Class 10 Ambar Bhag 2 Chapter 17 वैचित्र्यमय असम

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Class 10 Hindi Ambar Bhag 2 Chapter 17 वैचित्र्यमय असम

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सोनोवाल कछारी

सारांश:

सोनोवाल कछारी असम का प्राचीन जनसमुदाय है। ये पहले मंगोल थे, बाद में किरात धर्म को अपनाकर कृषि और यातायात की सुविधा को ध्यान में रखते हुए नदी या पहाड़ के आस-पास के इलाकों में बस गए। इस जनगोष्ठी के लोग जिन नदियों-उपनदियों के तट पर बसे उन नदियों का नामकरण स्वयं किया था। दिहिंग, दिसांग, डिब्रू, दैयांग, डिमौ, दिखौ, डिगारू, दिसै, डाँगरी, दुमदुमा, दिराक, दिक्रंग आदि नदियों के नाम प्राचीन समय में उन्होंने ही रखा था ऐसा पंडितों का मानना है। सोनोवाल का मतलब उज्ज्वल व ऐश्वर्यशाली होता है। सोनोवाल शब्द तिब्बत-बर्मी भाषा गोष्ठी के ‘सुनुवार’ शब्द से आया है। आदिमफा द्वारा भोजपत्र पर लिखित ‘महान जातिर इतिहास’ (महान जाति का इतिहास) में उल्लेख है कि चुकाफा के सौमार में प्रवेश करने के वर्षों पहले सोनोवाल लोगों ने सोना का उत्पादन किया था। और उस समय मौजूदा सोनोवाल शब्द के पहले ‘सुनुवाल’ ही था। 

सोनोवाल कछारी समुदाय के लोग प्रथमतः शाक्त थे, किंतु सन् 1681 में आहोम स्वर्गदेव गदापाणि के राजकोप में पड़कर श्रीश्री केशवदेव गोस्वामी जी ने सदिया के सोनोवाल कछारी बहुल क्षेत्र आँठुकढ़ा चापरि, वर्तमान में कुंडिल और बराक घाटी क्षेत्र में भूमिगत रहते समय अति कौशलपूर्वक सोनोवाल कछारियों को ‘शरण’ देकर द्वैतधर्म में विभाजित किया। सत्राधिकार द्वारा शरण दिलाने पर भी वर्तमान में सोनोवाल कछारी लोग द्वैतधर्मी हैं। शरण लेने के बाद से सोनोवालों के बीच ‘नामघर’ का प्रचलन शुरू हुआ। सोनोवाल कछारी लोगों का लोक-साहित्य मौखिक एवं लिखित दोनों रूपों में विद्यमान है। वर्तमान में उपलब्ध लोक-साहित्य में हायदांग गीत, हुँचरी गीत, बहुवा नृत्य के गीत, आइनाम, धाइनाम, लखिमी नाम, अपेश्वरी नाम, गोसाईं नाम, फूलकोंवर- मणिकोंवर के गीत, जना गाभरू के गीत, बिहू गीत आदि प्रमुख हैं। ये तमाम मौखिक लोक-साहित्य अब लिखित रूप में प्रकाशित होने लगे हैं।

वर्तमान में सोनोवाल कछारियों में शाक्त और वैष्णव दोनों धर्म प्रचलित हैं। ये लोग अपनी पारंपरिक पूजा-अर्चना जैसे- बाथौ पूजा, गजाइ पूजा, गातिगिरि पूजा, स्वर्गदेव पूजा, केंचाईखाइती पूजा के साथ-साथ जातीय उत्सव बिहू भी धूमधाम से मनाते हैं। प्राकृतिक आपदा तथा विभिन्न पक्षों के साथ लड़ाई लड़कर सोनोवाल कछारियों का एक बड़ा हिस्सा सदिया से आकर ऊपरी असम के लखीमपुर, धेमाजी, तिनसुकिया, डिब्रुगढ़, शिवसागर, जोरहाट तथा गोलाघाट जिलों में बस गया।

असम के जातीय जीवन में सोनोवाल कछारियों का योगदान सराहनीय रहा है।

पाठ्यपुस्तक संबंधित प्रश्न एवं उत्तर:

1. डिमासा भाषा में सोनोवाल का मतलब क्या है?

उत्तरः डिमासा भाषा में सोनोवाल का मतलब उज्ज्वल तथा ऐश्वर्यशाली है।

2. सोनोवाल कछारी लोग किस धर्म के उपासक थे? 

उत्तरः सोनोवाल कछारियों में द्वैतधर्म प्रचलित हैं- शाक्त और वैष्णव।

3. सोनोवाल कछारियों के लोक-साहित्य के बारे में लिखिए। 

उत्तरः सोनोवाल कछारियों के लोक-साहित्य में हायदांग गीत, हुँचरी गीत, बहुवा नृत्य के गीत, आइनाम, धाइनाम, लखिमी नाम, अपेश्वरी नाम, गोसाईं नाम, फूलकोंवर-मणिकोंवर के गीत, जना गाभरू के गीत, मरणामरा (दौनी) गीत, बिहू गीत, तरासिमा गीत आदि मुख्य हैं। इसके अलावा पद, मालिता, लोकोक्ति, कल्पित कहानियाँ आदि इनके उल्लेखनीय साहित्य हैं। सोनोवाल कछारियों के ये सभी मौखिक साहित्य फिलहाल लिखित रूप में प्रकाशित होने लगे हैं।

4. सोनोवाल कछारियों की समाज-पद्धति के बारे में संक्षेप में वर्णन कीजिए। 

उत्तरः सोनोवाल कछारियों की समाज-पद्धति की एक अलग पहचान है। ये कई स्तरों पर विभक्त हैं। इनका पहला परिचय जात (सँच) या परिवार से है। फिर वंश, खेल तथा कुचीया होते हैं। वर्तमान में सोनोवालों के बीच 135 जात (सँच) हैं। इनमें से चार या ततोधिक जात (सँच) मिलकर एक-एक वंश होता है। सोनोवाल कछारियों के बीच कुल 25 वंश हैं। इनमें से चौदह वंश को चुनकर कछारी के राष्ट्रनायक माणिक ने हालाली राज्य का संचालन किया था। सोनोवाल कछारियों के विवाह के मामले में सबसे पहले जात (सँच) तथा वंश का विचार किया जाता है। एक ही जात (सँच) या वंश के लोगों को एक ही परिवार के भाई-भाई के रूप में स्वीकार किया जाता है।

5. सोनोवाल कछारियों को क्यों द्वैत धर्म का कहा जाता है? 

उत्तरः सोनोवाल कछारी समाज लोग 830 ईसवी से शाक्त या पुरातन धर्म के उपासक थे। किंतु सन् 1681 में आहोम स्वर्गदेव गदापाणि के राजकोप में पड़कर श्रीश्री केशवदेव गोस्वामीदेव ने सदिया के सोनोवाल कछारी बहुल क्षेत्र आँठुकढ़ा चापरि, वर्तमान कुंडिल और ब्रह्मपुत्र घाटी क्षेत्र में भूमिगत रहते समय अति कौशलपूर्वक सोनोवाल कछारियों को ‘शरण’ देकर द्वैत धर्म में विभाजित किया। सत्राधिकार के पास शरण लेने वालों को हिन्दूरीया तथा शरण न लेनेवालों को बेहारी के रूप में नामकरण किया गया। उसी समय से सोनोवाल कछारी लोगों के बीच ‘गोसाई-नाम’ शामिल हुआ। सत्राधिकार द्वारा शरण दिलाने पर भी वर्तमान सोनोवाल कछारी लोग द्वैत धर्मी हैं।

टिप्पणी लिखिए: 

(क) गगन चन्द्र सोनोवाल।

उत्तर: गगन चन्द्र सोनोवाल जी साहित्य-संस्कृति के नीरव साधक थे। उनका जन्म तिनसुकिया जिले के बरहापजान के समीप शुकानगुड़ी चाय बागान में 24 दिसंबर, 1926 को हुआ था। उनके पिता का नाम तिलक सोनोवाल और माता का नाम अदिति सोनोवाल था।

गगन चन्द्र सोनोवाल की प्रारंभिक शिक्षा माकुम प्राथमिक विद्यालय में हुई। उच्च शिक्षा के तौर पर उन्होंने डिब्रुगढ़ के कनोई कॉलेज से प्राक् स्नातक परीक्षा पास की। उन्होंने अपना कर्म-जीवन अध्यापन से प्रारंभ किया। तिनसुकिया जिले के काकोपथार में सन् 1947 में मध्य अंग्रेजी विद्यालय में शिक्षक के रूप में नियुक्त होकर वहीं से 31 दिसंबर, 1988 को अवकाश प्राप्त किया।

बचपन से ही सोनोवाल जी का साहित्य चर्चा में रुझान था। उन्होंने ग्यारह वर्ष की उम्र में ही ‘मानव सभ्यता आरु क्रम विकास’ (मानव सभ्यता और क्रम विकास) नामक लेख लिखा था। सोनोवाल जी के प्रकाशित लेख इस प्रकार हैं-

(i) ‘सोनोवाल कछारी सकलर ऐतिह्य’ (सोनोवाल कछारियों का गौरव)

(ii) ‘असमर संस्कृतित सोनोवाल सकलर अवदान’ (असम की संस्कृति में सोनोवालों का योगदान)

(iii) लोक साहित्य संग्रह, जौसे-गीत, हायदांग हुँचरी, आइनाम आदि। इसके अतिरिक्त तेरह निबंध, उन्नीस भाषण तथा छह कविताएँ उन्होंने लिखी है। असमीया भाषा-साहित्य-संस्कृति के प्रति उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए असम सरकार ने उन्हें साहित्यिक पेंशन भी प्रदान किया। उनका निधन 27 अक्टूबर, 2009 को हुआ।

(ख) परशुराम सोनोवाल। 

उत्तर: परशुराम सोनोवाल का जन्म 25 मई, 1904 को डिब्रुगढ़ जिले के नगाधुलि चाय बागान में हुआ था। उनके पिता थे पंचानन सोनोवाल और माता का नाम था गुटिमाला सोनोवाल। परशुराम सोनोवाल सन् 1924 में प्रथम श्रेणी से मैट्रिक की परीक्षा पास की तथा कॉटन कॉलेज से प्रथम श्रेणी से आई.ए. पास करके कोलकाता के प्रेसीडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया। सन् 1928 में इतिहास विषय में मेजर के साथ बी.ए. की परीक्षा प्रथम श्रेणी से पास की। इसके बाद उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से इतिहास विषय में स्नातकोत्तर किया और फिर एलएलबी की डिग्री हासिल की।

परशुराम सोनोवाल पढ़ाई-लिखाई में निपुण होने के साथ ही खेल- कूद, संगीत, चित्रकारी आदि में भी कुशल थे। परशुराम सोनोवाल एम.ए., एल. एल. बी. करने वाले प्रथम असमीया अधिवक्ता थे, जिन्होंने डिब्रुगढ़ अधिवक्ता संघ में अपना नाम पंजीयन करवाया था। वे कई सामाजिक कार्यों में सक्रिय रूप से जुड़े हुए थे। सोनोवाल जी डिब्रुगढ़ लोकल बोर्ड के सदस्य, असम मेडिकल स्कूल बोर्ड के सदस्य, जिला ट्राइबल लीग के अध्यक्ष समेत डिब्रुगढ़ अधिवक्ता संघ के सचिव भी रहे। आजादी के बाद के समय में असम जाति-जनगोष्ठियों की सामाजिक, शैक्षिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक उन्नति में उनकी अहम भूमिका थी। उनका निधन 1 अक्टूबर, 1960 को हुआ।

(ग) योगेश दास।

उत्तर: योगेश दास एक विशिष्ट साहित्यकार व शिक्षाविद् थे। इनका जन्म सन् 1927 में दुमदुमा के हाँहचरा चाय बागान में हुआ था। इनके पिता का नाम सूर्यकांत दास तथा माता का नाम चिंतामणि दास था। इनकी प्रारंभिक शिक्षा दुमदुमा मिड्ल स्कूल में ही हुई थी। उच्च शिक्षा के लिए उन्होंने गुवाहाटी के कॉटन कॉलेज से स्नातक की डिग्री और गौहाटी विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर की डिग्री प्राप्त की। छात्रावस्था से ही कहानी लेखन के प्रति उनकी गहरी रुचि थी। इसलिए बाद में वे एक प्रसिद्ध कहानीकार बन गए। वे बी. बरुवा कॉलेज, गुवाहाटी में असमीया विभाग के विभागाध्यक्ष थे और वहीं से अवकाशप्राप्त किया। वे एक कुशल पत्रकार भी थे। उन्होंने कई पत्र-पत्रिकाओं का संपादन भी किया। वे ‘नतून असमीया’ अखबार के उप संपादक तथा ‘असम साहित्य सभा पत्रिका’ के संपादक थे।

साहित्यिक कृतियाँ: कहानी संकलनों में ‘पपीया तरा’, ‘डाबरर और औरे’, ‘त्रिवेणी’, ‘मदारर वेदना’ तथा ‘हाजार लोकर भीर’ आदि प्रमुख हैं। ‘उपन्यासों में ‘सँहारि पाइ’, ‘डाबर आरु नाई’, ‘जोनाकीर जूइ’, ‘एमुठि धुलि’ आदि प्रमुख हैं। इसके अलावा उन्होंने अंग्रेजी ग्रंथ ‘Folklore of Assam’ भी लिखा। वे असम साहित्य सभा के अध्यक्ष भी थे। इन्हें अनेक पुरस्कार भी मिले थे, जिनमें साहित्य अकादमी, असम उपत्यका साहित्य पुरस्कार आदि प्रमुख हैं। इनका देहावसान 9 सितंबर, 1999 को हुआ।

(घ) योगेन्द्र नाथ हाजरिक। 

उत्तर: असम के पूर्व मुख्यमंत्री योगेन्द्र नाथ हाजरिका बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। लोगों के बीच वे सामान्यतः योगेन हाजरिका नाम से अधिक परिचित थे। वे एक कुशल राजनीतिविद्, दक्ष प्रशासक और सर्वप्रिय व सुशील व्यक्ति थे। डिब्रुगढ़ जिले के टेंगाखात क्षेत्र के पुरणिखंगीया गाँव में 24 फरवरी, 1924 को इनका जन्म हुआ था। इनके पिता का नाम गोलापचन्द्र हाजरिका तथा माता का नाम रत्ना हाजरिका था। आर्थिक तंगी के कारण योगेन्द्र नाथ हाजरिका का परिवार टेंगाखात से बूढ़ीदिहिंग के तट पर स्थित हातीबंधा गाँव में चला आया था। हातीबंधा गाँव में उस समय कोई प्राथमिक विद्यालय न होने के कारण योगेन हाजरिका ने टेंगाखात घाँही गाँव में अपने ही एक रिश्तेदार परिवार के घर में रहकर पास ही स्थित ‘भेकोवाजान प्राथमिक विद्यालय’ में शिक्षा प्राप्त की। आर्थिक तंगी के कारण योगेन हाजरिका को चना-बादाम बिक्री करते हुए खर्च निकालकर अध्ययन करना पड़ता था। उस समय डिब्रुगढ़ के दो दयालु व्यक्ति डंबरुधर सइकिया तथा परशुराम सोनोवाल की प्रेरणा और आर्थिक मदद से उन्होंने सन् 1941 में डिब्रुगढ़ सरकारी बालक हाई स्कूल से मैट्रिक की परीक्षा पास की। 

इसके बाद 1946 में कॉटन कॉलेज से स्नातक, 1949 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से अर्थनीति शास्त्र में एम.ए. तथा 1952 में कानून की डिग्री प्राप्त की। सन् 1952 में स्वाधीन भारत के पहले चुनाव में डिब्रुगढ़ लोकसभा क्षेत्र से सांसद चुने गए थे। सन् 1952 से 1967 तक लगातार लोकसभा सांसद रहे। इस दौरान उन्होंने विदेश मंत्रालय के संसदीय सचिव का पद भी संभाला था। अस्सी के दशक में योगेन हाजरिका असम के राजनीतिक क्षेत्र विधानसभा में प्रवेश किया। विधानसभा चुनाव में डिब्रुगढ़ जिले के दुलियाजान क्षेत्र से जनता दल के टिकट पर चुनाव लड़कर विधायक बने और असम विधानसभा के अध्यक्ष पद पर असीन हुए। इसके बाद सन् 1979 में 91 दिनों के लिए असम के मुख्यमंत्री भी रहे। राजनैतिक जीवन से संन्यास लेने के बाद उन्होंने उच्चतम न्यायालय, दिल्ली में भी वकालत की थी। उल्लेखनीय है कि भारत के सर्वोच्च न्यायालय में वे सोनोवाल कछारी ‘जनगोष्ठी के एकमात्र अधिवक्ता थे।

योगेन हाजरिका पहाड़-मैदान के मिलन के साधक, जनजाति नेता और असमीया जाति के निःस्वार्थ सेवक थे। उन्होंने कई पुस्तकों की भी रचना की। ‘भारतर स्वाधीनतार चमु बुरंजी तथा गण परिषद’ और ‘Consideration on twenty five million soul of Trial India’, हाजरिका जी की दो प्रमुख पुस्तकें हैं। इनका निधन 30 सितंबर, 1997 को हुआ।

अतिरिक्त प्रश्न एवं उत्तर:

1. कछारी नाम की उत्पत्ति कैसे हुई?

उत्तर: पंडितों का मानना है कि नदी के समीप अर्थात् कक्षात कच्छात’ कच्छ’ के साथ ‘अरि ‘योग होकर कच्छ + अरि = कच्छारी या कछारी नाम की उत्पत्ति हुई है। डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी के अनुसार कछारी लोग सबसे पहले ‘कुशी’ नदी के तट पर आकर बसे। इसलिए उन्हें ‘कुशीमरा’ और उस क्षेत्र को कुशारीयार के कारण कुशीयार कुशार या काशार कुशारी या कचारी कहा गया है।

2. सोनोवाल नाम की उत्पत्ति कैसे हुई?

उत्तरः विद्वानों के अनुसार ‘सोनोवाल’ शब्द तिब्बत-बर्मी भाषा-परिवार के ‘ सुनुवार’ शब्द से आया है। आदिमफा द्वारा भोजपत्र पर लिखित ‘महान जातिर इतिहास’ में उल्लेख है कि चुकाफा के सौमार में प्रवेश करने के बहुत वर्ष पहले सोनोवाल लोगों ने सोना का उत्पादन किया था और उस समय मौजूदा ‘सोनोवाल’ के बदले ‘सुनुवाल’ ही था। दूसरी ओर, इतिहासकार उपेंद्र चंद्र गुह जी की पुस्तक ‘काछारेर इतिवृत’ में उल्लेख है कि सुनाचि (मौजूदा सुबनसिरि) नदी के तट पर बसे लोगों को ‘सुनुवाल’ कहा जाता था। उन्होंने यह उल्लेख किया है कि ब्रह्मपुत्र के उत्तरी तटीय स्थान को ‘हाबुंग’ कहा जाता था और वहाँ बसने वाले कछारियों को ‘हाबांग’ अथवा ‘हाबुंगीया कछारी’ कहते थे। इन्हीं हाबुंगीया कछारियों को सुनुवाल कछारी या वर्तमान में सोनोवाल कछारी कहा जाता है।

हाजंग

सारांश:

हाजंग असम के मैदानी इलाके में निवास करने वाला एक जनजातीय समुदाय हैं। हाजंग समुदाय के लोगों को भारतीय संविधान में मौदानी जनजाति का दर्जा मिला है। ये लोग खास तौर पर ग्वालपाड़ा, घुबड़ी जिले के दक्षिण शालमरा-मानकाचार महकमे में रहते हैं। इसके अलावा हाजंग लोग ब्रह्मपुत्र घाटी के अन्य प्रायः सभी जिलों में भी रहते हैं। मेघालय के पश्चिम और दक्षिण गारो पहाड़ जिले और खासिया पहाड़ जिले के समतल इलाके में काफी संख्या में हाजंग लोग रहते हैं।

नृतत्वविदों के अनुसार हाजंग लोग इंडो-मंगोलीय जनगोष्ठी से संबंधित हैं। कहा जाता है कि ये लोग तिब्बत से आकर कोचबिहार के उत्तर में भूटान सीमा पर ‘हाजंग’ नामक स्थान पर कई सदियों तक रहे। कुछ लोगों का मानना है कि ये लोग तिब्बत से आकर कामरूप जिले के हाजो नामक स्थान पर बस गए थे। बाद में धीरे- धीरे ग्वालपाड़ा जिले की ब्रह्मपुत्र घाटी तक आए और दक्षिण किनारे लखीमपुर के पास सुवारकोना से धुबड़ी जिले के शालमरा- मानकाचार तक फैल गए। हाजंग लोग वर्तमान में असम के ग्वालपाड़ा, धुबड़ी, कामरूप, बाक्सा, उदालगुड़ी, चिरांग, दरंग, लखीमपुर, धेमाजी, नगाँव आदि जिलों में कम संख्या में बसे हुए हैं। हाजंग लोग कठोर परिश्रमी होते हैं और समतल भूमि में खेती करते हैं। गारो भाषा में ‘हा’ शब्द का अर्थ मिट्टी है और ‘जंग’ शब्द का अर्थ कीट है। कुछ लोगों का मानना है कि उनके पूर्वज का नाम ‘हाजो’ था और उनके नाम पर ही इस जनजाति का नाम ‘हाजंग’ हुआ। हाजंग लोग मूलतः कृषिजीवी होते हैं। इसलिए खेती से जुड़े कई लोकाचार उनके बीच प्रचलित हैं। वे विभिन्न देव-देवी की पूजा करते हैं। वास्तुदेवता उनके प्रधान आराध्य देवता हैं। हाजंग महिलाएँ हथकरघे पर सुंदर वस्त्र बुनती हैं। असमीया समाज जीवन में हाजंग लोगों का योगदान है। सभी जनगोष्ठियों के बीच पारस्परिक प्रेम- सद्भाव व भाइचारे के कारण असम को वैचित्र्यमय कहा जाता है।

पाठ्यपुस्तक संबंधित प्रश्न एवं उत्तर:

1. हाजंग लोग किस जनगोष्ठी से संबंधित हैं? 

उत्तर: हाजंग लोग इंडो-मंगोलीय जनगोष्ठी से संबंधित हैं।

2. हाजंग लोगों को पहाड़ी स्वायत्तशासित जिलों में कब अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिला? 

उत्तर: हाजंग लोगोंको पहाड़ी स्वायत्तशासित जिलों में भारतीय संविधान के सन् 1950 के कानून के तहत अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिला।

3. असम के प्रधानतः किन-किन जिलों में हाजंग लोग रहते हैं?

उत्तर: हाजंग लोग ग्वालपाड़ा, धुबड़ी, कामरूप, बाक्सा, उदालगुड़ी, चिरांग, दरंग, लखीमपुर, धेमाजी, नगाँव आदि जिलों में रहते हैं।

4. हाजंग लोगों की मूल जीविका क्या है? 

उत्तरः हाजंग लोगों की मूल जीविका कृषि है, परंतु आजकल अन्य काम भी करते है।

5. वास्तुदेवता की पूजा कब होती है?

उत्तर: हाजंग लोग बाईस या वास्तुदेवता की पूजा सामूहिक रूप से बैशाख महीने में करते हैं। 

6. हाजंग समाज में कासी घर का तात्पर्य क्या है? 

उत्तर: हाजंग समाज में कासी घर का तात्पर्य है- बैठकखाना। पहले जमाने में कास्री घर समृद्ध परिवार के घर ही होता था। इस घर में खासकर अविवाहित युवा या पुरुष मेहमान ही सोते थे।

अतिरिक्त प्रश्न एवं उत्तर:

1. ‘हाजंग’ जनजाति के नामकरण के आधार क्या-क्या हैं? 

उत्तर: ‘हाजंग’ जनजाति के नामकरण को लेकर विभिन्न व्यक्तियों के भिन्न-भिन्न मत हैं। कहा जाता है कि ‘हाजंग’ नामक स्थान से आने के कारण उन्हें ‘हाजंग’ कहकर संबोधित किया गया। कुछ लोगों का कहना है कि हाजंग लोगों के पूर्वज का नाम ‘हाजो’ था और उनके नाम पर ही इस जनजाति का नामकरण हाजंग हुआ। एक राय यह भी है कि पड़ोसी गारो लोगों ने यह नामकरण किया है। हाजंग कठोर परिश्रमी थे। समतल भूमि की गहरी जमीन से ओतप्रोत रूप से जुड़े होने के कारण गारो लोगों ने इस जनगोष्ठी का नामकरण हाजंग नाम से किया है। गारो भाषा में ‘हा’ शब्द का अर्थ मिट्टी और जंग का अर्थ कीट है। इसी तरह हाजंग शब्द की उत्पत्ति मानी जाती है।

2. हाजंग का सामाजिक वर्गीकरण क्या है? 

उत्तर: हाजंग जनजाति के लोग पहले छह वर्गों में विभक्त थे- हारांग पारिया, भजालू पहाड़िया, माणिक पहाड़िया, टेपर पहाड़िया, सातदल पहाड़िया और मांजी पारिया। लेकिन वतर्मान में हाजंग के 5 वर्ग ही हैं, जो इस प्रकार हैं- दस कहानिया, सुसंगी, मस पहाड़िया, कराईबारिया और बारोहजारी। हाजंग लोगों के वर्ग होने के बावजूद इनकी सामाजिक विशेषताएँ एकीभूत हो गई हैं।

3. हाजंग लोग किस भाषा-परिवार से संबंधित हैं?

उत्तर: हाजंग लोग तिब्बत-बर्मी भाषा-परिवार की बोड़ो शाखा से जुड़े हुए हैं।

4. हाजंग जनजाति का सामाजिक बंधन क्या है?

 उत्तर: हाजंग जनजाति के लोग अपनी परंपरानुसार तीन सामाजिक बंधन के जरिए समाज का संचालन करते हैं-गाँव गियाती, पाँच गियाती और जोवार या साक्ला । समाज के किसी भी विवाद का हल पहले गाँव का ‘गियाती’ या प्रधान करता है। अगर विवाद का हल न हो, तो पाँच ‘गियाती’ या मुखिया बैठकर हल निकालते हैं। जटिल विवाद के क्षेत्र में जोवार या साक्ला के प्रधान मिलकर हल निकालते हैं।

नाथ योगी

सारांश:

नाथ या योगी संप्रदाय असम तथा भारत का एक सबसे प्राचीन जनसमुदाय है। नाथ या योगी संप्रदाय मुख्यतः शैवपंथी होते हैं। शैवधर्म के दर्शन मुख्यतः योग पर आधारित है। माना जाता है कि योग से ही योगियों की उत्पत्ति हुई थी। नाथ परंपरा के अनुसार आदिनाथ अर्थात् भगवान शिव ही प्रथम नाथ थे। नाथ योगी संप्रदाय गुरु- शिष्य परंपरा में विश्वास रखता है। नाथ लोगों के दो गुरु थे मत्स्येंद्र नाथ और गोरखनाथ । नाथ योगी लोगों के दो भाग हैं- पहला है गृहस्थ योगी और दूसरा है संन्यासी योगी। संन्यासी योगी ही नाथ धर्म का प्रचार करते हैं। गुरु गोरखनाथ हठयोग मार्ग के आविष्कारक माने जाते हैं। यह भी माना जाता है कि नाथ लोगों के आदिगुरु महायोगी मत्स्येंद्रनाथ कामरूप के ही निवासी थे तथा कामाख्या पीठ में तंत्र एवं योग साधना में लीन रहते थे।

नार्थ लोगों का अपना प्राचीन साहित्य है। तंत्र-मंत्र, योग-साधना, अध्यात्म- दर्शन, आयुर्वेद, ज्योतिष, रसायन आदि विषयों पर नाथ संप्रदाय के सिद्ध पुरुषों ने बहुमूल्य साहित्य की रचना की है। नाथ सिद्धाचार्यों के द्वारा रचित ‘चर्यापद’ का असमीया, बांग्ला और उड़िया भाषा की उत्पत्ति में महत्वपूर्ण योगदान है। नाथ योगी असम में प्राचीनकाल से रहते आ रहे हैं।

विशेषकर गोवालपाड़ा, बंगाईगाँव, कोकराझाड़, दरंग, नगाँव, मोरीगाँव, होजाई, शोणितपुर, कछार आदि जिलों में लाखों की संख्या में नाथ योगी निवास करते हैं। इसके अतिरिक्त असम के प्रत्येक जिले में इस संप्रदाय के लोग सदियों से निवास करते आ रहे हैं। वर्तमान में असम के कुछ नाथ योगी लोग महापुरुष शंकरदेव द्वारा प्रवर्तित ‘एकशरण नाम धर्म’ में दीक्षित होकर महापुरुषिया धर्म के अंग बन गए हैं। योगी संप्रदाय के लोग स्वभाव से शांत एवं देशभक्त होते हैं। सन् 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान ढेकियाजुली थाने पर फहराए गए ब्रिटिश ध्वज यूनियन जैक को निकाल फेंकने के कारण मनवर नाथ, खहुली देवी और कुमली देवी नामक तीन स्वतंत्रता सेनानी पुलिस की गोली से घटनास्थल पर ही शहीद हो गए थे। वर्त्तमान में नाथ योगी संप्रदाय असम का एक गौरवशाली जनसमुदाय है। यह जनसमुदाय असमीया भाषा-साहित्य, कला-संस्कृति का रक्षक और वाहक होने के साथ-साथ अपने प्राचीन परिचय को भी अक्षुण्ण रखा है।

पाठ्यपुस्तक संबंधित प्रश्न एवं उत्तर:

1. असम के नाथ योगी लोगों की उत्पत्ति के बारे में लिखिए। 

उत्तरः नाथ योगी संप्रदाय एक प्राचीन जनसमुदाय है। आर्य सभ्यता से बहुत पहले से नाथ योगी भारत के विभिन्न राज्यों में रहते आ रहे हैं। नाथ योगी संप्रदाय के लोग मुख्यतः शैवपंथी हैं और वे शैवधर्म का पालन करते आ रहे हैं। शैवधर्म मुख्य रूप से योग-मार्ग पर आधारित है। वस्तुतः योग से ही योगियों की उत्पत्ति हुई है। नाथ परंपरा के अनुसार आदिनाथ अर्थात् भगवान शिव ही प्रथम नाथ थे। महायोगी मत्स्येंद्रनाथ और गुरु गोरखनाथ नाथ लोगों के दो महान गुरु थे।

2. नाथ योगी लोगों के साहित्य और धर्म के बारे में लिखिए।

उत्तरः नाथ योगी लोगों का साहित्य प्राचीन और समृद्ध है। तंत्र-मंत्र, योग-साधना, अध्यात्म-दर्शन, आयुर्वेद, ज्योतिष, रसायन आदि विषयों पर नाथ संप्रदाय के सिद्धों ने बहुमूल्य साहित्य की रचना की है। असमीया, बांग्ला और उड़िया भाषा की उत्पत्ति में नाथ-सिद्धों के द्वारा रचित ” चर्चापद” का महत्वपूर्ण योगदान है। दूसरी ओर, नाथ योगी संप्रदाय के लोग जिस धर्म का पालन करते हैं, उसका नाम शैवधर्म अथवा व्रात्य धर्म है। शैवधर्म में भगवान शिव को ही आदिनाथ या प्रथम नाथ मानते हैं। शैवधर्म मुख्यतः योग व साधना पर आधारित प्राचीन धर्म है।

3. नाथ योगी लोगों के बारे में लिखिए।

उत्तरः नाथ योगी असम में प्राचीन काल से ही रहते आ रहे हैं। इस संप्रदाय के लोग असम के गोवालपाड़ा, बंगाईगाँव, कोकराझाड़, दरंग, नगाँव, मोरीगांव, होजाई, शोणितपुर, कछार आदि जिलों में लाखों की संख्या में रह रहे हैं। इसके अतिरिक्त कमोबेस रूप में असम के प्रत्येक जिले में युगों से रहते आए हैं। एक अनुसंधान के अनुसार यह कहा जाता है कि एक समय नगाँव के समीप कदली नामक एक राज्य था, जो नाथ योगी संप्रदाय की महिला शासिका द्वारा शासित था। होजाई जिले के जोगीजान, तेजपुर के समीप स्थित सूर्य पहाड़ का शिवलिंग, गोवालपाड़ा के जोगीघोपा की पहाड़ी गुफा कामरूप राज्य के सिद्धों की साधना स्थली थी। नाथ योगी संप्रदाय के लोग स्वभाव से शांत और देशभक्त होते हैं।

अतिरिक्त प्रश्न एवं उत्तर:

1. नाथ योगी संप्रदाय के लोग किस धर्म का पालन करते हैं?

उत्तरः नाथ योगी संप्रदाय के लोग हिंदू धर्म के अंतर्गत शैवपंथी हैं और शैवधर्म का पालन करते हैं।

2. नाथ लोगों के गुरु कौन थे?

उत्तरः नाथ लोगों के दो गुरु थे महायोगी मत्स्येंद्रनाथ और गुरु गोरखनाथ ।

3. नाथ योगी लोगों के कितने भाग हैं?

उत्तरः नाथ योगी लोगों के दो भाग हैं – गृहस्थ योगी और संन्यासी योगी ।

4. हठयोग मार्ग के आविष्कारक कौन हैं?

उत्तर: गुरु गोरखनाथ हठयोग मार्ग के आविष्कारक हैं। 

5. योग साधना पर आधारित एक ग्रंथ का नाम लिखिए।

उत्तर: गुरु गोरखनाथ द्वारा किए गए योग साधना पर आधारित स्वाम स्वात्माराम द्वारा रचित ग्रंथ है- हठयोग प्रदीपिका ।

6. चर्यापदों के रचयिता कौन थे? 

उत्तरः नाथ सिद्धाचार्यों ने चर्यापदों की रचना की थी।

7. भारतीय स्वाधीनता संग्राम में नाथ लोगों के योगदान पर प्रकाश डालिए। 

उत्तरः भारतीय स्वाधीनता संग्राम में नाथ लोगों ने महत्वपूर्ण योगदान दिया था। सन् 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान ढेकियाजुली थाने पर फहराए गए ब्रिटिश झंडा यूनियन जैक को उतार फेंकने के कारण मनबर नाथ, खहुली देवी और कुमली देवी नामक तीन स्वतंत्रता सेनानी पुलिस की गोलियों से घटनास्थल पर ही शहीद हो गए थे। इसके अतिरिक्त सन् 1894 में दरंग जिले में हुए पथारूघाट कृषक विद्रोह के दौरान अंगेजों द्वारा चलाए गोलीकांड में 140 शहीद किसानों में से 28 नाथ संप्रदाय के लोग भी थे।

8. “असम प्रादेशिक योगी सम्मेलन” की स्थापना कब और किसने की थी?

उत्तर: असम प्रादेशिक योगी सम्मेलन की स्थापना सन् 1919 में संप्रदाय के प्रमुख दूरदर्शी व्यक्ति हलिराम नाथ शहरीया और लम्बोदर बरा के अथक प्रयास से हुई थी।

आदिवासी

सारांश:

असम के चाय बागानों और ग्रामीण क्षेत्रों में आदिवासी जनसमुदाम के लोग सदियों से रहते आ रहे हैं। असमीया संस्कृति और असम के आर्थिक-सामाजिक विकास में आदिवासी लोगों का महत्वपूर्ण योगदान है। आदिवासी का अर्थ “प्रथम वासी” या “मूल निवासी” है। आदिवासी जनसमुदाय के अंतर्गत कई जातियाँ आती हैं। जैसे- कोल, भील, मुंडा, सौताल, ओरांग, भूमिज, धनवार आदि।

इतिहासकार प्रफुल्ल बरुवा ने आदिवासी जनसमुदाय का परिचय देते हुए लिखा है- ” आदिवासी लोगों का कद छोटा, रंग काला और नाक चपटी होती है। वे सामान्य तौर पर जंगलों एवं पहाड़ों पर रहना पसंद करते हैं।” आदिवासी लोग भले ही अनेक उपाधियों का व्यवहार करते हों, परंतु सामूहिक रूप में स्वयं को ‘आदिवासी’ कहकर गौरव का अनुभव करते हैं। आदिवासी मूलतः चाय मजदूर ही होते हैं। लेकिन समय के बदलने के साथ-साथ इस समुदाय के लोग कृषि कार्य और अन्य कार्य भी करने लगे हैं। आदिवासी जनसमुदाय का मुख्य पर्व करम पूजा है। यह भाद्र महीने की एकादशी तिथि को मनाई जाती है। इसके अतिरिक्त आदिवासी लोग टुसु,, सोहराई, सुमर, डोमकच, फगुआ, जागूर आदि उत्सव भी मनाते हैं। आदिवासी लोगों में अनेक भाषाएँ प्रचलित हैं। जैसे कुडुस, सौताली, मुंडारी, खाड़िया, कुड़माली आदि । भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में भी आदिवासी लोगों का योगदान रहा है। क्रिस्चन मुंडा, मालती ओरांग, दयाल पानिका आदि स्वतंत्रता सेनानी हैं। वृहत्तर असमीया जाति के निर्माण और विकास में आदिवासी लोगों का विशेष योगदान है।

पाठ्यपुस्तक संबंधित प्रश्न एवं उत्तर:

1. आदिवासियों के बारे में संक्षेप में लिखिए।

उत्तर: ‘आदिवासी शब्द ‘आदि’ और ‘वासी’ दो शब्दों के मेल से बना है। आदि का अर्थ प्रथम या मूल और वासी का अर्थ बासिंदा (निवासी) होता है। इस प्रकार देश के प्रथम निवासी को आदिवासी कहा जाता है। आदिवासी जनसमुदाय के लोग सदियों से असम के चाय बागानों या गाँवों में रहते आ रहे हैं। यह समुदाय असमीया जाति का एक अभिन्न हिस्सा है। असमीया संस्कृति और असम के आर्थिक-सामाजिक विकास में इनका महत्वपूर्ण योगदान है। आदिवासी लोग प्रकृति-प्रेमी होते हैं। पूजा-पाठ पर उनकी बड़ी आस्था होती है। वे विभिन्न देवी-देवताओं की उपासना करते हैं। आदिवासी लोग पारंपरिक रूप से ‘करम’ पूजा मनाते आ रहे हैं। ‘करम’ एक प्रकार का पेड़ होता है। करम को देवता मानकर गाँव के लोग बड़ी श्रद्धापूर्वक पूजा करते हैं और कुशल-मंगल की कामना करते हैं। इसके अतिरिक्त टुसु पूजा, बाहा पूजा, फगुआ, जागूर आदि मनाते हैं। आदिवासियों की अपनी अगल भाषा है। वे आपस में अपनी भाषा में बातचीत करते हैं। परंतु वे असमीया भाषा भी समझते हैं और बोलते भी हैं। लंबे समय से असम की धरती को अपनी कर्मभूमि मानकर आदिवासी जनसमुदाय असमीया संस्कृति की श्रीवृद्धि में विशेष योगदान दिया है।

2. आदिवासियों की भाषा एवं पर्व-त्योहारों के बारे में लिखिए। 

उत्तरः आदिवासियों की भाषा विविधतापूर्ण है। इस जनसमुदाय के लोग द्रविड़ और आस्ट्रिक भाषा-परिवार की भाषाएँ बोलते हैं। उदाहरण के तौर पर, ओरांग लोगों की कुडुस भाषा द्रविड़ परिवार की भाषा है। मुंडा और सौताल लोगों की भाषा आस्ट्रिक परिवार की है। आदिवासी लोग अपनी भाषाओं के विकास के लिए संस्थागत तरीके से संरक्षण एवं संवर्धन करते आ रहे हैं। आदिवासी लोग अपनी आदिवासी भाषाओं के संरक्षण के साथ-साथ अपने पारंपरिक पर्व-त्योहारों को भी रीति-रिवाज के साथ मनाते आ रहे हैं। आदिवासियों द्वारा ‘मनाए जाने वाले पर्वों में ‘करम पूजा’ और ‘टुसु पूजा’ प्रमुख हैं। इसके अलावा बाहा पर्व, सोहराई, मागे, फगुआ आदि उत्सव भी मनाये जाते हैं। करम पूजा भादो महीने की एकादशी को मनाई जाती है। यह कृषि आधारित उत्सव है। करम उत्सव प्रेम, भाइचारा, एकता, अच्छी फसल और सबके कल्याण की भावना से ओतप्रोत एक पारंपरिक त्योहार है। आदिवासी जनसमुदाय असम की बहुरंगी संस्कृति में एक विशेष महत्व रखता है।

3.संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए:

(क) क्रिस्चन मुंडा।

उत्तर: क्रिस्चन मुंडा आदिवासी जनसमुदाय के एक बहुत बड़े मजदूर नेता थे। उन्होंने ‘चाय बागानों में काम करने वाले मजदूरों को लेकर स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान अंग्रेजों के खिलाफ बगावत की थी। अंग्रेज सरकार ने उन्हें फुलबाड़ी चाय बागान में खुलेआम फाँसी दी थी। आदिवासी जनसमुदाय के क्रिस्चन मुंडा भारतीय स्वाधीनता की लड़ाई में अपने प्राणों की आहुति देने वाले प्रथम शहीद हैं। क्रिस्चन मुंडा ने सन् 1910-1913 में तेजपुर के समीप फुलबाड़ी चाय बागान में किसानों और मजदूरों के विद्रोह का नेतृत्व लिया था। क्रिस्चन मुंडा के शहीद होने के बाद असम के कई चाय बागानों में स्वाधीनता का आंदोलन और तेज हो गया था। मालती ओरांग, दयाल पानिका, बाँकुडु साउरा आदि आदिवासी स्वाधीनता संग्राम में शहीद हो गए।

(ख) जस्टिस लक्रा।

उत्तर: जस्टिस लक्रा आदिवासी समाज के एक बड़े छात्र नेता थे। इन्होंने अखिल असम आदिवासी छात्र संघ की स्थापना में अहम भूमिका अदा की थी। इन्हें आदिवासी समाज अखिल असम आदिवासी छात्र संघ का जन्मदाता मानते हैं। जस्टिस लक्रा निचले असम में सन् 1996 में हुए वर्ग संघर्ष को करीब से देखा था। उस समय वे शिलांग विश्वविद्यालय में पढ़ रहे थे। अपनी पढ़ाई छोड़कर वे पीड़ितों की सेवा में लग गए थे। उल्लेखनीय है कि 1996 के उस वर्ग- संघर्ष में करीब दो लाख लोगों को शरणार्थी शिविरों में रहना पड़ा था। 2 जुलाई, 1996 को जस्टिस ला ने अपने सहयोगी जोसेफ मिंजो, स्टीफन एक्का, बॉस्को सेरेमाके, मांगरा ओरांग और विल्फ्रेड टोप्पो से मिलकर लखीमपुर के जनवस्ती आदिवासी उच्च विद्यालय में अखिल असम आदिवासी छात्र संघ का गठन किया। इस संघ का मुख्य उद्देश्य लोगों की सुरक्षा और शांति प्रदान करना था। यह संघ अपने जन्म से ही आदिवासियों के जनजातिकरण और चाय मजदूरों की दैनिक मजदूरी वृद्धि के लिए आंदोलन करता आ रहा है। ऐसे आंदोलनों में आंद्रेयास मांडी, हेमलाल सना, बॉस्को सेरेमाको, जितेन ताँती समेत 18 आदिवासी शहीद हो चुके हैं। जस्टिस लक्रा को आदिवासी समाज अपना ‘राष्ट्रपिता’ मानता है। इस महान आदिवासी छात्र नेता का जन्म 2 अक्टूबर, 1970 को हुआ था और मृत्यु 13 जुलाई, 2015 को हुई थी।

अतिरिक्त प्रश्न एवं उत्तर:

1. आदिवासी समाज के लोग कहाँ रहते हैं?

उत्तर: आदिवासी समाज के लोग असम के चाय बागानों एवं गाँवों में निवास करते हैं।

2. आदिवासी किसे कहते हैं?

उत्तर: आदिवासी ‘आदि’ और ‘वासी’ दो शब्दों से बना है, जिसका अर्थ है – देश के प्रथम निवासी अर्थात् जो देश के पहले निवासी हैं, सामान्यतः उन्हें आदिवासी कहा जाता है।

3. आदिवासी जनसमुदाय के प्रमुख पर्वों के नाम बताइए। 

उत्तर: आदिवासी जनसमुदाय के प्रमुख पर्व हैं- करम पूजा, टुसु पूजा, बाहा पर्व, सोहराई, फगुआ आदि।

4. आदिवासी जनसमुदाय की भाषा का परिचय दीजिए। 

उत्तर: आदिवासी जनसमुदाय की भाषाएँ द्रविड़ और आस्ट्रिक भाषा-परिवार की भाषाएँ हैं। आदिवासी समाज में ओरांग, सौताल, मुंडा, खाड़िया, कुड़मालो कई जातियाँ हैं और उनकी भाषाएँ भी अलग-अलग हैं। ओरांग की भाषा कुडुस, मुंडा की भाषा मुंडारी, सौताल की भाषा सौताली, खाड़िया की खाड़िया, कुड़माली की कुड़माली आदि। आदिवासियों की भाषाओं को सामग्रिक रूप से’ आदिवासी भाषा’ कहते हैं। आदिवासी लोगों ने अपनी भाषाओं के विकास के लिए कुडुस साहित्य सभा, सौताली साहित्य सभा, मुंडारी साहित्य सभा जैसी संस्थाओं की स्थापना की है।

5. आदिवासी समाज के किन्हीं चार स्वतंत्रता सेनानियों के नाम लिखिए। 

उत्तर: आदिवासी समाज के स्वतंत्रता सेनानी हैं- क्रिस्चन मुंडा, मालती ओरांग, दयाल पानिका, बाँकुडु साउरा आदि ।

6. अखिल असम आदिवासी छात्र संघ के जन्मदाता कौन थे? 

उत्तर: अखिल असम आदिवासी छात्र संघ के जन्मदाता जस्टिस लक्रा थे।

7. ‘भारत बुरंजी’ नामक पुस्तक में प्रफुल्ल बरुवा ने आदिवासी जनसमुदाय का परिचय किस प्रकार दिया है?

उत्तर: प्रफुल्ल बरुवा ने आदिवासी जनसमुदाय का परिचय देते हुए लिखा है कि इस समुदाय के लोगों का कद छोटा, रंग काला और नाक चपटी होती थी। वे साधारणतः पहाड़ों एवं जंगलों में रहना पसंद करते थे। उनकी अपनी कोई लिपि नहीं थी तथा उनकी भाषा आर्यभाषा परिवार से बिल्कुल अलग थी। 

8. आदिवासी लोगों की कुछ उपाधियों का उल्लेख कीजिए। 

उत्तर: आदिवासी लोगों की अनेक उपाधियाँ हैं। जैसे- कोल, भील, मुंडा, कॉवर, भूमिज, सौताल, ओरांग, खेरवार, खाडिया, धनवार आदि।

9. करम उत्सव क्या है? इसके बारे में संक्षेप में लिखिए। 

उत्तरः करम उत्सव आदिवासी जनसमुदाय का एक प्रमुख उत्सव है। यह उत्सव भादो महीने की एकादशी को मनाया जाता है। यह कृषि आधारित एक पारंपरिक उत्सव है, जिसमें सभी लोग नाचते-गाते हैं और करम देवता की पूजा करते हैं। करम एक प्रकार का पेड़ होता है। गाँव की लड़कियाँ जंगल से -करम की डाल काटकर लाती हैं और उसे गाँव के चौपाल पर लगा देती हैं। पुरोहित द्वारा पूजा संपन्न होने के बाद आदिवासी लोग अपनी पारंपरिक नीति- कथाएँ सुनते हैं। करम उत्सव प्रेम, बंधुत्व और एकता का प्रतीक है। इस उत्सव में अच्छी फसल और लोगों के कल्याण की कामना करते हुए करम देवता की आराधना की जाती है।

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