभिन्न मतों, जैसे- शाक्तवाद, वैष्णववाद, शैववाद, नववैष्णववाद आदि से भी जुड़ते गए हैं। तिवा लोग सांस्कृतिक रूप से काफी समृद्ध है। प्रेम और भाईचारे के प्रतीक के तौर पर वे लोग ‘जोनबिल’ मेले का आयोजन करते हैं, जो प्राचीन अर्थव्यवस्था (विनिमय प्रथा) का जीवंत उदाहरण होता है। तिवा लोग मांसाहारी होते हैं और बहुधा बहुरंगी कपड़े पहनते हैं। पहाड़ी और मैदानी इलाके में रहने वाली तिवा जनगोष्ठी उत्सवप्रिय होती है। अपने पारंपरिक उत्सवों के साथ-साथ तिवा लोग बिहू भी मनाते हैं। तिवा जनगोष्ठी के विशिष्ट व्यक्ति अनेक हैं, जिनमें इंद्रसिंग देउरी, बलाईराम सेनापति का नाम श्रद्धापूर्वक लिया जाता है।

पाठ्यपुस्तक संबंधित प्रश्न एवं उत्तर:

1. भाषाई तौर पर तिवा लोग किस समुदाय से संबंधित हैं? 

उत्तर: भाषाई तौर पर तिवा लोग इंडो-चीन के अंतर्गत तिब्बती-बर्मी भाषा परिवार के बोड़ो समुदाय से संबंधित हैं।

2. तिवा लोगों के उत्सव पर्व में इस्तेमाल किए गए विभिन्न वाद्य यंत्र क्या-क्या हैं?

उत्तर: तिवा लोगों के उत्सव पर्व में इस्तेमाल किए गए विभिन्न वाद्य यंत्रों के नाम इस प्रकार हैं खाम (ढोल) बार, खाम खुजूरा, खाम पानथाई, दुमडिंग, दगर, पाती ढोल आदि चमड़े के वाद्य, वाफ़ांग खाम, थकथररक, पांसी (वंशी), थोरांग, भैंस के सींग के पेंपा, मुहूरी, खाथांग (ताल) आदि ।

3. तिवा समाज में ‘जेला’ किसे कहते हैं? 

उत्तरः मूल रूप से मातृसूत्रीय अवस्था से उत्पन्न तिवा समाज की बुनावट परिवार से शुरू होती है। दो से अधिक लोग मिलकर एक ‘माहारी’, कई ‘माहारी’ मिलकर एक कुल या ‘खूटा’ और कई कुल मिलकर एक ‘खेल’ तथा कई ‘खेल’ मिलकर एक गाँव बनाते हैं। अतः इस प्रकार कई कुल से मिलकर बने एक ‘खेल’ के प्रशासनिक और सामाजिक मुखिया को मैदानी इलाके में ‘जेला ‘ कहा जाता है।

4. तिवा लोगों के कुछ उत्सवों के नाम लिखिए। 

उत्तरः तिवा लोगों के कुछ उत्सवों के नाम इस प्रकार हैं-वानसुवा, सग्रा, थांगली, मुईनारी कांठी, लांखान, जोनबिल मेला, बरत गोसाईं उलिओवा मेला, बोहाग बिहू आदि।

5. फूलगुड़ी का धेवां क्या है? 

उत्तर: असम के प्रथम कृषक विद्रोह का नाम ‘फूलगुड़ी का धेवां’ है, जिसे जन्म तिवा लोगों ने दिया तथा उसका नेतृत्व भी तिवा लोगों ने ही किया।

6. संक्षेप में लिखिए:

(क) इंद्रसिंग देउरी।

उत्तर: तिवा जनजाति के बीच जातीय चेतना जाग्रत करने वाले इंद्रसिंग देउरी का जन्म सन् 1932 में पश्चिम कार्बी आंग्लांग जिले के अन्तर्गत रंगखैपार गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम ‘मालसिंग पोमा’ और माता का नाम ‘मामा आम्सी’ था। सन् 1939 में देउरी ने कार्बी आंग्लांग जिले के बाउलागोग नामक प्राथमिक विद्यालय से शिक्षा प्रारम्भ किया तथा नगाँव जिले के डिमौ नामक हाईस्कूल से आठवीं कक्षा तक की शिक्षा प्राप्त करने के बाद आर्थिक तंगी के कारण पढ़ाई छोड़ दी। पढ़ाई छोड़ने के पश्चात देउरी सन् 1949 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गये। पार्टी में रहते हुए उन्होंने सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े हुए तिवा लोगों के उत्थान हेतु निरंतर प्रयास किया। सन् 1960 में उन्होंने थाराखुंजी नामक गाँव मासलाई, रबटसिंग आम्सी और पद्मकांत कोकती के सहयोग से ‘तिवासा मिशन’ नामक सामाजिक संगठन की स्थापना की तथा उसका उद्देश्य था कार्बी आंग्लांग जिले के तिवा लोगों के बीच व्याप्त अंधविश्वासों को समाप्त कर उनके हृदय को शिक्षा के माध्यम से जागृत कर उन्हें आधुनिक समाज की मुख्य धारा से जोड़ना। इसके अतिरिक्त सन् 1967 में तिवा जाति के उत्थान के लिए काम करने वाले एक अन्यतम संगठन ‘लालुंग दरबार’ का जन्म इंद्रसिंह देउरी के नेतृत्व में हुआ। उन्हें 1976 में कार्बी आंग्लांग स्वशासी परिषद का आम सदस्य मनोनीत किया गया तथा बाद में उनको परिषद का उपाध्यक्ष बनाया गया। उन्होंने कविता, गीत आदि की रचना कर तिवा साहित्य को भी समृद्ध किया। इस प्रकार वे लगातार संगठक, समाज सुधारक, लेखक, गीतकार, संगीतकार आदि के रूप में कार्य करते हुए समाज को एक नई ऊँचाई तक पहुँचाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया।

(ख) बलाईराम सेनापति।

उत्तर: असम साहित्य-संस्कृति जगत के प्रतिष्ठित लेखक एवं संस्कृति के साधक बलाईराम सेनापति का जन्म 3 मार्च, 1931 को नगाँव जिले के ऐतिहासिक बारपूजिया गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम बगाराम सेनापति और माता का नाम पद्मेश्वरी बरदलै था। इन्होंने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा एलपी और एमवी स्कूल से तथा नगाँव सरकारी हाईस्कूल से माध्यमिक शिक्षा प्राप्त की। लेकिन उन्हें आर्थिक तंगी के कारण अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ी। इसके पश्चात् उन्होंने 1953 से 1963 तक संयुक्त उत्तर कछार एवं मीकिर पहाड़ जिले के बरथल मध्य अंग्रेजी विद्यालय में अध्यापन का कार्य भी किया। बचपन से ही सेनापति के हृदय में साहित्य-संस्कृति के प्रति गहरा लगाव था। उन्होंने तिवा समाज के संगीत, नृत्य और वाह्य के संरक्षण हेतु महत्वपूर्ण कदम उठाये तथा तिवा लोकगीत की स्वरलिपि तैयार की। दूसरी ‘ओर ‘तिवा कृष्टि संस्था’ की स्थापन में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने तिवा के साथ-साथ असमीया भाषा में भी लेखन कार्य कर उसके विकास में योगदान दिया। उनके द्वारा विरचित ‘मुकुल’ नामक गीतों का संकलन 1954 में प्रकाशित हुआ तथा तिवा लोगों की ‘रतिसेवा’ विषयक रामधेनु में लिखित उनके लेख की प्रशंसा विद्वानों ने भी की। उन्हें वर्ष 2000 में तिवा साहित्य सभा का अध्यक्ष चुना गया। उन्होंने विभिन्न प्रकार की कृतियों की रचना की जिसमें ‘अतीतर संधानत’ (1997), ‘तिवा समाज आरु संस्कृति’ (2010) आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय है।

उनके कार्यों के लिए उन्हें अनेक प्रकार के सम्मान व पुरस्कार भी प्राप्त हुए, वे इस प्रकार है- सन् 2011 में नगाँव जिला साहित्य सभा ने डॉ. सूर्यकुमार भुइयां पुरस्कार और 2011 में ही असम की लोक संस्कृति के साधक के रूप में बकुल वन न्यास ने ‘बकुल वन पुरस्कार’ प्रदान किया।

बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्तित्व वाले सूर्य बलाईराम सेनापति का निधन 11 मई, 2014 को हुआ।

अतिरिक्त प्रश्न एवं उत्तर

1. तिवा जनगोष्ठी का वर्गीकरण कीजिए। 

उत्तर: तिवा लोगों का वर्गीकरण ‘दाँतीअलिया’, ‘पहाड़िया’ और ‘थलोवाली’ के नाम से किया गया है, परंतु वर्तमान में उन्हें पहाड़ी और मैदानी श्रेणी में विभक्त किया गया है।

2. तिवा लोगों का पहनावा कैसा है?

उत्तर: तिवा लोग बहुरंगी वस्त्र पहनते हैं। पुरुषों के पहनावे हैं-थाना, ताग्ला, ठेनास, फालि, फागा आदि और महिलाओं के पहनावे हैं- कासांग, फासकाई, नारा आदि।

3. तिवा लोगों का प्रिय खाद्य क्या है? 

उत्तर: तिवा लोग मांसाहारी होते हैं। वे मुर्गी तथा सूअर का मांस खाते हैं और पारंपरिक रूप से बनाया गया मदिरा (ज्यू) पीते हैं।

देउरी

सारांश:

असम में निवास करनेवाली विभिन्न जनगोष्ठियों में देउरी समुदाय का स्थान उल्लेखनीय रहा है। मूलत: ये मंगोल जाति से संबंधित हैं, जिनका इतिहास में गहरा प्रभाव रहा है। देउरी समाज के लोग पूर्वी एशिया तथा उत्तर-पूर्व दिशा से असम मे प्रव्रजित होकर ब्रह्मपुत्र के ऊपरी हिस्से में वतर्मान के अरुणाचल प्रदेश के लोहित जिले के अंतर्गत जैदाम पहाड़ के आस-पास बस गए। देउरी लोग वर्षों से सदिया अंचल में ही निवास करते आ रहे थे, लेकिन बाद में संभवतः प्राकृतिक आपदा, सामुदायिक संघर्ष अथवा उर्वर भूमि की खोज में इस स्थान को छोड़कर लुईत (ब्रह्मपुत्र) को पारकर सबसे पहले शिवसागर, माजुली और लखीमपुर जिलों के डिक्रांग नदी के किनारे बसने लगे और वहीं से बाद में विभिन्न स्थानों में फैलते गए। देउरी लोग वर्तमान में ऊपरी असम के आठ जिलों- तिनसुकिया, डिब्रूगढ़, शिवसागर, जोरहाट, माजुली, धेमाजी, लखीमपुर और विश्वनाथ में बसे हुए हैं। भारतीय संविधान में इन्हें अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिया गया है। देउरी लोग सामाजिक रूप से चार वर्गों में विभक्त हैं-डिबडीय (डिबांग नदी के किनारे निवास करने वाले), टेंगापनीय (टेंगापानी नदी के किनारे निवास करनेवाले), बरगञाँ (बरनदी के किनारे निवास करनेवाले) और पाटरगञ (पात-सदिया में रहनेवाले)।

देउरी भाषा मूलतः चीनी-तिब्बती भाषागोष्ठी के तिब्बत-बर्मी भाषा-परिवार की बोड़ो शाखा के अंतर्गत आती है। देउरी भाषा की अपनी खास विशेषताएँ हैं। असम सरकार ने 28 जनवरी, 2005 को देउरी भाषा को सरकारी भाषा के रूप में मान्यता दी है। देउरी समाज के लोग धर्म पर पूर्ण आस्था व विश्वास रखते हैं। पारंपरिक रूप से वे ‘कुंदि’ धर्म को मानते हैं। ‘कुंदिमामा’ उनके उपास्य देवता हैं। ये लोग साधारणतः कृषिजीवी होते हैं। लकड़ी, बाँस, बेंत और खेर से चांगघर बनाकर रहा करते हैं। देउरी लोग अपनी पारंपरिक उत्सवों को मनाने के साथ-साथ असम के तीन प्रधान जातीय उत्सव रंगाली बिहू, भोगाली बिहू और कंगाली बिहू को भी मनाते हैं। इस समुदाय के अनेक विशिष्ट व्यक्ति हैं जो असम की उन्नति और समरसता में अपनी अमूल्य योगदान दिया है, उनमें जननेता भीरबर देउरी, विद्वान राधाकांत देउरी, समाजसेवी व राजनीतिज्ञ बर्गराम देउरी साहित्यकार श्रीचन्द्र सिंह देउरी प्रमुख हैं।

पाठ्यपुस्तक संबंधित प्रश्न एवं उत्तर

1. देउरी लोगों का आदिम निवास स्थान कहाँ था?

उत्तरः देउरी लोगों का आदिम निवास स्थान सदिया अंचल था।

2. सामाजिक दृष्टि से देउरी लोग कितनी और किन-किन शाखाओं में विभक्त हैं? उल्लेख कीजिए। 

उत्तरः सामाजिक दृष्टि से देउरी लोग चार शाखाओं में विभक्त हैं-डिबंगीया, टेंगापनीया, बरगज और पाटरगज।

3. सदिया से प्रव्रजन कर देउरी लोग सर्वप्रथम असम के किन जिलों में आकर बसे? वर्तमान में वे असम के कितने जिलों में बसे हुए हैं? 

उत्तरः संदिया से प्रव्रजन कर देउरी लोग सर्वप्रथम असम के शिवसागर जिले के माजुली और लखीमपुर जिले के डिक्रांग नदी के किनारे आकर बसे। वर्तमान में वे असम के तिनसुकिया, डिब्रुगढ़, शिवसागर, जोरहाट, माजुली, धेमाजी, लखीमपुर और विश्वनाथ नामक आठ जिलों में बसे हुए हैं।

4. देउरी स्वयं का किस रूप में परिचय देते हैं? 

उत्तरः देउरी स्वयं का परिचय जिमोचणायो के रूप में देते हैं।

5. देउरी भाषा तिब्बत-बर्मी भाषागोष्ठी के किस भाषा परिवार के अन्तर्गत है? किस वर्ष में देउरी भाषा को असम सरकार ने सरकारी मान्यता प्रदान की?

उत्तरः देउरी भाषा तिब्बत-बर्मी भाषागोष्ठी के बोड़ो भाषा परिवार के अन्तर्गत है। 28 जनवरी, 2005 को देउरी भाषा को असम सरकार ने सरकारी मान्यता प्रदान की। 

6. देउरी लोगों के चार जातीय उत्सवों के नामों का उल्लेख कीजिए।

उत्तरः देउरी लोगों के चार जातीय उत्सवों के नाम इस प्रकार हैं- कृषि आधारित उत्सव बिबा बचु, गिबा मेच्चु (वसंत स्वागत का उत्सव), बिहू उत्सव- चिगादागारेबा बिचु, बिचु दाबेबा मेच्चु आदि।

7. देउरी किस धर्म में आस्था रखते हैं? 

उत्तरः देउरी लोग ‘कुन्दि’ धर्म में आस्था रखते हैं। 

संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए:

(क) भीमबर देउरी।

उत्तरः जननेता व जनप्रतिनिधि के रूप में प्रख्यात भीमबर देउरी का जन्म 16 मई, 1903 को हुआ। इनके पिता का नाम गदरामं देउरी तथा माता का नाम बाजती देउरी था। सन् 1908 में 57 नंबर बरगाँव प्राथमिक विद्यालय से शिक्षा प्रारंभ की तथा सन् 1913 में प्राथमिक विद्यालय की अंतिम परीक्षा पूरे शिवसागर महकमा में प्रथम स्थान से उत्तीर्ण की। इसी प्रकार सन् 1918 में सरकारी एम.वी. स्कूल से एम.वी. उत्तीर्ण किया तथा सन् 1925 में शिवसागर सरकारी हाईस्कूल से हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण कर सन् 1925 में कॉटन कॉलेज में दाखिला लिया। इस प्रकार उन्होंने सन् 1929 में द्वितीय श्रेणी में बी. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण कर सन् 1931 में कोलकाता से कानून की परीक्षा उत्तीर्ण कर बी. एल. की डिग्री ली तथा साथ ही साथ प्रेसिडेंसी कॉलेज से स्नातकोत्तर की पढ़ाई भी की।

वे जीवनभर सभी जनजातियों की राजनौतिक और सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए कार्य करते रहे। जिसके तहत उन्हें असम के प्रथम मुख्यमंत्री गोपीनाथ बरदलै ने ‘जननेता’ की संज्ञा से विभूषित किया। सन् 1932 में डिब्रुगढ़ की अदालत में वकालत आरम्भ की तथा 1933 में भीमबर देउरी ने देउरी, सोनोवाल कछारी, मटक, मिसिंग, बोड़ो, तिवा, राभा आदि पिछड़े जन समुदाय को एकजुट करने के उद्देश्य से 17/04/1933 को नगाँव के रोहा में असम के जनसमुदायों का प्रथम अधिवेशन आयोजित कर ट्राइबल लीग का गठन किया। इसी अधिवेशन में उन्हें सर्वसम्मति से ट्राइबल लीग का महासचिव निर्वाचित किया गया। सन् 1945 के नवंबर महीने में शिलांग में जन समुदायों के प्रतिनिधियों के अधिवेशन में ‘असम ट्राइब्स एंड रेसेस फेडरेशन’ का जन्म हुआ तथा इसके कर्ता-धर्ता भीमबर देउरी थे। इस प्रकार वे 1933 से 1946 तक निरंतर सिर्फ जनसमुदाय ही नहीं, अपितु असम और असम की जनता के विकास के लिए कार्य करते रहे।

अन्ततः 44 वर्ष की उम्र में 30 नवंबर, 1947 को भीमबर देउरी का देहावसान हो गया।

(ख) राधाकांत देउरी।

उत्तरः बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न राधाकांत देउरी का जन्म 1 जून, 1931 को लखीमपुर जिले के बाँहगड़ा देउरी गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम आदिचन देउरी और माता का नाम ताइबा देउरी था। राधाकांत देउरी ने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा 1942 में प्रारम्भ की तथा 1958 में जोरहाट के जे. बी. कॉलेज से बी.ए. की परीक्षा में उत्तीर्ण हुए। सन् 1985 में उन्होंने सदिया के चपाखोवा सरकारी उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में सहायक शिक्षक के रूप में अध्यापन कार्य शुरू किया।

राधाकांत देउरी ने देउरी और असमीया भाषा-साहित्य के विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। वे देउरी भाषा-संस्कृति के शोधकर्ता व विद्वान थे। उनके द्वारा विरचित अनमोल ग्रंथों के नाम इस प्रकार है- ‘देउरी सच्चुर्विव’ (देउरी शब्दकोश), ‘च्चिबाँ जिमचाँया च्चुबिंब’ (दो आधुनिक शब्दकोश), इसमें से दूसरा त्रि-भाषिक (देउरी, असमीया, अंग्रेजी) है। इस प्रकार उन्होंने असम के विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया।

(ग) बर्गराम देउरी।

उत्तर: बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न समाजसेवक और राजनीतिज्ञ बर्गराम देउरी का जन्म 1 अगस्त, 1938 को लखीमपुर जिले के बिहपुरिया मौजा के अन्तर्गत बाँहगड़ा देउरी गाँव में हुआ। उन्होंने सन् 1944 में प्रारम्भिक शिक्षा प्रारम्भ की तथा 1959 में लखीमपुर उच्च माध्यमिक विद्यालय से मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण को। मैट्रिक के बाद बर्गराम देउरी ने जे. बी. कॉलेज से बीएससी की डिग्री ली और गौहाटी विश्वविद्यालय से वनस्पति विज्ञान की पढ़ाई के साथ-साथ गौहाटी विश्वविद्यालय के कानून महाविद्यालय में भी अध्ययन किया। इसके पश्चात् पंजाब विश्वविद्यालय से स्वर्ण पदक के साथ होमियोपैथी की डिग्री ली।

शिक्षा पूरी होने के पश्चात् बर्गराम देउरी समाज सेवा के कार्य से जुड़े। सन् 1971 में अविभाजित लखीमपुर जिले के धेमाजी सिरिपानी देउरी गाँव में देउरी सम्मेलन की सभा का आयोजन हुआ, जहाँ बर्गराम देउरी को उस सभा का अगला अध्यक्ष चुना गया। 1978 में बंगालमरा गांव पंचायत से काउंसिलर चुने गए। सन् 1983 में वे बिहपुरिया विधानसभा क्षेत्र से असम विधानसभा में विधायक चुने गए और असम सरकार के मैदानी जनजाति व अन्य पिछड़ा वर्ग कल्याण विभाग के साथ ही रेशम एवं हस्तकरघा व बुनाई विभाग के कैबिनेट मंत्री के रूप में कार्य निर्वाह किया। मंत्री रहते हुए बर्गराम देउरी ने असम के जनजातियों की जनजाति विश्राम छावनी और आकाशी होस्टल आदि का निर्माण करवाया। अंततः इस प्रकार कार्य करते हुए सन् 2004 में हृदय रोग से ग्रस्त वर्गराम देउरी की गुवाहाटी में मृत्यु हो गई।

(घ) श्रीचन्द्र सिंह देउरी।

उत्तरः समाजसेवी श्रीचन्द्र सिंह देउरी का जन्म 28 अप्रैल, 1927 में ऊपर देउरी गाँव, जोरहाट में हुआ था। इनके पिता का नाम गोपाल देउरी तथा माता का नाम आतवा देउरी था। उन्होंने एल. पी. स्कूल से प्राथमिक शिक्षा प्रारम्भ कर 1949 में जोरहाट पॉलिटेक्निक हाईस्कूल से परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके बाद उन्होंने 1962 में कला संकाय में शिलांग कॉलेज में दाखिला लिया और आई.ए. की पढ़ाई पूरी की।

सन् 1955 के एक अक्टूबर को भारत सरकार के अधीन अनुसूचित जाति एवं जनजाति विभाग में तृतीय वर्ग के कर्मचारी नियुक्त हुए तथा 31 मार्च, 1988 में अवकाश ग्रहण किया। सन् 1959 को दिल्ली में गणतंत्र दिवस पर उनके नेतृत्व में देउरी लोक-गीत और लोक नृत्य प्रस्तुत किया गया। उन्होंने कई प्रकार की पुस्तकों की रचना कर देउरी समाज को समृद्ध किया। उनके द्वारा रचित पुस्तकों के नाम इस प्रकार हैं- ‘आराओ’ (1903), अर्चिय इवाँ (2014), आमिरिया इवाँ (2013), बिचु (2015), हिचरि (2016) आदि।

अतिरिक्त प्रश्न एवं उत्तर:

1. देउरी समाज में ‘कुंदिमामा’ का क्या महत्व है?

उत्तर: देउरी समाज ‘कुंदिमामा’ को अपना उपास्य देवता मानता है। ‘कुंदि’ का अर्थ है-परम पुरुष परमेश्वर तथा ‘मामा’ का अर्थ है-प्रकृति देउरी लोगों का विश्वास है कि ‘कुंदिमामा’ विश्व ब्रह्मांड के सृष्टिकर्ता और पालनहार हैं।

2. देउरी लोगों की जीविका क्या हैं? 

उत्तर: देउरी लोग सामान्यतः कृषिजीवी हैं। उनकी जीविका अधिकतर खेती पर ही निर्भर है। धान, दलहन, सरसों, पटसन और विभिन्न साग-सब्जी उनकी प्रमुख खेती है। वे प्रायः नदी तटीय क्षेत्र में रहना पसंद करते हैं।

3. देउरी लोग कौन-कौन से उत्सव मनाते हैं?

उत्तर: देउरी लोग असम के जातीय उत्सव बिहू मनाते हैं। इसके अतिरिक्त वे अपने पारंपरिक उत्सव जैसे-बिबा बचु गिबा मेच्चु, मिदि देरुवा मेच्चु, चिगादागारेबा बिचु विचु दाबेबा मेच्चु तथा सावन पूजा आदि।

नेपालीभाषा गोर्खा

सारांश:

नेपालीभाषी आर्य-मंगोल किरात का मिश्रित जन समुदाय है। भारत के नेपालीभाषी लोगों को ‘गोर्खा’ के नाम से भी जाना जाता है। विद्वानों का मानना है कि ‘खस’ जाति से नेपालियों की उत्पति हुई है। नेपालीभाषी व गोर्खा लोग असम के प्राचीन निवसी हैं। सन् 2011 की जनगणना के अनुसार असम में नेपालीभाषी लोगों की संख्या 5,96,210 है। इसके अलावा तामांग लोगों की संख्या 2063, लिंबू लोगों की संख्या 780 और राई लोगों की संख्या 1110 है। नेपाली भाषी लोगों की कुल संख्या 6,00,163 है। असम के साहित्य- संस्कृति, शिक्षा और खेल-कूद में भी नेपालीभाषियों का योगदान सराहनीय रहा है। वर्तमान में इस समुदाय के लोगों ने अपनी मातृभाषा की जगह असमीया भाषा को अपना लिया है और अपनी भाषा को एक विषय के रूप में पढ़ने का फैसला किया है। नेपाली भाषा भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में दर्ज है और शिक्षा का भी माध्यम है। नेपालीभाषी लोगों के पर्व- त्योहार एवं उत्सव पर्व बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं। बड़ा दशई व तिहार उनके प्रमुख पर्व हैं। असम में गोर्खा लोगों के उल्लेखनीय व्यक्तियों में छविलाल उपाध्याय, दलवीर सिंह लोहार हरिप्रसाद गोर्खा राई आदि का नाम श्रद्धापूर्वक लिया जाता है।

पाठ्यपुस्तक संबंधित प्रश्न एवं उत्तर

1. नेपाली या गोर्खा लोग किन न-गोष्ठियों के सम्मिश्रण हैं? 

उत्तरः नेपाली या गोर्खा लोग आर्य-मंगोल-किरात की नृ-गोष्ठियों के सम्मिश्रण हैं। 

2. ‘लाल मोहरिया पंडा’ का तात्पर्य क्या है?

उत्तरः प्राचीन धर्मग्रंथों के अनुसार कामाख्या मंदिर का निर्माण करनेवाले प्रागज्योतिषपुर के राजा नरक का जन्म वर्तमान नेपाल के सुनसरी जिले के वराह क्षेत्र में हुआ था और उन्होंने कामाख्या मंदिर में पूजा कराने के लिए नेपाल से पुजारी को बुलाया था। बाद में यही पुजारी कामाख्या मंदिर में ‘लालमोहरिया पंडा’ के नाम से प्रसिद्ध हुए।

3. असम प्रदेश कांग्रेस कमेटी के प्रथम अध्यक्ष का नाम लिखिए।

उत्तर: असम प्रदेश कांग्रेस कमेटी के प्रथम अध्यक्ष का नाम ‘छविलाल उपाध्याय’ है।

4. ‘ट्राइबल बेल्ट एंड ब्लॉक’ में नेपाली भाषी लोगों को संरक्षित वर्ग का दर्जा कब मिला? 

उत्तर: ‘ट्राइबल बेल्ट एंड ब्लॉक’ में नेपाली भाषी लोगों को सन् 1947 में संरक्षित वर्ग का दर्जा मिला।

5. रतिकांत उपाध्याय कौन थे और उन्होंने कहाँ-कहाँ सत्रों की स्थापना की थी? 

उत्तरः रतिकांत उपाध्याय श्रीमंत शंकरदेव के शिष्य थे तथा उन्होंने ‘वर्तमान टियोक’ और नगाँव में ‘नेपाली सत्र’ की स्थापना की थी।

6. गोर्खा समुदाय के लोगों के प्रमुख उत्सव क्या-क्या है? 

उत्तरः गोर्खा समुदाय के लोगों के उत्सवों में महिलाओं का ‘तीज’, पारिवारिक संबंध मजबूत बनाने वाला उत्सव ‘बड़ दशै’ और भाई-बहन के प्रेम का उत्सव ‘तिहार’ प्रमुख हैं।

7. “जंबूद्वीपे, आर्यावर्ते, भारतवर्षे, असम प्रांते’ का अर्थ क्या है? 

उत्तर: लगभग पाँच हजार साल पहले से ही (ई. पू० 3139) अर्थात् महाभारत के समय से ही नेपाल और असम के बीच पारस्परिक संबंध और प्रवर्जन था। तब यह समस्त अंचल ‘जंबूद्वीप’ या ‘आर्यावर्त’ के नाम से जाना जाता था। असम के नेपाली लोग सालाना पितृश्राद्ध में पिंड दान करते वक्त मंत्र के साथ अपने पते का उल्लेख कर ‘जंबूद्वीपे, आर्यावर्ते, असम प्रांते’ कहते हैं।

8. सुगौली संधि कब हुई और इसके तहत किस देश के भू-भाग और नागरिक भारत में शामिल हुए? 

उत्तरः सुगौली संधि सन् 1815-16 में हुई और इसके तहत नेपाल देश के भू-भाग और नागरिक भारत में शामिल हुए।

9. संक्षेप में लिखिए: 

(क) छविलाल उपाध्याय।

उत्तरः छविलाल उपाध्याय का जन्म 12 मई, 1882 में विश्वनाथ जिले के बूढ़ीगांग में हुआ था। इनके पिता का नाम काशीनाथ उपाध्याय था। इन्होंने अनौपचारिक रूप से माध्यमिक शिक्षा प्राप्त की थी। इन्होंने चंद्रनाथ शर्मा, घनश्याम बरुवा, लोकनायक अमियकुमार दास आदि के साथ मिलकर आजादी के जंग में हिस्सा लिया था। 18 अप्रैल, 1921 को जोरहाट में उपाध्याय की अध्यक्षता में’ असम एसोसिएशन’ की सभा आयोजित हुई और ‘असम एसोसिएशन’ का विलय कांग्रेस में किया गया। इसी दौरान उन्हें प्रदेश कांग्रेस कमेटी का प्रथम अध्यक्ष भी चुना गया। सन् 1921 में गांधीजी असम आये हुए थे और अंग्रेजों द्वारा आजादी की जंग में हिस्सा न लेने के लिए लोगों को अनेक प्रकार के प्रलोभन दिया गया था। उपाध्याय को भी प्रलोभन दिया गया, किन्तु उन्होंने अंग्रेजों के प्रलोभन को ठुकरा दिया। परिणामस्वरूप उन्हें जेल जाना पड़ा। जेल से लौटने के पश्चात उपाध्याय ने 1942 के ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ में हिस्सा लिया और देश की आजादी में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया।

(ख) हरिप्रसाद गोर्खा राई।

उत्तरः हरिप्रसाद गोर्खा राई का जन्म नागालैंड की राजधानी कोहिमा में 15 मार्च, 1915 को हुआ। उनके पिता का नाम धनराज राई और माता का नाम यशोदा राई था। बाद में उन्होंने अपने नाम के साथ गोर्खा शब्द भी जोड़ लिया। आवाहन युग के विशिष्ट लेखक के रूप में प्रख्यात राई ने साहित्य सृजन के क्षेत्र में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। गोर्खा राई ने धनबहादुर सोनार और गोविन्द चंद्र पैरा के सहयोग से असम साहित्य सभा की कोहिमा शाखा का गठन किया था? पराधीन भारत में जातीय चेतना और जागरण के लिए जिन लेखकों ने अपना योगदान दिया उनमें गोर्खा राई अग्रणी थे। असमीया और नेपाली दोनों भाषाओं में साहित्य रचने वाले गोर्खा राई सही अर्थों में समन्वयवादी थे। उनकी कहानियों में जनजातियों व गैर-जनजातियों के जन-जीवन के सौहार्द का चित्रण हुआ है। उन्हें अपने नाम के साथ गोर्खा शब्द जोड़ने का सुझाव उनके साहित्यकार मित्र मित्रदेव महंत ने दिया था। उन्होंने जीवन भर असमीया और गोर्खा भाषा साहित्य के विकास के लिए कार्य किया।

(ग) दलवीर सिंह लोहार।

उत्तरः बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न दलवीर सिंह लोहार का जन्म 26 जनवरी, 1915 को डिब्रुगढ़ जिले के खलिहामारी में हुआ था। उनके पिता का नाम अनंतराम लोहार था। सन् 1930 में 15 वर्ष की अवस्था में उन्होंने आजादी की जंग में हिस्सा लेते हुए कराची में आयोजित अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की सभा मैं असम का प्रतिनिधित्व किया। कुख्यात कनिंघम सर्कुलर का विरोध करने पर सन् 1930 में उन्हें तीन महीने तक जेल की सजा काटनी पड़ी। उन्होंने समाज में व्याप्त छूआछूत जैसे नकारात्मक भावों को समाज से दूर करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। उन्होंने सेवा दल की स्थापना में विशेष योगदान दिया तथा वे मजदूर दल के नेता भी थे। मजदूरों और पिछड़े वर्ग के प्रतिनिधि के रूप में उन्हें सन् 1946 में तिनसुकिया से विधानसभा के लिए चुना गया। वे असम के नेपाली समुदाय से प्रथम विधायक थे। अतः समाज व देश के लिए कार्य करते हुए उनका निधन 29 जुलाई, 1969 को हो गया।

अतिरिक्त प्रश्न एवं उत्तर:

1. सन् 2011 की जनगणना के अनुसार असम में नेपालीभाषी लोगों की कुल संख्या कितनी है?

उत्तर: सन् 2011 जनगणना के अनुसार असम में नेपाली भाषी लोगों की कुल संख्या 6,00,163 हैं।

2. सुगौली संधि क्या है?

उत्तर: ब्रिटिश और नेपाल के बीच सन् 1815-16 में हुई संधि को सुगौली संधि के रूप में जाना जाता है। इस संधि के तहत नेपाल के नागरिकों के साथ भारत के उत्तर नेपाल का काफी हिस्सा भारत में शामिल कर लिया गया था।

3. स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लेनेवाले असम के नेपालीभाषी लोगों के नाम बताइए।

उत्तरः स्वतंत्रता संग्राम में असम के अनेक लोगों के साथ कुछ नेपालीभाषी लोग भी हिस्सा लिए थे, उनमें छविलाल उपाध्याय, दलवीर सिंह लोहार, विष्णुलाल उपाध्याय, भक्त बहादूर प्रधान, प्रसाद सिंह सुब्बा प्रमख हैं।

सारांश:

बोड़ो लोग पूर्वोत्तर भारत की आदिम जनजाति हैं। अपनी मजबूत समाज- व्यवस्था, भाषा-साहित्य, धर्म व समृद्ध संस्कृति के साथ बोड़ो असम में निवास करनेवाली एक विशिष्ट जनजाति है। सर एडवर्ड गेट के अनुसार असम और उत्तर पश्चिम बंगाल में बोड़ो लोगों का विशाल साम्राज्य था। वर्तमान में बोड़ो लोग असम के विभिन्न स्थानों में निवास कर रहे हैं। कोकड़ाझार, चिरांग, बाक्सा, उदालगुड़ी आदि बोड़ो बहुल क्षेत्र हैं। इसके अलावा बोड़ो मूल के सोनोवाल कछारी, ठेंगाल कछारी, सुतिया, देउरी, लालुंग, राभा, गारो, हाजंग और त्रिपुरी लोग लखीमपुर, तिनसुकिया, डिब्रुगढ़, शिवसागर आदि स्थानों में निवास करते हैं। बोड़ो लोगों की अपनी समृद्धशाली भाषा है। बोड़ो भाषा चीन के तिब्बत वर्मी परिवार की भाषा है। बोड़ो भाषा संविधान की आठवीं अनुसूची में दर्ज है। 

बोड़ो भाषा साहित्य का बोड़ो साहित्य सभा के जरिए प्रचार-प्रसार व विकास हो रहा है। बोड़ो भाषा की पहली पुस्तक गंगाचरण कछारी की ‘बड़ो फिसा ओ आइन’ (1915) है। बोड़ो लोगों का प्राचीन धर्म ‘बाथ’ है। ‘बाथौ बौराई’ बोड़ो लोगों के श्रेष्ठ देवता हैं। बोड़ो लोग बाथौ पूजा बड़ी श्रद्धापूर्वक करते हैं। बोड़ो पुरुष व महिलाएँ परिश्रमी होती हैं। बोड़ो लोगों के पहनावे, वाद्य, नृत्य, गीत की विशिष्ट पहचान है। बोड़ो लोगों ने असम की प्रगति में अमूल्य योगदान दिया है। प्रख्यात कलाकार शोभा ब्रह्म, कामिनी कुमारी नर्जरी, शहीद बिनेश्वर ब्रह्म बोड़ो जनजाति के अमूल्य हस्ताक्षर थे।

पाठ्यपुस्तक संबंधित प्रश्न एवं उत्तर:

1. बोड़ो भाषा किस भाषा समुदाय के अन्तर्गत है?

उत्तरः बोड़ो भाषा चीन तिब्बत-बर्मी परिवार की भाषा समुदाय के अन्तर्गत है। 

2. बोड़ो भाषा को कब प्राथमिक शिक्षा के माध्यम के रूप में मान्यता मिली थी?

उत्तर: सन् 1963 में बोड़ो भाषा को प्राथमिक शिक्षा के माध्यम के रूप में मान्यता मिली थी।

3. बोड़ो लोगों के बारे में लिखी गई दो पुस्तकों के नाम लिखिए। 

उत्तरः बोड़ो लोगों के बारे में लिखी गई दो पुस्तकों के नाम’ फैमाल मिजिंक’ और ‘जुजाइनि’ है। 

4. बोड़ो भाषा की पहली पुस्तक क्या थी?

उत्तरः बोड़ो भाषा की पहली पुस्तक गंगाचरण कछारी की ‘बड़ो फिसा ओ आइन’ थी।

5. बोड़ो लोगों के पारंपरिक वेश-भूषा में इस्तेमाल किए गए कुछ फूलों के नामों का उल्लेख कीजिए।

 उत्तरः बोड़ो लोगों के पारंपरिक वेश-भूषा में इस्तेमाल किए गए कुछ फूलों के नाम इस प्रकार है- दाउथु आगान, फारेड मेगन, मुफुर आफा, दाउराई मेखब आदि।

6. संक्षेप में टिप्पणी लिखिए: 

(क) उस्ताद कामिनी कुमार नर्जरी।

उत्तरः नृत्य कला में उस्ताद कामिनी कुमार नर्जरी का जन्म सन् 1926 में वर्तमान गोसाईंगाँव महकमा के अन्तर्गत बिन्याखाता अंचल के बामुनकूरा गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम बजाराम नर्जरी और माता का नाम थांगाली नर्जरी था। उन्होंने निःस्वार्थ और अथक प्रयास से बोड़ो नृत्य को प्रादेशिक स्तर से राष्ट्रीय स्तर तक पहचान दिलाया। 26 जनवरी, 1957 को दिल्ली में आयोजित गणतंत्र दिवस समारोह में उस्ताद नर्जरी अपने दल के साथ ‘सांस्कृतिक दल ‘ में शामिल हुए और प्रथम स्थान हासिल किया। इसके अतिरिक्त सन् 1992 में एशिया मेला 13 में हिस्सा लेकर बोड़ो नासीना नृत्य पेश कर दर्शकों से अथाह सम्मान व प्रशंसा प्राप्त हुआ।

सन् 1982 में उस्ताद कामिनी कुमार नर्जरी को ‘संगीत नाटक अकादमी’ पुरस्कार प्राप्त हुआ। इस प्रकार उन्होंने अपनी कोशिश से बोड़ो संस्कृति को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलवाया और 16 मई 1998 को उनका देहांत हो गया।

(ख) शोभा ब्रह्म।

उत्तर: प्रख्यात कलाकार शोभा ब्रह्म का जन्म 18 अक्टूबर, 1929 को कोकराझाड़ जिले के गोसाईगाँव के भूमका नामक एक पिछड़े गाँव में हुआ था। उनके पिता का नाम हरिचरण ब्रह्म और माता का नाम देवश्री ब्रह्म था। उन्होंने अपनी कला कृतियों से बोड़ो और असमीया समाज के सही चित्र को प्रतिबिम्बित किया। वे भारत के एक प्रख्यात मूर्तिकार और असम के कला जगत के पथ प्रदर्शक थे। उन्हें प्रकृति से अथाह प्रेम था तथा वे प्रकृति को बचाने के लिए जीवन भर प्रयत्नरत भी रहे।

अन्ततः चित्र शिल्प और भास्कर्य कला के साथ साहित्य चर्चा करते हुए इस महान शिल्पी का देहांत 5 मार्च, 2012 को हो गया।

(ग) बिनेश्वर ब्रह्म।

उत्तर: शहीद बिनेश्वर ब्रह्म का जन्म 28 फरवरी, 1949 में वर्तमान कोकराझाड़ जिले के भातारमारी गाँव में हुआ। उनके पिता का नाम तारामणि ब्रह्म और माँ का नाम सोनती ब्रह्म था। उन्होंने सन् 1954 में अपने गाँव के प्राथमिक विद्यालय से प्रारम्भिक शिक्षा प्रारम्भ की। 1967 में पीयूएससी की परीक्षा तथा 1972 में जोरहाट के असम कृषि महाविद्यालय से स्नातक की डिग्री की परीक्षा में उत्तीर्ण हुए।

सन् 1973 के फरवरी में पहली बार ‘उन्होंने हिन्दुस्तान खाद्य निगम के खाद्य विस्तार’ एवं ‘कृषि शोध विभाग’ में नौकरी शुरू कर कर्म क्षेत्र में पदार्पण किया। वे एक बुद्धिमान, चिंतक, विचारक, समाज सेवक, साहित्यकार और अच्छे संगठन कर्त्ता थे। वे एक साथ कई भाषाओं पर अधिकार रखते थे- जैसे बोड़ो, अंग्रेजी, असमीया, बाँग्ला, हिंदी, नेपाली, भोजपुरी और राजवंशी।

बिनेश्वर ब्रह्म को सन् 1990 से 1993 तक बोड़ो साहित्य सभा के महासचिव के पद पर नियुक्त किया गया। उन्होंने इसके अतिरिक्त लेखन के द्वारा भी बोड़ो भाषा के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनकी प्रकाशित पुस्तकें इस प्रकार हैं- ‘आई नि मादई’ (कविता संकलन 1985), बरदैसिखला (कविता संकलन 1997) और आंगनि गामि भातारमारि (निबंध संकलन) उन्होंने अपने गाँव के प्राथमिक विद्यालय से शिक्षा प्रारम्भ किया। इसके बाद धुबड़ी के सापटग्राम हाईस्कूल से सन् 1950 में इतिहास विषय में 80% अंक लेकर प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होकर गुवाहाटी कॉलेज में दाखिला लिया। ललित कलारत्न डॉ. शोभा, कविगुरु ब्रह्म रवीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा कोलकाता में स्थापित शांतिनिकेतन में 1950 में पढ़ने गए और सन् 1957 में वहाँ से कला विषय में स्नातक की डिग्री प्राप्त की।

तारिणी चरण हाईस्कूल में उन्होंने अध्यापन कार्य शुरू कर कर्म-क्षेत्र में प्रवेश किया। 31 जनवरी, 1964 को उन्हें वर्तमान सरकारी चारुकला महाविद्यालय का प्राचार्य बनाया गया। उनके द्वारा बनाये गए चित्र तथा कलाकृतियों की पहली प्रदर्शनी 1965 में गुवाहाटी जिला पुस्तकालय में लगी थी। इसके पश्चात उनकी कला कृतियां शिलांग, दिल्ली, कोलकाता, मुम्बई से लेकर बुल्गारिया, चेकोस्लाविया आदि देश-विदेश के विभिन्न स्थानों पर प्रदर्शित हुई थीं। उनके द्वारा प्रकाशित कृतियों में ‘शिल्प कलार नवप्रजन्म’, ‘भारतीय चित्रकला “गौदान उजि’ (बोड़ो), ‘लियो-नारदो -दी-विंची आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

डॉ. ब्रह्म को उनकी उपलब्धियों के लिए राज्य स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक कई पुरस्कार प्राप्त हुए। वे इस प्रकार हैं- असम शिल्पी पेंशन पुरस्कार (1977), असम सरकार का सांस्कृतिक पेंशन पुरस्कार (1996), कमल कुमारी बरुवा फाउंडेशन पुरस्कार (1991), सद्भावना पुरस्कार (2002) आदि । इसके अलावा उन्हें डिब्रुगढ़ विश्वविद्यालय और कोलकाता के रवींद्र भारती विश्वविद्यालय से डी लीट की उपाधि प्राप्त हुई। आई नि मादई (कविता संकलन 1985), बरदैसिखला (कविता संकलन 1997) और आंगनि गामि भातारमारि (निबंध संकलन)। 19 अगस्त, 2000 को गुवाहाटी के भेटापाड़ा स्थित निवास स्थान पर अनजान हमलावर के हाथों गोली लगने से उनकी अकाल मृत्यु हो गई।

अतिरिक्त प्रश्न एवं उत्तर:

1. बोड़ो भाषा की विशेषता क्या है?

उत्तर: बोड़ो एक समृद्ध भाषा है। यह भाषा संदिया से लेकर पूर्वी बंगाल तक और उत्तर में नेपाल से बांग्लादेश तक व्याप्त है। बोड़ो भाषा चीन के तिब्बत-बर्मी परिवार की भाषा है। विद्वानों के अनुसार तिब्बती भाषा की दो प्रधान शाखाएँ हैं- तिब्बत-बर्मी और ताई चीन भाषा। तिब्बत-बर्मी भाषा का अंग है-बोड़ो- नागा भाषा प्रारंभ में बोड़ो-नागा एक ही परिवार के अंतर्गत थे। बाद में नागा लोग अलग हो गए। बोड़ो मूल से पैदा होनेवाली भाषाएँ हैं-डिमासा, गारो, राभा, सुतिया, लालुंग, हाजंग और तिवा।

2. भारतीय संविधान में बोड़ो भाषा को आठवीं अनुसूची में कब शामिल किया गया?

उत्तर: सन् 2003 में भारतीय संविधान में बोड़ो भाषा को आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया।

3. बोड़ो गीतों का श्रेणी विभाजन कीजिए।

उत्तरः बोड़ो गीतों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है-

(i) प्रार्थना गीत।

(ii) लोकगीत। और 

(iii) आधुनिक गीत।

सारांश:

मटक असम का एक प्राचीन जनसमुदाय है। ‘मटक’ ताई भाषा का शब्द है। ताई मंगोलीय मूल के मटक लोग आदिकाल में चीन के म्यूंगफी वर्तमान में संभवतः यूनान में निवास करते थे। परवर्ती समय में जनसंख्या वृद्धि या अन्य किसी कारण से भूमि की लोक में असम की ओर यात्रा की। उन्होंने चीन के यूनान प्रदेश से थाईलैंड, म्यांमार होते हुए प्राचीन असम में प्रवेश किया और वे तिमाम पहाड़ से सटे अंचल में तेरहवीं शताब्दी तक रहे। इन्हीं मटकों से चुकाफा तिमाम में मिले थे और ‘फुखाओ’ परिवार के रूप में पहचान पाए थे। कालांतर में सत्रहवीं शताब्दी में मटकों ने काल संहिता के प्रवर्तक गोपालदेव के शिष्य अनिरुद्धदेव के द्वारा प्रचारित ‘मायामरा’ वैष्णव धर्म को ग्रहण किया। ‘मायामरा’ धर्म अपनाने के बावजूद वे अपनी पारंपरिक धार्मिक आस्था को संजोए हुए हैं। मटक राजा सर्वानंद सिंह, शिक्षाविद् पवन नेओग, राजकुमार लंकेश्वर गोहाई के नाम असम के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिपिबद्ध हैं।

पाठ्यपुस्तक संबंधित प्रश्न एवं उत्तर:

1. ‘मटक’ शब्द का अर्थ लिखिए। 

उत्तरः ‘मटक’ असम की एक प्राचीन भाषा ‘ताई’ का शब्द है। ताई भाषा में ‘म’ का अर्थ शक्तिशाली, बुद्धिमान या ज्ञानी और ‘टक’ का अर्थ उपयुक्त, तौलना, तराजू, परीक्षित है।

2. ‘मटक’ शब्द की उत्पत्ति के बारे में लिखिए।

उत्तरः मटक शब्द की उत्पत्ति के बारे में जानने के लिए ‘फुखाओ’ (Phukao) शब्द का इतिहास देखना आवश्यक है। ‘फुखाओ’ ‘ताई’ भाषा की एक प्रमुख शाखा है। यह शाखा ताई मंगोलीय ‘फुथाई’ गुट के अन्तर्गत आती है। ‘फुथाई’ ताई का एक बड़ा वर्ग है। फुथाई लोगों को चीन के लाओ राज्य में रहने की वजह से उन्हें लाओ भी कहा जाता है। दक्षिण चीन, थाईलैंड, वियतनाम से असम तक लाओ लोग फैले हुए हैं। आहोम इतिहास के अनुसार फुखाओ की उत्पत्ति बीज सींचने या फसल सींचने के मूल से है। फसल सींचने वाले मूल के फुखाओ से मटक की उत्पत्ति हुई है। 

3. ‘मटक’ साधारणत: किस धर्म के लोग हैं?

उत्तरः मटक साधारणतः ‘ताओ ‘ धर्म के लोग हैं।

4. मटक लोगों का मोवामरीया विद्रोह के साथ संबंध के बारे में लिखिए। 

उत्तरः मोवामरीया विद्रोह के प्रमुख मटक नेताओं पर राजपरिवार का अत्याचार होता था। विद्रोही नेता नहीं मिलने पर आम जनता को बंदी बनाकर कारागार में डाल दिया जाता था। सर्वानंद ने मोवामरीया विद्रोह का नेतृत्व किया। सर्वानंद में प्रचुर सांगठनिक दक्षता थी। कारागार के अंदर और बाहर सभी मटक लोगों का सर्वानंद ने मनोबल बढ़ाया और मोवामरीया विद्रोह सफल हुआ। अतः इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि मोवामरीया विद्रोह में मटक लोगों ने अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया था और उनका विद्रोह के साथ गहरा संबंध था।

5. मटक राज्य की उन्नति के लिए सर्वानंद सिंह के किए जनकल्याणमूलक कार्यों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।

उत्तर: मोवामरीया विद्रोह को सफल बनाने में सर्वानंद सिंह ने अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। सिंह ने राज्य की स्थापना कर स्वयं को उसका राजा घोषित किया। मटक राज्य की उन्नति के लिए उन्होंने विभिन्न जन कल्याणकारी काम-काज आरम्भ किए। गली, सड़क का निर्माण कर यातायात व्यवस्था विकसित की। रंगागढ़ा आलि, गोधा आलि, राजगढ़ आलि, हातीआलि आदि मोड़ बनवाए। प्रजा की सुविधा के लिए राजधानी के बाहर अंदर कुल चौबीस पोखर खुदवाए। इनमें बॅमरा पोखरी, तिनिकोनिया पोखरी, शेलुकीया पोखरी, बर पोखरी, जाउलधोवा पोखरी आदि मुख्य हैं।

6. संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए: 

(क) शिक्षाविद् पवन नेओग।

उत्तरः बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न शिक्षाविद् पवन नेओग का जन्म 18 अक्टूबर, 1933 को बरगुरि, तिनसुकिया में हुआ। इनके पिता का नाम आसाम्बर नेओग तथा माता का नाम गोलापी नेओग था। पाँच वर्ष की अवस्था में तिनसुकिया आदर्श विद्यालय से उन्होंने अपनी शिक्षा प्रारम्भ की। उन्हें बचपन से ही खेल-कूद में विशेष रुचि थी। उन्होंने फुटबॉल और वॉलीबॉल खिलाड़ी के रूप में विद्यालय में विशेष ख्याति अर्जित की थी। 1956 में उन्होंने द्वितीय श्रेणी में आई.ए. उत्तीर्ण की। इसके पश्चात् स्नातक की पढ़ाई गुवाहाटी के कॉटन कॉलेज से आरम्भ की तथा कॉलेज में रहते अंतर महाविद्यालय प्रतियोगिता में शरीर सौष्ठव प्रतिस्पर्द्धा का उन्हें Physique चुना गया और Mr. Cottonian की उपाधि प्रदान की गई। अर्थ उपार्जन के उद्देश्य से सन् 1962 में डीएसपी बने और 30 सितम्बर, 1992 में नौकरी से सेवानिवृत्त हुए। उन्होंने सन् 2001 में बरगुरि के आर्ट स्कूल की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। वे इस अंचल में एक स्कूल की स्थापना करना चाहते थे, किन्तु उनका यह सपना पूरा न हो सका और 11 अगस्त, 2002 को उनकी मृत्यु हो गई।

(ख) राजकुमार लंकेश्वर गोहाईं।

उत्तरः राजकुमार लंकेश्वर गोहाईं का जन्म 1 मई, 1954 को असम के तिनसुकिया जिले में हुआ था। इनके पिता का नाम बिशबर था। राजकुमार लंकेश्वर गोहाईं दस-बारह वर्ष की उम्र में अपने परिवार के साथ चाबुआ चले आए। राजकुमार की औपचारिक शिक्षा नहीं हुई थी, इसके बावजूद वे साहसी, उच्चाकांक्षी और चिंतनशील स्वभाव के धनी थे। उनमें नेतृत्व करने की अटूट क्षमता थी। राजा के उपयुक्त प्रतिनिधि के रूप में देश स्वाधीन होने के पूर्व से ही बैंमरा राज्य के पुनरुद्धार और अलग राज्य की मान्यता बहाल रखने के लिए वे सरकार के समक्ष जोरदार माँग उठाते रहे। उन्होंने स्थानीय जाति-जनगोष्ठी के भूमि अधिकार, सम्पति अधिकार, राजनैतिक अधिकार सुरक्षित रखने के लिए बॅमरा राज्य को अलग राज्य की मान्यता देने की माँग उठाई थी। वे हाथी पकड़ने और प्रशिक्षण देने में निपुण थे। उन्हें बर्मीज, मणिपुरी, सिंग्फौ, खामती, मिसिंग, देउरी, नक्टे समेत कई भाषाओं का ज्ञान था। उन्होंने स्वयं को अपने राज्य के साथ ही अरुणाचल, मणिपुर, सिक्किम, नागालैंड, मेघालय आदि अंचलों के समाजसेवियों के साथ जनकल्याणकारी तथा विकास के कार्यों में लगाए रखा।

अन्ततः समाज के लिए कार्य करते हुए 7 मार्च, 1973 को राजकुमार की मृत्यु हो गई ।

(ग) सर्वानंद सिंह।

उत्तरः सर्वानंद सिंह अपने माता-पिता की एकमात्र संतान थे और उनके पिता का नाम मरुत्नंदन तथा माता का नाम पातय था। बाल्यकाल में ही उनकी माता का दोहांत हो गया। अति साधारण कमाने खाने वाले मरुलंदन मटक ने सर्वानंद को बड़े यतन से पाल-पोसकर बड़ा किया। पिता के लालन-पालन से सर्वानंद धीरे-धीरे युवा हो गये। सर्वानंद ने मोवामरीया विद्रोह में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। उन्होंने जेल में रहते हुए बाहर और भीतर सभी मटक लोगों का हौसला बुलंद कर मोवामरीया विद्रोह को सफल बनाया। इसके पश्चात् सर्वानंद सिंह ने बेंमरा में राज्य की स्थापना कर स्वयं को उसके राजा भी घोषित किया। उन्होंने मटक राज्य की उन्नति के लिए विभिन्न जन कल्याणकारी काम-काज आरम्भ किये थे। गली-सड़क निर्माण कर यातायात व्यवस्था विकसित की। रंगागढ़ा आलि, गोधा आलि आदि विभिन्न प्रकार के पोखरी का निर्माण किया। उनके शासन काल में प्रजा शांति से रहती थी। सर्वानंद सिंह बड़े दूरदर्शी और प्रखर बुद्धि वाले राजा थे। जिसके कारण वे अत्यंत लोकप्रिय थे। प्रजा हितैषी राजा सर्वानंद सिंह की मृत्यु बीमारी के कारण सन् 1805 में हो गई।

अतिरिक्त प्रश्न एवं उत्तर:

1. ‘ताई’ लोगों के उपास्य देवता कौन हैं? 

उत्तर: ‘ताई’ लोगों के उपास्य देवता ‘गाँठियाल’ हैं। उनका धर्म ‘ताओ’ है।

2. सर्वानन्द सिंह कौन थे?

उत्तरः सर्वानन्द सिंह मटक राज्य के राजा थे। अपने शासनकाल में उन्होंने प्रजा के लिए अनेक कल्याणकारी कार्य किए थे। प्रजा शांति से रहती थी।

3. ‘मटक’ लोग मुख्यत: कहाँ रहते हैं?

उत्तरः ‘मटक’ लोग पहले लखीमपुर, शिवसागर, तिनसुकिया तथा उसके आस-पास रहा करते थे, परंतु वर्तमान में वे अनेक स्थानों पर फैले हुए हैं।

4. राजकुमार लंकेश्वर गोहाईं कौन थे?

उत्तरः राजकुमार लंकेश्वर गोहाई प्राचीन बॅमरा राज्य के संस्थापक राजा स्वर्गदेव सर्वानन्द सिंह के प्रपौत्र थे।

सारांश:

मोरान असम की किरात मंगोलीय मूल की एक आदिम जाति है। ये असम तथा पूर्वोत्तर के विभिन्न स्थानों में बसे हुए हैं। मोरान लोग प्रागैतिहासिक काल से ही असम की भूमि पर निवास करते आए है। कलागुरु विष्णु प्रसाद राभा जी ने अपनी पुस्तक ” असमीया कृष्टि” में मोरान लोगों के बारे में उल्लेख करते हुए लिखा है कि “इसके समय में असम में तेजगति से ताम्र युग, कांस्य युग और लौह युग का आरंभ हुआ था।” डॉ. स्वर्णलता बरुवा के अनुसार “ईसा के जन्म से कई सदी पूर्व से ही मोरान लोग ब्रह्मपुत्र उपत्यका में रहते आ रहे हैं।” अर्थात् विद्वानों के अनुसार मोरान असम के आदिम निवासी हैं। मोरान जाति के अधिकांश लोग संरक्षित वनांचल के समीप गाँव बनाकर रहते आए हैं। 

वर्तमान में मोरान लोग तिनसुकिया, डिब्रुगढ़, शिवसागर, चराईदेव, जोरहाट, धेमाजी, गोलाघाट, नगाँव, शोणितपुर, लखीमपुर आदि जिलों में रह रहे हैं। मोरान लोगों का एक समृद्ध इतिहास है। चाउलुंग चुकाफा के समय मोरानों का एक स्वतंत्र राज्य था। उस समय मोरानों के राजा का नाम बड़ोसा या बदौसा था। यह मोरानों के अंतिम राजा थे। मोरान भी बोड़ो मूल की एक समृद्ध जाति है। अतीत काल में मोरानों में ‘बड़ोरुची’ नामक एक बोड़ो मूल की भाषा प्रचलित थी बिहू उत्सव मोरानों का प्रधान उत्सव है। वर्तमान में देउरी लोगों के बिहूकी तरह मोरान लोगों के बिहू को ‘मोरान बिहू’ के नाम से जाना जाता है। मोरान लोगों के बिहू नृत्य की भंगिमा, गीत के ताल-तय आदि की अपनी खास विशेषता है। ये लोग अतीत काल से ही देव-देवी की पूजा भी करते आ रहे हैं। मोरान लोग सदिया के केंसाईखाती मठ के साथ ही तिनसुकिया जिले के माकुम के यज्ञोखोवा, देओशाल, चराईदेव आदि देव-देवी की पूजा-अर्चना करते हैं।

पाठ्यपुस्तक संबंधित प्रश्न एवं उत्तर: 

1. तीन वाक्यों में मोरानों के नृ-गोष्ठीगत परिचय लिखिए।

उत्तरः मोरान वृहत किरात मंगोलीय परिवार की एक मुख्य जनजाति समूह है। ये लोग असम तथा उत्तर पूर्वांचल के आदिम अधिवासी हैं। विशाल हिमालय पर्वतमाला के दक्षिण पाददेश के असम तथा उत्तर-पूर्वांचल की इस उर्वर रम्यभूमि में मोरान लोग प्राचीन काल से ही रहते आए हैं।

2. असम और अरुणाचल के कौन-कौन से जिले में मोरानों की आबादी अधिक है?

उत्तर: असम के तिनसुकिया, डिब्रुगढ़, शिवसागर, जोरहाट, धेमाजी, चराईदेव और अरुणाचल के नामसाई तथा चांग्लांग जिले में मोरानों की आबादी अधिक है।

3. इतिहास में उल्लेखित बारह घर कछारियों के नाम लिखिए। 

उत्तर: इतिहास में उल्लेखित बारह घर कछारियों के नाम इस प्रकार हैं-दमसय (डिमासा), इनटुहजय (होजाई), बिहदय (बोड़ो), जुहल-लुइवा (लालुंग या तिवा), बादु सोनलय (सोनोवाल), इनटु मिनखँय (मोरान), दिउनय (देउरी), इनटु-मेचय (मेच), कुचुबयँ (कोच), इनटु-गारोय (गारो), राभा किराटय (राभा), बादु हजय (हाजोंग)।

4. मोरान भाषा के 10 शब्द लिखिए। 

उत्तरः मोरान भाषा के 10 शब्द इस प्रकार हैं-दि (पानी), सिम (नमक), माइ (धान), माइरुम (चावल), मियाम (भात), महन (मांस), चान (सूर्य), दान (चंद्र), हिंका (कपड़ा), खेरो (सिर) आदि। 

5. मोरानों के ऐतिहासिक युग के राज्य की चारों सीमाओं का उल्लेख कीजिए। 

उत्तरः मोरानों के ऐतिहासिक युग के राज्य की सीमा उत्तर में बुढ़ीदिहिंग, दक्षिण में दिसांग, पूर्व में सफाई और पश्चिम में ब्रह्मपुत्र तक फैली थी।

6. मोरानों के ऐतिहासिक युग के अंतिम राजा का नाम क्या था? 

उत्तरः मोरानों के ऐतिहासिक युग के अंतिम राजा का नाम बदौसा था।

7. मोरान लोग बोहाग बिहू कब और कैसे मनाते हैं? 

उत्तरः मोरान लोग बोहाग के प्रथम मंगलवार को देव-देवी की पूजा-अर्चना से बिहू का आह्वान कर मंगलवार को ‘उरुका’ बुधवार को ‘गरु बिहू’ और बृहस्पतिवार को ‘मानुह बिहू’ के रूप में सात दिन, सात रात तक बोहाग बिहू मनाते हैं। बिहू मोरानों का प्रधान उत्सव है।

8. मोरानों के दो पेशागत, दो गुणवाचक और दो स्थानवाचक खेलों के नाम लिखिए।

उत्तरः मोरानों के दो पेशागत खेल तेल पेरने वाला तेली, नाव निर्माण करने वाले नाओलीया, दो गुणवाचक खेल चिकरि और गनता है तथा हालधिबरीया, सौकाधरा स्थानवाचक खेल हैं।

9. मोरानों की जातीय खेती क्या है? 

उत्तरः मोरानों की जातीय खेती सुमथिरा या संतरा है।

10. मोरानों के युवाओं के दलपति का दायित्व कैसा होता है? 

उत्तरः मोरानों के युवाओं के दलपति का दायित्व होता है कि वह समाज प्रबंधन के कार्यों में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले तथा अपने कर्त्तव्यों का पूर्णतः निर्वहन करे।

11. कहाँ-कहाँ मोरानों के देव देवियों के पूजा स्थल थे? 

उत्तरः मोरान लोगों के सदिया के केंसाइखाती मठ के साथ ही तिनसुकिया जिले के माकुम के यज्ञोखोवा, देओशाल, चराईदेव आदि में देव-देवियों के पूजा-स्थल थे।

12. टिप्पणी लिखिए:

(क) समन्वय के जनक किरात शौर्य बदौसा।

उत्तरः समन्वय के जनक किरात शौर्य बदौसा असम के प्रमुख आदिम अधिवासी किरात मंगोलीय परिवार के अन्तर्गत मोरानों के ऐतिहासिक युग के अंतिम राजा थे। बदौसा के अधीन उत्तर में बुढ़ीदिहिंग, दक्षिण में दिसांग, पूर्व में सफाई और पश्चिम में ब्रह्मपुत्र महानद के बीच का भूखंड एक समृद्ध मोरान राज्य था। वर्तमान के शिवसागर और डिब्रुगढ़ जिलों के कुछ हिस्से मोरान राज्य में थे।

कलागुरु विष्णुप्रसाद राभा ने अपनी ‘असमीया कृष्टि’ शीर्षक पुस्तक में उस काल के मोरान लोगों को प्रबल प्रतापी कहा है। उन्होंने बदौसा के शक्तिशाली प्रभाव की बात भी कही है। उस समय के सुदूर और दुर्गम पहाड़ पर्वतों तक मोरानों के आधिपत्य होने का संकेत व विशाल विस्तृत अंचल में शांति संप्रीति बनाए रखने में बदौसा की शक्तिशाली भूमिका को ही दर्शाता है।

पुत्रहीन बदौसा ने सुलक्षणयुक्त, सुदर्शन युवक चुकाफा से अपनी पुत्री का विवाह किया और वृद्धावस्था में अपने दामाद को राज्य का शासन भार सौंप दिया। बदौसा को असमिया जाति के ‘पितामह’ की आख्या दी जाती हैं क्योंकि उनके द्वारा प्रतिष्ठित कालजयी आदर्श की प्रासंगिकता से असम तथा उत्तर-पूर्वांचल की स्वदेशीय एकता को युगों तक कायम रखने का मार्ग प्रशस्त किया।

(ख) वीरांगना राधा-रुकुणी।

उत्तर: वीरांगना राधा-रुकुणी ने मोवामरीया विद्रोह में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। छः सौ वर्षों के आहोम राज के अंतिम भाग में तानाशाही हो चुके राजतंत्र के घोर अन्याय, अत्याचार के विरुद्ध सभी जाति-उपजाति के साधारण किसान प्रजा के सर्वात्मक विद्रोह का नेतृत्व मोरान लोगों ने किया। वीर राघव मोरान और नाहरखोवा मोरान की अग्रणी भूमिका के समान ही साधारण प्रजा को संगठित करने में नाहर की दो पत्नियों भातुकी, भाबुली उर्फ राधा-रुकुणी ने महत्वपूर्ण भागीदारी की। मोवामरीया विद्रोह का सूत्रपात इन दोनों के रहते हुआ। ध्यान देने योग्य है कि इन दोनों वीरांगनाओं ने उस काल में एक शक्तिशाली नारी योद्धा वाहिनी का गठन किया था। जब राजा के सैनिकों और विद्रोही वाहिनी के बीच लड़ाई हुई, तब रुकुणी के प्रबल पराक्रम के सामने राजकीय सेना टिक नहीं पाई। रुकुणी की वीरता के संदर्भ में पद्मनाथ गोहाईबरुवा ने अपनी ‘असम बुरंजी’ में लिखा है- “उस रण में रुकुणी पुरुष वेश-भूषा में धनुष-तीर लेकर लड़ी थी। गुप्त रण कौशल की ज्ञाता होने की वजह से उनके शरीर को तीर या पत्थर की गोलियां छू भी नहीं पाई थीं। इस वीरांगना की असीम वीरता की सत्य गाथा इतिहास के पन्नों में दर्ज है। परवर्ती समय में राजतंत्र के षड्यंत्र के कारण वीरांगना रुकुणी की मौत हो गई। इस प्रकार वीरांगना रुकुणी ने अपना सम्पूर्ण जीवन राज्य की भलाई के लिए न्यौछावर कर दिया।”

(ग) झपरा जगधा।

उत्तरः दसवीं शताब्दी की मोरान जनजाति के वीर पुरुषों में एक थे झपरा जगधा। उनके पिता का नाम दाखि था। वे अत्यंत सुडौल, बलशाली और साहसी थे। वे बचपन में डिब्रू नदी पार कर जंगल से हाथी पकड़ लाते थे। अन्य लड़कों की अपेक्षा जगधा अत्यंत साहसी, बली व परक्रमी थे। युवा होने पर बिहू मंडली के युवा-युवतियों के दलपति बन गये। उस समय अन्य जनजातियों के साथ अक्सर लड़ाई व संघर्ष होता रहता था। उन दिनों जगधा के नेतृत्व में एक विशाल योद्धा सैनिक दल का गठन हुआ था। सभी ने जगधा को सेनापति का दायित्व सौंपा। विभिन्न अवसरों पर उनकी सैन्य वाहिनी ने विभिन्न जाति-उपजातियों को महापराक्रम से बीसियों बार परास्त किया। एक बार खामति लोगों ने मोरान गाँव पर एक ओर से आक्रमण कर दिया था। सेनापति जगधा ने शत्रु को रोकने के लिए देवचांग में सात दिनों तक केंसाइखाती की पूजा-अर्चना की। वे तलवार हाथ में लिए नाचते हुए युद्ध में गए। उस युद्ध में सेनापति जगधा ने शत्रु को ध्वस्त करते हुए पहाड़ तक खदेड़ दिया था। 

इस प्रकार जगधा ने अनेक युद्धों में अपनी जाति की रक्षा कर जातीय वीर के रूप में प्रतिष्ठित हुए। आज भी मोरान समाज में जगधा का नाम प्रख्यात है।

(घ) मोहन सइकिया।

उत्तरः मोरान लोगों के आधुनिक काल के पुरोधा व्यक्तियों में स्वर्गीय मोहन सइकिया का जन्म तिनसुकिया जिले के अंदरूनी अंचल के 22 नंबर तामूलि गाँव में 22 नवंबर, 1930 को हुआ था। उनके पिता का नाम ज्ञानेंद्र सइकिया और माता का नाम शुकानि सइकिया था। इनकी शिक्षा गाँव से शुरू हुई। इन्होंने 1950 में डाडरी स्कूल से उच्चतर माध्यमिक विद्यालय से प्रवेशिका परीक्षा उत्तीर्ण कर 1955 में डिब्रुगढ़ के कनोई वाणिज्य महाविद्यालय से बी. कॉम की डिग्री ली और वे डिब्रुगढ़ जिले के राजस्व चक्र अधिकारी कार्यालय में किरानी के पद पर आसीन हुए।

सामाजिक जीवन की दृष्टि से देखा जाए तो उन्होंने मोरान जनजाति को अनेक अवदान दिए। शिक्षित लोगों को साथ लाकर उन्होंने सन् 1965 में ‘असम मोरान सभा’ का गठन किया। मोरान सभा के माध्यम से उन्होंने मोरान समाज को खोखला कर चुके अफीम से मुक्ति दिलाने का अभियान चलाया और लोगों में जागरूकता पैदा की। उनके दिनों में ही मोरानों का अनुसूचीकरण, मोरानों को बिना प्रीमियम जमीन का पट्टा देने, मोरान बेल्ट एंड ब्लॉक का गठन आदि समेत कई मांगों से संबंधित ज्ञापन सरकार को सौंपा गया था।

उन्होंने विशिष्टतापूर्ण ‘मोरान बिहू’ को एक दकियानूस समाज से बाहर निकाल उसे विस्तृत समाज से परिचय कराया। उनके द्वारा रचे मोरान बिहू गीत का कैसेट’ होतौ-पातौ’ मोरान संस्कृति की एक अनुपम पहचान है। असम के विदेशी भगाओ आंदोलन में भी उन्होंने अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। आगे चलकर वे असम गण परिषद के एक उल्लेखनीय नेता के रूप में प्रतिष्ठित हुए। इस प्रकार समाज व देश के विकास के लिए वे जीवन भर कार्य करते रहे।

(ङ) राघव मोरान।

उत्तरः असम में हुए मोवामरीया विद्रोह के प्रमुख नेता राघव मोरान थे। छः सौ वर्षों से चला आ रहा आहोम राज अपने अंतिम समय में तानाशाही हो चुका था, जिसके कारण प्रजा को अनेक प्रकार के अत्याचार, अन्याय और शोषणकारी नीति का सामना करना पड़ रहा था। ऐसे में साधारण जनता को अत्याचार,शोषण के चंगुल से मुक्त कराने के लिए राघव मोरान के नेतृत्व में मोवामरीया विद्रोह का सूत्रपात हुआ। इतिहास में भी यह स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है कि साधारण कृषक संतान राघव मोरान की युद्ध कला में अप्रशिक्षित साधारण प्रजा, बांस की लाठी, धनुष-तीर आदि सामान्य अस्त्रों से विशाल राजकीय वाहिनी को परास्त कर राजतंत्र को उखाड़ फेंकने जैसा उदाहरण और विस्मयकारी घटना विरले ही देखने को मिलती है।

राघव के आह्वान पर जाति-जनजाति निर्विशेष हर प्रजा जागृत होकर निकल आती थी, यह उनके जननेता होने का प्रमाण है। राज्य के चारों ओर राजतंत्र का घेराव कर विद्रोही वाहिनी को टुकड़े टुकड़े में तैयार कर, युद्ध में गुरिल्ला कौशल का प्रयोग कर राघव मोरान ने प्रचुर मात्रा में अपनी सांगठनिक दक्षता और युद्ध कुशलता का परिचय दिया था। अतः इसी कारण एक भेद- भावरहित समाज गढ़ने में इस पथ प्रदर्शक ने अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। जिसके कारण राघव मोरान असमीया समाज में आज भी एक आदर्श के रूप में माने जाते हैं।

अतिरिक्त प्रश्न एवं उत्तर:

1. मोरान लोग किस मूल जाति से संबंधित हैं? 

उत्तरः मोरान लोग किरात मंगोलीय मूल की जाति से संबंधित हैं।

2. मोरानों का अंतिम राजा कौन था?

उत्तरः मोरानों का अंतिम राजा बदौसा था।

3. ‘बदौसा’ शब्द का अर्थ लिखिए।

उत्तर: ‘बदौसा’ शब्द का अर्थ है-बोड़ो की संतान

4. मोरानों में प्रचलित कुछ नृत्यों के नाम लिखिए। 

उत्तरः मोरान लोगों की एक समृद्ध सांस्कृतिक विरासत है। उनमें प्रचलित नृत्यों में कुलाबुढ़ी नृत्य, जाँजा नृत्य, रणुवा नृत्य प्रमुख हैं।

5. मोरान लोगों के जातीय पशु और जातीय पेड़ के नाम बताइए। 

उत्तरः मोरान लोगों का जातीय पशु ‘हाथी’ है और जातीय पेड़ ‘होलुंग’ है।

सारांश:

मिसिंग असम की एक बड़ी जनजाति है। इन्हें ‘मिरि’ के नाम से भी जाना जाता है। भारतीय संविधान में इन्हें मैदानी जनजाति का दर्जा प्राप्त है। मिसिंग जनजाति स्वयं को ‘तानि’ के रूप में परिचय देते हैं। “तानि” शब्द का अर्थ है-मानव या आदमी। मिसिंग लोगों का पूर्व निवास स्थान असम के उत्तर का पहाड़ी क्षेत्र माना जाता है। असम की अन्य जातियों की तरह मिसिंग भी कृषिजीवी हैं। ये धान की खेती के अलावा दलहन, सरसों, विविध प्रकार के आलू, अरुई, अदरक, मिर्च आदि की खेती करते हैं।

मिसिंग लोगों का परिधान पहनावा स्वतंत्र है। पुरुष मिबु गालुग, गनर, उगन टंगाली, दुआ आदि पहनते हैं तो महिलाएँ रिहा-मेखेला, रिबि-गासँग के साथ परंपरागत आभूषण पहनती हैं। मिसिंग महिलाएँ हथकरघे पर सुंदर-सुंदर वस्त्र बुनती हैं। मिसिंग लोगों का मूल धर्म ‘दई पलो’ है, परंतु वर्तमान में वे महापुरुषीया, शैव, शाक्त, तांत्रिक व विशेषकर केवलीया या रात्रि सेवा धर्म पंथ को मानते हैं। मिसिंग लोगों का लोक- विश्वास में बड़ी आस्था है। धार्मिक उत्सव में ये ‘दबुर’ की पूजा करते हैं। विभिन्न देवताओं को संतुष्ट करने के लिए ‘दबुर’ की पूजा की जाती है। मिसिंग लोग मुर्गे को संकट का रक्षा कवच मानते हैं।

मिसिंग उत्सवप्रिय होते हैं। इनका जातीय उत्सव आलि-आये लृगांग’ है। ये अतीत काल से ही यह उत्सव मनाते आ रहे हैं। इसके अतिरिक्त वे असम का जातीय उत्सव बिहू भी मनाते हैं। मिसिंग समाज एक सुव्यवस्थित समाज है। इस समाज में पुरुष व महिला एक समान होते हैं। इनमें कोई भेद-भाव नहीं होता। पुरुषों की तरह महिलाएँ भी कृषि-कार्य, गृह कार्य आदि में समान रूप से हिस्सा लेती हैं। साहित्यकार भृगुभुनि काग्युंग, शहीद कमला मिरि, संस्कृति के पितामह ऐराम बरि, पद्मश्री यादव पायेंग आदि मिसिंग समाज के स्वनाम धन्य व्यक्ति हैं।

पाठ्यपुस्तक संबंधित प्रश्न एवं उत्तर:

1. ‘मिसिंग जनजाति के बारे में संक्षेप में लिखिए। 

उत्तर: मिसिंग असम की दूसरी सबसे बड़ी जनजाति है। मिसिंग लोगों को ‘मिरि नाम से भी जाना जाता है। भारतीय संविधान में मिसिंग को ‘मिरि’ नाम से असम की मैदानी जनजाति का दर्जा दिया गया है। मिसिंग लोग ‘मिरि’ शब्द का प्रयोग स्वयं नहीं करते। ‘मिरि’ शब्द का प्रयोग मिसिंग समाज के एक वर्ग विशेष मिबू या पुरोहित के लिए किया जाता है।

2. ‘मिसिंग’ लोगों के किसी तीन प्रकार के परिधानों के नाम लिखिए। 

उत्तरः मिसिंग लोगों के तीन प्रकार के परिधानों के नाम इस प्रकार हैं- मिबु गालुग, गनर, उगन टंगाली आदि। 

3. ‘मिसिंग’ लोगों के धर्मपंथ का संक्षिप्त परिचय दीजिए।

उत्तर: ‘मिसिंग’ लोग महापुरुषीया शैव, शाक्त, तांत्रिक और विशेषकर केवलीया या रात्रि सेवा धर्म पंथ को मानते हैं। इसके बावजूद स्वधर्म के रूप में ‘दई पलो’ उनका मूल धर्म है। लोक विश्वास में इनकी बड़ी आस्था है। ये मुर्गे को संकट का रक्षा कवच मानते हैं। धार्मिक उत्सव में ‘दबुर’ की पूजा का बड़ा महत्व है। विभिन्न देवताओं को संतुष्ट करने के लिए ‘दबुर’ पूजा की जाती है। मिसिंग लोगों का विश्वास है कि ‘दई पलो’ अर्थात् सूर्य-चंद्र जन्म से लेकर मृत्यु तक जीवन का संचालन करते हैं।

4. आलि आये लूगांग किसे कहते हैं और कब मनाया जाता है? 

उत्तर: ‘आलि आये लूगांग’ मिसिंग लोगों का जातीय उत्सव है। मिसिंग लोग प्राचीन काल से ही आलि आये लृगांग उत्सव मनाते आ रहे हैं। जातीय उत्सव आलि-आये लुगांग तीन पदों से मिलकर बना है- आलि, आये और लुगांग आलि का अर्थ है जमीन के नीचे होने वाला बीज, आये का अर्थ है-पेड़- पौधों पर होने वाला फल या बीज और लूगांग का अर्थ है- रोपण कार्य का शुभारंभ। यह उत्सव फाल्गुन महीने के प्रथम बुधवार को मनाया जाता है।

5. आलि आये लुगांग शब्द की व्युत्पत्ति लिखिए।

उत्तर: ‘आलि आये लुगांग’ मिसिंग लोगों का महत्वपूर्ण उत्सव है। यह उत्सव कृषि से संबंधित है।’ आलि आये लुगांग’ में तीन शब्द हैं और तीनों शब्दों की व्युत्पतिगत अर्थ अलग-अलग है। ‘आलि’ का अर्थ है – जमीन के नीचे होनेवाला बीज; ‘आये’ का अर्थ है- पेड़-पौधों पर होने वाला फल या बीज और लृगांग का अर्थ है – बीज रोपण का शुभारंभ।

6. संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए: 

(क) भृगुमुनि काग्युंग।

उत्तरः भृगुमुनि काग्युंग का जन्म सन् 1932 में अक्टूबर महीने में आलिमूर गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम खहुवा और माता का नाम याबरी था। भृगुमुनि ने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा अपने गाँव के ही 58 नंबर आलिमूर प्राथमिक विद्यालय से प्राप्त की। भृगुमुनि बचपन से ही आत्मनिर्भरशील प्रवृत्ति के थे। पिता की मृत्यु के पश्चात् स्वयं की पढ़ाई का खर्च स्वयं ही पूरी करते थे। जिसके फलस्वरूप दिन में अर्थ उपार्जन के उद्देश्य से विभिन्न प्रतिष्ठानों में काम करते और रात्रि में कॉलेज में पढ़ाई करते। इसी प्रकार पढ़ाई करते हुए जोरहाट के जेबी कॉलेज से आई.ए. और बी. बरुवा कॉलेज, गुवाहाटी से 1987 में स्नातक की डिग्री प्राप्त की। हाई स्कूल में पढ़ते वक्त उन्होंने पत्रकार कमला सइकिया के साथ मिलकर सन् 1952 में दिखौमुख में एक एम.ई. स्कूल की स्थापना की तथा इसी विद्यालय में उन्होंने बिना किसी वेतन के शिक्षक के रूप में कार्य भी किया। इसके पश्चात् 1958 में जोरहाट वोकेशनल कॉलेजियट हाई स्कूल में शिक्षक के पद पर कार्य करना शुरू किया।

भृगुमुनि काग्युंग का असमीया काव्य साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। उनके द्वारा रचित काव्य-ग्रंथ इस प्रकार हैं- कविता कलि, आनाहुत, मन बननिर जुई आदि। आनाहुत काव्य ग्रंथ के लिए उन्हें 1971 में भारत के राष्ट्रपति ने पुरस्कृत भी किया था। भृगुमुनि मिसिंग जनजाति के प्रथम राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त करने वाले व्यक्ति थे। उन्होंने असमीया भाषा के अतिरिक्त मिसिंग भाषा में भी काव्यों की रचना की। मिसिंग भाषा में रचित काव्य-संग्रह इस प्रकार हैं-क: कांग मौतम् दःजिंग। उन्होंने कुल 27 ग्रंथों का संपादन भी किया और कुछ निबंधों की भी रचना की, जिनके नाम इस प्रकार हैं- आंचलिक भाषा बनाम त्रिभाषा, मिसिंग कृष्टिर समु आभास, भाषा आरु शिक्षार भूमिका आदि।

असमीया और मिसिंग भाषा-साहित्य के विकास हेतु कार्य करते हुए भृगुमुनि काग्युंग की मृत्यु 27 मार्च, 2011 को हुई।

(ख) शहीद कमला मिरि।

उत्तर: अपनी जन्मभूमि को पराधीनता के चंगुल से मुक्त कराने के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन न्यौछावर करने वाले शहीद कमला मिरि का जन्म सन् 1894 में शिवसागर जिले के रंगामाटी मौजा अन्तर्गत ऊपर टेमेरा गाँव में हुआ था। कमला मिरि के पिता का नाम सिकौ लइंग और माता का नाम मंगली लइंग था। उन्होंने औपचारिक शिक्षा भोलागुरी से प्राप्त की।

कमला मिरि के दिनों में देश में महात्मा गांधी के नेतृत्व में स्वाधीनता आंदोलन भारत के कोने-कोने में फैला हुआ था तथा जिसका प्रभाव असम के लोगों पर भी पड़ा। इसी से प्रभावित होकर कमला मिरि के नेतृत्व में महुरा मौजा के बंकुवाल अंचल से विकाराम मिरि, बेजिया लइंग, भूटाई लइंग, धातुराम पेगु, बोंदा लइंग, शंभुराम मिरि आदि स्वाधीनता आंदोलन में कूद पड़े। उन दिनों टेमेरा से लेकर गेलाबिल के उत्तरी हिस्से के गाँव में अफीम, भांग आदि मादक द्रव्यों का प्रभाव था। अफीम से भरे टेमेरा गाँव को अफीम से मुक्ति कमला मिरि और उनके सहयोगियों की देन है।

महात्मा गाँधी के नेतृत्व में हुए भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान गाँधी जी को जेल में डाल दिया गया था तब कमला मिरि की अध्यक्षता में 18/8/1942 को रंगामाटी मौजा के ऊपर टेमेरा गांव में शांति सेना दल का गठन कर अठारह सदस्यीय दल को गोलाघाट में धरना देने के लिए चुना गया। इसी दौरान सन् 1942 के सितम्बर महीने के आखिरी सप्ताह में गोलाघाट कांग्रेस कार्यालय में आन्दोलन का समाचार लेने के लिए जाते समय कमला मिरि और उनके साथियों को पकड़कर जेल में डाल दिया गया जहाँ इस महान देशप्रेमी की सन् 1943 के 22 अप्रैल की मध्यरात्रि को मृत्यु हो गई। इस प्रकार महान शहीद कमला मिरि ने देश की आजादी के लिए अपना जीवन न्यौछावर कर दिया।

(ग) ऐराम बरि।

उत्तरः मिसिंग संस्कृति के पितामह ऐराम बरि का जन्म ब्रिटिश प्रशासन के अधीन नेफा (NEFA) के अन्तर्गत अयान गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम ताकिर बरि तथा माता का नाम मंडली बरि था। उनके गाँव में कोई स्कूल न होने की वजह से उन्होंने अपने गाँव से तीस पैंतीस कि.मी. दूर मुर्कंगसेलेक के अन्तर्गत मेसाकी प्राथमिक विद्यालय में चौथी कक्षा तक अध्ययन किया।

मिसिंग कला संस्कृति के पितामह ऐराम बरिदेव ने कुछ युवक- युवतियों को साथ लेकर उसकी पद्धतिबद्ध चर्चा, संरक्षण और संवर्द्धन के कार्य में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनका सहयोग करने वाला पंद्रह- सोलह लोगों का एक दल था। बरिदेव की इस सांस्कृतिक मंडली ने जोनाई, पासीघाट से आरम्भ कर गुवाहाटी, जोरहाट, डिब्रुगढ़, माजुली तक लोककला का प्रदर्शन किया तथा उसे एक नई ऊँचाई प्रदान की। साथ ही उन्होंने पाँच युवतियों के सहयोग से पद्धतिबद्ध रूप में लृगांग लः ले, गुमराग नृत्य का प्रदर्शन कर मिसिंग कला को नया रूप प्रदान किया।

इसके अतिरिक्त उन्होंने पिछड़े गाँवों में व्याप्त अशिक्षा, गंदगी, एकता का अभाव, सामाजिक कुरीतियाँ आदि दुर्गुणों को दूर कर एक स्वच्छ, निर्मल समाज की स्थापना की। उन्होंने ‘अयान अंचल सुधार और उन्नति सभा’ से आरम्भ कर’ भारत के स्वतंत्रता संग्राम’ तक कई महत्वपूर्ण कार्य किये। इस प्रकार उन्होंने देश और समाज के लिए अपना सर्वस्व नौछावर कर उसे एक नई ऊँचाई प्रदान की।

(घ) यादव पायेंग।

उत्तरः प्रकृति प्रेमी यादव पायेंग का जन्म 30 अक्टूबर, सन् 1959 में जोरहाट जिले के ककिलामुख के बरघोप गाँव में हुआ था। उनके पिता का नाम लक्षीराम पायेंग तथा माता का नाम आफूली पायेंग था। उन्होंने अपने गाँव के बालिगाँव प्राथमिक विद्यालय से अपना शैक्षणिक जीवन प्रारम्भ किया। सन् 1979 से उन्होंने वृक्ष के पौधे लगाने का काम भी शुरू किया तथा कालांतर में विशाल ‘काठिन’ का निर्माण किया जो वर्तमान में नवगठित माजुली जिले के औना या अरुणा चापरि (चर) के किनारे स्थित है। पायेंग के ‘मोलाई काठिन’ में विभिन्न औषधिमूलक पेड़-पौधे व जीव-जन्तु भरे पड़े हैं। यह यादव पायेंग की देन है। यादव पायेंग का कहना है कि उनसे मिलने आये अतिथि अगर उन्हें ‘गामोछा’ पहनाने के बदले अगर ‘मोलाइ काठनि’ में जाकर एक-एक वृक्ष के पौधे लगाते हैं तो उन्हें बेहद खुशी होती है। पर्यावरण की सुरक्षा के लिए किए गए यादव मोलाइ पोयंग द्वारा क्रियान्वित महान कार्यों के प्रतिदानस्वरूप सन् 2012 में नई दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय ने उन्हें भारत का अख्य मानव उपाधि से सम्मानित किया। उसी साल भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने 250 लाख रुपए सहित उन्हें ‘हीरा खोदित’ पुरस्कार तथा 2015 में भारत सरकार ने पद्मश्री से नवाजा। 

इसी प्रकार उन्होंने प्रकृति और समाज के लिए कार्य करते हुए अनेक पुरस्कार प्राप्त किये तथा प्रकृति के संरक्षण में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया।

अतिरिक्त प्रश्न एवं उत्तर

1. मिसिंग समाज में ‘मिरि’ शब्द किसके लिए प्रयुक्त होता है? 

उत्तर: मिसिंग समाज में ‘मिरि’ शब्द उनके एक विशेष वर्ग मिबु या पुरोहित के लिए प्रयुक्त होता है।

2. मिसिंग लोगों के लिए संवैधानिक प्रावधान क्या है? 

उत्तर: भारतीय संविधान में मिसिंग यानी मिरि को मैदानी जनजाति का दर्जा प्राप्त है।

3. मिसिंग लोग ‘तानि’ शब्द किसके लिए प्रयुक्त करते हैं ? इस शब्द का क्या अर्थ है?

उत्तर: मिसिंग लोग ‘तानि’ शब्द अपने-आप के लिए प्रयुक्त करते हैं। ‘तानि’ शब्द का अर्थ है-मनुष्य या आदमी।

4. ‘कौबांग’ क्या है?

उत्तर: मिसिंग गाँव में शांति व भाईचारा बनाए रखने के लिए गाँवबुढ़ा (मुखिया) रहता है। किसी व्यक्ति के अपराध करने पर ‘कौबांग’ यानी जनता दरबार लगाया जाता है। ‘कौबांग’ में गाँवबुढ़ा की उपस्थिति में अपराध की सुनवाई होती है। कौबांग का आयोजन गाँवबुढ़ा के आँगन में होता है।

सारांश:

असम की जनगोष्ठियों में ‘मणिपुरी’ प्रमुख है। असम में मुख्य रूप से बराक और ब्रह्मपुत्र घाटी में मणिपुरी लोग निवास करते हैं। बराक घाटी के कछार, हैलाकांदी और करीमगंज जिले में मणिपुरी लोग स्थायी रूप से रहते हैं। वर्तमान में होजाई जिले, कामरूप महानगर जिले के गुवाहाटी, उदालगुड़ी, कार्बी आंग्लांग, डिमा- हसाओ, शिवसागर, डिब्रुगढ़, गोलाघाट आदि जिलों में मणिपुरी लोग रह रहे हैं। मणिपुरी तिब्बत-बर्मी भाषा-परिवार के अंतर्गत आती है। मणिपुरी को मैते या मीते भी कहते हैं। यह भाषा और जाति दोनों को परिभाषित करता है। मणिपुरी या मैतै लोगों की भाषा मैतैलोन है। लोन शब्द का अर्थ भाषा है। मणिपुरी भाषा की लिपि का नाम ‘मीतै मयेक’ है। मणिपुरी भाषा को सन् 1992 में संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया। इस भाषा का प्रचलन मणिपुर, असम, त्रिपुरा, मिजोरम, मेघालय, नागालैंड के अलावा दक्षिण-पूर्व एशिया के म्यांमार और बांग्लादेश में भी है। मणिपुरी भाषा वर्तमान में असम में प्राथमिक एवं माध्यमिक स्तर तक शिक्षा के माध्यम के रूप में प्रचलित है। भाषा-साहित्य, कला-संस्कृति के क्षेत्र में मणिपुरी लोग समृद्ध हैं। मणिपुरी संस्कृति में महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। महिला के बिना कोई भी धार्मिक कार्य या सामाजिक आयोजन आदि का शुभारंभ नहीं किया जाता है। महिला का स्थान पुरुष के बराबर होता है। मणिपुरी महिलाएँ पारंपरिक पोशाक पहनकर अपनी संस्कृति को अटूट रखी हुई हैं। मणिपुरी लोग धर्म पर बड़ी आस्था रखते हैं। वे वैष्णव होते हुए भी अपने कुल देवताओं ‘लाइनिंधौ छानामही’, ‘इमा लैमरेन शिदवी’ आदि देवी-देवताओं की लोकाचार के अनुसार पूजा-अर्चना करते है।” लाई हराओबा” मणिपुरी लोगों का प्रधान उत्सव है। यह उत्सव कृषि संबंधित है।‘“लाई हराओबा” का अर्थ है- ‘अदृश्य आराध्य को संतुष्ट करना।’ यह उत्सव मणिपुरी संस्कृति का दर्पण है। ‘लाई हराओबा’ के प्रधान कलाकार माइबा माइबी होते हैं। इस नृत्य का प्रधान वाद्ययंत्र ‘पेना’ होता है। पेना वीणा की तरह एक सुरीला वाद्ययंत्र है। वृहत्तर असमीया जाति के गठन में मणिपुरी लोगों का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है।

पाठ्यपुस्तक संबंधित प्रश्न एवं उत्तर:

1. मणिपुरी लोग असम में स्थायी रूप से रहने के लिए कब आए?

उत्तर: मणिपुरी लोग असम में स्थायी रूप से 1819 में रहने के लिए आए।

2. भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में मणिपुरी भाषा कब शामिल की गई? 

उत्तर: भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में मणिपुरी भाषा को सन् 1992 में शामिल किया गया।

3. मणिपुरी मीतै/ मैतै समाज के सात येक छलाई के नाम क्या-क्या है? 

उत्तर: मणिपुरी मीतै/ मैतै समाज के सात येक छलाई के नाम इस प्रकार है- मंगांम (निधौपा), लुवांग, खुमन, मोइरांग, आगोम, खाबा- गानबा और चेंग्लै।

4. मणिपुरी मीतै/ मैतै लोगों के घरों में पूजे जाने वाले देव-देवियों के नाम क्या-क्या है? 

उत्तर: मणिपुरी मीत/ मैं लोगों के घरों में पूजे जाने वाले देव देवियों के नाम ‘युमलाई’ है।

5. लाई हराओबा क्या है? साल के किस महीने में लाई हराओबा उत्सव मनाया जाता है? लाई हराओबा उत्सव में इस्तेमाल होने वाले एक वाद्य यंत्र का नाम लिखिए।

उत्तरः ‘ लाई हराओबा’ एक मणिपुरी उत्सव एवं मणिपुरी संस्कृति का दर्पण है। यह उत्सव साल के बैसाख महीने में मनाया जाता है। लाई हराओबा उत्सव में इस्तेमान होने वाले एक वाद्य यंत्र का नाम ‘पेना’ है।

6. मणिपुरी मीतै/ मैतै लोगों के कुछ नृत्यों के नाम लिखिए। 

उत्तर: मणिपुरी मीतै/ मैतै लोगों के कुछ नृत्यों के नाम ‘थाबल चोंग्बी, ‘मोइबी जगोई’ आदि हैं।

7. संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए:

(क) नाओरिया फूलो।

उत्तरः आधुनिक मणिपुरी साहित्य के कर्णधारों में एक नाओरिया फूलो का जन्म असम के हैलाकांदी जिले के राजेश्वरपुर मौजे के ‘लाइ श्रम खुन’ नामक गाँव में 28 अगस्त, 1888 को हुआ था। उनके पिता का नाम नाओरेम चाओबा और माता का नाम थम्बो देवी था।

बीसवीं शताब्दी का तृतीय दशक मणिपुरी आधुनिक साहित्य के अरुणोदय का समय था। उन्होंने अध्यापन के समय से ही अनुवाद के जरिए साहित्य चर्चा शुरू की। सन् 1918 से सन् 1919 तक हिन्दू उपाख्यान पर कुल पाँच नाटकों की रचना की, वे इस प्रकार हैं- इनिंगथो हरिचंद्र, सीता वनवास, दष्यंत शकुंतला, श्रवण कुमार आदि। इसके अतिरिक्त उन्होंने 19 कविता, निबंधों की भी रचना की। उनकी गद्य रचनाओं में मीतै हौभमवारी (मीतै का इतिहास), गौड़ धर्म चंगकपा मतांग (गौड़ या गौड़ीय धर्म स्थापना का संधिकाल), हौरकपा अमसूंग हौभम (पुरावृत्त) इत्यादि प्रमुख हैं।

उनकी पद्य रचनाओं में यूमलाइरोन (1930), शिंथा चैथारोन (1930), सकोक थीरेन (1931) इत्यादि प्रमुख हैं।

उन्होंने अपनी विचारधारा के 12 अनुरागियों को लेकर 13 अप्रैल, 1930 में ‘ अपोकपा मरूप’ (अपोकपा समाज) का गठन किया। कालांतर में उन्होंने मणिपुर में भी अपोकपा समाज की स्थापना की।

उनकी कविताएँ आध्यात्मिक भाव और प्राचीन गौख का गुणगान, विलुप्त मीतै देव-देवियों के स्त्रोत, स्तुति, मंत्र आदि से परिपूर्ण हैं। उनके ये साहित्य अमूल्य धरोहर हैं। बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न नाओरिया फूलो की मृत्यु 30 जून, 1941 को मात्र 53 वर्ष की अवस्था में हुई।

(ख) नृत्यगुरु के. यतीन्द्र सिंह।

उत्तर: विश्व भारती शांति निकेतन संगीत भवन से सेवानिवृत्त प्राचार्य सम्मानित नृत्यगुरु के. यतीन्द्र सिंह का जन्म 22 अप्रैल, 1943 को असम के कछार जिले के लखीपुर में हुआ था। उनके पिता का नाम मणिपुरी नट-संकीर्तन गुरु की कामिनी सिंह और माता का नाम श्रीमती पशोत्लैमा देवी था। वे बचपन से ही विनम्र, विनयी, संगीत प्रेमी तथा नृत्यप्रेमी थे। उन्होंने अपने पिता से नट्- संकीर्तन और नृत्य की प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त की। सन् 1965 में छात्रवृत्ति प्राप्त कर वे विश्व भारती शांति निकेतन में नृत्य की शिक्षा प्राप्त करने गये। शिक्षा पूरी कर विश्व भारती शांति निकेतन में नृत्य एवं संगीत विभाग में अध्यापक पद पर नियुक्त हुए। वे राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित नृत्य की कई कार्यशालाओं, विचारगोष्ठियों तथा सांस्कृतिक समारोहों में नृत्य प्रदर्शित कर तथा विचार प्रकट कर लोगों का दिल जीतने में सफल रहे। विश्व भारती के संगीत विभाग के कलाकारों के साथ दक्षिण अमेरिका, चीन, जापान, मलेशिया, सिंगापुर, फ्रांस आदि समेत दुनिया के कई देशों में मणिपुरी और रवीन्द्र नृत्य का मंचन कर काफी प्रशंसा प्राप्त की थी।

वे विश्व भारती शांति निकेतन से 2010 में सेवानिवृत्त हुए। उन्होंने ‘त्रिधार’ और ‘मीरजिगांनसा’ नामक दो टेलीफिल्मों में भी कार्य किया। उन्हें सन् 2000 में मणिपुरी साहित्य परिषद असम ने ‘नृत्यगुरु’ तथा 2010 में राजकुमार बुद्धिमंत मेमोरियल डांस एकेडमी, त्रिपुरा ने ‘राजकुमार मेमोरियल अवार्ड’ एवं 2012 में मणिपुरी साहित्य परिषद, इंफाल ने ‘नृत्यरत्न’ उपाधि से सम्मानित किया। इसी प्रकार कार्य करते हुए नृत्यगुरु के यतीन्द्र सिंह की मृत्यु 2 अप्रैल, 2018 को शांति निकेतन में हुई।

(ग) समाजसेविका सरस्वती सिन्हा।

उत्तरः समाजसेविका सरस्वती सिन्हा का जन्म 8 सितम्बर, 1958 को होजाई जिला के अन्तर्गत लंका के आमपुखुरी गाँव में हुआ था। उनके पिता का नाम वाहेंगबम जयचंद्र सिंह तथा माता का नाम वाहँगबम फजबी देवी था। उन्होंने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा प्राइमरी स्कूल आमपुखुरी तथा लंका राष्ट्रभाषा हाई स्कूल से सन् 1916 में मैट्रिक की परीक्षा उतीर्ण की। उन्होंने नगाँव गर्ल्स कॉलेज से 1981 में बी.ए. तथा 1993 में नगाँव कानून महाविद्यालय से कानून में स्नातक की उपाधि प्राप्त की।

उन्होंने कुछ समय असम सरकार के समाज कल्याण विभाग में आंगनबाड़ी कर्मी के रूप में कार्य किया तथा कुछ समय आमपुखुरी एल.पी. स्कूल में अध्यापन का भी कार्य किया। उनकी पहल पर सन् 2005 में मणिपुरी भाषा-साहित्य के उत्थान के लिए होजाई में अखिल मणिपुरी साहित्य मंच का गठन किया गया। सरस्वती सिन्हा ने 1996 में होजाई शंकरदेव नगर अदालत में एक अधिवक्ता के रूप में कार्य शुरू कर अपनी प्रतिभा से अति कम समय में स्वयं को प्रतिष्ठित किया। उन्होंने नारी समाज में चेतना जागरण के उद्देश्य से होजाई, लंका, नगाँव के इलाकों की महिलाओं के विभिन्न संगठनों की स्थापना कर उसका स्वयं संचालन किया। उन संगठनों में ‘मैरा पाइबी लूप’ (मशालधारी महिला वाहिनी) नामक महिला संगठन सबसे उल्लेखनीय है। इस प्रकार विभिन्न महिला संगठनों के माध्यम से महिलाओं में नई चेतना पैदा करने में अद्भुत सफलता प्राप्त की। उन्होंने समाजसेवा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें मणिपुरी साहित्य परिषद, असम ने 2012 में ‘समाजसेविका’ उपाधि से विभूषित किया। 

अन्ततः 5 दिसम्बर, 2012 को वे स्वर्ग सिधार गई।

(घ) नोंगथोम्बम विद्यापति सिंह।

उत्तरः बहुमुखी प्रतिभासंपन्न नोंगथोम्बम विद्यापति सिंह का जन्म 24 नवम्बर, 1912 को हैलाकांदी जिले के लाला शहर में हुआ था। उनके पिता का नाम ललित सिंह तथा माता का नाम मइसन देवी था। विद्यापति सिंह ने 1931 में कलकत्ता विश्वविद्यालय के अधीन प्रथम श्रेणी से मैट्रिक पास की। इसके पश्चात् मुरारीचंद कॉलेज से इंटरमीडिएट की परीक्षा तथा 1935 में ढाका विश्वविद्यालय के अधीन इतिहास में ऑनर्स सहित बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। उन्होंने 1936 में कछार जिले के सोनाई एम.ई. स्कूल में अंग्रेजी के शिक्षक के रूप में कार्य शुरू किया। उनकी अध्यक्षता में सन् 1939 में कछार मणिपुरी एवं युवा संघ नामक एक संगठन की स्थापना हुई। सन् 1946 में आयोजित असम विधानसभा चुनाव में साउथ हैलाकांदी से निर्वाचित हुए तथा वे सन् 1951 तक विधायक रहे। विधायक रहते समय उन्होंने अपनी मातृभाषा मणिपुरी के माध्यम में शिक्षा-दीक्षा की सुविधा प्रदान करने की माँग कई बार उठाई तथा परिणामस्वरूप असम सरकार ने मणिपुरी भाषा को शिक्षा के माध्यम के रूप में स्वीकृति प्रदान की।

स्वजाति और जनता के लिए निःस्वार्थ भाव से काम करते हुए 14 सितम्बर, 1954 को 42 वर्ष की अल्पायु में सोनाई शहर में नोंगथोम्बम विद्यापति सिंह का निधन हो गया।

अतिरिक्त प्रश्न एवं उत्तर:

1. मान सेना ने मणिपुर पर हमला कब किया? मणिपुरी लोगों का आगमन असम में कैसे हुआ?

उत्तरः मान सेना ने सन् 1819 में मणिपुर राज्य पर हमला किया। मान सेना के बर्बर अत्याचार व उत्पीड़न से तंग आकर मणिपुरी लोगों का कुछ हिस्सा असम के कछार आदि स्थानों पर आकर बस गया।

2. मणिपुरी भाषा की लिपि क्या है? 

उत्तर: मणिपुरी भाषा की लिपि का नाम ‘मीतै मयेक’ है।

3.असम सरकार ने असम में मणिपुरी भाषा को शिक्षा का माध्यम कब बनाया?

 उत्तर: असम सरकार ने सन् 1956 से मणिपुरी बहुल क्षेत्रों में निम्न प्राथमिक विद्यालयों और 1984 में हाईस्कूल स्तर पर मणिपुरी भाषा को शिक्षा के माध्यम के रूप में प्रचलित किया।

4. मणिपुरी लोगों का मुख्य खाद्य क्या है?

उत्तर: मणिपुरी लोगों का मुख्य खाद्य चावल और मछली है।

5. किन्हीं दो मणिपुरी नृत्यों का उल्लेख कीजिए। 

उत्तर: ‘थाबल चोंग्बी’, ‘मोइबी जगोई’ आदि मुख्य मणिपुरी नृत्य हैं।

6. मणिपुरी भाषा-साहित्य कैसा है?

उत्तर: मणिपुरी भाषा और उसका साहित्य समृद्ध है। मणिपुरी भाषा में अनेक अनमोल पुस्तकें हैं। नाओरिया फूलो एक महान मणिपुरी साहित्यकार थे।

सारांश:

असम में निवास करनेवाली राभा जाति के लोग अनुसूचित जनजाति के अंतर्गत आते हैं। राभा एक आदिम जाति है। राभा समुदाय के लोग असम, मेघालय और पश्चिम बंगाल के विभिन्न स्थानों पर बसे हुए हैं। असम में राभा जनजाति गारो पहाड़ जिले के ‘फुलबारी’ से दक्षिण कामरूप के रानी तक तथा गारो पहाड़ और खासी पहाड़ जिलों के उत्तर सीमांत तक फैली हुई है। राभा समुदाय के लोग नेपाल, भूटान, बांग्लादेश और भारतवर्ष के मेघालय समेत कई राज्यों के साथ असम के विभिन्न जिलों- कोकराझार, बंगाईगांव, चिरांग, बाक्सा, उदालगुड़ी, कामरूप, शोणितपुर गोलाघाट, नगांव, धेमाजी, डिब्रुगढ़, शिवसागर आदि के विभिन्न इलाकों में बसे हुए हैं। राभा इंडो-मंगोल परिवार से संबंधित है। राभा शब्द भाषा और व्यक्ति दोनों को परिभाषित करता है। अपने प्राचीन गौरव, विशिष्ट पहचान तथा पौराणिक आख्यान- उपाख्यान से परिपूर्ण है राभा जाति। राभा भाषा शोध और अभ्यास के अभाव में विस्मृत-सा हो गया है। परंतु अखिल राभा साहित्य सभा की पहल से इस भाषा में काफी शोध हुआ है तथा राभा भाषा के पुनरुद्धार व संरक्षण की पहल शुरू हो गई है। अब तक दो शब्दकोश, अनेक पाठ्यपुस्तकें एवं पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित हो चुके हैं। राभा लोग अपनी कला-संस्कृति में धनी हैं। राभा समाज में प्रचलित लोकगीत, लोककथा, लोक-विश्वास एवं लोक-संस्कृति, पूजा-अर्चना, उत्सव पर्व अपने- आप में विशिष्ठता प्रदान करते हैं। राभा जनजाति के लोग युद्ध प्रिय हैं। प्राचीन काल में भी युद्ध के क्षेत्र में पुरुष और महिला सक्रिय रूप से हिस्सा लेते थे। कृषिकार्य में भी महिलाएँ बढ़-चढ़कर हिस्सा लेती हैं। युद्ध-संघर्ष पसंद करने के कारण राभा जाति को क्षत्रीय भी कहा जाता है।

पाठ्यपुस्तक संबंधित प्रश्न एवं उत्तर:

1. राभा लोगों का आदि निवास स्थान कहाँ था? 

उत्तरः राभा लोगों का निवास स्थान असम और पश्चिम बंगाल है।

2. सामाजिक दृष्टि से राभा लोग कितनी शाखाओं में विभक्त हैं? 

उत्तर: सामाजिक दृष्टि से राभा लोग कई शाखाओं में विभक्त हैं, जैसे-रंगदानी, पाति, दाहरी, मायतरी, कोच, बितलिया, हाना, मदाही आदि।

3. राभा संस्कृति का प्रतीक क्या है? 

उत्तरः राभा संस्कृति का प्रतीक ‘मानचार्लेका’ या ‘माछरोका’ पक्षी है। यह अतीत काल से राभा संस्कृति का प्रतीक चिह्न है।

4. राभा लोगों के प्रधान देवता कौन हैं?

उत्तरः राभा लोगों के प्रधान देवता ‘रिसि’ या ‘महादेव’ हैं। राभा लोग ‘बायखो’ पूजा करते हैं।

5. राभा लोगों की मुख्य पूजा का नाम क्या है?

उत्तरः राभा लोगों की मुख्य पूजा का नाम ‘बायखो’ है। आख्यान के अनुसार ‘बाय- खोकसि’ नामक दो देवी बहनों से ‘बायखो देवी’ और ‘खोकसि देवी’ बनी हैं, जिनकी पूजा राभा लोग अतीत से करते आ रहे हैं।

6. संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए:

(क) विष्णु प्रसाद राभा।

उत्तरः कलागुरु विष्णुप्रसाद राभा कवि, साहित्यकार, नाटककार, संगीतकार, नृत्यविद्, अभिनेता, खिलाड़ी और चित्रकार थे। इनका जन्म 31 जनवरी, 1909 को ढाका शहर (वर्तमान बांग्लादेश) की सैन्य छावनी में हुआ था। उनके पिता गोपाल चंद्र राभा थे और माता गेथीबाला राभा थीं। विष्णुप्रसाद राभा ‘कलागुरु’ के नाम से चिरप्रसिद्ध हैं। विष्णु राभा की प्राथमिक शिक्षा ढाका के एक अंग्रेजी माध्यम के प्राथमिक विद्यालय में आरंभ हुई, किंतु पिता ने बाद में उन्हें बंगाली माध्यम में भर्ती कराया। तेजपुर आने पर उन्होंने असमीया माध्यम में शिक्षा प्राप्त की। सन् 1926 में तेजपुर हाई स्कूल से जिले भर में प्रथम श्रेणी में प्रवेशिका उत्तीर्ण कर ‘क्वीन एम्प्रेस’ पदक प्राप्त किया था। महापुरुष श्रीमंत शंकरदेव के प्रति विष्णु राभा की बड़ी आस्था थी। उन्होंने कलकत्ता के रिपन कॉलेज से बी.एससी. की डिग्री हासिल की थी। विष्णु राभा एक महान देशप्रेमी थे और इसलिए वे अंग्रेजों की नजरों में आ गए थे। विष्णु राभा ने अंग्रेजों की आँख में धूल झोंकते हुए रिपन कॉलेज छोड़कर कूचबिहार के विक्टोरिया कॉलेज में नाम लिखवा लिया। 

इक्कीस वर्षीय विष्णु राभा विक्टोरिया कॉलेज से स्वाधीनता आंदोलन में कूद पड़े। उनकी यह काव्यांश उनके देशप्रेम का सुन्दर उदाहरण है- “राज्ये आछे दुइटि पाठा, एकटि कालो एकटि सादा, राज्येर यदि मंगल चाउँ, दुइटि पाठाइ बलि दाउँ ।” यह विष्णु राभा के जीवन में क्रांति की शुरुआत थी। विक्टोरिया कॉलेज में पढ़ाई अवरुद्ध होने के कारण उन्होंने माइकल कॉलेज में दाखिला लिया। किंतु चयन परीक्षा में सर्वोच्च अंक पाने पर भी उन्हें अंग्रेज की पुलिसिया परेशानी के चलते माइकल कॉलेज छोड़ने पर विवश होना पड़ा। सन् 1931 में उनके छात्र-जीवन का अंत हो गया। कलकत्ता लौटकर उन्होंने नए तेवर के साथ अंग्रेजों के खिलाफ कलम उठाई। ‘बाँही’ पत्रिका में लिखना शुरू किया और असमीया साहित्य प्रेमियों के बीच वे प्रसिद्ध हुए।

सन् 1939 में काशी विश्वविद्यालय के आमंत्रण पर विष्णुप्रसाद राभा ने नृत्य पेश किया था। महादेव का तांडव नृत्य प्रस्तुत कर डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन को मंत्र-मुग्ध करने के साथ ही भूरि-भूरि प्रशंसा बटोरी थी। विद्रोही विष्णुप्रसाद राभा को सन् 1962 में देशद्रोही बताकर जेल में डाल दिया गया था।

यायावरी जीवन बिताने वाले विष्णु राभा ने कई ग्रंथ लिखे, जैसे- ‘सोनपाही’, ‘मिसिंग कनेंग’, ‘असमीया कृष्टिर समु आभास’ और ‘अतीत असम’ आदि। वे सन् 1967 में तेजपुर विधानसभा क्षेत्र से विधायक बने थे। उनका निधन 20 जून, 1969 को हुआ।

(ख) राजेन राभा।

उत्तरः विशिष्ट साहित्यकार राजेन राभा का जन्म 18 सितंबर, 1920 को दुधनै में हुआ था। राजेन राभा ने एम.ई. स्कूल से निकलते ही मात्र पाँच रुपये के पारितोषिक पर एक मारवाड़ी की दुकान में आजीविका शुरू कर दी और अपने दृढ़ संकल्प के बल पर मैट्रिक, आई.ए. और एम. ए. पास की। शिक्षा प्राप्ति के बाद वे राभा समाज-संस्कृति के अध्ययन में जुट गए। आजीवन साहित्य साधक, समाज और मानवप्रेमी राजेन राभा के विराट जीवन का प्रथम चरण दुःख और परेशानियों से भरा था।

वे असम साहित्य सभा के बंगाईगाँव अधिवेशन के उपसभापति और दुधने अधिवेशन की स्वागत समिति के सभापति थे। उन्होंने “राधा” (राभा कहानियाँ), “राभा जनजाति” आदि पुस्तक के अलावा बीसियों निबंध लिखकर असमीया साहित्य को समृद्ध किया। उन्हें असम सरकार की ओर से साहित्यिक पेंशन देने के अलावा राष्ट्रीय कृति शिक्षक का पुरस्कार भी प्राप्त हुआ था।

(ग) प्रसन्न पाम।

उत्तरः प्रसन्न पाम का जन्म सन् 1932 में ग्वालपाड़ा जिले के बालिजान मंडल के अंतर्गत लातापारा गाँव में हुआ था। इनके पिता थे फलम कुमार राभा और माता दाखेल बाला राभा थीं। प्रसन्न पाम बचपन से ही राभा कला-कृष्टि की साधना में लग गए थे। रेडियो कलाकार के रूप में मशहूर प्रसन्न पाम ने कई गोत लिखे और उनके सुर दिए।’ददान वीर’ नाटक के माध्यम से लोकप्रिय हुए प्रसन्न पाम के ‘मास्क्षेत्री’ (नाटक), “सृष्टि विधान”, “मयरा शक्ति” “लांगामुक्ति”, “कामगिरि शक्ति”, “पिदान संसार”, “माया हासंग”, “लेख तेवा जमा तंग्सा” आदि अप्रकाशित पुस्तकें हैं आजीवन राभा कृष्टि के साधक प्रसन्न राभा की मृत्यु 20 फरवरी, 1978 को एक मोटर दुर्घटना में हुई।

(घ) वीरूबाला राभा।

उत्तर: डायन हत्या जैसे अंधविश्वास को दूर कर एक स्वस्थ समाज गढ़ने की लगातार चेष्टा में अपने जीवन को समर्पित करने वाली नेत्री है- डॉ. बीरूवाला राभा। सन् 1949 में ग्वालपाड़ा जिले के ठाकुरबिला गाँव में इनका जन्म हुआ था। इनके पिता का नाम कालिमाराम राधा और माता का नाम सागरबाला राभा था। सिर्फ तीसरी कक्षा तक पढ़ी बीरूवाला का विवाह पंद्रह वर्ष की उम्र में ही हो गया था। बीरूबाला राभा के कर्म- जीवन का प्रारंभ बुनाई कताई से हुआ था। इसके साथ ही सामाजिक कुसंस्कार डायन हत्या के विरुद्ध सक्रिय हो गई। निरंतर अंधविश्वास के विरुद्ध लड़तीं बीरूवाला राभा को कई पुरस्कार और सम्मान दिए गए। वर्तमान में ‘Mission Birubala’ के नाम से डायन हत्या जैसे अंधविश्वास के खिलाफ वे लगातार अभियान चला रही है।

अतिरिक्त प्रश्न एवं उत्तर:

1. राभा समाज में अनेक लोक-विश्वास प्रचलित है। उनमें से किसी का उल्लेख कीजिए।

उत्तरः राभा समाज में पारंपरिक लोक विश्वास के अनुसार संसार के सृष्टिकर्ता ‘रिसि’ (महादेव) से उन्हें भाषा, कला, खाद्य सामग्री आदि दान स्वरूप मिले है।

2. राभा जाति में कौन-कौन-सी शाखाएँ राभा भाषा जानती और कौन- कौन-सी नहीं?

उत्तरः राभा जाति में रंगदानी, मायतरी और कोच राभा लोग ही राभा भाषा जानते हैं। पाति, दाहरी, बिटलीया, हाना आदि राभा भाषा नहीं जानते।

3. राभा लोगों का प्रमुख त्योहार क्या है?

उत्तरः राभा लोग प्राचीन काल से ‘बायखो’ पूजा करते आ रहे हैं। ये लोग जड़ उपासक हैं। पत्थर, पैड़-पौधे की पूजा कर सूअर, मुर्गी, कबूतर आदि अर्पित करते हैं।

4. राभा समाज के कुछ विशिष्ट व्यक्तियों के नाम बताइए। 

उत्तरः राभा समाज में वीर राजा ददान, योद्धा मारुक्षेत्री, राजा परशुराम राभा जैसी महान विभूतियाँ सत्रहवीं शताब्दी में अपने पराक्रम के लिए प्रसिद्ध थे। आधुनिक काल में विष्णु प्रसाद राभा, राजेन राभा, डॉ. बीरूबाला राभा जैसे व्यक्तियों के नाम असम के विकास और एकता में उल्लेखनीय हैं।

सारांश:

सोनोवाल कछारी असम का प्राचीन जनसमुदाय है। ये पहले मंगोल थे, बाद में किरात धर्म को अपनाकर कृषि और यातायात की सुविधा को ध्यान में रखते हुए नदी या पहाड़ के आस-पास के इलाकों में बस गए। इस जनगोष्ठी के लोग जिन नदियों-उपनदियों के तट पर बसे उन नदियों का नामकरण स्वयं किया था। दिहिंग, दिसांग, डिब्रू, दैयांग, डिमौ, दिखौ, डिगारू, दिसै, डाँगरी, दुमदुमा, दिराक, दिक्रंग आदि नदियों के नाम प्राचीन समय में उन्होंने ही रखा था ऐसा पंडितों का मानना है। सोनोवाल का मतलब उज्ज्वल व ऐश्वर्यशाली होता है। सोनोवाल शब्द तिब्बत-बर्मी भाषा गोष्ठी के ‘सुनुवार’ शब्द से आया है। आदिमफा द्वारा भोजपत्र पर लिखित ‘महान जातिर इतिहास’ (महान जाति का इतिहास) में उल्लेख है कि चुकाफा के सौमार में प्रवेश करने के वर्षों पहले सोनोवाल लोगों ने सोना का उत्पादन किया था। और उस समय मौजूदा सोनोवाल शब्द के पहले ‘सुनुवाल’ ही था। 

सोनोवाल कछारी समुदाय के लोग प्रथमतः शाक्त थे, किंतु सन् 1681 में आहोम स्वर्गदेव गदापाणि के राजकोप में पड़कर श्रीश्री केशवदेव गोस्वामी जी ने सदिया के सोनोवाल कछारी बहुल क्षेत्र आँठुकढ़ा चापरि, वर्तमान में कुंडिल और बराक घाटी क्षेत्र में भूमिगत रहते समय अति कौशलपूर्वक सोनोवाल कछारियों को ‘शरण’ देकर द्वैतधर्म में विभाजित किया। सत्राधिकार द्वारा शरण दिलाने पर भी वर्तमान में सोनोवाल कछारी लोग द्वैतधर्मी हैं। शरण लेने के बाद से सोनोवालों के बीच ‘नामघर’ का प्रचलन शुरू हुआ। सोनोवाल कछारी लोगों का लोक-साहित्य मौखिक एवं लिखित दोनों रूपों में विद्यमान है। वर्तमान में उपलब्ध लोक-साहित्य में हायदांग गीत, हुँचरी गीत, बहुवा नृत्य के गीत, आइनाम, धाइनाम, लखिमी नाम, अपेश्वरी नाम, गोसाईं नाम, फूलकोंवर- मणिकोंवर के गीत, जना गाभरू के गीत, बिहू गीत आदि प्रमुख हैं। ये तमाम मौखिक लोक-साहित्य अब लिखित रूप में प्रकाशित होने लगे हैं।

वर्तमान में सोनोवाल कछारियों में शाक्त और वैष्णव दोनों धर्म प्रचलित हैं। ये लोग अपनी पारंपरिक पूजा-अर्चना जैसे- बाथौ पूजा, गजाइ पूजा, गातिगिरि पूजा, स्वर्गदेव पूजा, केंचाईखाइती पूजा के साथ-साथ जातीय उत्सव बिहू भी धूमधाम से मनाते हैं। प्राकृतिक आपदा तथा विभिन्न पक्षों के साथ लड़ाई लड़कर सोनोवाल कछारियों का एक बड़ा हिस्सा सदिया से आकर ऊपरी असम के लखीमपुर, धेमाजी, तिनसुकिया, डिब्रुगढ़, शिवसागर, जोरहाट तथा गोलाघाट जिलों में बस गया।

असम के जातीय जीवन में सोनोवाल कछारियों का योगदान सराहनीय रहा है।

पाठ्यपुस्तक संबंधित प्रश्न एवं उत्तर:

1. डिमासा भाषा में सोनोवाल का मतलब क्या है?

उत्तरः डिमासा भाषा में सोनोवाल का मतलब उज्ज्वल तथा ऐश्वर्यशाली है।

2. सोनोवाल कछारी लोग किस धर्म के उपासक थे? 

उत्तरः सोनोवाल कछारियों में द्वैतधर्म प्रचलित हैं- शाक्त और वैष्णव।

3. सोनोवाल कछारियों के लोक-साहित्य के बारे में लिखिए। 

उत्तरः सोनोवाल कछारियों के लोक-साहित्य में हायदांग गीत, हुँचरी गीत, बहुवा नृत्य के गीत, आइनाम, धाइनाम, लखिमी नाम, अपेश्वरी नाम, गोसाईं नाम, फूलकोंवर-मणिकोंवर के गीत, जना गाभरू के गीत, मरणामरा (दौनी) गीत, बिहू गीत, तरासिमा गीत आदि मुख्य हैं। इसके अलावा पद, मालिता, लोकोक्ति, कल्पित कहानियाँ आदि इनके उल्लेखनीय साहित्य हैं। सोनोवाल कछारियों के ये सभी मौखिक साहित्य फिलहाल लिखित रूप में प्रकाशित होने लगे हैं।

4. सोनोवाल कछारियों की समाज-पद्धति के बारे में संक्षेप में वर्णन कीजिए। 

उत्तरः सोनोवाल कछारियों की समाज-पद्धति की एक अलग पहचान है। ये कई स्तरों पर विभक्त हैं। इनका पहला परिचय जात (सँच) या परिवार से है। फिर वंश, खेल तथा कुचीया होते हैं। वर्तमान में सोनोवालों के बीच 135 जात (सँच) हैं। इनमें से चार या ततोधिक जात (सँच) मिलकर एक-एक वंश होता है। सोनोवाल कछारियों के बीच कुल 25 वंश हैं। इनमें से चौदह वंश को चुनकर कछारी के राष्ट्रनायक माणिक ने हालाली राज्य का संचालन किया था। सोनोवाल कछारियों के विवाह के मामले में सबसे पहले जात (सँच) तथा वंश का विचार किया जाता है। एक ही जात (सँच) या वंश के लोगों को एक ही परिवार के भाई-भाई के रूप में स्वीकार किया जाता है।

5. सोनोवाल कछारियों को क्यों द्वैत धर्म का कहा जाता है? 

उत्तरः सोनोवाल कछारी समाज लोग 830 ईसवी से शाक्त या पुरातन धर्म के उपासक थे। किंतु सन् 1681 में आहोम स्वर्गदेव गदापाणि के राजकोप में पड़कर श्रीश्री केशवदेव गोस्वामीदेव ने सदिया के सोनोवाल कछारी बहुल क्षेत्र आँठुकढ़ा चापरि, वर्तमान कुंडिल और ब्रह्मपुत्र घाटी क्षेत्र में भूमिगत रहते समय अति कौशलपूर्वक सोनोवाल कछारियों को ‘शरण’ देकर द्वैत धर्म में विभाजित किया। सत्राधिकार के पास शरण लेने वालों को हिन्दूरीया तथा शरण न लेनेवालों को बेहारी के रूप में नामकरण किया गया। उसी समय से सोनोवाल कछारी लोगों के बीच ‘गोसाई-नाम’ शामिल हुआ। सत्राधिकार द्वारा शरण दिलाने पर भी वर्तमान सोनोवाल कछारी लोग द्वैत धर्मी हैं।

(क) गगन चन्द्र सोनोवाल।

उत्तर: गगन चन्द्र सोनोवाल जी साहित्य-संस्कृति के नीरव साधक थे। उनका जन्म तिनसुकिया जिले के बरहापजान के समीप शुकानगुड़ी चाय बागान में 24 दिसंबर, 1926 को हुआ था। उनके पिता का नाम तिलक सोनोवाल और माता का नाम अदिति सोनोवाल था।

गगन चन्द्र सोनोवाल की प्रारंभिक शिक्षा माकुम प्राथमिक विद्यालय में हुई। उच्च शिक्षा के तौर पर उन्होंने डिब्रुगढ़ के कनोई कॉलेज से प्राक् स्नातक परीक्षा पास की। उन्होंने अपना कर्म-जीवन अध्यापन से प्रारंभ किया। तिनसुकिया जिले के काकोपथार में सन् 1947 में मध्य अंग्रेजी विद्यालय में शिक्षक के रूप में नियुक्त होकर वहीं से 31 दिसंबर, 1988 को अवकाश प्राप्त किया।

बचपन से ही सोनोवाल जी का साहित्य चर्चा में रुझान था। उन्होंने ग्यारह वर्ष की उम्र में ही ‘मानव सभ्यता आरु क्रम विकास’ (मानव सभ्यता और क्रम विकास) नामक लेख लिखा था। सोनोवाल जी के प्रकाशित लेख इस प्रकार हैं-

(i) ‘सोनोवाल कछारी सकलर ऐतिह्य’ (सोनोवाल कछारियों का गौरव)

(ii) ‘असमर संस्कृतित सोनोवाल सकलर अवदान’ (असम की संस्कृति में सोनोवालों का योगदान)

(iii) लोक साहित्य संग्रह, जौसे-गीत, हायदांग हुँचरी, आइनाम आदि। इसके अतिरिक्त तेरह निबंध, उन्नीस भाषण तथा छह कविताएँ उन्होंने लिखी है। असमीया भाषा-साहित्य-संस्कृति के प्रति उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए असम सरकार ने उन्हें साहित्यिक पेंशन भी प्रदान किया। उनका निधन 27 अक्टूबर, 2009 को हुआ।

(ख) परशुराम सोनोवाल। 

उत्तर: परशुराम सोनोवाल का जन्म 25 मई, 1904 को डिब्रुगढ़ जिले के नगाधुलि चाय बागान में हुआ था। उनके पिता थे पंचानन सोनोवाल और माता का नाम था गुटिमाला सोनोवाल। परशुराम सोनोवाल सन् 1924 में प्रथम श्रेणी से मैट्रिक की परीक्षा पास की तथा कॉटन कॉलेज से प्रथम श्रेणी से आई.ए. पास करके कोलकाता के प्रेसीडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया। सन् 1928 में इतिहास विषय में मेजर के साथ बी.ए. की परीक्षा प्रथम श्रेणी से पास की। इसके बाद उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से इतिहास विषय में स्नातकोत्तर किया और फिर एलएलबी की डिग्री हासिल की।

परशुराम सोनोवाल पढ़ाई-लिखाई में निपुण होने के साथ ही खेल- कूद, संगीत, चित्रकारी आदि में भी कुशल थे। परशुराम सोनोवाल एम.ए., एल. एल. बी. करने वाले प्रथम असमीया अधिवक्ता थे, जिन्होंने डिब्रुगढ़ अधिवक्ता संघ में अपना नाम पंजीयन करवाया था। वे कई सामाजिक कार्यों में सक्रिय रूप से जुड़े हुए थे। सोनोवाल जी डिब्रुगढ़ लोकल बोर्ड के सदस्य, असम मेडिकल स्कूल बोर्ड के सदस्य, जिला ट्राइबल लीग के अध्यक्ष समेत डिब्रुगढ़ अधिवक्ता संघ के सचिव भी रहे। आजादी के बाद के समय में असम जाति-जनगोष्ठियों की सामाजिक, शैक्षिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक उन्नति में उनकी अहम भूमिका थी। उनका निधन 1 अक्टूबर, 1960 को हुआ।

(ग) योगेश दास।

उत्तर: योगेश दास एक विशिष्ट साहित्यकार व शिक्षाविद् थे। इनका जन्म सन् 1927 में दुमदुमा के हाँहचरा चाय बागान में हुआ था। इनके पिता का नाम सूर्यकांत दास तथा माता का नाम चिंतामणि दास था। इनकी प्रारंभिक शिक्षा दुमदुमा मिड्ल स्कूल में ही हुई थी। उच्च शिक्षा के लिए उन्होंने गुवाहाटी के कॉटन कॉलेज से स्नातक की डिग्री और गौहाटी विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर की डिग्री प्राप्त की। छात्रावस्था से ही कहानी लेखन के प्रति उनकी गहरी रुचि थी। इसलिए बाद में वे एक प्रसिद्ध कहानीकार बन गए। वे बी. बरुवा कॉलेज, गुवाहाटी में असमीया विभाग के विभागाध्यक्ष थे और वहीं से अवकाशप्राप्त किया। वे एक कुशल पत्रकार भी थे। उन्होंने कई पत्र-पत्रिकाओं का संपादन भी किया। वे ‘नतून असमीया’ अखबार के उप संपादक तथा ‘असम साहित्य सभा पत्रिका’ के संपादक थे।

साहित्यिक कृतियाँ: कहानी संकलनों में ‘पपीया तरा’, ‘डाबरर और औरे’, ‘त्रिवेणी’, ‘मदारर वेदना’ तथा ‘हाजार लोकर भीर’ आदि प्रमुख हैं। ‘उपन्यासों में ‘सँहारि पाइ’, ‘डाबर आरु नाई’, ‘जोनाकीर जूइ’, ‘एमुठि धुलि’ आदि प्रमुख हैं। इसके अलावा उन्होंने अंग्रेजी ग्रंथ ‘Folklore of Assam’ भी लिखा। वे असम साहित्य सभा के अध्यक्ष भी थे। इन्हें अनेक पुरस्कार भी मिले थे, जिनमें साहित्य अकादमी, असम उपत्यका साहित्य पुरस्कार आदि प्रमुख हैं। इनका देहावसान 9 सितंबर, 1999 को हुआ।

(घ) योगेन्द्र नाथ हाजरिक। 

उत्तर: असम के पूर्व मुख्यमंत्री योगेन्द्र नाथ हाजरिका बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। लोगों के बीच वे सामान्यतः योगेन हाजरिका नाम से अधिक परिचित थे। वे एक कुशल राजनीतिविद्, दक्ष प्रशासक और सर्वप्रिय व सुशील व्यक्ति थे। डिब्रुगढ़ जिले के टेंगाखात क्षेत्र के पुरणिखंगीया गाँव में 24 फरवरी, 1924 को इनका जन्म हुआ था। इनके पिता का नाम गोलापचन्द्र हाजरिका तथा माता का नाम रत्ना हाजरिका था। आर्थिक तंगी के कारण योगेन्द्र नाथ हाजरिका का परिवार टेंगाखात से बूढ़ीदिहिंग के तट पर स्थित हातीबंधा गाँव में चला आया था। हातीबंधा गाँव में उस समय कोई प्राथमिक विद्यालय न होने के कारण योगेन हाजरिका ने टेंगाखात घाँही गाँव में अपने ही एक रिश्तेदार परिवार के घर में रहकर पास ही स्थित ‘भेकोवाजान प्राथमिक विद्यालय’ में शिक्षा प्राप्त की। आर्थिक तंगी के कारण योगेन हाजरिका को चना-बादाम बिक्री करते हुए खर्च निकालकर अध्ययन करना पड़ता था। उस समय डिब्रुगढ़ के दो दयालु व्यक्ति डंबरुधर सइकिया तथा परशुराम सोनोवाल की प्रेरणा और आर्थिक मदद से उन्होंने सन् 1941 में डिब्रुगढ़ सरकारी बालक हाई स्कूल से मैट्रिक की परीक्षा पास की। 

इसके बाद 1946 में कॉटन कॉलेज से स्नातक, 1949 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से अर्थनीति शास्त्र में एम.ए. तथा 1952 में कानून की डिग्री प्राप्त की। सन् 1952 में स्वाधीन भारत के पहले चुनाव में डिब्रुगढ़ लोकसभा क्षेत्र से सांसद चुने गए थे। सन् 1952 से 1967 तक लगातार लोकसभा सांसद रहे। इस दौरान उन्होंने विदेश मंत्रालय के संसदीय सचिव का पद भी संभाला था। अस्सी के दशक में योगेन हाजरिका असम के राजनीतिक क्षेत्र विधानसभा में प्रवेश किया। विधानसभा चुनाव में डिब्रुगढ़ जिले के दुलियाजान क्षेत्र से जनता दल के टिकट पर चुनाव लड़कर विधायक बने और असम विधानसभा के अध्यक्ष पद पर असीन हुए। इसके बाद सन् 1979 में 91 दिनों के लिए असम के मुख्यमंत्री भी रहे। राजनैतिक जीवन से संन्यास लेने के बाद उन्होंने उच्चतम न्यायालय, दिल्ली में भी वकालत की थी। उल्लेखनीय है कि भारत के सर्वोच्च न्यायालय में वे सोनोवाल कछारी ‘जनगोष्ठी के एकमात्र अधिवक्ता थे।

योगेन हाजरिका पहाड़-मैदान के मिलन के साधक, जनजाति नेता और असमीया जाति के निःस्वार्थ सेवक थे। उन्होंने कई पुस्तकों की भी रचना की। ‘भारतर स्वाधीनतार चमु बुरंजी तथा गण परिषद’ और ‘Consideration on twenty five million soul of Trial India’, हाजरिका जी की दो प्रमुख पुस्तकें हैं। इनका निधन 30 सितंबर, 1997 को हुआ।

अतिरिक्त प्रश्न एवं उत्तर:

1. कछारी नाम की उत्पत्ति कैसे हुई?

उत्तर: पंडितों का मानना है कि नदी के समीप अर्थात् कक्षात कच्छात’ कच्छ’ के साथ ‘अरि ‘योग होकर कच्छ + अरि = कच्छारी या कछारी नाम की उत्पत्ति हुई है। डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी के अनुसार कछारी लोग सबसे पहले ‘कुशी’ नदी के तट पर आकर बसे। इसलिए उन्हें ‘कुशीमरा’ और उस क्षेत्र को कुशारीयार के कारण कुशीयार कुशार या काशार कुशारी या कचारी कहा गया है।

2. सोनोवाल नाम की उत्पत्ति कैसे हुई?

उत्तरः विद्वानों के अनुसार ‘सोनोवाल’ शब्द तिब्बत-बर्मी भाषा-परिवार के ‘ सुनुवार’ शब्द से आया है। आदिमफा द्वारा भोजपत्र पर लिखित ‘महान जातिर इतिहास’ में उल्लेख है कि चुकाफा के सौमार में प्रवेश करने के बहुत वर्ष पहले सोनोवाल लोगों ने सोना का उत्पादन किया था और उस समय मौजूदा ‘सोनोवाल’ के बदले ‘सुनुवाल’ ही था। दूसरी ओर, इतिहासकार उपेंद्र चंद्र गुह जी की पुस्तक ‘काछारेर इतिवृत’ में उल्लेख है कि सुनाचि (मौजूदा सुबनसिरि) नदी के तट पर बसे लोगों को ‘सुनुवाल’ कहा जाता था। उन्होंने यह उल्लेख किया है कि ब्रह्मपुत्र के उत्तरी तटीय स्थान को ‘हाबुंग’ कहा जाता था और वहाँ बसने वाले कछारियों को ‘हाबांग’ अथवा ‘हाबुंगीया कछारी’ कहते थे। इन्हीं हाबुंगीया कछारियों को सुनुवाल कछारी या वर्तमान में सोनोवाल कछारी कहा जाता है।

सारांश:

हाजंग असम के मैदानी इलाके में निवास करने वाला एक जनजातीय समुदाय हैं। हाजंग समुदाय के लोगों को भारतीय संविधान में मौदानी जनजाति का दर्जा मिला है। ये लोग खास तौर पर ग्वालपाड़ा, घुबड़ी जिले के दक्षिण शालमरा-मानकाचार महकमे में रहते हैं। इसके अलावा हाजंग लोग ब्रह्मपुत्र घाटी के अन्य प्रायः सभी जिलों में भी रहते हैं। मेघालय के पश्चिम और दक्षिण गारो पहाड़ जिले और खासिया पहाड़ जिले के समतल इलाके में काफी संख्या में हाजंग लोग रहते हैं।

नृतत्वविदों के अनुसार हाजंग लोग इंडो-मंगोलीय जनगोष्ठी से संबंधित हैं। कहा जाता है कि ये लोग तिब्बत से आकर कोचबिहार के उत्तर में भूटान सीमा पर ‘हाजंग’ नामक स्थान पर कई सदियों तक रहे। कुछ लोगों का मानना है कि ये लोग तिब्बत से आकर कामरूप जिले के हाजो नामक स्थान पर बस गए थे। बाद में धीरे- धीरे ग्वालपाड़ा जिले की ब्रह्मपुत्र घाटी तक आए और दक्षिण किनारे लखीमपुर के पास सुवारकोना से धुबड़ी जिले के शालमरा- मानकाचार तक फैल गए। हाजंग लोग वर्तमान में असम के ग्वालपाड़ा, धुबड़ी, कामरूप, बाक्सा, उदालगुड़ी, चिरांग, दरंग, लखीमपुर, धेमाजी, नगाँव आदि जिलों में कम संख्या में बसे हुए हैं। हाजंग लोग कठोर परिश्रमी होते हैं और समतल भूमि में खेती करते हैं। गारो भाषा में ‘हा’ शब्द का अर्थ मिट्टी है और ‘जंग’ शब्द का अर्थ कीट है। कुछ लोगों का मानना है कि उनके पूर्वज का नाम ‘हाजो’ था और उनके नाम पर ही इस जनजाति का नाम ‘हाजंग’ हुआ। हाजंग लोग मूलतः कृषिजीवी होते हैं। इसलिए खेती से जुड़े कई लोकाचार उनके बीच प्रचलित हैं। वे विभिन्न देव-देवी की पूजा करते हैं। वास्तुदेवता उनके प्रधान आराध्य देवता हैं। हाजंग महिलाएँ हथकरघे पर सुंदर वस्त्र बुनती हैं। असमीया समाज जीवन में हाजंग लोगों का योगदान है। सभी जनगोष्ठियों के बीच पारस्परिक प्रेम- सद्भाव व भाइचारे के कारण असम को वैचित्र्यमय कहा जाता है।

पाठ्यपुस्तक संबंधित प्रश्न एवं उत्तर:

1. हाजंग लोग किस जनगोष्ठी से संबंधित हैं? 

उत्तर: हाजंग लोग इंडो-मंगोलीय जनगोष्ठी से संबंधित हैं।

2. हाजंग लोगों को पहाड़ी स्वायत्तशासित जिलों में कब अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिला? 

उत्तर: हाजंग लोगोंको पहाड़ी स्वायत्तशासित जिलों में भारतीय संविधान के सन् 1950 के कानून के तहत अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिला।

3. असम के प्रधानतः किन-किन जिलों में हाजंग लोग रहते हैं?

उत्तर: हाजंग लोग ग्वालपाड़ा, धुबड़ी, कामरूप, बाक्सा, उदालगुड़ी, चिरांग, दरंग, लखीमपुर, धेमाजी, नगाँव आदि जिलों में रहते हैं।

4. हाजंग लोगों की मूल जीविका क्या है? 

उत्तरः हाजंग लोगों की मूल जीविका कृषि है, परंतु आजकल अन्य काम भी करते है।

5. वास्तुदेवता की पूजा कब होती है?

उत्तर: हाजंग लोग बाईस या वास्तुदेवता की पूजा सामूहिक रूप से बैशाख महीने में करते हैं। 

6. हाजंग समाज में कासी घर का तात्पर्य क्या है? 

उत्तर: हाजंग समाज में कासी घर का तात्पर्य है- बैठकखाना। पहले जमाने में कास्री घर समृद्ध परिवार के घर ही होता था। इस घर में खासकर अविवाहित युवा या पुरुष मेहमान ही सोते थे।

अतिरिक्त प्रश्न एवं उत्तर:

1. ‘हाजंग’ जनजाति के नामकरण के आधार क्या-क्या हैं? 

उत्तर: ‘हाजंग’ जनजाति के नामकरण को लेकर विभिन्न व्यक्तियों के भिन्न-भिन्न मत हैं। कहा जाता है कि ‘हाजंग’ नामक स्थान से आने के कारण उन्हें ‘हाजंग’ कहकर संबोधित किया गया। कुछ लोगों का कहना है कि हाजंग लोगों के पूर्वज का नाम ‘हाजो’ था और उनके नाम पर ही इस जनजाति का नामकरण हाजंग हुआ। एक राय यह भी है कि पड़ोसी गारो लोगों ने यह नामकरण किया है। हाजंग कठोर परिश्रमी थे। समतल भूमि की गहरी जमीन से ओतप्रोत रूप से जुड़े होने के कारण गारो लोगों ने इस जनगोष्ठी का नामकरण हाजंग नाम से किया है। गारो भाषा में ‘हा’ शब्द का अर्थ मिट्टी और जंग का अर्थ कीट है। इसी तरह हाजंग शब्द की उत्पत्ति मानी जाती है।

2. हाजंग का सामाजिक वर्गीकरण क्या है? 

उत्तर: हाजंग जनजाति के लोग पहले छह वर्गों में विभक्त थे- हारांग पारिया, भजालू पहाड़िया, माणिक पहाड़िया, टेपर पहाड़िया, सातदल पहाड़िया और मांजी पारिया। लेकिन वतर्मान में हाजंग के 5 वर्ग ही हैं, जो इस प्रकार हैं- दस कहानिया, सुसंगी, मस पहाड़िया, कराईबारिया और बारोहजारी। हाजंग लोगों के वर्ग होने के बावजूद इनकी सामाजिक विशेषताएँ एकीभूत हो गई हैं।

3. हाजंग लोग किस भाषा-परिवार से संबंधित हैं?

उत्तर: हाजंग लोग तिब्बत-बर्मी भाषा-परिवार की बोड़ो शाखा से जुड़े हुए हैं।

4. हाजंग जनजाति का सामाजिक बंधन क्या है?

 उत्तर: हाजंग जनजाति के लोग अपनी परंपरानुसार तीन सामाजिक बंधन के जरिए समाज का संचालन करते हैं-गाँव गियाती, पाँच गियाती और जोवार या साक्ला । समाज के किसी भी विवाद का हल पहले गाँव का ‘गियाती’ या प्रधान करता है। अगर विवाद का हल न हो, तो पाँच ‘गियाती’ या मुखिया बैठकर हल निकालते हैं। जटिल विवाद के क्षेत्र में जोवार या साक्ला के प्रधान मिलकर हल निकालते हैं।

सारांश:

नाथ या योगी संप्रदाय असम तथा भारत का एक सबसे प्राचीन जनसमुदाय है। नाथ या योगी संप्रदाय मुख्यतः शैवपंथी होते हैं। शैवधर्म के दर्शन मुख्यतः योग पर आधारित है। माना जाता है कि योग से ही योगियों की उत्पत्ति हुई थी। नाथ परंपरा के अनुसार आदिनाथ अर्थात् भगवान शिव ही प्रथम नाथ थे। नाथ योगी संप्रदाय गुरु- शिष्य परंपरा में विश्वास रखता है। नाथ लोगों के दो गुरु थे मत्स्येंद्र नाथ और गोरखनाथ । नाथ योगी लोगों के दो भाग हैं- पहला है गृहस्थ योगी और दूसरा है संन्यासी योगी। संन्यासी योगी ही नाथ धर्म का प्रचार करते हैं। गुरु गोरखनाथ हठयोग मार्ग के आविष्कारक माने जाते हैं। यह भी माना जाता है कि नाथ लोगों के आदिगुरु महायोगी मत्स्येंद्रनाथ कामरूप के ही निवासी थे तथा कामाख्या पीठ में तंत्र एवं योग साधना में लीन रहते थे।

नार्थ लोगों का अपना प्राचीन साहित्य है। तंत्र-मंत्र, योग-साधना, अध्यात्म- दर्शन, आयुर्वेद, ज्योतिष, रसायन आदि विषयों पर नाथ संप्रदाय के सिद्ध पुरुषों ने बहुमूल्य साहित्य की रचना की है। नाथ सिद्धाचार्यों के द्वारा रचित ‘चर्यापद’ का असमीया, बांग्ला और उड़िया भाषा की उत्पत्ति में महत्वपूर्ण योगदान है। नाथ योगी असम में प्राचीनकाल से रहते आ रहे हैं।

विशेषकर गोवालपाड़ा, बंगाईगाँव, कोकराझाड़, दरंग, नगाँव, मोरीगाँव, होजाई, शोणितपुर, कछार आदि जिलों में लाखों की संख्या में नाथ योगी निवास करते हैं। इसके अतिरिक्त असम के प्रत्येक जिले में इस संप्रदाय के लोग सदियों से निवास करते आ रहे हैं। वर्तमान में असम के कुछ नाथ योगी लोग महापुरुष शंकरदेव द्वारा प्रवर्तित ‘एकशरण नाम धर्म’ में दीक्षित होकर महापुरुषिया धर्म के अंग बन गए हैं। योगी संप्रदाय के लोग स्वभाव से शांत एवं देशभक्त होते हैं। सन् 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान ढेकियाजुली थाने पर फहराए गए ब्रिटिश ध्वज यूनियन जैक को निकाल फेंकने के कारण मनवर नाथ, खहुली देवी और कुमली देवी नामक तीन स्वतंत्रता सेनानी पुलिस की गोली से घटनास्थल पर ही शहीद हो गए थे। वर्त्तमान में नाथ योगी संप्रदाय असम का एक गौरवशाली जनसमुदाय है। यह जनसमुदाय असमीया भाषा-साहित्य, कला-संस्कृति का रक्षक और वाहक होने के साथ-साथ अपने प्राचीन परिचय को भी अक्षुण्ण रखा है।

पाठ्यपुस्तक संबंधित प्रश्न एवं उत्तर:

1. असम के नाथ योगी लोगों की उत्पत्ति के बारे में लिखिए। 

उत्तरः नाथ योगी संप्रदाय एक प्राचीन जनसमुदाय है। आर्य सभ्यता से बहुत पहले से नाथ योगी भारत के विभिन्न राज्यों में रहते आ रहे हैं। नाथ योगी संप्रदाय के लोग मुख्यतः शैवपंथी हैं और वे शैवधर्म का पालन करते आ रहे हैं। शैवधर्म मुख्य रूप से योग-मार्ग पर आधारित है। वस्तुतः योग से ही योगियों की उत्पत्ति हुई है। नाथ परंपरा के अनुसार आदिनाथ अर्थात् भगवान शिव ही प्रथम नाथ थे। महायोगी मत्स्येंद्रनाथ और गुरु गोरखनाथ नाथ लोगों के दो महान गुरु थे।

2. नाथ योगी लोगों के साहित्य और धर्म के बारे में लिखिए।

उत्तरः नाथ योगी लोगों का साहित्य प्राचीन और समृद्ध है। तंत्र-मंत्र, योग-साधना, अध्यात्म-दर्शन, आयुर्वेद, ज्योतिष, रसायन आदि विषयों पर नाथ संप्रदाय के सिद्धों ने बहुमूल्य साहित्य की रचना की है। असमीया, बांग्ला और उड़िया भाषा की उत्पत्ति में नाथ-सिद्धों के द्वारा रचित ” चर्चापद” का महत्वपूर्ण योगदान है। दूसरी ओर, नाथ योगी संप्रदाय के लोग जिस धर्म का पालन करते हैं, उसका नाम शैवधर्म अथवा व्रात्य धर्म है। शैवधर्म में भगवान शिव को ही आदिनाथ या प्रथम नाथ मानते हैं। शैवधर्म मुख्यतः योग व साधना पर आधारित प्राचीन धर्म है।

3. नाथ योगी लोगों के बारे में लिखिए।

उत्तरः नाथ योगी असम में प्राचीन काल से ही रहते आ रहे हैं। इस संप्रदाय के लोग असम के गोवालपाड़ा, बंगाईगाँव, कोकराझाड़, दरंग, नगाँव, मोरीगांव, होजाई, शोणितपुर, कछार आदि जिलों में लाखों की संख्या में रह रहे हैं। इसके अतिरिक्त कमोबेस रूप में असम के प्रत्येक जिले में युगों से रहते आए हैं। एक अनुसंधान के अनुसार यह कहा जाता है कि एक समय नगाँव के समीप कदली नामक एक राज्य था, जो नाथ योगी संप्रदाय की महिला शासिका द्वारा शासित था। होजाई जिले के जोगीजान, तेजपुर के समीप स्थित सूर्य पहाड़ का शिवलिंग, गोवालपाड़ा के जोगीघोपा की पहाड़ी गुफा कामरूप राज्य के सिद्धों की साधना स्थली थी। नाथ योगी संप्रदाय के लोग स्वभाव से शांत और देशभक्त होते हैं।

अतिरिक्त प्रश्न एवं उत्तर:

1. नाथ योगी संप्रदाय के लोग किस धर्म का पालन करते हैं?

उत्तरः नाथ योगी संप्रदाय के लोग हिंदू धर्म के अंतर्गत शैवपंथी हैं और शैवधर्म का पालन करते हैं।

2. नाथ लोगों के गुरु कौन थे?

उत्तरः नाथ लोगों के दो गुरु थे महायोगी मत्स्येंद्रनाथ और गुरु गोरखनाथ ।

3. नाथ योगी लोगों के कितने भाग हैं?

उत्तरः नाथ योगी लोगों के दो भाग हैं – गृहस्थ योगी और संन्यासी योगी ।

4. हठयोग मार्ग के आविष्कारक कौन हैं?

उत्तर: गुरु गोरखनाथ हठयोग मार्ग के आविष्कारक हैं। 

5. योग साधना पर आधारित एक ग्रंथ का नाम लिखिए।

उत्तर: गुरु गोरखनाथ द्वारा किए गए योग साधना पर आधारित स्वाम स्वात्माराम द्वारा रचित ग्रंथ है- हठयोग प्रदीपिका ।

6. चर्यापदों के रचयिता कौन थे? 

उत्तरः नाथ सिद्धाचार्यों ने चर्यापदों की रचना की थी।

7. भारतीय स्वाधीनता संग्राम में नाथ लोगों के योगदान पर प्रकाश डालिए। 

उत्तरः भारतीय स्वाधीनता संग्राम में नाथ लोगों ने महत्वपूर्ण योगदान दिया था। सन् 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान ढेकियाजुली थाने पर फहराए गए ब्रिटिश झंडा यूनियन जैक को उतार फेंकने के कारण मनबर नाथ, खहुली देवी और कुमली देवी नामक तीन स्वतंत्रता सेनानी पुलिस की गोलियों से घटनास्थल पर ही शहीद हो गए थे। इसके अतिरिक्त सन् 1894 में दरंग जिले में हुए पथारूघाट कृषक विद्रोह के दौरान अंगेजों द्वारा चलाए गोलीकांड में 140 शहीद किसानों में से 28 नाथ संप्रदाय के लोग भी थे।

8. “असम प्रादेशिक योगी सम्मेलन” की स्थापना कब और किसने की थी?

उत्तर: असम प्रादेशिक योगी सम्मेलन की स्थापना सन् 1919 में संप्रदाय के प्रमुख दूरदर्शी व्यक्ति हलिराम नाथ शहरीया और लम्बोदर बरा के अथक प्रयास से हुई थी।

सारांश:

असम के चाय बागानों और ग्रामीण क्षेत्रों में आदिवासी जनसमुदाम के लोग सदियों से रहते आ रहे हैं। असमीया संस्कृति और असम के आर्थिक-सामाजिक विकास में आदिवासी लोगों का महत्वपूर्ण योगदान है। आदिवासी का अर्थ “प्रथम वासी” या “मूल निवासी” है। आदिवासी जनसमुदाय के अंतर्गत कई जातियाँ आती हैं। जैसे- कोल, भील, मुंडा, सौताल, ओरांग, भूमिज, धनवार आदि।

इतिहासकार प्रफुल्ल बरुवा ने आदिवासी जनसमुदाय का परिचय देते हुए लिखा है- ” आदिवासी लोगों का कद छोटा, रंग काला और नाक चपटी होती है। वे सामान्य तौर पर जंगलों एवं पहाड़ों पर रहना पसंद करते हैं।” आदिवासी लोग भले ही अनेक उपाधियों का व्यवहार करते हों, परंतु सामूहिक रूप में स्वयं को ‘आदिवासी’ कहकर गौरव का अनुभव करते हैं। आदिवासी मूलतः चाय मजदूर ही होते हैं। लेकिन समय के बदलने के साथ-साथ इस समुदाय के लोग कृषि कार्य और अन्य कार्य भी करने लगे हैं। आदिवासी जनसमुदाय का मुख्य पर्व करम पूजा है। यह भाद्र महीने की एकादशी तिथि को मनाई जाती है। इसके अतिरिक्त आदिवासी लोग टुसु,, सोहराई, सुमर, डोमकच, फगुआ, जागूर आदि उत्सव भी मनाते हैं। आदिवासी लोगों में अनेक भाषाएँ प्रचलित हैं। जैसे कुडुस, सौताली, मुंडारी, खाड़िया, कुड़माली आदि । भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में भी आदिवासी लोगों का योगदान रहा है। क्रिस्चन मुंडा, मालती ओरांग, दयाल पानिका आदि स्वतंत्रता सेनानी हैं। वृहत्तर असमीया जाति के निर्माण और विकास में आदिवासी लोगों का विशेष योगदान है।

पाठ्यपुस्तक संबंधित प्रश्न एवं उत्तर:

1. आदिवासियों के बारे में संक्षेप में लिखिए।

उत्तर: ‘आदिवासी शब्द ‘आदि’ और ‘वासी’ दो शब्दों के मेल से बना है। आदि का अर्थ प्रथम या मूल और वासी का अर्थ बासिंदा (निवासी) होता है। इस प्रकार देश के प्रथम निवासी को आदिवासी कहा जाता है। आदिवासी जनसमुदाय के लोग सदियों से असम के चाय बागानों या गाँवों में रहते आ रहे हैं। यह समुदाय असमीया जाति का एक अभिन्न हिस्सा है। असमीया संस्कृति और असम के आर्थिक-सामाजिक विकास में इनका महत्वपूर्ण योगदान है। आदिवासी लोग प्रकृति-प्रेमी होते हैं। पूजा-पाठ पर उनकी बड़ी आस्था होती है। वे विभिन्न देवी-देवताओं की उपासना करते हैं। आदिवासी लोग पारंपरिक रूप से ‘करम’ पूजा मनाते आ रहे हैं। ‘करम’ एक प्रकार का पेड़ होता है। करम को देवता मानकर गाँव के लोग बड़ी श्रद्धापूर्वक पूजा करते हैं और कुशल-मंगल की कामना करते हैं। इसके अतिरिक्त टुसु पूजा, बाहा पूजा, फगुआ, जागूर आदि मनाते हैं। आदिवासियों की अपनी अगल भाषा है। वे आपस में अपनी भाषा में बातचीत करते हैं। परंतु वे असमीया भाषा भी समझते हैं और बोलते भी हैं। लंबे समय से असम की धरती को अपनी कर्मभूमि मानकर आदिवासी जनसमुदाय असमीया संस्कृति की श्रीवृद्धि में विशेष योगदान दिया है।

2. आदिवासियों की भाषा एवं पर्व-त्योहारों के बारे में लिखिए। 

उत्तरः आदिवासियों की भाषा विविधतापूर्ण है। इस जनसमुदाय के लोग द्रविड़ और आस्ट्रिक भाषा-परिवार की भाषाएँ बोलते हैं। उदाहरण के तौर पर, ओरांग लोगों की कुडुस भाषा द्रविड़ परिवार की भाषा है। मुंडा और सौताल लोगों की भाषा आस्ट्रिक परिवार की है। आदिवासी लोग अपनी भाषाओं के विकास के लिए संस्थागत तरीके से संरक्षण एवं संवर्धन करते आ रहे हैं। आदिवासी लोग अपनी आदिवासी भाषाओं के संरक्षण के साथ-साथ अपने पारंपरिक पर्व-त्योहारों को भी रीति-रिवाज के साथ मनाते आ रहे हैं। आदिवासियों द्वारा ‘मनाए जाने वाले पर्वों में ‘करम पूजा’ और ‘टुसु पूजा’ प्रमुख हैं। इसके अलावा बाहा पर्व, सोहराई, मागे, फगुआ आदि उत्सव भी मनाये जाते हैं। करम पूजा भादो महीने की एकादशी को मनाई जाती है। यह कृषि आधारित उत्सव है। करम उत्सव प्रेम, भाइचारा, एकता, अच्छी फसल और सबके कल्याण की भावना से ओतप्रोत एक पारंपरिक त्योहार है। आदिवासी जनसमुदाय असम की बहुरंगी संस्कृति में एक विशेष महत्व रखता है।

3.संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए:

(क) क्रिस्चन मुंडा।

उत्तर: क्रिस्चन मुंडा आदिवासी जनसमुदाय के एक बहुत बड़े मजदूर नेता थे। उन्होंने ‘चाय बागानों में काम करने वाले मजदूरों को लेकर स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान अंग्रेजों के खिलाफ बगावत की थी। अंग्रेज सरकार ने उन्हें फुलबाड़ी चाय बागान में खुलेआम फाँसी दी थी। आदिवासी जनसमुदाय के क्रिस्चन मुंडा भारतीय स्वाधीनता की लड़ाई में अपने प्राणों की आहुति देने वाले प्रथम शहीद हैं। क्रिस्चन मुंडा ने सन् 1910-1913 में तेजपुर के समीप फुलबाड़ी चाय बागान में किसानों और मजदूरों के विद्रोह का नेतृत्व लिया था। क्रिस्चन मुंडा के शहीद होने के बाद असम के कई चाय बागानों में स्वाधीनता का आंदोलन और तेज हो गया था। मालती ओरांग, दयाल पानिका, बाँकुडु साउरा आदि आदिवासी स्वाधीनता संग्राम में शहीद हो गए।

(ख) जस्टिस लक्रा।

उत्तर: जस्टिस लक्रा आदिवासी समाज के एक बड़े छात्र नेता थे। इन्होंने अखिल असम आदिवासी छात्र संघ की स्थापना में अहम भूमिका अदा की थी। इन्हें आदिवासी समाज अखिल असम आदिवासी छात्र संघ का जन्मदाता मानते हैं। जस्टिस लक्रा निचले असम में सन् 1996 में हुए वर्ग संघर्ष को करीब से देखा था। उस समय वे शिलांग विश्वविद्यालय में पढ़ रहे थे। अपनी पढ़ाई छोड़कर वे पीड़ितों की सेवा में लग गए थे। उल्लेखनीय है कि 1996 के उस वर्ग- संघर्ष में करीब दो लाख लोगों को शरणार्थी शिविरों में रहना पड़ा था। 2 जुलाई, 1996 को जस्टिस ला ने अपने सहयोगी जोसेफ मिंजो, स्टीफन एक्का, बॉस्को सेरेमाके, मांगरा ओरांग और विल्फ्रेड टोप्पो से मिलकर लखीमपुर के जनवस्ती आदिवासी उच्च विद्यालय में अखिल असम आदिवासी छात्र संघ का गठन किया। इस संघ का मुख्य उद्देश्य लोगों की सुरक्षा और शांति प्रदान करना था। यह संघ अपने जन्म से ही आदिवासियों के जनजातिकरण और चाय मजदूरों की दैनिक मजदूरी वृद्धि के लिए आंदोलन करता आ रहा है। ऐसे आंदोलनों में आंद्रेयास मांडी, हेमलाल सना, बॉस्को सेरेमाको, जितेन ताँती समेत 18 आदिवासी शहीद हो चुके हैं। जस्टिस लक्रा को आदिवासी समाज अपना ‘राष्ट्रपिता’ मानता है। इस महान आदिवासी छात्र नेता का जन्म 2 अक्टूबर, 1970 को हुआ था और मृत्यु 13 जुलाई, 2015 को हुई थी।

अतिरिक्त प्रश्न एवं उत्तर:

1. आदिवासी समाज के लोग कहाँ रहते हैं?

उत्तर: आदिवासी समाज के लोग असम के चाय बागानों एवं गाँवों में निवास करते हैं।

2. आदिवासी किसे कहते हैं?

उत्तर: आदिवासी ‘आदि’ और ‘वासी’ दो शब्दों से बना है, जिसका अर्थ है – देश के प्रथम निवासी अर्थात् जो देश के पहले निवासी हैं, सामान्यतः उन्हें आदिवासी कहा जाता है।

3. आदिवासी जनसमुदाय के प्रमुख पर्वों के नाम बताइए। 

उत्तर: आदिवासी जनसमुदाय के प्रमुख पर्व हैं- करम पूजा, टुसु पूजा, बाहा पर्व, सोहराई, फगुआ आदि।

4. आदिवासी जनसमुदाय की भाषा का परिचय दीजिए। 

उत्तर: आदिवासी जनसमुदाय की भाषाएँ द्रविड़ और आस्ट्रिक भाषा-परिवार की भाषाएँ हैं। आदिवासी समाज में ओरांग, सौताल, मुंडा, खाड़िया, कुड़मालो कई जातियाँ हैं और उनकी भाषाएँ भी अलग-अलग हैं। ओरांग की भाषा कुडुस, मुंडा की भाषा मुंडारी, सौताल की भाषा सौताली, खाड़िया की खाड़िया, कुड़माली की कुड़माली आदि। आदिवासियों की भाषाओं को सामग्रिक रूप से’ आदिवासी भाषा’ कहते हैं। आदिवासी लोगों ने अपनी भाषाओं के विकास के लिए कुडुस साहित्य सभा, सौताली साहित्य सभा, मुंडारी साहित्य सभा जैसी संस्थाओं की स्थापना की है।

5. आदिवासी समाज के किन्हीं चार स्वतंत्रता सेनानियों के नाम लिखिए। 

उत्तर: आदिवासी समाज के स्वतंत्रता सेनानी हैं- क्रिस्चन मुंडा, मालती ओरांग, दयाल पानिका, बाँकुडु साउरा आदि ।

6. अखिल असम आदिवासी छात्र संघ के जन्मदाता कौन थे? 

उत्तर: अखिल असम आदिवासी छात्र संघ के जन्मदाता जस्टिस लक्रा थे।

7. ‘भारत बुरंजी’ नामक पुस्तक में प्रफुल्ल बरुवा ने आदिवासी जनसमुदाय का परिचय किस प्रकार दिया है?

उत्तर: प्रफुल्ल बरुवा ने आदिवासी जनसमुदाय का परिचय देते हुए लिखा है कि इस समुदाय के लोगों का कद छोटा, रंग काला और नाक चपटी होती थी। वे साधारणतः पहाड़ों एवं जंगलों में रहना पसंद करते थे। उनकी अपनी कोई लिपि नहीं थी तथा उनकी भाषा आर्यभाषा परिवार से बिल्कुल अलग थी। 

8. आदिवासी लोगों की कुछ उपाधियों का उल्लेख कीजिए। 

उत्तर: आदिवासी लोगों की अनेक उपाधियाँ हैं। जैसे- कोल, भील, मुंडा, कॉवर, भूमिज, सौताल, ओरांग, खेरवार, खाडिया, धनवार आदि।

9. करम उत्सव क्या है? इसके बारे में संक्षेप में लिखिए। 

उत्तरः करम उत्सव आदिवासी जनसमुदाय का एक प्रमुख उत्सव है। यह उत्सव भादो महीने की एकादशी को मनाया जाता है। यह कृषि आधारित एक पारंपरिक उत्सव है, जिसमें सभी लोग नाचते-गाते हैं और करम देवता की पूजा करते हैं। करम एक प्रकार का पेड़ होता है। गाँव की लड़कियाँ जंगल से -करम की डाल काटकर लाती हैं और उसे गाँव के चौपाल पर लगा देती हैं। पुरोहित द्वारा पूजा संपन्न होने के बाद आदिवासी लोग अपनी पारंपरिक नीति- कथाएँ सुनते हैं। करम उत्सव प्रेम, बंधुत्व और एकता का प्रतीक है। इस उत्सव में अच्छी फसल और लोगों के कल्याण की कामना करते हुए करम देवता की आराधना की जाती है।

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