Class 10 Ambar Bhag 2 Chapter 17 वैचित्र्यमय असम

Class 10 Hindi Ambar Bhag 2 Chapter 17 वैचित्र्यमय असम The answer to each chapter is provided in the list so that you can easily browse throughout different chapter Assam Board Class 10 Hindi Ambar Bhag 2 Chapter 17 वैचित्र्यमय असम and select needs one.

Join Telegram channel

Class 10 Hindi Ambar Bhag 2 Chapter 17 वैचित्र्यमय असम

Also, you can read the SCERT book online in these sections Solutions by Expert Teachers as per SCERT (CBSE) Book guidelines. These solutions are part of SCERT All Subject Solutions. Here we have given Class 10 Hindi Ambar Bhag 2 Chapter 17 वैचित्र्यमय असम Solutions for All Subject, You can practice these here..

तिवा

पाठ – 17

सारांश:

असम की जनगोष्ठियों में तिवा अन्यतम है। तिवा लोग प्राचीन काल से ही असम में निवास करते आ रहे हैं। ये लोग इंडो-चीन के अंतर्गत तिब्बती-बर्मी भाषा- परिवार के तहत बृहत् बोड़ो गुट से संबंधित हैं। तिवा समुदाय के लोग असम के कई जिलों में बसे हुए हैं। मुख्य रूप से नगांव, मोरिगांव, कामरूप, कार्बी आंगलंग, जोरहाट, धेमाजी, लखीमपुर, सदिया जिलों के अतिरिक्त मेघालय राज्य के कुछ इलाकों में तिवा समुदाय के लोग रह रहे हैं। तिवा लोग पहाड़ी और मैदानी दोनों क्षेत्रों में रहते हैं। असम के इतिहास में तिवा लोगों का अहम स्थान है। तिवा वीर ‘ जोंगाल बलहू’ एक महान राजा थे। मध्य युग में कपिली नदी के किनारे तिवा लोगों के नेतृत्व में गोभा, नेली, खला, सहरी आदि छोटे-छोटे राज्यों की स्थापना हुई थी। भारत की आजादी की लड़ाई में भी तिवा लोगों का अहम योगदान रहा है। असम के पहले कृषक विद्रोह ‘फूलगुड़ी धेवां’ का आरंभ और नेतृत्व तिवा लोगों ने किया था। सन् 1942 के जन आंदोलन में हेमराम पातर शहीद हुए थे।

तिवा लोग मूलत: जड़वादी या जड़ोपासक और पुरखों की उपासना करते हैं। प्रकृति के विभिन्न उपादानों की पूजा करने के साथ ही उत्सव पर्व में वे लोग अपने पुरखों को देवता मानते हैं। बाद में तिवा लोग हिंदू धर्म के विभिन्न मतों, जैसे- शाक्तवाद, वैष्णववाद, शैववाद, नववैष्णववाद आदि से भी जुड़ते गए हैं। तिवा लोग सांस्कृतिक रूप से काफी समृद्ध है। प्रेम और भाईचारे के प्रतीक के तौर पर वे लोग ‘जोनबिल’ मेले का आयोजन करते हैं, जो प्राचीन अर्थव्यवस्था (विनिमय प्रथा) का जीवंत उदाहरण होता है। तिवा लोग मांसाहारी होते हैं और बहुधा बहुरंगी कपड़े पहनते हैं। पहाड़ी और मैदानी इलाके में रहने वाली तिवा जनगोष्ठी उत्सवप्रिय होती है। अपने पारंपरिक उत्सवों के साथ-साथ तिवा लोग बिहू भी मनाते हैं। तिवा जनगोष्ठी के विशिष्ट व्यक्ति अनेक हैं, जिनमें इंद्रसिंग देउरी, बलाईराम सेनापति का नाम श्रद्धापूर्वक लिया जाता है।

पाठ्यपुस्तक संबंधित प्रश्न एवं उत्तर:

1. भाषाई तौर पर तिवा लोग किस समुदाय से संबंधित हैं? 

उत्तर: भाषाई तौर पर तिवा लोग इंडो-चीन के अंतर्गत तिब्बती-बर्मी भाषा परिवार के बोड़ो समुदाय से संबंधित हैं।

2. तिवा लोगों के उत्सव पर्व में इस्तेमाल किए गए विभिन्न वाद्य यंत्र क्या-क्या हैं?

उत्तर: तिवा लोगों के उत्सव पर्व में इस्तेमाल किए गए विभिन्न वाद्य यंत्रों के नाम इस प्रकार हैं खाम (ढोल) बार, खाम खुजूरा, खाम पानथाई, दुमडिंग, दगर, पाती ढोल आदि चमड़े के वाद्य, वाफ़ांग खाम, थकथररक, पांसी (वंशी), थोरांग, भैंस के सींग के पेंपा, मुहूरी, खाथांग (ताल) आदि ।

3. तिवा समाज में ‘जेला’ किसे कहते हैं? 

उत्तरः मूल रूप से मातृसूत्रीय अवस्था से उत्पन्न तिवा समाज की बुनावट परिवार से शुरू होती है। दो से अधिक लोग मिलकर एक ‘माहारी’, कई ‘माहारी’ मिलकर एक कुल या ‘खूटा’ और कई कुल मिलकर एक ‘खेल’ तथा कई ‘खेल’ मिलकर एक गाँव बनाते हैं। अतः इस प्रकार कई कुल से मिलकर बने एक ‘खेल’ के प्रशासनिक और सामाजिक मुखिया को मैदानी इलाके में ‘जेला ‘ कहा जाता है।

4. तिवा लोगों के कुछ उत्सवों के नाम लिखिए। 

उत्तरः तिवा लोगों के कुछ उत्सवों के नाम इस प्रकार हैं-वानसुवा, सग्रा, थांगली, मुईनारी कांठी, लांखान, जोनबिल मेला, बरत गोसाईं उलिओवा मेला, बोहाग बिहू आदि ।

5. फूलगुड़ी का धेवां क्या है? 

उत्तर: असम के प्रथम कृषक विद्रोह का नाम ‘फूलगुड़ी का धेवां’ है, जिसे जन्म तिवा लोगों ने दिया तथा उसका नेतृत्व भी तिवा लोगों ने ही किया।

6. संक्षेप में लिखिए:

(क) इंद्रसिंग देउरी।

उत्तर: तिवा जनजाति के बीच जातीय चेतना जाग्रत करने वाले इंद्रसिंग देउरी का जन्म सन् 1932 में पश्चिम कार्बी आंग्लांग जिले के अन्तर्गत रंगखैपार गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम ‘मालसिंग पोमा’ और माता का नाम ‘मामा आम्सी’ था। सन् 1939 में देउरी ने कार्बी आंग्लांग जिले के बाउलागोग नामक प्राथमिक विद्यालय से शिक्षा प्रारम्भ किया तथा नगाँव जिले के डिमौ नामक हाईस्कूल से आठवीं कक्षा तक की शिक्षा प्राप्त करने के बाद आर्थिक तंगी के कारण पढ़ाई छोड़ दी। पढ़ाई छोड़ने के पश्चात देउरी सन् 1949 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गये। पार्टी में रहते हुए उन्होंने सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े हुए तिवा लोगों के उत्थान हेतु निरंतर प्रयास किया। सन् 1960 में उन्होंने थाराखुंजी नामक गाँव मासलाई, रबटसिंग आम्सी और पद्मकांत कोकती के सहयोग से ‘तिवासा मिशन’ नामक सामाजिक संगठन की स्थापना की तथा उसका उद्देश्य था कार्बी आंग्लांग जिले के तिवा लोगों के बीच व्याप्त अंधविश्वासों को समाप्त कर उनके हृदय को शिक्षा के माध्यम से जागृत कर उन्हें आधुनिक समाज की मुख्य धारा से जोड़ना। इसके अतिरिक्त सन् 1967 में तिवा जाति के उत्थान के लिए काम करने वाले एक अन्यतम संगठन ‘लालुंग दरबार’ का जन्म इंद्रसिंह देउरी के नेतृत्व में हुआ। उन्हें 1976 में कार्बी आंग्लांग स्वशासी परिषद का आम सदस्य मनोनीत किया गया तथा बाद में उनको परिषद का उपाध्यक्ष बनाया गया। उन्होंने कविता, गीत आदि की रचना कर तिवा साहित्य को भी समृद्ध किया। इस प्रकार वे लगातार संगठक, समाज सुधारक, लेखक, गीतकार, संगीतकार आदि के रूप में कार्य करते हुए समाज को एक नई ऊँचाई तक पहुँचाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया।

(ख) बलाईराम सेनापति।

उत्तर: असम साहित्य-संस्कृति जगत के प्रतिष्ठित लेखक एवं संस्कृति के साधक बलाईराम सेनापति का जन्म 3 मार्च, 1931 को नगाँव जिले के ऐतिहासिक बारपूजिया गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम बगाराम सेनापति और माता का नाम पद्मेश्वरी बरदलै था। इन्होंने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा एलपी और एमवी स्कूल से तथा नगाँव सरकारी हाईस्कूल से माध्यमिक शिक्षा प्राप्त की। लेकिन उन्हें आर्थिक तंगी के कारण अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ी। इसके पश्चात् उन्होंने 1953 से 1963 तक संयुक्त उत्तर कछार एवं मीकिर पहाड़ जिले के बरथल मध्य अंग्रेजी विद्यालय में अध्यापन का कार्य भी किया। बचपन से ही सेनापति के हृदय में साहित्य-संस्कृति के प्रति गहरा लगाव था। उन्होंने तिवा समाज के संगीत, नृत्य और वाह्य के संरक्षण हेतु महत्वपूर्ण कदम उठाये तथा तिवा लोकगीत की स्वरलिपि तैयार की। दूसरी ‘ओर ‘तिवा कृष्टि संस्था’ की स्थापन में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने तिवा के साथ-साथ असमीया भाषा में भी लेखन कार्य कर उसके विकास में योगदान दिया। उनके द्वारा विरचित ‘मुकुल’ नामक गीतों का संकलन 1954 में प्रकाशित हुआ तथा तिवा लोगों की ‘रतिसेवा’ विषयक रामधेनु में लिखित उनके लेख की प्रशंसा विद्वानों ने भी की। उन्हें वर्ष 2000 में तिवा साहित्य सभा का अध्यक्ष चुना गया। उन्होंने विभिन्न प्रकार की कृतियों की रचना की जिसमें ‘अतीतर संधानत’ (1997), ‘तिवा समाज आरु संस्कृति’ (2010) आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय है।

उनके कार्यों के लिए उन्हें अनेक प्रकार के सम्मान व पुरस्कार भी प्राप्त हुए, वे इस प्रकार है- सन् 2011 में नगाँव जिला साहित्य सभा ने डॉ. सूर्यकुमार भुइयां पुरस्कार और 2011 में ही असम की लोक संस्कृति के साधक के रूप में बकुल वन न्यास ने ‘बकुल वन पुरस्कार’ प्रदान किया ।

बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्तित्व वाले सूर्य बलाईराम सेनापति का निधन 11 मई, 2014 को हुआ।

अतिरिक्त प्रश्न एवं उत्तर:

1. तिवा जनगोष्ठी का वर्गीकरण कीजिए। 

उत्तर: तिवा लोगों का वर्गीकरण ‘दाँतीअलिया’, ‘पहाड़िया’ और ‘थलोवाली’ के नाम से किया गया है, परंतु वर्तमान में उन्हें पहाड़ी और मैदानी श्रेणी में विभक्त किया गया है।

2. तिवा लोगों का पहनावा कैसा है?

उत्तर: तिवा लोग बहुरंगी वस्त्र पहनते हैं। पुरुषों के पहनावे हैं-थाना, ताग्ला, ठेनास, फालि, फागा आदि और महिलाओं के पहनावे हैं- कासांग, फासकाई, नारा आदि।

3. तिवा लोगों का प्रिय खाद्य क्या है? 

उत्तर: तिवा लोग मांसाहारी होते हैं। वे मुर्गी तथा सूअर का मांस खाते हैं और पारंपरिक रूप से बनाया गया मदिरा (ज्यू) पीते हैं।

देउरी

सारांश:

असम में निवास करनेवाली विभिन्न जनगोष्ठियों में देउरी समुदाय का स्थान उल्लेखनीय रहा है। मूलत: ये मंगोल जाति से संबंधित हैं, जिनका इतिहास में गहरा प्रभाव रहा है। देउरी समाज के लोग पूर्वी एशिया तथा उत्तर-पूर्व दिशा से असम मे प्रव्रजित होकर ब्रह्मपुत्र के ऊपरी हिस्से में वतर्मान के अरुणाचल प्रदेश के लोहित जिले के अंतर्गत जैदाम पहाड़ के आस-पास बस गए। देउरी लोग वर्षों से सदिया अंचल में ही निवास करते आ रहे थे, लेकिन बाद में संभवतः प्राकृतिक आपदा, सामुदायिक संघर्ष अथवा उर्वर भूमि की खोज में इस स्थान को छोड़कर लुईत (ब्रह्मपुत्र) को पारकर सबसे पहले शिवसागर, माजुली और लखीमपुर जिलों के डिक्रांग नदी के किनारे बसने लगे और वहीं से बाद में विभिन्न स्थानों में फैलते गए। देउरी लोग वर्तमान में ऊपरी असम के आठ जिलों- तिनसुकिया, डिब्रूगढ़, शिवसागर, जोरहाट, माजुली, धेमाजी, लखीमपुर और विश्वनाथ में बसे हुए हैं। भारतीय संविधान में इन्हें अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिया गया है। देउरी लोग सामाजिक रूप से चार वर्गों में विभक्त हैं-डिबडीय (डिबांग नदी के किनारे निवास करने वाले), टेंगापनीय (टेंगापानी नदी के किनारे निवास करनेवाले), बरगञाँ (बरनदी के किनारे निवास करनेवाले) और पाटरगञ (पात-सदिया में रहनेवाले)।

देउरी भाषा मूलतः चीनी-तिब्बती भाषागोष्ठी के तिब्बत-बर्मी भाषा-परिवार की बोड़ो शाखा के अंतर्गत आती है। देउरी भाषा की अपनी खास विशेषताएँ हैं। असम सरकार ने 28 जनवरी, 2005 को देउरी भाषा को सरकारी भाषा के रूप में मान्यता दी है। देउरी समाज के लोग धर्म पर पूर्ण आस्था व विश्वास रखते हैं। पारंपरिक रूप से वे ‘कुंदि’ धर्म को मानते हैं। ‘कुंदिमामा’ उनके उपास्य देवता हैं। ये लोग साधारणतः कृषिजीवी होते हैं। लकड़ी, बाँस, बेंत और खेर से चांगघर बनाकर रहा करते हैं। देउरी लोग अपनी पारंपरिक उत्सवों को मनाने के साथ-साथ असम के तीन प्रधान जातीय उत्सव रंगाली बिहू, भोगाली बिहू और कंगाली बिहू को भी मनाते हैं। इस समुदाय के अनेक विशिष्ट व्यक्ति हैं जो असम की उन्नति और समरसता में अपनी अमूल्य योगदान दिया है, उनमें जननेता भीरबर देउरी, विद्वान राधाकांत देउरी, समाजसेवी व राजनीतिज्ञ बर्गराम देउरी साहित्यकार श्रीचन्द्र सिंह देउरी प्रमुख हैं।

पाठ्यपुस्तक संबंधित प्रश्न एवं उत्तर

1. देउरी लोगों का आदिम निवास स्थान कहाँ था?

उत्तरः देउरी लोगों का आदिम निवास स्थान सदिया अंचल था।

2. सामाजिक दृष्टि से देउरी लोग कितनी और किन-किन शाखाओं में विभक्त हैं? उल्लेख कीजिए। 

उत्तरः सामाजिक दृष्टि से देउरी लोग चार शाखाओं में विभक्त हैं-डिबंगीया, टेंगापनीया, बरगज और पाटरगज।

3. सदिया से प्रव्रजन कर देउरी लोग सर्वप्रथम असम के किन जिलों में आकर बसे? वर्तमान में वे असम के कितने जिलों में बसे हुए हैं? 

उत्तरः संदिया से प्रव्रजन कर देउरी लोग सर्वप्रथम असम के शिवसागर जिले के माजुली और लखीमपुर जिले के डिक्रांग नदी के किनारे आकर बसे। वर्तमान में वे असम के तिनसुकिया, डिब्रुगढ़, शिवसागर, जोरहाट, माजुली, धेमाजी, लखीमपुर और विश्वनाथ नामक आठ जिलों में बसे हुए हैं।

4. देउरी स्वयं का किस रूप में परिचय देते हैं? 

उत्तरः देउरी स्वयं का परिचय जिमोचणायो के रूप में देते हैं।

5. देउरी भाषा तिब्बत-बर्मी भाषागोष्ठी के किस भाषा परिवार के अन्तर्गत है ? किस वर्ष में देउरी भाषा को असम सरकार ने सरकारी मान्यता प्रदान की?

उत्तरः देउरी भाषा तिब्बत-बर्मी भाषागोष्ठी के बोड़ो भाषा परिवार के अन्तर्गत है। 28 जनवरी, 2005 को देउरी भाषा को असम सरकार ने सरकारी मान्यता प्रदान की। 

6. देउरी लोगों के चार जातीय उत्सवों के नामों का उल्लेख कीजिए।

उत्तरः देउरी लोगों के चार जातीय उत्सवों के नाम इस प्रकार हैं- कृषि आधारित उत्सव बिबा बचु, गिबा मेच्चु (वसंत स्वागत का उत्सव), बिहू उत्सव- चिगादागारेबा बिचु, बिचु दाबेबा मेच्चु आदि।

7. देउरी किस धर्म में आस्था रखते हैं? 

उत्तरः देउरी लोग ‘कुन्दि’ धर्म में आस्था रखते हैं। 

संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए:

(क) भीमबर देउरी।

उत्तरः जननेता व जनप्रतिनिधि के रूप में प्रख्यात भीमबर देउरी का जन्म 16 मई, 1903 को हुआ। इनके पिता का नाम गदरामं देउरी तथा माता का नाम बाजती देउरी था। सन् 1908 में 57 नंबर बरगाँव प्राथमिक विद्यालय से शिक्षा प्रारंभ की तथा सन् 1913 में प्राथमिक विद्यालय की अंतिम परीक्षा पूरे शिवसागर महकमा में प्रथम स्थान से उत्तीर्ण की। इसी प्रकार सन् 1918 में सरकारी एम.वी. स्कूल से एम.वी. उत्तीर्ण किया तथा सन् 1925 में शिवसागर सरकारी हाईस्कूल से हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण कर सन् 1925 में कॉटन कॉलेज में दाखिला लिया। इस प्रकार उन्होंने सन् 1929 में द्वितीय श्रेणी में बी. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण कर सन् 1931 में कोलकाता से कानून की परीक्षा उत्तीर्ण कर बी. एल. की डिग्री ली तथा साथ ही साथ प्रेसिडेंसी कॉलेज से स्नातकोत्तर की पढ़ाई भी की।

वे जीवनभर सभी जनजातियों की राजनौतिक और सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए कार्य करते रहे। जिसके तहत उन्हें असम के प्रथम मुख्यमंत्री गोपीनाथ बरदलै ने ‘जननेता’ की संज्ञा से विभूषित किया। सन् 1932 में डिब्रुगढ़ की अदालत में वकालत आरम्भ की तथा 1933 में भीमबर देउरी ने देउरी, सोनोवाल कछारी, मटक, मिसिंग, बोड़ो, तिवा, राभा आदि पिछड़े जन समुदाय को एकजुट करने के उद्देश्य से 17/04/1933 को नगाँव के रोहा में असम के जनसमुदायों का प्रथम अधिवेशन आयोजित कर ट्राइबल लीग का गठन किया। इसी अधिवेशन में उन्हें सर्वसम्मति से ट्राइबल लीग का महासचिव निर्वाचित किया गया। सन् 1945 के नवंबर महीने में शिलांग में जन समुदायों के प्रतिनिधियों के अधिवेशन में ‘असम ट्राइब्स एंड रेसेस फेडरेशन’ का जन्म हुआ तथा इसके कर्ता-धर्ता भीमबर देउरी थे। इस प्रकार वे 1933 से 1946 तक निरंतर सिर्फ जनसमुदाय ही नहीं, अपितु असम और असम की जनता के विकास के लिए कार्य करते रहे।

अन्ततः 44 वर्ष की उम्र में 30 नवंबर, 1947 को भीमबर देउरी का देहावसान हो गया।

(ख) राधाकांत देउरी।

उत्तरः बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न राधाकांत देउरी का जन्म 1 जून, 1931 को लखीमपुर जिले के बाँहगड़ा देउरी गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम आदिचन देउरी और माता का नाम ताइबा देउरी था। राधाकांत देउरी ने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा 1942 में प्रारम्भ की तथा 1958 में जोरहाट के जे. बी. कॉलेज से बी.ए. की परीक्षा में उत्तीर्ण हुए। सन् 1985 में उन्होंने सदिया के चपाखोवा सरकारी उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में सहायक शिक्षक के रूप में अध्यापन कार्य शुरू किया।

राधाकांत देउरी ने देउरी और असमीया भाषा-साहित्य के विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। वे देउरी भाषा-संस्कृति के शोधकर्ता व विद्वान थे। उनके द्वारा विरचित अनमोल ग्रंथों के नाम इस प्रकार है- ‘देउरी सच्चुर्विव’ (देउरी शब्दकोश), ‘च्चिबाँ जिमचाँया च्चुबिंब’ (दो आधुनिक शब्दकोश), इसमें से दूसरा त्रि-भाषिक (देउरी, असमीया, अंग्रेजी) है। इस प्रकार उन्होंने असम के विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया।

(ग) बर्गराम देउरी।

उत्तर: बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न समाजसेवक और राजनीतिज्ञ बर्गराम देउरी का जन्म 1 अगस्त, 1938 को लखीमपुर जिले के बिहपुरिया मौजा के अन्तर्गत बाँहगड़ा देउरी गाँव में हुआ। उन्होंने सन् 1944 में प्रारम्भिक शिक्षा प्रारम्भ की तथा 1959 में लखीमपुर उच्च माध्यमिक विद्यालय से मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण को। मैट्रिक के बाद बर्गराम देउरी ने जे. बी. कॉलेज से बीएससी की डिग्री ली और गौहाटी विश्वविद्यालय से वनस्पति विज्ञान की पढ़ाई के साथ-साथ गौहाटी विश्वविद्यालय के कानून महाविद्यालय में भी अध्ययन किया। इसके पश्चात् पंजाब विश्वविद्यालय से स्वर्ण पदक के साथ होमियोपैथी की डिग्री ली।

शिक्षा पूरी होने के पश्चात् बर्गराम देउरी समाज सेवा के कार्य से जुड़े। सन् 1971 में अविभाजित लखीमपुर जिले के धेमाजी सिरिपानी देउरी गाँव में देउरी सम्मेलन की सभा का आयोजन हुआ, जहाँ बर्गराम देउरी को उस सभा का अगला अध्यक्ष चुना गया। 1978 में बंगालमरा गांव पंचायत से काउंसिलर चुने गए। सन् 1983 में वे बिहपुरिया विधानसभा क्षेत्र से असम विधानसभा में विधायक चुने गए और असम सरकार के मैदानी जनजाति व अन्य पिछड़ा वर्ग कल्याण विभाग के साथ ही रेशम एवं हस्तकरघा व बुनाई विभाग के कैबिनेट मंत्री के रूप में कार्य निर्वाह किया। मंत्री रहते हुए बर्गराम देउरी ने असम के जनजातियों की जनजाति विश्राम छावनी और आकाशी होस्टल आदि का निर्माण करवाया। अंततः इस प्रकार कार्य करते हुए सन् 2004 में हृदय रोग से ग्रस्त वर्गराम देउरी की गुवाहाटी में मृत्यु हो गई।

(घ) श्रीचन्द्र सिंह देउरी।

उत्तरः समाजसेवी श्रीचन्द्र सिंह देउरी का जन्म 28 अप्रैल, 1927 में ऊपर देउरी गाँव, जोरहाट में हुआ था। इनके पिता का नाम गोपाल देउरी तथा माता का नाम आतवा देउरी था। उन्होंने एल. पी. स्कूल से प्राथमिक शिक्षा प्रारम्भ कर 1949 में जोरहाट पॉलिटेक्निक हाईस्कूल से परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके बाद उन्होंने 1962 में कला संकाय में शिलांग कॉलेज में दाखिला लिया और आई.ए. की पढ़ाई पूरी की।

सन् 1955 के एक अक्टूबर को भारत सरकार के अधीन अनुसूचित जाति एवं जनजाति विभाग में तृतीय वर्ग के कर्मचारी नियुक्त हुए तथा 31 मार्च, 1988 में अवकाश ग्रहण किया। सन् 1959 को दिल्ली में गणतंत्र दिवस पर उनके नेतृत्व में देउरी लोक-गीत और लोक नृत्य प्रस्तुत किया गया। उन्होंने कई प्रकार की पुस्तकों की रचना कर देउरी समाज को समृद्ध किया। उनके द्वारा रचित पुस्तकों के नाम इस प्रकार हैं-‘आराओ’ (1903), अर्चिय इवाँ (2014), आमिरिया इवाँ (2013), बिचु (2015), हिचरि (2016) आदि।

अतिरिक्त प्रश्न एवं उत्तर:

1. देउरी समाज में ‘कुंदिमामा’ का क्या महत्व है?

उत्तर: देउरी समाज ‘कुंदिमामा’ को अपना उपास्य देवता मानता है। ‘कुंदि’ का अर्थ है-परम पुरुष परमेश्वर तथा ‘मामा’ का अर्थ है-प्रकृति देउरी लोगों का विश्वास है कि ‘कुंदिमामा’ विश्व ब्रह्मांड के सृष्टिकर्ता और पालनहार हैं।

2. देउरी लोगों की जीविका क्या हैं? 

उत्तर: देउरी लोग सामान्यतः कृषिजीवी हैं। उनकी जीविका अधिकतर खेती पर ही निर्भर है। धान, दलहन, सरसों, पटसन और विभिन्न साग-सब्जी उनकी प्रमुख खेती है। वे प्रायः नदी तटीय क्षेत्र में रहना पसंद करते हैं।

3. देउरी लोग कौन-कौन से उत्सव मनाते हैं?

उत्तर: देउरी लोग असम के जातीय उत्सव बिहू मनाते हैं। इसके अतिरिक्त वे अपने पारंपरिक उत्सव जैसे-बिबा बचु गिबा मेच्चु, मिदि देरुवा मेच्चु, चिगादागारेबा बिचु विचु दाबेबा मेच्चु तथा सावन पूजा आदि।

नेपाली भाषी गोर्खा

सारांश:

नेपालीभाषी आर्य-मंगोल किरात का मिश्रित जन समुदाय है। भारत के नेपालीभाषी लोगों को ‘गोर्खा’ के नाम से भी जाना जाता है। विद्वानों का मानना है कि ‘खस’ जाति से नेपालियों की उत्पति हुई है। नेपालीभाषी व गोर्खा लोग असम के प्राचीन निवसी हैं। सन् 2011 की जनगणना के अनुसार असम में नेपालीभाषी लोगों की संख्या 5,96,210 है। इसके अलावा तामांग लोगों की संख्या 2063, लिंबू लोगों की संख्या 780 और राई लोगों की संख्या 1110 है। नेपाली भाषी लोगों की कुल संख्या 6,00,163 है। असम के साहित्य- संस्कृति, शिक्षा और खेल-कूद में भी नेपालीभाषियों का योगदान सराहनीय रहा है। वर्तमान में इस समुदाय के लोगों ने अपनी मातृभाषा की जगह असमीया भाषा को अपना लिया है और अपनी भाषा को एक विषय के रूप में पढ़ने का फैसला किया है। नेपाली भाषा भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में दर्ज है और शिक्षा का भी माध्यम है। नेपालीभाषी लोगों के पर्व- त्योहार एवं उत्सव पर्व बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं। बड़ा दशई व तिहार उनके प्रमुख पर्व हैं। असम में गोर्खा लोगों के उल्लेखनीय व्यक्तियों में छविलाल उपाध्याय, दलवीर सिंह लोहार हरिप्रसाद गोर्खा राई आदि का नाम श्रद्धापूर्वक लिया जाता है।

पाठ्यपुस्तक संबंधित प्रश्न एवं उत्तर

1. नेपाली या गोर्खा लोग किन न-गोष्ठियों के सम्मिश्रण हैं? 

उत्तरः नेपाली या गोर्खा लोग आर्य-मंगोल-किरात की नृ-गोष्ठियों के सम्मिश्रण हैं। 

2. ‘लाल मोहरिया पंडा’ का तात्पर्य क्या है?

उत्तरः प्राचीन धर्मग्रंथों के अनुसार कामाख्या मंदिर का निर्माण करनेवाले प्रागज्योतिषपुर के राजा नरक का जन्म वर्तमान नेपाल के सुनसरी जिले के वराह क्षेत्र में हुआ था और उन्होंने कामाख्या मंदिर में पूजा कराने के लिए नेपाल से पुजारी को बुलाया था। बाद में यही पुजारी कामाख्या मंदिर में ‘लालमोहरिया पंडा’ के नाम से प्रसिद्ध हुए।

3. असम प्रदेश कांग्रेस कमेटी के प्रथम अध्यक्ष का नाम लिखिए।

उत्तर: असम प्रदेश कांग्रेस कमेटी के प्रथम अध्यक्ष का नाम ‘छविलाल उपाध्याय’ है।

4. ‘ट्राइबल बेल्ट एंड ब्लॉक’ में नेपाली भाषी लोगों को संरक्षित वर्ग का दर्जा कब मिला? 

उत्तर: ‘ट्राइबल बेल्ट एंड ब्लॉक’ में नेपाली भाषी लोगों को सन् 1947 में संरक्षित वर्ग का दर्जा मिला।

5. रतिकांत उपाध्याय कौन थे और उन्होंने कहाँ-कहाँ सत्रों की स्थापना की थी? 

उत्तरः रतिकांत उपाध्याय श्रीमंत शंकरदेव के शिष्य थे तथा उन्होंने ‘वर्तमान टियोक’ और नगाँव में ‘नेपाली सत्र’ की स्थापना की थी।

6. गोर्खा समुदाय के लोगों के प्रमुख उत्सव क्या-क्या है? 

उत्तरः गोर्खा समुदाय के लोगों के उत्सवों में महिलाओं का ‘तीज’, पारिवारिक संबंध मजबूत बनाने वाला उत्सव ‘बड़ दशै’ और भाई-बहन के प्रेम का उत्सव ‘तिहार’ प्रमुख हैं।

7. “जंबूद्वीपे, आर्यावर्ते, भारतवर्षे, असम प्रांते’ का अर्थ क्या है? 

उत्तर: लगभग पाँच हजार साल पहले से ही (ई. पू० 3139) अर्थात् महाभारत के समय से ही नेपाल और असम के बीच पारस्परिक संबंध और प्रवर्जन था । तब यह समस्त अंचल ‘जंबूद्वीप’ या ‘आर्यावर्त’ के नाम से जाना जाता था। असम के नेपाली लोग सालाना पितृश्राद्ध में पिंड दान करते वक्त मंत्र के साथ अपने पते का उल्लेख कर ‘जंबूद्वीपे, आर्यावर्ते, असम प्रांते’ कहते हैं।

8. सुगौली संधि कब हुई और इसके तहत किस देश के भू-भाग और नागरिक भारत में शामिल हुए? 

उत्तरः सुगौली संधि सन् 1815-16 में हुई और इसके तहत नेपाल देश के भू-भाग और नागरिक भारत में शामिल हुए।

9. संक्षेप में लिखिए: 

(क) छविलाल उपाध्याय।

उत्तरः छविलाल उपाध्याय का जन्म 12 मई, 1882 में विश्वनाथ जिले के बूढ़ीगांग में हुआ था। इनके पिता का नाम काशीनाथ उपाध्याय था। इन्होंने अनौपचारिक रूप से माध्यमिक शिक्षा प्राप्त की थी। इन्होंने चंद्रनाथ शर्मा, घनश्याम बरुवा, लोकनायक अमियकुमार दास आदि के साथ मिलकर आजादी के जंग में हिस्सा लिया था। 18 अप्रैल, 1921 को जोरहाट में उपाध्याय की अध्यक्षता में’ असम एसोसिएशन’ की सभा आयोजित हुई और ‘असम एसोसिएशन’ का विलय कांग्रेस में किया गया। इसी दौरान उन्हें प्रदेश कांग्रेस कमेटी का प्रथम अध्यक्ष भी चुना गया। सन् 1921 में गांधीजी असम आये हुए थे और अंग्रेजों द्वारा आजादी की जंग में हिस्सा न लेने के लिए लोगों को अनेक प्रकार के प्रलोभन दिया गया था। उपाध्याय को भी प्रलोभन दिया गया, किन्तु उन्होंने अंग्रेजों के प्रलोभन को ठुकरा दिया। परिणामस्वरूप उन्हें जेल जाना पड़ा। जेल से लौटने के पश्चात उपाध्याय ने 1942 के ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ में हिस्सा लिया और देश की आजादी में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया।

(ख) हरिप्रसाद गोर्खा राई।

उत्तरः हरिप्रसाद गोर्खा राई का जन्म नागालैंड की राजधानी कोहिमा में 15 मार्च, 1915 को हुआ। उनके पिता का नाम धनराज राई और माता का नाम यशोदा राई था। बाद में उन्होंने अपने नाम के साथ गोर्खा शब्द भी जोड़ लिया। आवाहन युग के विशिष्ट लेखक के रूप में प्रख्यात राई ने साहित्य सृजन के क्षेत्र में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। गोर्खा राई ने धनबहादुर सोनार और गोविन्द चंद्र पैरा के सहयोग से असम साहित्य सभा की कोहिमा शाखा का गठन किया था ? पराधीन भारत में जातीय चेतना और जागरण के लिए जिन लेखकों ने अपना योगदान दिया उनमें गोर्खा राई अग्रणी थे। असमीया और नेपाली दोनों भाषाओं में साहित्य रचने वाले गोर्खा राई सही अर्थों में समन्वयवादी थे। उनकी कहानियों में जनजातियों व गैर-जनजातियों के जन-जीवन के सौहार्द का चित्रण हुआ है। उन्हें अपने नाम के साथ गोर्खा शब्द जोड़ने का सुझाव उनके साहित्यकार मित्र मित्रदेव महंत ने दिया था। उन्होंने जीवन भर असमीया और गोर्खा भाषा साहित्य के विकास के लिए कार्य किया।

(ग) दलवीर सिंह लोहार।

उत्तरः बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न दलवीर सिंह लोहार का जन्म 26 जनवरी, 1915 को डिब्रुगढ़ जिले के खलिहामारी में हुआ था। उनके पिता का नाम अनंतराम लोहार था। सन् 1930 में 15 वर्ष की अवस्था में उन्होंने आजादी की जंग में हिस्सा लेते हुए कराची में आयोजित अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की सभा मैं असम का प्रतिनिधित्व किया। कुख्यात कनिंघम सर्कुलर का विरोध करने पर सन् 1930 में उन्हें तीन महीने तक जेल की सजा काटनी पड़ी। उन्होंने समाज में व्याप्त छूआछूत जैसे नकारात्मक भावों को समाज से दूर करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। उन्होंने सेवा दल की स्थापना में विशेष योगदान दिया तथा वे मजदूर दल के नेता भी थे। मजदूरों और पिछड़े वर्ग के प्रतिनिधि के रूप में उन्हें सन् 1946 में तिनसुकिया से विधानसभा के लिए चुना गया। वे असम के नेपाली समुदाय से प्रथम विधायक थे। अतः समाज व देश के लिए कार्य करते हुए उनका निधन 29 जुलाई, 1969 को हो गया।

अतिरिक्त प्रश्न एवं उत्तर:

1. सन् 2011 की जनगणना के अनुसार असम में नेपालीभाषी लोगों की कुल संख्या कितनी है?

उत्तर: सन् 2011 जनगणना के अनुसार असम में नेपाली भाषी लोगों की कुल संख्या 6,00,163 हैं।

2. सुगौली संधि क्या है?

उत्तर: ब्रिटिश और नेपाल के बीच सन् 1815-16 में हुई संधि को सुगौली संधि के रूप में जाना जाता है। इस संधि के तहत नेपाल के नागरिकों के साथ भारत के उत्तर नेपाल का काफी हिस्सा भारत में शामिल कर लिया गया था।

3. स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लेनेवाले असम के नेपालीभाषी लोगों के नाम बताइए।

उत्तरः स्वतंत्रता संग्राम में असम के अनेक लोगों के साथ कुछ नेपालीभाषी लोग भी हिस्सा लिए थे, उनमें छविलाल उपाध्याय, दलवीर सिंह लोहार, विष्णुलाल उपाध्याय, भक्त बहादूर प्रधान, प्रसाद सिंह सुब्बा प्रमख हैं।

बोड़ो

सारांश:

बोड़ो लोग पूर्वोत्तर भारत की आदिम जनजाति हैं। अपनी मजबूत समाज- व्यवस्था, भाषा-साहित्य, धर्म व समृद्ध संस्कृति के साथ बोड़ो असम में निवास करनेवाली एक विशिष्ट जनजाति है। सर एडवर्ड गेट के अनुसार असम और उत्तर पश्चिम बंगाल में बोड़ो लोगों का विशाल साम्राज्य था। वर्तमान में बोड़ो लोग असम के विभिन्न स्थानों में निवास कर रहे हैं। कोकड़ाझार, चिरांग, बाक्सा, उदालगुड़ी आदि बोड़ो बहुल क्षेत्र हैं। इसके अलावा बोड़ो मूल के सोनोवाल कछारी, ठेंगाल कछारी, सुतिया, देउरी, लालुंग, राभा, गारो, हाजंग और त्रिपुरी लोग लखीमपुर, तिनसुकिया, डिब्रुगढ़, शिवसागर आदि स्थानों में निवास करते हैं। बोड़ो लोगों की अपनी समृद्धशाली भाषा है। बोड़ो भाषा चीन के तिब्बत वर्मी परिवार की भाषा है। बोड़ो भाषा संविधान की आठवीं अनुसूची में दर्ज है। 

बोड़ो भाषा साहित्य का बोड़ो साहित्य सभा के जरिए प्रचार-प्रसार व विकास हो रहा है। बोड़ो भाषा की पहली पुस्तक गंगाचरण कछारी की ‘बड़ो फिसा ओ आइन’ (1915) है। बोड़ो लोगों का प्राचीन धर्म ‘बाथ’ है। ‘बाथौ बौराई’ बोड़ो लोगों के श्रेष्ठ देवता हैं। बोड़ो लोग बाथौ पूजा बड़ी श्रद्धापूर्वक करते हैं। बोड़ो पुरुष व महिलाएँ परिश्रमी होती हैं। बोड़ो लोगों के पहनावे, वाद्य, नृत्य, गीत की विशिष्ट पहचान है। बोड़ो लोगों ने असम की प्रगति में अमूल्य योगदान दिया है। प्रख्यात कलाकार शोभा ब्रह्म, कामिनी कुमारी नर्जरी, शहीद बिनेश्वर ब्रह्म बोड़ो जनजाति के अमूल्य हस्ताक्षर थे।

पाठ्यपुस्तक संबंधित प्रश्न एवं उत्तर:

1. बोड़ो भाषा किस भाषा समुदाय के अन्तर्गत है?

उत्तरः बोड़ो भाषा चीन तिब्बत-बर्मी परिवार की भाषा समुदाय के अन्तर्गत है। 

2. बोड़ो भाषा को कब प्राथमिक शिक्षा के माध्यम के रूप में मान्यता मिली थी?

उत्तर: सन् 1963 में बोड़ो भाषा को प्राथमिक शिक्षा के माध्यम के रूप में मान्यता मिली थी।

3. बोड़ो लोगों के बारे में लिखी गई दो पुस्तकों के नाम लिखिए। 

उत्तरः बोड़ो लोगों के बारे में लिखी गई दो पुस्तकों के नाम’ फैमाल मिजिंक’ और ‘जुजाइनि’ है। 

4. बोड़ो भाषा की पहली पुस्तक क्या थी?

उत्तरः बोड़ो भाषा की पहली पुस्तक गंगाचरण कछारी की ‘बड़ो फिसा ओ आइन’ थी।

5. बोड़ो लोगों के पारंपरिक वेश-भूषा में इस्तेमाल किए गए कुछ फूलों के नामों का उल्लेख कीजिए।

 उत्तरः बोड़ो लोगों के पारंपरिक वेश-भूषा में इस्तेमाल किए गए कुछ फूलों के नाम इस प्रकार है- दाउथु आगान, फारेड मेगन, मुफुर आफा, दाउराई मेखब आदि।

6. संक्षेप में टिप्पणी लिखिए: 

(क) उस्ताद कामिनी कुमार नर्जरी।

उत्तरः नृत्य कला में उस्ताद कामिनी कुमार नर्जरी का जन्म सन् 1926 में वर्तमान गोसाईंगाँव महकमा के अन्तर्गत बिन्याखाता अंचल के बामुनकूरा गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम बजाराम नर्जरी और माता का नाम थांगाली नर्जरी था। उन्होंने निःस्वार्थ और अथक प्रयास से बोड़ो नृत्य को प्रादेशिक स्तर से राष्ट्रीय स्तर तक पहचान दिलाया। 26 जनवरी, 1957 को दिल्ली में आयोजित गणतंत्र दिवस समारोह में उस्ताद नर्जरी अपने दल के साथ ‘सांस्कृतिक दल ‘ में शामिल हुए और प्रथम स्थान हासिल किया। इसके अतिरिक्त सन् 1992 में एशिया मेला 13 में हिस्सा लेकर बोड़ो नासीना नृत्य पेश कर दर्शकों से अथाह सम्मान व प्रशंसा प्राप्त हुआ।

सन् 1982 में उस्ताद कामिनी कुमार नर्जरी को ‘संगीत नाटक अकादमी’ पुरस्कार प्राप्त हुआ। इस प्रकार उन्होंने अपनी कोशिश से बोड़ो संस्कृति को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलवाया और 16 मई 1998 को उनका देहांत हो गया।

(ख) शोभा ब्रह्म।

उत्तर: प्रख्यात कलाकार शोभा ब्रह्म का जन्म 18 अक्टूबर, 1929 को कोकराझाड़ जिले के गोसाईगाँव के भूमका नामक एक पिछड़े गाँव में हुआ था। उनके पिता का नाम हरिचरण ब्रह्म और माता का नाम देवश्री ब्रह्म था। उन्होंने अपनी कला कृतियों से बोड़ो और असमीया समाज के सही चित्र को प्रतिबिम्बित किया। वे भारत के एक प्रख्यात मूर्तिकार और असम के कला जगत के पथ प्रदर्शक थे। उन्हें प्रकृति से अथाह प्रेम था तथा वे प्रकृति को बचाने के लिए जीवन भर प्रयत्नरत भी रहे।

अन्ततः चित्र शिल्प और भास्कर्य कला के साथ साहित्य चर्चा करते हुए इस महान शिल्पी का देहांत 5 मार्च, 2012 को हो गया।

(ग) बिनेश्वर ब्रह्म।

उत्तर: शहीद बिनेश्वर ब्रह्म का जन्म 28 फरवरी, 1949 में वर्तमान कोकराझाड़ जिले के भातारमारी गाँव में हुआ। उनके पिता का नाम तारामणि ब्रह्म और माँ का नाम सोनती ब्रह्म था। उन्होंने सन् 1954 में अपने गाँव के प्राथमिक विद्यालय से प्रारम्भिक शिक्षा प्रारम्भ की। 1967 में पीयूएससी की परीक्षा तथा 1972 में जोरहाट के असम कृषि महाविद्यालय से स्नातक की डिग्री की परीक्षा में उत्तीर्ण हुए।

सन् 1973 के फरवरी में पहली बार ‘उन्होंने हिन्दुस्तान खाद्य निगम के खाद्य विस्तार’ एवं ‘कृषि शोध विभाग’ में नौकरी शुरू कर कर्म क्षेत्र में पदार्पण किया। वे एक बुद्धिमान, चिंतक, विचारक, समाज सेवक, साहित्यकार और अच्छे संगठन कर्त्ता थे। वे एक साथ कई भाषाओं पर अधिकार रखते थे- जैसे बोड़ो, अंग्रेजी, असमीया, बाँग्ला, हिंदी, नेपाली, भोजपुरी और राजवंशी।

बिनेश्वर ब्रह्म को सन् 1990 से 1993 तक बोड़ो साहित्य सभा के महासचिव के पद पर नियुक्त किया गया। उन्होंने इसके अतिरिक्त लेखन के द्वारा भी बोड़ो भाषा के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनकी प्रकाशित पुस्तकें इस प्रकार हैं- ‘आई नि मादई’ (कविता संकलन 1985), बरदैसिखला (कविता संकलन 1997) और आंगनि गामि भातारमारि (निबंध संकलन) उन्होंने अपने गाँव के प्राथमिक विद्यालय से शिक्षा प्रारम्भ किया। इसके बाद धुबड़ी के सापटग्राम हाईस्कूल से सन् 1950 में इतिहास विषय में 80% अंक लेकर प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होकर गुवाहाटी कॉलेज में दाखिला लिया। ललित कलारत्न डॉ. शोभा, कविगुरु ब्रह्म रवीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा कोलकाता में स्थापित शांतिनिकेतन में 1950 में पढ़ने गए और सन् 1957 में वहाँ से कला विषय में स्नातक की डिग्री प्राप्त की।

तारिणी चरण हाईस्कूल में उन्होंने अध्यापन कार्य शुरू कर कर्म-क्षेत्र में प्रवेश किया। 31 जनवरी, 1964 को उन्हें वर्तमान सरकारी चारुकला महाविद्यालय का प्राचार्य बनाया गया। उनके द्वारा बनाये गए चित्र तथा कलाकृतियों की पहली प्रदर्शनी 1965 में गुवाहाटी जिला पुस्तकालय में लगी थी। इसके पश्चात उनकी कला कृतियां शिलांग, दिल्ली, कोलकाता, मुम्बई से लेकर बुल्गारिया, चेकोस्लाविया आदि देश-विदेश के विभिन्न स्थानों पर प्रदर्शित हुई थीं। उनके द्वारा प्रकाशित कृतियों में ‘शिल्प कलार नवप्रजन्म’, ‘भारतीय चित्रकला “गौदान उजि’ (बोड़ो), ‘लियो-नारदो -दी-विंची आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

डॉ. ब्रह्म को उनकी उपलब्धियों के लिए राज्य स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक कई पुरस्कार प्राप्त हुए। वे इस प्रकार हैं- असम शिल्पी पेंशन पुरस्कार (1977), असम सरकार का सांस्कृतिक पेंशन पुरस्कार (1996), कमल कुमारी बरुवा फाउंडेशन पुरस्कार (1991), सद्भावना पुरस्कार (2002) आदि । इसके अलावा उन्हें डिब्रुगढ़ विश्वविद्यालय और कोलकाता के रवींद्र भारती विश्वविद्यालय से डी लीट की उपाधि प्राप्त हुई। आई नि मादई (कविता संकलन 1985), बरदैसिखला (कविता संकलन 1997) और आंगनि गामि भातारमारि (निबंध संकलन)। 19 अगस्त, 2000 को गुवाहाटी के भेटापाड़ा स्थित निवास स्थान पर अनजान हमलावर के हाथों गोली लगने से उनकी अकाल मृत्यु हो गई।

अतिरिक्त प्रश्न एवं उत्तर:

1. बोड़ो भाषा की विशेषता क्या है?

उत्तर: बोड़ो एक समृद्ध भाषा है। यह भाषा संदिया से लेकर पूर्वी बंगाल तक और उत्तर में नेपाल से बांग्लादेश तक व्याप्त है। बोड़ो भाषा चीन के तिब्बत-बर्मी परिवार की भाषा है। विद्वानों के अनुसार तिब्बती भाषा की दो प्रधान शाखाएँ हैं- तिब्बत-बर्मी और ताई चीन भाषा। तिब्बत-बर्मी भाषा का अंग है-बोड़ो- नागा भाषा प्रारंभ में बोड़ो-नागा एक ही परिवार के अंतर्गत थे। बाद में नागा लोग अलग हो गए। बोड़ो मूल से पैदा होनेवाली भाषाएँ हैं-डिमासा, गारो, राभा, सुतिया, लालुंग, हाजंग और तिवा।

2. भारतीय संविधान में बोड़ो भाषा को आठवीं अनुसूची में कब शामिल किया गया?

उत्तर: सन् 2003 में भारतीय संविधान में बोड़ो भाषा को आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया।

3. बोड़ो गीतों का श्रेणी विभाजन कीजिए।

उत्तरः बोड़ो गीतों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है-

(i) प्रार्थना गीत।

(ii) लोकगीत। और 

(iii) आधुनिक गीत।

मटक

सारांश:

मटक असम का एक प्राचीन जनसमुदाय है। ‘मटक’ ताई भाषा का शब्द है। ताई मंगोलीय मूल के मटक लोग आदिकाल में चीन के म्यूंगफी वर्तमान में संभवतः यूनान में निवास करते थे। परवर्ती समय में जनसंख्या वृद्धि या अन्य किसी कारण से भूमि की लोक में असम की ओर यात्रा की। उन्होंने चीन के यूनान प्रदेश से थाईलैंड, म्यांमार होते हुए प्राचीन असम में प्रवेश किया और वे तिमाम पहाड़ से सटे अंचल में तेरहवीं शताब्दी तक रहे। इन्हीं मटकों से चुकाफा तिमाम में मिले थे और ‘फुखाओ’ परिवार के रूप में पहचान पाए थे। कालांतर में सत्रहवीं शताब्दी में मटकों ने काल संहिता के प्रवर्तक गोपालदेव के शिष्य अनिरुद्धदेव के द्वारा प्रचारित ‘मायामरा’ वैष्णव धर्म को ग्रहण किया। ‘मायामरा’ धर्म अपनाने के बावजूद वे अपनी पारंपरिक धार्मिक आस्था को संजोए हुए हैं। मटक राजा सर्वानंद सिंह, शिक्षाविद् पवन नेओग, राजकुमार लंकेश्वर गोहाई के नाम असम के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिपिबद्ध हैं।

पाठ्यपुस्तक संबंधित प्रश्न एवं उत्तर:

1. ‘मटक’ शब्द का अर्थ लिखिए। 

उत्तरः ‘मटक’ असम की एक प्राचीन भाषा ‘ताई’ का शब्द है। ताई भाषा में ‘म’ का अर्थ शक्तिशाली, बुद्धिमान या ज्ञानी और ‘टक’ का अर्थ उपयुक्त, तौलना, तराजू, परीक्षित है।

2. ‘मटक’ शब्द की उत्पत्ति के बारे में लिखिए।

उत्तरः मटक शब्द की उत्पत्ति के बारे में जानने के लिए ‘फुखाओ’ (Phukao) शब्द का इतिहास देखना आवश्यक है। ‘फुखाओ’ ‘ताई’ भाषा की एक प्रमुख शाखा है। यह शाखा ताई मंगोलीय ‘फुथाई’ गुट के अन्तर्गत आती है। ‘फुथाई’ ताई का एक बड़ा वर्ग है। फुथाई लोगों को चीन के लाओ राज्य में रहने की वजह से उन्हें लाओ भी कहा जाता है। दक्षिण चीन, थाईलैंड, वियतनाम से असम तक लाओ लोग फैले हुए हैं। आहोम इतिहास के अनुसार फुखाओ की उत्पत्ति बीज सींचने या फसल सींचने के मूल से है। फसल सींचने वाले मूल के फुखाओ से मटक की उत्पत्ति हुई है। 

3. ‘मटक’ साधारणत: किस धर्म के लोग हैं?

उत्तरः मटक साधारणतः ‘ताओ ‘ धर्म के लोग हैं।

4. मटक लोगों का मोवामरीया विद्रोह के साथ संबंध के बारे में लिखिए। 

उत्तरः मोवामरीया विद्रोह के प्रमुख मटक नेताओं पर राजपरिवार का अत्याचार होता था। विद्रोही नेता नहीं मिलने पर आम जनता को बंदी बनाकर कारागार में डाल दिया जाता था। सर्वानंद ने मोवामरीया विद्रोह का नेतृत्व किया। सर्वानंद में प्रचुर सांगठनिक दक्षता थी। कारागार के अंदर और बाहर सभी मटक लोगों का सर्वानंद ने मनोबल बढ़ाया और मोवामरीया विद्रोह सफल हुआ। अतः इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि मोवामरीया विद्रोह में मटक लोगों ने अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया था और उनका विद्रोह के साथ गहरा संबंध था।

5. मटक राज्य की उन्नति के लिए सर्वानंद सिंह के किए जनकल्याणमूलक कार्यों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।

उत्तर: मोवामरीया विद्रोह को सफल बनाने में सर्वानंद सिंह ने अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। सिंह ने राज्य की स्थापना कर स्वयं को उसका राजा घोषित किया। मटक राज्य की उन्नति के लिए उन्होंने विभिन्न जन कल्याणकारी काम-काज आरम्भ किए। गली, सड़क का निर्माण कर यातायात व्यवस्था विकसित की। रंगागढ़ा आलि, गोधा आलि, राजगढ़ आलि, हातीआलि आदि मोड़ बनवाए। प्रजा की सुविधा के लिए राजधानी के बाहर अंदर कुल चौबीस पोखर खुदवाए। इनमें बॅमरा पोखरी, तिनिकोनिया पोखरी, शेलुकीया पोखरी, बर पोखरी, जाउलधोवा पोखरी आदि मुख्य हैं।

6. संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए: 

(क) शिक्षाविद् पवन नेओग।

उत्तरः बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न शिक्षाविद् पवन नेओग का जन्म 18 अक्टूबर, 1933 को बरगुरि, तिनसुकिया में हुआ। इनके पिता का नाम आसाम्बर नेओग तथा माता का नाम गोलापी नेओग था। पाँच वर्ष की अवस्था में तिनसुकिया आदर्श विद्यालय से उन्होंने अपनी शिक्षा प्रारम्भ की। उन्हें बचपन से ही खेल-कूद में विशेष रुचि थी। उन्होंने फुटबॉल और वॉलीबॉल खिलाड़ी के रूप में विद्यालय में विशेष ख्याति अर्जित की थी। 1956 में उन्होंने द्वितीय श्रेणी में आई.ए. उत्तीर्ण की। इसके पश्चात् स्नातक की पढ़ाई गुवाहाटी के कॉटन कॉलेज से आरम्भ की तथा कॉलेज में रहते अंतर महाविद्यालय प्रतियोगिता में शरीर सौष्ठव प्रतिस्पर्द्धा का उन्हें Physique चुना गया और Mr. Cottonian की उपाधि प्रदान की गई। अर्थ उपार्जन के उद्देश्य से सन् 1962 में डीएसपी बने और 30 सितम्बर, 1992 में नौकरी से सेवानिवृत्त हुए। उन्होंने सन् 2001 में बरगुरि के आर्ट स्कूल की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। वे इस अंचल में एक स्कूल की स्थापना करना चाहते थे, किन्तु उनका यह सपना पूरा न हो सका और 11 अगस्त, 2002 को उनकी मृत्यु हो गई।

(ख) राजकुमार लंकेश्वर गोहाईं।

उत्तरः राजकुमार लंकेश्वर गोहाईं का जन्म 1 मई, 1954 को असम के तिनसुकिया जिले में हुआ था। इनके पिता का नाम बिशबर था। राजकुमार लंकेश्वर गोहाईं दस-बारह वर्ष की उम्र में अपने परिवार के साथ चाबुआ चले आए। राजकुमार की औपचारिक शिक्षा नहीं हुई थी, इसके बावजूद वे साहसी, उच्चाकांक्षी और चिंतनशील स्वभाव के धनी थे। उनमें नेतृत्व करने की अटूट क्षमता थी। राजा के उपयुक्त प्रतिनिधि के रूप में देश स्वाधीन होने के पूर्व से ही बैंमरा राज्य के पुनरुद्धार और अलग राज्य की मान्यता बहाल रखने के लिए वे सरकार के समक्ष जोरदार माँग उठाते रहे। उन्होंने स्थानीय जाति-जनगोष्ठी के भूमि अधिकार, सम्पति अधिकार, राजनैतिक अधिकार सुरक्षित रखने के लिए बॅमरा राज्य को अलग राज्य की मान्यता देने की माँग उठाई थी। वे हाथी पकड़ने और प्रशिक्षण देने में निपुण थे। उन्हें बर्मीज, मणिपुरी, सिंग्फौ, खामती, मिसिंग, देउरी, नक्टे समेत कई भाषाओं का ज्ञान था। उन्होंने स्वयं को अपने राज्य के साथ ही अरुणाचल, मणिपुर, सिक्किम, नागालैंड, मेघालय आदि अंचलों के समाजसेवियों के साथ जनकल्याणकारी तथा विकास के कार्यों में लगाए रखा।

अन्ततः समाज के लिए कार्य करते हुए 7 मार्च, 1973 को राजकुमार की मृत्यु हो गई ।

(ग) सर्वानंद सिंह।

उत्तरः सर्वानंद सिंह अपने माता-पिता की एकमात्र संतान थे और उनके पिता का नाम मरुत्नंदन तथा माता का नाम पातय था। बाल्यकाल में ही उनकी माता का दोहांत हो गया। अति साधारण कमाने खाने वाले मरुलंदन मटक ने सर्वानंद को बड़े यतन से पाल-पोसकर बड़ा किया। पिता के लालन-पालन से सर्वानंद धीरे-धीरे युवा हो गये। सर्वानंद ने मोवामरीया विद्रोह में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। उन्होंने जेल में रहते हुए बाहर और भीतर सभी मटक लोगों का हौसला बुलंद कर मोवामरीया विद्रोह को सफल बनाया। इसके पश्चात् सर्वानंद सिंह ने बेंमरा में राज्य की स्थापना कर स्वयं को उसके राजा भी घोषित किया। उन्होंने मटक राज्य की उन्नति के लिए विभिन्न जन कल्याणकारी काम-काज आरम्भ किये थे। गली-सड़क निर्माण कर यातायात व्यवस्था विकसित की। रंगागढ़ा आलि, गोधा आलि आदि विभिन्न प्रकार के पोखरी का निर्माण किया। उनके शासन काल में प्रजा शांति से रहती थी। सर्वानंद सिंह बड़े दूरदर्शी और प्रखर बुद्धि वाले राजा थे। जिसके कारण वे अत्यंत लोकप्रिय थे। प्रजा हितैषी राजा सर्वानंद सिंह की मृत्यु बीमारी के कारण सन् 1805 में हो गई।

अतिरिक्त प्रश्न एवं उत्तर:

1. ‘ताई’ लोगों के उपास्य देवता कौन हैं? 

उत्तर: ‘ताई’ लोगों के उपास्य देवता ‘गाँठियाल’ हैं। उनका धर्म ‘ताओ ‘ है।

2. सर्वानन्द सिंह कौन थे?

उत्तरः सर्वानन्द सिंह मटक राज्य के राजा थे। अपने शासनकाल में उन्होंने प्रजा के लिए अनेक कल्याणकारी कार्य किए थे। प्रजा शांति से रहती थी।

3. ‘मटक’ लोग मुख्यत: कहाँ रहते हैं?

उत्तरः ‘मटक’ लोग पहले लखीमपुर, शिवसागर, तिनसुकिया तथा उसके आस-पास रहा करते थे, परंतु वर्तमान में वे अनेक स्थानों पर फैले हुए हैं।

4. राजकुमार लंकेश्वर गोहाईं कौन थे?

उत्तरः राजकुमार लंकेश्वर गोहाई प्राचीन बॅमरा राज्य के संस्थापक राजा स्वर्गदेव सर्वानन्द सिंह के प्रपौत्र थे।

Leave a Reply

error: Content is protected !!
Scroll to Top
adplus-dvertising